मोतियाबिंद दो तरह का होता है। एक सफेद मोतिया और दूसरा काला मोतिया। सफेद मोतिया में आंख के भीतर एक झिल्ली-सी बन जाती है, जिसे आसानी से हटा कर पुनः दृष्टि लौटाई जा सकती है। मगर काला मोतिया खतरनाक होता है। चिकित्सा विज्ञानी इसे ग्लूकोमा कहते हैं। इसमें खुद रोगी को एकदम से पता नहीं चलता कि उसकी दृष्टि धीरे-धीरे जा रही है। दरअसल, इसमें आंखों की बाहरी परिधि की तरफ से दिखना कम होता है और कुछ सालों बाद दृष्टि केवल केंद्र तक सिमट कर रह जाती है। यानी सामने तो दिखाई देता है, मगर अगल-बगल का कुछ दिखाई नहीं देता। फिर धीरे-धीरे सामने का दिखना भी बंद हो जाता है। इस रोग में दृष्टि का क्षरण धीरे-धीरे जरूर होता है, पर वह सदा के लिए यानी परमानेंट लॉस होता है। फिर जब पूरी तरह दिखना बंद हो जाता है, तो आदमी बस मन की आंखों से देखने को मजबूर होता है। 'मन की आखों' का आध्यात्मिक अर्थ बिल्कुल नहीं। वह जो पहले देख-समझ कर अपने भीतर अनुभव बटोरे रहता है, उसी को जीने लगता है। वही उसकी 'दिव्य-दृष्टि' बन जाती है। फिर उसे लाख समझाएं कि परिवेश बदल चुका है, अब वह हरियाली नहीं रही, जो तुमने कभी देखी थी, वह उसकी समझ से परे होता है।
कुछ समय से, लगता है, सफेद मोतिया का प्रकोप कुछ अधिक बढ़ा है। बहुत सारे लोगों की दृष्टि का परमानेंट लॉस हो चुका है।
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