शनिवार, 29 जुलाई 2017

तुलसीदास को अपने मर्यादापुरुषोत्तम का लोकरक्षक रूप इतना प्रिय क्यों था? 

(आज सावन महीने के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि  है। आज रामचरित मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास जी की जयंती हैं)

तुलसीदास राम के अनन्य भक्त थे। प्रभु राम के अनेक रूप हैं किन्तु तुलसीदास जी को राम का "लोक रक्षक" रूप सबसे प्रिय था । एक बार तुलसीदास भगवान कृष्ण जी की अत्यंत सुन्दर प्रतिमा के सामने थे । सारी श्रद्धा के बावजूद उन्होंने उस प्रतिमा के आगे सिर नहीं झुकाया।कृष्ण  के सौन्दर्य का बखान करते हुए तुलसीदास ने कहा कि हे नाथ मोरमुकुट और पीताम्बर आदि में तुम बहुत सुशोभित हो रहे हो लेकिन तुलसीदास का सिर तभी झुकेगा जब तुम्हारे हाथ में धनुषबाण होगा।
कहते हैं तुलसीदास का यह आग्रह सुनते ही भगवान कृष्ण की मूर्ति ने धनुषबाण धारण कर लिया और तब जाकर तुलसीदास जी ने भगवान कृष्ण की मूर्ति के समक्ष सिर झुकाया।

