शुक्रवार, 6 अगस्त 2021

संजीवनी बूटी

हनुमान पंजा बूटी
संजीवनी एक वनस्पति का नाम है जिसका उपयोग चिकित्सा कार्य के लिये किया जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम सेलाजिनेला ब्राहपटेर्सिस है और इसकी उत्पत्ति लगभग तीस अरब वर्ष पहले कार्बोनिफेरस युग से मानी जाती हैं।
लखनऊ स्थित वनस्पति अनुसंधान संस्थान में संजीवनी बूटी के जीन की पहचान पर कार्य कर रहे पाँच वनस्पति वैज्ञानिको में से एक डॉ॰ पी.एन. खरे के अनुसार संजीवनी का सम्बंध पौधों के टेरीडोफिया समूह से है, जो पृथ्वी पर पैदा होने वाले संवहनी पौधे थे। उन्होंने बताया कि नमी नहीं मिलने पर संजीवनी मुरझाकर पपड़ी जैसी हो जाती है लेकिन इसके बावजूद यह जीवित रहती है और बाद में थोड़ी सी ही नमी मिलने पर यह फिर से खिल जाती है। यह पत्थरों तथा शुष्क सतह पर भी उग सकती है। इसके इसी गुण के कारण वैज्ञानिक इस बात की गहराई से जाँच कर रहे है कि आखिर संजीवनी में ऐसा कौन सा जीन पाया जाता है जो इसे अन्य पौधों से अलग बनाता और इसे विशेष दर्जा प्रदान करता है। हालाँकि वैज्ञानिकों का कहना है कि इसकी असली पहचान भी काफी कठिन है क्योंकि जंगलों में इसके समान ही अनेक ऐसे पौधे और वनस्पतियाँ उगती है, जिनसे आसानी से धोखा खाया जा सकता है। मगर कहा जाता है कि चार इंच के आकार वाली संजीवनी लम्बाई में बढ़ने के अपेक्षा सतह पर फैलती है।

रामायण में इस औषधीय पौधे का उल्लेख मिलता है। भारत में इसकी 6 जातियां पाई जाती हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार संजीवनी बूटी की सेलाजिनेला प्रजाति की ही थी। विंध्याचल पर्वत श्रृंखला अपनी जड़ी बूटियों के खजाने के लिए विश्व विख्यात है। संजीवनी बूटी की सेलाजिनेला प्रजाति मिर्ज़ापुर के पहाड़ों में भी पाई जाती है।
सिलेजिनेला ब्रायोप्टेरिस कई महीनों तक एकदम सूखी या 'मृत' पड़ी रहती है और एक बारिश आते ही 'पुनर्जीवित' हो उठती है। डॉ. एन. के. शाह, डॉ. शर्मिष्ठा बनर्जी ने इस पर कुछ प्रयोग किए हैं और पाया है कि इसमें कुछ ऐसे अणु पाए जाते हैं, जो ऑक्सीकारक क्षति व पराबैंगनी क्षति से चूहों और कीटों की कोशिकाओं की रक्षा करते हैं तथा उनकी मरम्मत में मदद करते हैं।

मिर्ज़ापुर की स्थानीय भाषा में इसे संजीवनी बूटी के अलावा हनुमान पंजा भी कहते हैं।

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