मंगलवार, 26 अगस्त 2025

क्या आप अपने गोत्र की असली शक्ति को जानते हैं..?

गोत्र यह कोई परंपरा, अंधविश्वास नहीं हैं..! यह आपका प्राचीन कोड हैं, मानो आपका अतीत इसी पर टिका हो...

1. गोत्र आपका उपनाम नहीं हैं..! यह आपका आध्यात्मिक डीएनए हैं।
पता है सबसे अजीब क्या हैं..?
अधिकतर लोग जानते ही नहीं कि वे किस गोत्र से हैं..!
हमें लगता है कि यह बस एक लाइन हैं, जो पंडितजी पूजा में कहते हैं। लेकिन यह सिर्फ इतना नहीं हैं..!

आपका गोत्र दर्शाता हैं कि आप किस ऋषि की मानसिक ऊर्जा से जुड़े हुए हैं।
खून से नहीं..! बल्कि विचार, ऊर्जा, तरंग और ज्ञान से...

हर हिंदू आध्यात्मिक रूप से एक ऋषि से जुड़ा होता हैं।
वो ऋषि आपके बौद्धिक पूर्वज हैं।
उनकी सोच, ऊर्जा, और चेतना आज भी आपमें बह रही हैं।

2. गोत्र का अर्थ जाति नहीं होता..!
आज लोग इसे गड़बड़ा देते हैं।
गोत्र ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र नहीं दर्शाता..!
यह जातियों से पहले, उपनामों से पहले, राजाओं से भी पहले अस्तित्व में था।

यह सबसे प्राचीन पहचान का तरीका था — ज्ञान पर आधारित, शक्ति पर नहीं..!
हर किसी का गोत्र होता था।
ऋषि अपने शिष्यों को गोत्र देते थे, जब वे उनकी शिक्षाओं को ईमानदारी से अपनाते थे।

इसलिए, गोत्र कोई लेबल नहीं — यह आध्यात्मिक विरासत की मुहर हैं।

3. हर गोत्र एक ऋषि से जुड़ा होता है — एक “सुपरमाइंड” से...
मान लीजिए आप वशिष्ठ गोत्र से हैं — तो आप वशिष्ठ ऋषि से जुड़े हैं, वही जिन्होंने श्रीराम और दशरथ को मार्गदर्शन दिया था।

भृगु गोत्र..?
आप उस ऋषि से जुड़े हैं जिन्होंने वेदों का हिस्सा लिखा और योद्धाओं को प्रशिक्षण दिया।

कुल 49 मुख्य गोत्र हैं — हर एक ऋषियों से जुड़ा जो ज्योतिषी, वैद्य, योद्धा, मंत्रद्रष्टा या प्रकृति वैज्ञानिक थे।

4. क्यों बुज़ुर्ग एक ही गोत्र में विवाह मना करते थे...
यह बात स्कूल में नहीं सिखाई जाती..!

प्राचीन भारत में गोत्र एक जेनेटिक ट्रैकर था।
यह पितृवंश से चलता है — यानी पुत्र ऋषि की लाइन आगे बढ़ाते हैं।

इसलिए अगर एक ही गोत्र के दो लोग विवाह करें, तो वे आनुवंशिक रूप से भाई-बहन जैसे होंगे।
इससे संतान में मानसिक और शारीरिक विकार आ सकते हैं।

गोत्र व्यवस्था = प्राचीन भारतीय डीएनए विज्ञान
और यह हम हजारों साल पहले जानते थे — जब पश्चिमी विज्ञान को जेनेटिक्स का भी अंदाजा नहीं था।

5. गोत्र = आपका मानसिक प्रोग्रामिंग
चलो इसे व्यक्तिगत बनाते हैं...

कुछ लोग गहरे विचारक होते हैं।
कुछ में गहरी आध्यात्मिक भूख होती है।
कुछ को प्रकृति में शांति मिलती है।
कुछ नेता या सत्य के खोजी होते हैं।

क्यों...?
क्योंकि आपके गोत्र के ऋषि का मन आज भी आपके अंदर गूंजता है।

अगर आपका गोत्र किसी योद्धा ऋषि का है — आपको साहस महसूस होगा।
अगर वह किसी वैद्य ऋषि से है — तो आयुर्वेद या चिकित्सा में रुचि हो सकती है।

यह संयोग नहीं — यह गहराई से जुड़ा प्रोग्राम हैं।

6. पहले गोत्र के आधार पर शिक्षा दी जाती थी...
प्राचीन गुरुकुलों में सबको एक जैसा नहीं सिखाया जाता था..!
गुरु का पहला प्रश्न होता था:
“बेटा, तुम्हारा गोत्र क्या है..?”