तुलसीदास जी को अपने मर्यादापुरुषोत्तम का लोकरक्षक रूप इतना प्रिय क्यों था?  
क्योंकि मानव समाज को अपनी क्षुद्रताओं से पीछे ढकेलने वालों को लोकरक्षक राम ही सबक सिखा सकते थे।
तुलसीदास कोई जंगल में रहकर एकांत साधना करने वाले तपस्वी नहीं वरन समाज में रहकर सामाजिक विकृतियों के खिलाफ सतत संघर्ष करने वाले कवि थे। कहने की जरूरत नहीं कि जंगल में जाकर तप करना आसान है, बनिस्पत सामाज में रहते हुए  सामाजिक विकृतियों से दो -दो हाथ करनी कठिन... जिस किसी साधु संत या महापुरुष ने यह किया उसे समाज के रूढिवादी तत्वों से गंभीर चुनौती मिली।स्वयं तुलसी का पाला जीवन भर ऐसे तत्वों से पड़ता रहा... तुलसीदास पर संगठित हमले हुए। क्षुद्र आरोप लगाये गये । उन्हें हर तरह से उत्पीडित किया गया। रामचरितमानस सहित तुलसीदास का समूचा लेखन सामाजिक धार्मिक जड़ताओं के विरुद्ध सशक्त प्रतिपाठ था। इसलिए धर्म का धन्धा करने वाले पाखण्डियों को तुलसीदास फूटी आंख नहीं सुहाते थे। वे लगातार तुलसीदास पर आक्रमण करते रहे। तुलसीदास पर यह आक्रमण सबसे ज्यादा काशी में ही हुए।तुलसीदास की जीवनी हमें बताती है कि वे बार- बार काशी आते रहे । काशी की रूढिवादी ताकतें बार -बार उन्हें अपमानित और प्रताडित करती रहीं। इतना अपमान और प्रताडना सहकर बार-बार काशी लौटने के पीछे क्या वजहें रही होंगी... इसे समझना तुलसीदास को समझने में सहायक होगा। काशी हमारी धार्मिक सांस्कृतिक सत्ता की राजधानी है। वहां अगर धर्म को धन्धा बना दिया गया तो पूरे समाज को क्षरित होने से रोका  नहीं जा सकता ,तुलसीदास ने इस तथ्य को गहराई से समझा और यहां की धार्मिक सत्ता से टकराते रहे और उसे मानवीय बनाने के लिए यत्नशील रहे। दिक्कत यह हुई कि हमने समाज सुधार का सारा ठेका कबीरदास को दे दिया और इस हद तक दे दिया कि उनको कवि मानने के लिए भी तैयार नहीं हुए। इसके उलट तुलसीदास ने सुधार की जो कोशिशें कीं उन्हें नजरन्दाज किया गया। हमारा आलोचनात्मक विवेक प्राय:उलाड (असंतुलित) हो जाता है। एक पहलू पर जोर इतना रहता है कि दूसरा पहलू छूट ही जाता है। हमने इस तथ्य पर कभी ध्यान ही नहीं दिया कि तुलसीदास ने हिन्दू धर्म के घर की भीतर  से पर्याप्त सफाई की है।
गीताप्रेस से प्रकाशित रामचरित मानस में तुलसीदास की संक्षिप्त जीवनी दी गयी है जिसमें बताया गया है कि आखिर में वे जब अस्सीघाट पर रहने लगे तब किसी रात कलियुग ने मूर्तरूप धारण करके  तुलसीदास को त्रस्त करना शुरु कर दिया... तुलसीदास को त्रास देने वाला कलिकाल कौन था, यह पता लगाना मुश्किल नहीं है । तुलसीदास ने अपनी रचनाओं में कलिकाल की प्रवृत्तियों का विस्तार से विवरण दिया है। रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में ही नहीं बल्कि कवितावली और विनयपत्रिका में भी कलिकाल के जीवंत रूप से हमारी भेट होती है।यह सही है कि  तुलसीदास ने वर्णव्यवस्था की साफ शब्दों में हिमायत की है। बेशक आज वर्णव्यवस्था के बारे में तुलसीदास के विचारों को नहीं माना जा सकता लेकिन दैनन्दिन जीवन की मानवीय क्षुद्रताओं को जिस बारीकी से तुलसीदास ने प्रत्यक्ष किया है,वह बेजोड है । मानव जीवन व्यवहार की क्षुद्रताएं ही कलिकाल हैं ।
तुलसीदास ने कलिकाल के जो प्रमुख लक्षण बताये हैं वे हैं -कथनी और करनी के बीच भारी भेद यानी पाखण्ड। धर्म को व्यवसाय बनाना।लोगों का सत्पंथ को छोडकर कुपंथ पर चलना ,सद्ग्रंथों का लुप्त होना , दंभ की पराकाष्ठा । श्रुति बेचने वाले विप्रों यानी धर्म का व्यवसाय करने से तुलसीदास को घोर चिढ है।यह चिढ इतनी घनीभूत है कि जहां भी अवसर मिलता है वे इनकी खबर लेते हैं। अयोध्याकांड में राम वनगमन के बाद  जब भरत अयोध्या आते   हैं और कौशल्या के सामने अपनी निर्दोषिता सिद्ध करने के लिए जो तर्क देते हैं , अपने को जिन पापों का भागी बताते हैं वे कलिकाल के बहाने हमारे समकाल का चरित्र लक्षण जान पडते हैं। जो लोग वेदों को बेचते हैं, धर्म को दुह लेते हैं, चुगलखोर हैं, दूसरों के पापों को कह देते हैं, जो कपटी, कुटिल, कलहप्रिय और क्रोधी हैं तथा जो वेदों की निंदा करने वाले और विश्वभर के विरोधी हैं, जो लोभी, लम्पट और लालचियों का आचरण करने वाले हैं, जो पराए धन और पराई स्त्री की ताक में रहते हैं,
हे जननी! यदि इस काम में मेरी सम्मति हो तो मैं उनकी भयानक गति को पाऊँ। जिनका सत्संग में प्रेम नहीं है, जो अभागे परमार्थ के मार्ग से विमुख हैं, जो मनुष्य शरीर पाकर श्री हरि का भजन नहीं करते, जिनको हरि-हर (भगवान विष्णु और शंकरजी) का सुयश नहीं सुहाता,जो ठग हैं और वेष बनाकर जगत को छलते हैं,
हे माता! यदि मैं इस भेद को जानता भी होऊँ तो शंकरजी मुझे उन लोगों की गति दें। तुलसीदास ऐसे लोगों से इस तरह आतंकित हैं कि राम चरित मानस के आरंभ में ही ऐसे खलों की वन्दना करते हैं
तुलसी दास खल और खलुता की सटीक परिभाषा करते हैं- जो बिना किसी हानि लाभ के ही किसी के पीछे पड जाते हैं, दूसरे के हित की हानि ही जिनका लाभ है,जो दूसरे के उजड जाने से प्रसन्न होते हैं और बसने से दुख में पड जाते हैं , दूसरे के हित रूपी घी में जिनका मन मक्खी की तरह पड जाता है और अपनी जान गंवाकर भी दूसरे का अहित करने को तत्पर रहता है, वही सच्चा दुष्ट है। पर्याप्त वंदना के बाद भी तुलसीदास ऐसे दुष्टों से आशंकित रहते हैं।अस्सी पर तुलसीदास को त्रस्त करने वाले मूर्तिमान कलिकाल जरूर ऐसे खल ही रहे होंगे।ऐसे खल तुलसीदास के समय में भी थे और हमारे अपने समय में भी हैं ।तुलसीदास उन्हें विश्वविरोधी कहते हैं । ध्यान से देखें तो तुलसीदास जिसे खलुता कहते हैं वह अन्त:करण के संकुचित होते चले जाने की पराकाष्ठा है। तुलसीदास को अन्त:करण का यह  संकोच नहीं भाता इसीलिए तुलसीदास अपने साहित्य में  अन्तकरण के विस्तार की कोशिश करते हैं। इसके लिए तुलसीदास विवेक को जाग्रत करने की बात करते हैं। 'कवित विवेक एक नहिं मोरे' कहने वाले  तुलसीदास दरअस्ल विवेक के कवि हैं। वे जब कहते हैं -'संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने' तब वे विवेक की ही बात करते हैं।वे विधाता से बार बार विमल विवेक की मांग करते हैं। इस विमल विवेक के आधार पर ही तुलसी के राम धर्म की  स्पष्ट परिभाषा देते हैं -परहित सरिस धरम नहिं भाई,परपीडा सम नहिं अधमाई।
तुलसी जयन्ती पर तुलसीदास की यह पंक्ति साधारण जन से लेकर सत्ताधारियों और  धर्मध्वजियों तक को  आमंत्रित करती है कि आइए और अपने को इस कसौटी पर जांचिए कि आप कितने प्रतिशत धार्मिक हैं और साथ ही कितने प्रतिशत मनुष्य। क्या हम अपने को तुलसीदास की कसौटी पर कसने को तैयार हैं?

