मैं विनायकराव दामोदर सावरकर जी के १९२३ में लिखे एक लेख ‘हिंदुत्व' से कुछ मूल बातों का ज़िक्र यहाँ करूँगा| अगर किसी विचार (हिंदुत्व) का तबादला एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हुआ है तो यकीनन ही उसे हमें मूल रूप से समझना चाहिए और उसके बाद ही उसकी स्वीकृति या आलोचना करनी चाहिए|
लेख की शुरुआत में ही सावरकर जी ये बात साफ़ कर देते हैं कि हिन्दू-धर्म एक पेड़ ‘हिंदुत्व’ की शाखा है| उन्होनें इस बात को महत्त्व दिया है की बिना हिंदुत्व को समझे एक ‘हिन्दू’ या ‘हिन्दू-धर्म’ को समझना नामुमकिन है| संस्कृत भाषा में ‘सिंधु’ सिर्फ एक नदी नहीं बल्कि समुद्र भी है – तो सिर्फ इस एक शब्द ‘सिन्धुस्तान’ (हिंदुस्तान) से हम उस देश को परिभाषित कर सकते हैं जिसमें ‘हिन्दू’ जाति के लोग कई हज़ार सालों से बसे हैं| हिन्दू जाति के लोग किसी भी धर्म को मानने वाले या नास्तिक होते हैं|
सावरकर जी के अनुसार हिन्दू होने के लिए किसी भी इंसान को ३ कसौटियों पर खरा उतरना पड़ेगा:
क. उसकी रगों में किसी ‘हिन्दू’ का खून दौड़ रहा हो| हिन्दू एक जाति है जिसकी शुरुआत वेद-युग के भी पूर्व हुई है|
ख. हिन्दुस्तान (जो सिंधु नदी से लेकर समुद्रों तक फैला है) को अपनी पितृभूमि समझता हो जहाँ से उसके पूर्वज हों|
ग. सांस्कृतिक तौर पर हिंदुस्तान का हो| हिन्दुस्तान की सर-ज़मीन को पावन धरती की तरह पूजता हो|
हिंदुत्व के भी ३ अनिवार्य पहलू यही हैं – जाति (क.), राष्ट्र (ख.) और संस्कृति (ग.)|
इस बात में कोई भी शंका नहीं है की हर भारतवासी, जो किसी भी मज़हब का मानने वाला हो, की रगों में हिन्दू का खून दौड़ रहा है और उसके पूर्वज हिन्दू थे| हमने इतिहास में पढ़ा है की हम में से कुछ लोगों ने गैर धर्मों को अपनी मर्ज़ी से अपनाया और कुछ ने ऐसा दबाव में आकर किया| पर इस बात में कोई शक नहीं है की सबकी रगों में एक ही ‘जाति’ का खून बहता है| हम में से जो देश-भक्त हैं वो किसी भी धर्म के हो सकते हैं| उदाहरण-स्वरुप १९६५ की लड़ाई में हवलदार अब्दुल हामिद को हिंदुस्तान के प्रति शहादत के लिए परम-वीर चक्र से नवाज़ा गया था|
हम हिन्दुस्तानियों में जो हिन्दू, जैन, बौद्ध और सिक्ख हैं – उनमें कई सांस्कृतिक समानान्तायें हैं| मिसाल के तौर पर – बैसाखी का त्यौहार मनाने वाले सिर्फ हिन्दू और सिक्ख ही नहीं होते, इसे बौद्ध भी ‘वैशाख’ के नाम से मनाते हैं| हाँलाकि कुछ अपवादों को छोड़कर, जैसे की खोजा मुसलमान, हम हिंदुस्तानियों में जो मुसलमान, पारसी या इसाई हैं – उनमें और बाकियों में कोई सांस्कृतिक सोहबत नहीं है| इस्लाम और इसाई धर्म की पुराण-कथाओं के नायक, उनके वस्त्र और उनकी भाषा हिंदुस्तान के बाकी धर्मों से अलग है| इसमें कोई रहस्य नहीं की इसकी वजह ऐतिहासिक कारण हैं – ये धर्म हिंदुस्तान की ज़मीन से नहीं उपजे हैं बल्कि बाहर से आये हैं| किसी मुसलमान, इसाई या पारसी भारतवासी के लिए पावन-धरती हिंदुस्तान नहीं है बल्कि दूर देशों में है| सावरकर के अनुसार हर मुसलमान भारत और अरब के बीच युद्ध की स्थिति में उस देश के प्रति सहानुभूति दिखायेगा जहाँ पर मक्का-मदीना हो| इन्हीं कारणों से कोई इसाई या मुसलमान ‘हिन्दू’ नहीं कहलाया जा सकता क्योंकि वो उपरोक्त कसौटी पर खरा नहीं उतरता है|
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