क्यों..?
क्योंकि इससे गुरु समझ जाते थे कि छात्र कैसे सीखता है, कौन-सी विद्या उसके लिए उपयुक्त हैं।

अत्रि गोत्र वाला छात्र — ध्यान और मंत्रों में प्रशिक्षित होता...

कश्यप गोत्र वाला — आयुर्वेद में गहराई से जाता...

गोत्र सिर्फ पहचान नहीं..! जीवनपथ था।

7. ब्रिटिशों ने इसका मज़ाक उड़ाया, बॉलीवुड ने हंसी बनाई, और हमने इसे भुला दिया...
जब ब्रिटिश भारत आए, उन्होंने इसे अंधविश्वास कहा...

फिर फिल्मों में मज़ाक बना —
“पंडितजी फिर से गोत्र पूछ रहे हैं” — जैसे यह कोई बेमतलब रस्म हो।

धीरे-धीरे हमने अपने बुज़ुर्गों से पूछना छोड़ दिया।
अपने बच्चों को बताना छोड़ दिया।

100 साल में 10,000 साल पुरानी व्यवस्था लुप्त हो रही है।

उसे किसी ने खत्म नहीं किया..! हमने ही उसे मरने दिया।

8. अगर आप अपना गोत्र नहीं जानते — तो आपने एक नक्शा खो दिया हैं।
कल्पना कीजिए कि आप किसी प्राचीन राजघराने से हों — पर अपना उपनाम तक नहीं जानते..!

आपका गोत्र = आपकी आत्मा का GPS है।

सही मंत्र

सही साधना

सही विवाह

सही मार्गदर्शन

इसके बिना हम अपने ही धर्म में अंधे होकर चल रहे हैं।

9. गोत्र की पुकार सिर्फ रस्म नहीं होती..!
जब पंडित जी पूजा में आपका गोत्र बोलते हैं, तो वे सिर्फ औपचारिकता नहीं निभा रहें होते..!

वे आपको आपकी ऋषि ऊर्जा से दोबारा जोड़ रहे होते हैं।

यह एक पवित्र संवाद होता है:
“मैं, भारद्वाज ऋषि की संतान, अपने आत्मिक वंशजों की उपस्थिति में यह संकल्प करता हूँ।”

यह सुंदर हैं। पवित्र हैं। सच्चा हैं।

10. इसे फिर से जीवित करो... इसके लुप्त होने से पहले
अपने माता-पिता से पूछो...
दादी-दादा से पूछो...
शोध करो, पर इसे जाने मत दो..!

आप सिर्फ 1990 या 2000 में जन्मे इंसान नहीं हैं..!

आप एक ऐसी ज्योति के वाहक हैं, जो हजारों साल पहले किसी ऋषि ने जलाई थी।

11. आपका गोत्र = आत्मा का पासवर्ड
आज हम वाई-फाई पासवर्ड, नेटफ्लिक्स लॉगिन याद रखते हैं...

पर अपने गोत्र को भूल जाते हैं।

वो एक शब्द — आपके भीतर की

चेतना

आदतें

पूर्व कर्म

आध्यात्मिक शक्तियां

सब खोल सकता है।

यह लेबल नहीं..! यह चाबी हैं।

12. महिलाएं विवाह के बाद गोत्र “खोती” नहीं हैं..!
लोग सोचते हैं कि विवाह के बाद स्त्री का गोत्र बदल जाता हैं। सनातन धर्म सूक्ष्म हैं।

श्राद्ध आदि में स्त्री का गोत्र पिता से लिया जाता हैं।
क्योंकि गोत्र पुरुष रेखा से चलता है (Y-क्रोमोज़ोम से)
स्त्री ऊर्जा को वहन करती हैं, लेकिन आनुवंशिक रूप से उसे आगे नहीं बढ़ाती..!

इसलिए स्त्री का गोत्र समाप्त नहीं होता..! वह उसमें मौन रूप से जीवित रहता हैं।

13. भगवानों ने भी गोत्र का पालन किया...
रामायण में श्रीराम और सीता के विवाह में भी गोत्र जांचा गया...