क्या है सेतु समुद्रम परियोजना (Bridge Samudraam shipping canal project) 

सेतु समुद्रम परियोजना

2005 में भारत सरकार ने सेतुसमुद्रम परियोजना का ऐलान किया गया। भारत सरकार सेतु समुद्रम परियोजना के तहत तमिलनाडु के रामेश्वर के तटवर्ती क्षेत्र में तमिलनाडु को श्रीलंका से जोड़ने की योजना पर काम कर रही है। इससे व्यापारिक फ़ायदा उठाने की बात कही जा रही है।

इसके तहत रामसेतु के कुछ इलाके को गहरा कर समुद्री जहाजों के लायक़ बनाया जाएगा। इसके लिए सेतु की चट्टानों को तोड़ना जरूरी है। इस परियोजना से रामेश्वरम देश का सबसे बड़ा शिपिंग हार्बर बन जाएगा। तूतिकोरन हार्बर एक नोडल पोर्ट में तब्दील हो जाएगा और तमिलनाडु के कोस्टल इलाकों में कम से कम 13 छोटे एयरपोर्ट बन जाएँगे।

परियोजना के पूरा होने के बाद पश्चिमी समुद्र तट और बंगाल की खाड़ी के बीच सीधा जलपोत परिवहन मार्ग खुल जाएगा। वर्तमान में जलपोत लगभग 650 कि.मी. (359 समुद्री मील) की लंबी दूरी तय करते हुए श्रीलंका का चक्कर लगा कर ही पश्चिमी तट से बंगाल की खाड़ी तक आवाज़ाही कर पाते हैं। नया रास्ता खुल जाने से यह दूरी कोई 400 कि.मी घट जाएगी। फलस्वरूप, समुद्र तटीय प्रदेशों, ख़ासकर तमिलनाडु को व्यापक आर्थिक व औद्योगिक लाभ मिलने की संभावना है।

माना जा रहा है कि सेतु समुद्रम परियोजना पूरी होने के बाद सारे अंतरराष्ट्रीय जहाज़ कोलंबो बंदरगाह का लंबा मार्ग छोड़कर इसी नहर से गुजरेंगें, अनुमान है कि 2000 या इससे अधिक जलपोत प्रतिवर्ष इस नहर का उपयोग करेंगे। मार्ग छोटा होने से सफर का समय और लंबाई तो छोटी होगी ही, संभावना है कि जलपोतों का 22 हज़ार करोड़ का तेल बचेगा। 19वें वर्ष तक परियोजना 5000 करोड़ से अधिक का व्यवसाय करने लगेगी जबकि इसके निर्माण में 2000 करोड़ की राशि खर्च होने का अनुमान है।

