ज्योतिष में ग्रहों का कक्षाक्रम दो प्रकार से निर्धारित किया गया, एक सूर्य को केंद्र मानकर और दूसरा पृथ्वी को सापेक्ष केंद्र मानकर। पृथ्वी के सापेक्ष सिद्धांत के अंतर्गत सुमेरु पर्वत को पृथ्वी का केंद्र माना गया। पृथ्वी को सापेक्षिक केंद्र मानकर समीपवर्ती ग्रहों के कक्षाक्रम को निर्धारित किया गया था। जिसमें शनि - गुरु - मंगल - सूर्य - शुक्र - बुध - चन्द्र और पृथ्वी यह क्रम था। ऐसा इसलिए क्योंकि पृथ्वी विषयक अध्ययन में रिलेटिव स्टडी करनी होगी, उसे स्थिर मानकर। जैसा फिजिक्स में रिलेटिव वेलोसिटी, आदि होती है। फलित ज्योतिष में इसी आधार पर पृथ्वी पर ग्रहपिण्डो के प्रभाव का अध्ययन होता है। रिलेटिव और रियल, यह दोनों क्रम भारतीय ऋषियों को ज्ञात थे। ठीक से देखें तो रिलेटिव क्रम में भी सूर्य ही ग्रहों के मध्य में आता है। इसी रिलेटिव क्रम से वारों का क्रम बना है। सबसे प्रथम रविवार प्राच्य आचार्यों ने माना, क्योंकि रिलेटिव होने के बावजूद वे सूर्य के केन्द्रत्व से परिचित थे। इसीलिए सूर्य को आत्मा ग्रह कहा, "सूर्य आत्मा जगतस्तथुषश्च"।
वारों का प्रचलन सनातन धर्म में हज़ारों वर्ष पुराना हैं, जब अहर्गण साधन का प्रचलन हो चुका था। यूरोप के इतिहासकार झूठ फैलाते हैं कि बेबीलोनिया से वार ज्ञान का प्रचार हुआ, पर बेबिलोन के उन ग्रँथों का नाम कहीं नहीं बताते। यही धूर्तता ये पग-पग पर करते हैं। मूर्तिपूजक पेगन से ईसाई बनने के बाद कॉन्सटेंटाइन ने 423 ईसवी में घोषणा पत्र द्वारा रविवार को अंतिम दिन बना दिया यह कहकर की ईसाइयों के भगवान ने उस दिन विश्राम किया। यह सिद्ध करता है कि इससे पूर्व रविवार अंतिम दिन नहीं था। हिन्दू सिद्धांत रविवार को प्रथम दिन मानता है और चर्च अंतिम। यह वार की उत्पत्ति तो अपने यहां से बताते हैं पर वारक्रम का आधार नहीं बताते। वह आधार केवल हिन्दू शास्त्र देते हैं, यही वार व वारक्रम की उत्पत्ति भारत से सिद्ध करता है। शास्त्र में वार और दिन पर्यायवाची शब्द हैं। सूर्य को आत्मा ग्रह वेद में कहा है, क्योंकि उसी में स्वशक्ति उत्पादन क्षमता है, इसलिए वह आत्मा है, उसी से सृष्टि का, और उसी की किरण से दिन का आरम्भ होता है। सूर्यसिद्धांत का क्रम है शनि -> गुरु -> मंगल -> सूर्य -> शुक्र -> बुध -> चन्द्र -> (पृथ्वी)
पृथ्वी यहां केंद्र और उससे ऊपर ऊपर एक एक रिलेटिव ग्रह। उसके मध्य से वारक्रम की उत्पत्ति होती है क्योंकि सूर्य आत्मा ग्रह है। यानी प्रथम रविवार होगा, फिर सूर्यसिद्धांत में वर्णित विधि से सूर्य से चौथे चन्द्र से सोमवार, चन्द्र से चौथे मंगल से मंगलवार, मंगल से चौथा बुध, बुध से चौथा गुरु, गुरु से चौथा शुक्र, शुक्र से चौथा शनि। यह वारक्रम बना।
क्या पश्चिम विज्ञान वार के क्रम यानी पहले रविवार फिर सोमवार फिर मंगल फिर बुध गुरु शुक्र शनि इसका आधार बता सकता है? शुक्रवार से पहले शनिवार क्यों नहीं यह बता सकता है? नहीं, यह केवल सूर्यसिद्धांत बताता है। इससे भी गहरे में हर वार में प्रत्येक वार की आवृत्ति चलती है जिसे होरा कहते हैं, और जिस ग्रह की होरा से दिनारम्भ होता है, उसी ग्रह पर उस वार का नाम पड़ता है।
मंदामरेज्य भूपुत्र सूर्य शुक्रेन्दुजेन्दवः।
परिभमन्त्यघोsघस्तात्सिद्धविघाधरा धनाः।
