सोमवार, 8 मार्च 2021

भामती

एक बहुत अदभुत घटना मैं आपसे कहता हूं।
वाचस्पति मिश्र का विवाह हुआ। पिता ने आग्रह किया, वाचस्पति की कुछ समझ में न आया; इसलिए उन्होंने हां भर दी। सोचा, पिता कहते है, तो ठीक ही कहते होंगे। वाचस्पति परमात्मा की खोज में लगा था। उसे कुछ और समझ में ही न आता था। कोई कुछ भी बोले, वह परमात्मा की ही बात समझता था। पिता ने वाचस्पति को पूछा, विवाह करोगे? उसने कहा, हां।
उसने शायद सुना होगा, परमात्मा से मिलोगे? जैसा कि हम सब के साथ होता है। जो धन की खोज में लगा है, उससे कहो, धर्म खोजोगे? वह सुनता है, धन खोजोगे? उसने कहा, हां। हमारी जो भीतर खोज होती है, वही हम सुन पाते हैं। वाचस्पति ने सुना और हां भर दी।
फिर जब घोड़े पर बैठ कर ले जाया जाने लगा, तब उसने पूछा, कहां ले जा रहे हैं? उसके पिता ने कहा, पागल, तूने हां भरा था। विवाह करने चल रहे हैं। तो फिर उसने न करना उचित न समझा; क्योंकि जब हां भर ही दी थी और बिना जाने भर दी थी, तो परमात्मा की मर्जी होगी।
वह विवाह करके लौट आया। पत्नी घर में आ गई, लेकिन वाचस्पति को खयाल ही न रहा। रहता भी क्या! न उसने विवाह किया था, न हां भरी थी। वह अपने काम में ही लगा रहा। वह ब्रह्मसूत्र पर एक टीका लिखता था। बारह वर्ष में टीका पूरी हुई। बारह वर्ष तक उसकी पत्नी रोज सांझ दीया जला जाती, रोज सुबह उसके पैरों के पास फूल रख जाती, दोपहर उसकी थाली सरका देती। जब वह भोजन कर लेता, तो चुपचाप पीछे से थाली हटा ले जाती। बारह वर्ष तक पत्नी का वाचस्पति को पता नहीं चला कि वह है। पत्नी ने कोई उपाय ही नहीं किया कि पता चल जाए। बल्कि सब उपाय किए कि कहीं भूल-चूक से पता न चल जाए, जिससे उनके काम में बाधा न पड़े।
बारह वर्ष बाद, जिस पूर्णिमा की रात वाचस्पति का काम आधी रात पूरा हुआ, वाचस्पति उठने लगे, तो उनकी पत्नी ने दीया उठाया--उनको बिस्तर तक राह दिखाने के लिए। बारह वर्ष में पहली दफा वाचस्पति ने अपनी पत्नी का हाथ देखा। क्योंकि बारह वर्ष में पहली दफा काम समाप्त हुआ था। किसी काम से अब मन बंधा नहीं था। हाथ देखा, चूड़ियां देखीं, चूड़ियों की आवाज सुनी। लौट कर पीछे देखा और कहा, स्त्री, इस अंधेरी रात में तू कौन है? कहां से आई? मकान के द्वार बंद हैं, तुझे कहां पहुंचना है, मैं पहुंचा दूं!
उसकी पत्नी ने कहा, आप शायद भूल गए होंगे, बहुत काम था। बारह वर्ष आप काम में थे। सम्भव भी नही है, आपको याद रहे। अगर आपको खयाल आता हो, तो आप मुझे पत्नी की तरह घर ले आए थे। तब से मैं यहीं हूं।
वाचस्पति रोने लगा। उसने कहा, यह तो बहुत देर हो गई। क्योंकि मैंने तो प्रतिज्ञा कर रखी है कि जिस दिन यह ग्रंथ पूरा हो जाएगा, उसी दिन घर का त्याग कर दूंगा। यह तो मेरे जाने का वक्त हो गया। भोर होने के करीब है; मैं तो जा रहा हूं। पागल, तूने पहले क्यों न कहा? तू थोड़ा तो इशारा कर सकती थी। लेकिन अब बहुत देर हो गई।
वाचस्पति की आंखों में आंसू देख कर पत्नी ने उसके चरणों में सिर रखा। उसने कहा, जो भी मुझे मिल सकता था, वह इन आंसुओं में मिल गया। अब मुझे कुछ और चाहिए भी नहीं, आप निश्चिंत जाएं। और मैं क्या पा सकती थी इससे ज्यादा कि वाचस्पति की आंख में मेरे लिए आंसू हैं! बस, मुझे बहुत मिल गया है।