राम: इक्ष्वाकु वंश, वशिष्ठ गोत्र

सीता: जनक की पुत्री, कश्यप गोत्र

शनिवार, 23 अगस्त 2025

तुम कैसे पहचानोगे संत को बिना संत हुए..?

एक सम्राट एक फकीर के प्रेम में था। सम्राट अक्सर फकीरों के प्रेम में पड़ जाते हैं क्योंकि फकीर बड़ी दूसरी दुनिया का अजनबी मालूम पड़ता है। अपने ही जैसा नहीं, अपने से बड़ा अजीब लगता है और अजनबी में एक आकर्षण होता है। जो अपने से बहुत भिन्न है, उसमें एक रस होता है। जो अपने से विपरीत है, उसको जानने की जिज्ञासा जगती है। वह किसी और लोक के निवासी जैसे होते है। जैसे कोई खबर कर दे कि कोई चांद का आदमी चांद से उतर कर बाजार में आ गया है, तो सारे लोग भागेंगे अजनबी को देखने, चांद से आए आदमी को देखने... ऐसे ही सम्राट अक्सर फकीरों के प्रेम में पड़ जाते हैं।

यह सम्राट प्रेम में था और प्रेम से ही इसने एक दिन निवेदन किया कि मुझे बड़ा दुख होता है कि तुम वृक्ष के नीचे पड़े हो। मैं यहां मौजूद हूं सेवा के लिए, महल मेरा मौजूद है, खाली पड़ा है। उसके सैकड़ों कक्षों में कोई रहने वाला नहीं है..! मैं अकेला हूं, तुम चलो...

लेकिन कभी उसने यह न सोचा था कि फकीर राजी हो जाएगा। फकीर अपना बोरा-बिस्तर बांध कर खड़ा हो गया, उसने यह भी न कहा कि सोचूंगा। सम्राट एकदम हताश हो गया कि यह आदमी तो अपने ही जैसा निकला। फंस गए, कहां भूल में पड़े रहे... यह तो ठीक भोगी मालूम पड़ता है। इसने एक दफा न भी ना की..! जैसे प्रतीक्षा ही कर रहा था। जैसे सब आयोजन यह फकीरी का इसीलिए था कि कब महल में निमंत्रण मिल जाए..! फंस गए, इसके जाल में उलझ गए। अब अपना शब्द वापस भी कैसे लें..? लाना पड़ा फकीर को, लेकिन बेमन से, खुशी चली गई। ठहराया, लेकिन बेमन से, लेकिन अब अपने शब्द को कैसे वापस लेना..!

छह महीने फकीर राजा के महल में रहा। धीरे-धीरे तो राजा ने आना भी बंद कर दिया कि इसकी क्या सुनना; हमारे ही जैसा आदमी है। ठीक है, रहता है। सब व्यवस्था कर दी और बिलकुल भूल गया। छह महीने बाद एक दिन सुबह फकीर को बगीचे में टहलते देखा तो आया और कहा, महाराज, अब तो मुझमें और आप में कोई फर्क ही नहीं; जैसा मैं वैसे आप, अब क्या फर्क रहा..?

फकीर ने कहा, चलो, थोड़ा गांव के बाहर चलें, वहां फर्क बताऊंगा। राजा साथ हो लिया; गांव के बाहर पहुंच गए। नदी आ गई, जो गांव की सीमा बनाती थी। फकीर ने कहा कि उस तरफ चलें। पार हो गए नदी; राजा ने कहा, अब देर हुई जाती है, सूरज भी खूब चढ़ आया, अब आप बता दें। दूर जाने की क्या जरूरत हैं..? अब यहां कोई भी नहीं है, वृक्ष के नीचे बैठ कर बता दें। उसने कहा कि थोड़ा और... दोपहर तक वह सम्राट को चलाता रहा... आखिर सम्राट खड़ा हो गया। उसने कहा, अब बहुत हो गया। व्यर्थ चलाए जा रहे हैं, जो कहना है कह दें...

फकीर ने कहा, अब मैं वापस नहीं लौटूंगा। तुम मेरे साथ चलते हो..? सम्राट ने कहा, मैं कैसे साथ चल सकता हूं..? राज्य है, महल है, व्यवस्था, काम-धाम, हजार उलझनें हैं। आपका क्या..? तो फकीर ने कहा, अब समझ सको तो समझ लेना... हम जाते हैं, तुम नहीं जा सकते हो..! यहीं भेद है। हम महल में थे, महल हममें न था..! तुम महल में हो और महल भी तुममें है। भेद बारीक है। समझ सको, समझ लेना...

