काल-गणना में कल्प, मन्वन्तर, युग आदि के पश्चात् संवत्सर का नाम आता है। युग भेद से सत युग में ब्रह्म-संवत, त्रेता में वामन-संवत, परशुराम-संवत (सहस्त्रार्जुन-वध से) तथा श्री राम-संवत (रावण-विजय से), द्वापर में युधिष्ठिर-संवत और कलि में विक्रम, विजय, नागार्जुन और कल्कि के संवत प्रचलित हुए या होंगे।
ज्योतिर्विदाभरण में कलियुग के 6 व्यक्तियों के नाम आए हैं, जिन्होंने संवत चलाये थे, यथा- युधिष्ठर, विक्रम, शालिवाहन, विजयाभिनन्दन, नागार्जुन, कल्कि क्रम से 3044, 135, 18000, 10000, 400000 एवं 821 वर्षों तक चलते रहे। प्राचीन देशों में संवत का लगातार प्रयोग नहीं था, केवल शासन-वर्ष ही प्रयुक्त होते थे।
संवत के प्रकार
अल्बरूनी ने पाँच संवतों के नाम दिए हैं... यथा - श्रीहर्ष, विक्रमादित्य, शक, वल्लभ एवं गुप्त संवत। प्राचीन काल में भी कलियुग के आरम्भ के विषय में विभिन्न मत रहे हैं। आधुनिक मत है कि कलियुग ई. पू. 3102 में आरम्भ हुआ। इस विषय में चार प्रमुख दृष्टिकोण हैं- युधिष्ठर ने जब राज्य सिंहासनारोहण किया; यह 36 वर्ष उपरान्त आरम्भ हुआ जबकि युधिष्ठर ने अर्जुन के पौत्र परीक्षित को राजा बनाया; पुराणों के अनुसार श्री कृष्ण के देहावसान के उपरान्त यह आरम्भ हुआ। वराहमिहिर के मत से युधिष्ठर-संवत का आरम्भ शक-संवत के 2426 वर्ष पहले हुआ अर्थात दूसरे मत के अनुसार, कलियुग के 653 वर्षों के उपरान्त प्रारम्भ हुआ। ऐहोल शिलालेख ने सम्भवतः दूसरे मत का अनुसरण किया है; क्योंकि उसमें शक-संवत 556 से पूर्व 3735 कलियुग संवत माना गया है। पश्चात्कालीन ज्योतिः जेशास्त्रीय ग्रन्थों के अनुसार कलियुग संवत के 3719 वर्षों के उपरान्त शक संवत का आरम्भ हुआ। कलियुग संवत के विषय में सबसे प्राचीन संकेत आर्यभट द्वारा दिया गया है। उन्होंने कहा है कि जब वे 23 वर्ष के थे, तब कलियुग के 3600 वर्ष व्यतीत हो चुके थे अर्थात वे 476 ई. में उत्पन्न हुए। एक चोल वृत्तान्तालेखन कलियुग संवत 4044 (943 ई.) का है। जहाँ बहुत-से शिलालेखों में उल्लिखित कलियुग संवत का विवेचन किया गया है। मध्यकाल के भारतीय ज्योतिषियों ने माना है कि कलियुग एवं कल्प के प्रारम्भ में सभी ग्रह, सूर्य एवं चन्द्र को मिलाकर चैत्र शुक्ल-प्रतिपदा को रविवार के सूर्योदय के समय एक साथ एकत्र थे। बर्गेस एवं डा. साहा जैसे आधुनिक लेखक इस कथन को केवल कल्पनात्मक मानते हैं। किन्तु प्राचीन सिद्धान्त लेखकों के कथन को केवल कल्पना मान लेना उचित नहीं है। यह सम्भव है कि सिद्धान्त लेखकों के समक्ष कोई अति प्राचीन परम्परा रही हो। प्रत्येक धार्मिक कृत्य के संकल्प में कृत्यकर्ता को काल के बड़े भागों एवं विभागों को श्वेतावाराह कल्प के आरम्भ से कहना पड़ता है, यथा वैवस्वत मन्वन्तर, कलियुग का प्रथम चरण, भारत में कृत्य करने की भौगोलिक स्थिति, सूर्य, बृहस्पति एवं अन्य ग्रहों वाली राशियों के नाम, वर्ष का नाम, मास, पक्ष, तिथि, नक्षत्र, योग एवं करण के नाम
देवल का कथन है कि यदि कृत्यकर्ता कृत्य के अवसर पर मास, पक्ष, तिथि का उल्लेख नहीं करता तो वह कृत्य का फल नहीं प्राप्त करेगा। यह है भारतीयों के धार्मिक जीवन में संवतों, वर्षों एवं इनके भागों एवं विभागों की महत्ता...