वाचस्पति ने अपने ब्रह्मसूत्र की टीका का नाम भामती रखा। भामती का कोई संबंध टीका से नहीं है। यह उसकी पत्नी का नाम है। यह कह कर कि अब मैं कुछ और तेरे लिए नहीं कर सकता, बेशक मुझे लोग भूल जाएं, तुझे न भूलें, इसलिए अपने ग्रन्थ को मैं भामति नाम देता हूं। वाचस्पति को बहुत लोग भूल गए, लेकिन भामती को भूलना मुश्किल है। भामती को लोग पढ़ते हैं। अदभुत टीका है ब्रह्मसूत्र की।
फेमिनिन मिस्ट्री इस स्त्री के पास होगी। मैं भी मानता हूं कि उस क्षण में इसने वाचस्पति को जितना पा लिया होगा, उतना हजार वर्ष भी चेष्टा करके कोई स्त्री किसी पुरुष को नहीं पा सकती। उस एक क्षण में, वाचस्पति जिस भांति एक हो गया होगा इस स्त्री के हृदय से, वैसा कोई पुरुष को कोई स्त्री कभी नहीं पा सकी होगी।
क्या छुआ होगा वाचस्पति के प्राण को? बारह वर्ष उस स्त्री ने पता भी न चलने दिया कि मैं यहीं हूं। वह रोज दीया उठाती रही, भोजन कराती रही। वाचस्पति ने कहा, तो रोज जो थाली खींच लेता था, वह तू ही थी? रोज सुबह जो फूल रख जाता था, वह तू थी? जिसने रोज दीया जलाया, वह तू ही थी? पर तेरा हाथ मुझे दिखाई नहीं पड़ा!
भामती ने कहा, मेरा हाथ दिखाई पड़ जाता, तो मेरे प्रेम में कमी साबित होती। मैं प्रतीक्षा कर सकती हूं।
तो जरूरी नहीं कि कोई स्त्री स्त्रैण रहस्य को उपलब्ध ही हो। यह तो लाओत्से ने नाम दिया, क्योंकि यह नाम सूचक है और समझाया जा सकता है। पुरुष भी हो सकता है। असल में, अस्तित्व के साथ तादात्म्य उन्हीं का होता है, जो इस भांति प्रार्थनापूर्ण प्रतीक्षा को उपलब्ध होते हैं।
"इस स्त्रैण रहस्यमयी का द्वार स्वर्ग और पृथ्वी का मूल स्रोत है।"
चाहे पदार्थ का हो जन्म, चाहे चेतना का, और चाहे पृथ्वी जन्मे, चाहे स्वर्ग, इस अस्तित्व की गहराई में जो रहस्य छिपा हुआ है, उससे ही सबका जन्म होता है। इसलिए मैंने कहा, जिन्होंने परमात्मा को मदर, मां की तरह देखा, दुर्गा या अंबा की तरह देखा, उनकी समझ परमात्मा को पिता की तरह देखने से ज्यादा गहरी है। अगर परमात्मा कहीं भी है, तो वह स्त्रैण होगा। इतने बड़े जगत को जन्म देने की क्षमता पुरुष में नहीं है। इतने विराट चांदत्तारे जिससे पैदा होते हों, उसके पास गर्भ चाहिए। बिना गर्भ के यह संभव नहीं है।
इसलिए खासकर यहूदी परंपराएं, ज्यूविश परंपराएं--यहूदी, ईसाई और इस्लाम, तीनों ही ज्यूविश परंपराओं का फैलाव हैं--उन्होंने जगत को एक बड़ी भ्रांत धारणा दी, गॉड दि फादर। वह धारणा बड़ी खतरनाक है। पुरुष के मन को तृप्त करती है, क्योंकि पुरुष अपने को परमात्मा के रूप में प्रतिष्ठित पाता है। लेकिन जीवन के सत्य से उस बात का संबंध नहीं है। ज्यादा उचित एक जागतिक मां की धारणा है। पर वह तभी खयाल में आ सकेगी, जब स्त्रैण रहस्य को आप समझ लें, लाओत्से को समझ लें। अन्यथा समझ में न आ सकेगी।

ताओ उपनिषाद--प्रवचन--018
#ओशो
Seema Garg की फेसबुक पोस्ट से...

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