और बदलाव हमेशा असुविधाजनक होता हैं। इसलिए मन उस असत्य के साथ बना रहता हैं, जहाँ उसे आराम मिलता हैं... भले ही वो झूठ अस्थाई हो, खोखला हो या भ्रम हो।
इस लगाव में एक अजीब-सी सुरक्षा छिपी रहती हैं — पर ये सुरक्षा नहीं, एक तरह की मानसिक कैद हैं।
जो सत्य को देख सकता हैं, फिर भी असत्य का साथ देता हैं — वो बाहरी दुनिया से नहीं..! अपने ही मन से, स्वयं से पराजित हो चुका होता हैं।
क्योंकि सत्य कभी मजबूर नहीं करता, बस दर्पण की तरह सामने खड़ा रहता हैं।
और असत्य..? वो सुन्दर भ्रम बनकर मन को बहलाता हैं, क्योंकि सच का तेज़ प्रकाश उन सचाइयों को नग्न कर देता हैं, जिन्हें हम छुपाना चाहते हैं।
यही अंतर है — स्वतंत्र सोच और मानसिक गुलामी में...
होश और साहस वही रखते हैं, जो सत्य को देखकर उससे भागते नहीं..! बल्कि उसे स्वीकार करते हैं। क्योंकि सत्य तक पहुँचना आसान नहीं — इसमें सवाल उठते हैं, आत्मचिंतन होता हैं और कभी–कभी अपनी ही धारणाओं को तोड़ना पड़ता हैं, पर जो असत्य के मोह में जी रहा हैं, वह बस भीड़ का हिस्सा होता हैं।
सोच स्वतंत्र तभी होती हैं, जब व्यक्ति झूठ की सुविधा को छोड़कर... सत्य की कठोरता पर शांत शरण चुन लेता हैं — वहीं से असली स्वतंत्रता की शुरुआत होती हैं।
"सच देखने की ताक़त तो बहुतों के पास होती हैं,
पर उसे स्वीकार करने का साहस बहुत कम के पास,
क्योंकि वे इस तथ्य से अवगत ही नहीं कि सत्य परेशान कर सकता हैं, पर असत्य गुलाम बना देता हैं।"
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