- सूर्यसिद्धांत, अध्याय 12, श्लोक 13
सूर्योदय के प्रथम घण्टे में होरा चक्र में जिस ग्रह की होरा रहती है, उसी ग्रह के नाम पर उस वार का नामकरण हुआ है। प्रथम अपने प्रकाश से समस्त सृष्टि को प्रकाशित करते हुए भगवान भास्कर (सूर्य) का उदय हुआ। सृष्टि की शुरुवात ही सूर्य से हुई, इसीलिए प्रथम सूर्यवार यानी रविवार हुआ। इसके बाद ऊपर ग्रहों का जो पृथ्वी के सापेक्षिक क्रम लिखा था उसी क्रम के अनुसार हर घंटे होरा बदलती है और अगले दिन पहली होरा उसी वार के ग्रह की होती है। इस सूक्ष्म स्तर तक पश्चिमी विज्ञान नहीं जा सकता।
अनेक प्राचीन भारतीय शास्त्र में वारों का वर्णन है। महाभारत से पूर्व के ग्रन्थ अथर्व ज्योतिष में वारों का वर्णन है, उससे भी प्राचीन आर्चज्योतिष में अनेक बार वार वर्णन आया है। अथर्व ज्योतिष, श्लोक 93 स्पष्ट रूप से वारक्रम बता रहा है।
आदित्य: सोमो भौमश्च तथा बुध बृहस्पति:।
भार्गव: शनैश्चरश्चैव एते सप्त दिनाधिपा:।।
दूसरे सूर्यसिद्धांत में सप्ताह व होरा का पूर्ण विवरण आया है। प्रत्येक वार के लिए उचित कर्मों, प्रत्येक वार के दान, आदि सब सुव्यवस्थित रूप से शास्त्र पुराणों में मिलता है। शिवपुराण, विद्येश्वर सहिंता, अध्याय 14 में भगवान शिव द्वारा वारों की उत्पत्ति और उनमें देवताओं की पूजा और फल का वर्णन है। गरुडपुराण में भी वारों का वर्णन प्राप्त होता है।
नृपाभिषेकोऽग्निकार्य्यं सूर्य्यवारे प्रशस्यते ।
सोमे तु लेपयानञ्च कुर्य्याच्चैव गृहादिकम्॥
सैनापत्यं शौर्य्ययुद्धं शस्त्राभ्यासः कुजे तथा।
सिद्धिकार्य्यञ्च मन्त्रश्च यात्रा चैव बुधे स्मृता॥
पठनं देवपूजा च वस्त्राद्याभरणं गुरौ ।
कन्यादानं गजारोहः शुक्रे स्यात् समयः स्त्रियाः ।
स्थाप्यं गृहप्रवेशश्च गजबन्धः शनौ शुभः॥
(गरुड़पुराण, 62 अध्यायः)
अर्थात् रविवार को राज्याभिषेक व अग्निकार्य, सोमवार को लेप आदि, मंगलवार को सेना, शौर्य युद्धकार्य, बुधवार को मंत्रसिद्धि, यात्रा आदि, गुरुवार को पढ़ाई, देवपूजा आदि, शुक्रवार को कन्यादान आदि, शनिवार को गृहप्रवेश आदि शुभ है।
श्री शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने वेदांगकाल 1400 ईपू, मैक्समूलर ने 300 ईपू, वेबर ने 500 ईसवी, कोलब्रुक ने 1108 ईपू और मार्टिन हौ ने 1200 ईपू माना है। पर मैं इनमें से किसी को नहीं मानता क्योंकि यह इनकी सीमित सोच व संकुचित शोध पर आधारित कल्पना मात्र है। ये जब आपस में ही एक दूसरे से सहमत नहीं होते तो हम इन अंग्रेजों से क्यों सहमत होंगे। वेदांगकाल सरस्वती कालीन है। जब सरस्वती नदी ही ईसापूर्व 1950 में सूख चुकी थी तो वेदांगकाल ईपू 1950 से तो निश्चित रूप से प्राचीन ही हुआ। गर्ग सहिंता और पंचसिद्धांतिका के प्रमाण से वेदांगज्योतिष 28000 वर्ष पुराना है। अथर्व ज्योतिष भी महाभारत काल अर्थात ईसापूर्व 3102 वर्ष से प्राचीन है।
जिन पश्चिमीयों का स्वयं का इतिहास भ्रमित है वे दूसरों को भी भ्रमित करते हैं। इसपर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर व अखिल भारतीय विद्वत परिषद के अध्यक्ष श्री केश्वर उपाध्याय जी ने अपनी पुस्तक "ज्योतिष विज्ञान" में सप्रमाण विशद विवेचन किया है, जिसमें से उपर्युक्त जानकारी ली गई है।
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