सम्राट रोने लगा, पैर पकड़ लिया... कहा कि मैं पहचान ही न पाया..! और आप छह महीने वहां थे और मैं धीरे-धीरे आपको भूल ही गया। मैं तो समझा कि आप भी भोगी हैं। वापस चलिए...

फकीर ने कहा, मुझे चलने में कोई आपत्ती नहीं, लेकिन फिर वही गलती हो जाएगी। मेरी तरफ से कोई अड़चन नहीं है..! कहा और मैं चला... सम्राट फिर चौंका...
उस फकीर ने कहा कि देखो, तुम भोग को समझ सकते हो, तुम त्याग को समझ सकते हो; तुम संत को नहीं समझ सकते..! मुझे क्या अड़चन है..? इधर गए कि उधर गए, सब बराबर है। सब दिशाएं उसी की हैं। महल में रहे कि झोपड़े में, सब महल, सब झोपड़े उसी के हैं। फटे कपड़े पहने कि शाही कपड़े पहने, जमीन पर सोए कि शय्या पर, बहुमूल्य शय्या पर सोए; सभी उसका... जो दे दे, वही ले लेते हैं। जो दिखा दे, वही देख लेते हैं। अपनी कोई मर्जी नहीं..! बोलो, क्या इरादा है..? कहो तो हम लौट पड़ें, मगर तुम पर फिर बुरी गुजरेगी। इसलिए बेहतर है, तुम हमें जाने दो; कम से कम श्रद्धा तो बनी रहेगी। तुम कम से कम कभी याद तो कर लिया करोगे कि किसी त्यागी से मिलना हुआ था। शायद वह याद तुम्हारे लिए उपयोगी हो जाएं।

तुम्हारे कारण बहुत से संत त्याग में जीए हैं, झोपड़ों में पड़े रहे हैं, वृक्षों के नीचे बैठे रहे हैं, तुम्हारे कारण... क्योंकि तुम समझ ही न पाओगे..! तुम समझ ही व्यर्थ बातें सकते हो। सार्थक की तुम्हें कोई पहचान नहीं है। सार्थक की पहचान हो भी नहीं सकती, जब तक तुम उस सार्थकता को स्वयं उपलब्ध न हो जाओ। तुम कैसे पहचानोगे संत को बिना संत हुए..? वही गुणधर्म तुम्हारी चेतना का भी हो जाए, वही सुगंध तुम्हें भी आ जाए, तभी तुम पहचानोगे। कृष्ण हुए बिना, कृष्ण को पहचानना मुश्किल है। लाओत्से हुए बिना लाओत्से को पहचानना मुश्किल है।
तुम यहां मेरे पास हो; निरंतर मुझे सुनते हो; हर भांति मेरे रंग में रंगे हो; फिर भी तुम मुझे पहचान नहीं सकते..! जब तक तुम ठीक मेरे जैसे ही न हो जाओ। तब तक तुम्हारी सब पहचान बाहर-बाहर की, तब तक तुम्हारी सब पहचान अधूरी..! तब तक तुम्हारी सब पहचान, तुम्हारी ही व्याख्या... उससे मेरा कुछ लेना-देना नहीं है। अगर तुम इतना भी समझ लो तो काफी समझना है। क्योंकि यह समझ तुम्हें और आगे की समझ की तरफ सीढ़ी बन जाएंगी।

शनिवार, 16 अगस्त 2025

शक्ति जिम्मेदारी का भाव लेकर आये तो वो श्री हरि कृष्ण कहलाती हैं...

जब बलराम कान्हा से बोले कि कान्हा दुनिया हमें कायर कहेगी... जब हमारे आगे कोई टिक ही नहीं सकता तो युद्ध से इन्कार क्यों..? 

जब तुम्हारा चक्र चलेगा तो कौन-सी सेना हैं, जो उसका सामना कर पायेगी..? 

तब कान्हा बोले कि दाऊ, हर गर्दन चक्र सुदर्शन चलाने के लिए नहीं होती..!

शक्ति है तो इसका अर्थ यह नहीं कि हर किसी से लड़ते फिरें...

मैं रणछोड़ कहलाना पसंद करूँगा अगर ऐसा कहलाने पर कई लोगों की जान बचती हो... 