अतः प्रत्येक भारतीय (हिन्दू) के लिए पंचांग अनिवार्य है।
शास्त्रों में इस प्रकार भूत एवं वर्तमान काल के संवतों का वर्णन तो है ही, भविष्य में प्रचलित होने वाले संवतों का वर्णन भी है। इन संवतों के अतिरिक्त अनेक राजाओं तथा सम्प्रदायाचार्यों के नाम पर संवत चलाये गये हैं। भारतीय संवतों के अतिरिक्त विश्व में और भी धर्मों के संवत हैं। तुलना के लिये उनमें से प्रधान-प्रधान की तालिका दी जा रही है- वर्ष ईस्वी सन् 2018 को मानक मानते हुए निम्न गणना की गयी है।
भारतीय-संवत
क्र0सं0 - नाम - वर्तमान वर्ष
1. कल्पाब्द - 1,97,29,49,119
2. सृष्टि-संवत - 1,95,58,85,119
3. वामन-संवत - 1,96,08,89,119
4. श्रीराम-संवत - 1,25,69,119
5. श्रीकृष्ण संवत - 5,244
6. युधिष्ठिर संवत - 5,119
7. बौद्ध संवत - 2,593
8. महावीर (जैन) संवत - 2,545
9. श्रीशंकराचार्य संवत - 2,298
10. विक्रम संवत - 2,075
11. शालिवाहन संवत - 1,940
12. कलचुरी संवत - 1,770
13. वलभी संवत - 1,698
14. फ़सली संवत - 1,429
15. बँगला संवत - 1,425
16. हर्षाब्द संवत - 1,411
विदेशीय-संवत
क्र0सं0 - नाम - वर्तमान वर्ष
1. चीनी सन - 9,60,02,316
2. खताई सन् - 8,88,38,389
3. पारसी सन् - 1,89,986
4. मिस्त्री सन् - 27,672
5. तुर्की सन् - 7,625
6. आदम सन् - 7,370
7. ईरानी सन् - 6,023
8. यहूदी सन् - 5,778
9. इब्राहीम सन् - 4,458
10. मूसा सन् - 3,722
11. यूनानी सन् - 3,591
12. रोमन सन् - 2,769
13. ब्रह्मा सन् - 2,4559
14. मलयकेतु सन् - 2,330
15. पार्थियन सन् - 2,265
16. ईस्वी सन् - 2,018
17. जावा सन - 1,944
18. हिजरी सन - 1,388
यह तुलना इस बात को तो स्पष्ट ही कर देती है कि भारतीय संवत अत्यन्त प्राचीन हैं। साथ ही ये गणित की दृष्टि से अत्यन्त सुगम और सर्वथा ठीक हिसाब रखकर निश्चित किये गये हैं। नवीन संवत चलाने की शास्त्रीय विधि यह है कि जिस नरेश को अपना संवत चलाना हो, उसे संवत चलाने के दिन से पूर्व कम-से-कम अपने पूरे राज्य में जितने भी लोग किसी के ऋणी हों, उनका ऋण अपनी ओर से चुका देना चाहिये। कहना नहीं होगा कि भारत के बाहर इस नियम का कहीं पालन नहीं हुआ। भारत में भी महापुरुषों के संवत उनके अनुयायियों ने श्रद्धावश ही चलाये; लेकिन भारत का सर्वमान्य संवत विक्रम संवत है और महाराज विक्रमादित्य ने देश के सम्पूर्ण ऋण को, चाहे वह जिस व्यक्ति का रहा हो, स्वयं देकर इसे चलाया है। इस संवत के महीनों के नाम विदेशी संवतों की भाँति देवता, मनुष्य या संख्यावाचक कृत्रिम नाम नहीं हैं। यही बात तिथि तथा अंश (दिनांक) के सम्बन्ध में भी हैं वे भी सूर्य-चन्द्र की गति पर आश्रित हैं। सारांश यह कि यह संवत अपने अंग-उपांगों के साथ पूर्णत: वैज्ञानिक सत्यपर स्थित है।
उज्जयिनी-सम्राट् महाराज विक्रम के इस वैज्ञानिक संवत के साथ विश्व में प्रचलित ईस्वी सन् पर भी ध्यान देना चाहिये। ईस्वी सन् का मूल रोमन-संवत है। पहले यूनान में ओलिम्पियद संवत था, जिसमें 360 दिन का वर्ष माना जाता था। रोम नगर की प्रतिष्ठा के दिन से वही रोमन संवत कहलाने लगा। ईस्वी सन् की गणना ईसा मसीह के जन्म से तीन वर्ष बाद से की जाती है। रोमन सम्राट जूलियस सीजर ने 360 दिन के बदले 365.25 दिन के वर्ष को प्रचलित किया। छठी शताब्दी में डायोनिसियस ने इस सन् में फिर संशोधन किया; किंतु फिर भी प्रतिवर्ष 27 पल, 55 विपल का अन्तर पड़ता ही रहा। सन् 1739 में यह अन्तर बढ़ते-बढ़ते 11 दिन का हो गया; तब पोप ग्रेगरी ने आज्ञा निकाली कि 'इस वर्ष 2 सितंबर के पश्चात् 3 सितंबर को 14 सितंबर कहा जाय और जो ईस्वी सन् 4 की संख्या से विभाजित हो सके, उसका फ़रवरी मास 29 दिन का हो। वर्ष का प्रारम्भ 25 मार्च के स्थान पर 1 जनवरी से माना जाय।' इस आज्ञा को इटली, डेनमार्क, हॉलैंड ने उसी वर्ष स्वीकार कर लिया। जर्मनी और स्विटज़रलैंड ने सन् 1759 में, इंग्लैंड ने सन् 1809 में, प्रशिया ने सन् 1835 में, आयरलैंड ने सन् 1839 में और रूस ने सन् 1859 में इसे स्वीकार किया। इतना संशोधन होने पर भी इस ईस्वी सन् में सूर्य की गति के अनुसार प्रतिवर्ष एक पल का अन्तर पड़ता है। सामान्य दृष्टि से यह बहुत थोड़ा अन्तर है, पर गणित के लिये यह एक बड़ी भूल है। 3600 वर्षों के बाद यही अन्तर एक दिन का हो जायगा और 36,000 वर्षों के बाद दस दिन का और इस प्रकार यह अन्तर चालू रहा तो किसी दिन जून का महीना वर्तमान अक्टूबर के शीतल समय में पड़ने लगेगा।
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