इसी तरह जब महर्षि उत्ँग ने जब क्रोधित होकर कृष्ण को श्राप देने का प्रयास किया... तब भी श्री क्रष्ण क्रोधित नहीं हुए, उन्होंने बस इतना कहा कि ऋषिवर मुझे श्राप देकर आपको संतुष्टि मिलती है तो जरूर दे दो पर आपको यह बता दूँ कि उससे आपके ही तपोबल का नाश होगा क्योंकि आपके श्राप का मान तो मैं रख लूँगा पर उससे आपको कोई दीर्घकालिक लाभ नहीं होने वाला..!

क्षमा बड़न को चाहिये छोटन को उत्पात...
का प्रभु हरि को घट्यो, जो भृगु मारी लात...

जब महर्षि भृगु ने सोते हुए हरि की छाती पर लात से प्रहार किया तो श्री हरि बोले कि महर्षि मेरी छाती वज्र की तरह कठोर है तो कहीं आपके पैर में चोट तो नहीं आयी..?

तो श्री हरि कृष्ण जो कि विष्णु रूप हैं, जो कभी जीत का भाव न हार का भाव मन में लाते हैं..!

तो अगर उनका जन्मदिन मना ही रहे हैं तो सीखें
कि दुनिया उन्हें क्या कहेगी, इसका उन्होंने कभी ख्याल नहीं किया..! जिस-जिस ने उनका मजाक उड़ाया, उनका अपमान किया या उनको अपशब्द कहे... उसको उन्होंने उसके ही हाल पर छोड़कर आगे की राह पकड़ ली...

शक्ति जिम्मेदारी का भाव लेकर आये तो वो श्री हरि कृष्ण कहलाती हैं...

चाहते तो कौन-सा योद्धा था, जो महाभारत में उनके सामने टिकता पर उनसे अटकने में कभी समय खर्च नहीं किया..! जब लड़े तो अपने कद के योद्धाओं से लड़े, अन्यथा हँस कर आगे बढ़ गये...

#मनकीबात

शुक्रवार, 8 अगस्त 2025

समयसूचक AM और PM का उद्गगम भारत...

समयसूचक AM और PM का उद्गगम भारत ही था, लेकिन हमें बचपन से यह रटवाया गया, विश्वास दिलवाया गया कि इन दो शब्दों AM और PM का मतलब होता है :
 AM : Ante Meridian PM : Post Meridian
 एंटे यानि पहले, लेकिन किसके? पोस्ट यानि बाद में, लेकिन किसके?
 यह कभी साफ नहीं किया गया, क्योंकि यह चुराये गये शब्द का लघुतम रूप था।काफ़ी अध्ययन करने के पश्चात ज्ञात हुआ और हमारी प्राचीन संस्कृत भाषा ने इस संशय को साफ-साफ दृष्टिगत किया है। कैसे? देखिये...
 AM = आरोहनम् मार्तण्डस्य Aarohanam Martandasya
 PM = पतनम् मार्तण्डस्य Patanam Martandasya
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 सूर्य, जो कि हर आकाशीय गणना का मूल है, उसी को गौण कर दिया। अंग्रेजी के ये शब्द संस्कृत के उस वास्तविक ‘मतलब' को इंगित नहीं करते।
 आरोहणम् मार्तण्डस्य यानि सूर्य का आरोहण (चढ़ाव)।
 पतनम् मार्तण्डस्य यानि सूर्य का ढलाव।
 बारह बजे के पहले सूर्य चढ़ता रहता है - 'आरोहनम मार्तण्डस्य' (AM)।
 बारह के बाद सूर्य का अवसान/ ढलाव होता है - 'पतनम मार्तण्डस्य' (PM)।
 पश्चिम के प्रभाव में रमे हुए और पश्चिमी शिक्षा पाए कुछ लोगों को भ्रम हुआ कि समस्त वैज्ञानिकता पश्चिम जगत की देन है।

 हम अपनी हजारों साल की समृद्ध विरासत, परंपराओं और संस्कृति का पालन करते हुए भी आधुनिक और उन्नत हो सकते हैं।इस से शर्मिंदा न हों बल्कि इस पर गौरव की अनुभूति करें और केवल नकली सुधारवादी बनने के लिए इसे नीचा न दिखाएं।समय निकालें और इसके बारे में पढ़ें / समझें / बात करें / जानने की कोशिश करें।
 अपने “सनातनी" होने पर गौरवान्वित महसूस करें।
#सनातनी #सनातनभारत #सनातन #सनातनहमारीपहचान