परियोजना से नुकसान

रामसेतु मानव निर्मित है या प्राकृतिक, इस विवाद से परे हटकर भू-विशेषज्ञों ने इसे न तोड़ने की हिदायत दी है। उन्होंने आगाह किया है कि एडम ब्रिज को तोड़ना प्राकृतिक तबाही का कारण बन सकता है। सेतु समुद्रम परियोजना विरोधी अंदोलन के तहत एक जुट पर्यावरण वैज्ञानिकों और भू-वेत्ताओं ने कहा है कि मन्नार की खाड़ी और पाक जलसंधि टेक्टोनिक यानी आंतरिक हलचलों के लिहाज़ से काफ़ी कमज़ोर है। भूकंप से जुड़े खतरों को लेकर भी काफ़ी संवेदनशील है। जियोलोजिकल सर्वे आफ इंडिया के पूर्व निदेशक के.गोपालकृष्णन ने कहा है कि केंद्र सरकार और सेतु समुद्रम परियोजना प्राधिकण को अधिकारियों ने समझाने की कोशिश की है कि यह महज एक बालू का टीला है, जो समय के साथ यहां-वहां हो सकता है। लेकिन हकीकत में ऐसा है नहीं। कृष्णन ने कहा कि ऐसे साक्ष्य मौजूद हैं जो साबित करते हैं कि रामसेतु भूगर्भीय, आंतरिक संरचना और सामुद्रिक विभाजक का काम करता है। विभिन्न भूगर्भीय और सामुद्रिक हलचलों को नियंत्रित करता है। उन्होंने कहा कि राम सेतु समुद्र को तोड़े जाने से समुद्र के भीतर भूस्खलन और भूकंप जैसी घटनाएं हो सकती हैं। दुर्लभ जीव-जंतुओं के आवास समाप्त हो जाएंगे। और भारत से लगे समुद्रों में मानसून चक्र भी प्रभावित होगा। नतीजतन बाढ़ और सूखे जैसी आपदाओं का सामना करना पड़ सकता है। हर साल बंगाल की खाड़ी में आने वाले खतरनाक तूफ़ानों से राम सेतु ही बचाता है जिस कारण मन्नार की खाड़ी में असंतुलन की स्थिति नहीं आती है। इसलिए हम लोग भी वैज्ञानिकों के अनुसंधान से यह निष्कर्ष पा रहे हैं कि रामसेतु के कारण सुनामी को भी कमज़ोर होना पड़ा है। नहीं तो अब तक के अनुभवों के मुकाबले सुनामी के कारण भयंकर क्षति हो जाती। रामसेतु को तोड़े जाने से ऐसी संभावना व्यक्त की जा रही है कि अगली सुनामी से केरल में तबाही का जो मंजर होगा उससे बचाना मुश्किल हो जाएगा। हज़ारों मछुआरे बेरोज़गार हो जाएँगे।

इस क्षेत्र में मिलने वाले दुर्लभ शंख व शिप जिनसे 150 करोड़ रुपए की वार्षिक आय होती है, से लोगों को वंचित होना पड़ेगा। जल जीवों की कई दुर्लभ प्रजातियाँ नष्ट हो जाएँगी। भारत के पास यूरेनियम के सर्वश्रेष्ठ विकल्प थोरियम का विश्व में सबसे बड़ा भंडार है। यदि रामसेतु को तोड़ दिया जाता है तो भारत को थोरियम के इस अमूल्य भंडार से हाथ धोना पड़ेगा।

सेतु समुद्रम पर विवाद

भगवान राम ने जहाँ धनुष मारा था उस स्थान को 'धनुषकोटि' कहते हैं। राम ने अपनी सेना के साथ लंका पर चढ़ाई करने के लिए उक्त स्थान से समुद्र में एक ब्रिज बनाया था इसका उल्लेख 'वाल्मिकी रामायण' में मिलता है।

केन्द्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय में दाखिल किए गए एक हलफनामें कहा था कि रामसेतु को खुद भगवान राम ने अपने एक जादुई बाण से तोड़ दिया था, इसके सुबूत के तौर पर सरकार ने 'कंबन रामायण' और 'पद्मपुराण' को पेश किया। सरकार ने रामसेतु के वर्तमान हिस्से के बारे में कहा कि यह हिस्सा मानव निर्मित न होकर भौगोलिक रूप से प्रकृति द्वारा निर्मित है। इसमें रामसेतु नाम की कोई चीज़ नहीं है।

विवाद का कारण

वानर सेना द्वारा रामसेतु का निर्माण

इससे पूर्व जब भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण (एएसआई) ने सितंबर 2007 में उच्चतम न्यायालय में दाखिल अपने हलफनामें में रामायण में उल्‍लेखित पौराणिक चरित्रों के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लगा दिए थे, जिसे हिन्दू भावनाओं को ठेस पहुँचाना माना गया।

एएसआई के हलफनामें में उसके निदेशक (स्मारक) सी. दोरजी ने कहा था कि राहत की माँग कर रहे याचिकाकर्ता मूल रूप से वाल्मीकि रामायण, तुलसीदास की रचित राम चरित्र मानस और पौराणिक ग्रंथों पर विश्वास कर रहे हैं, जो प्राचीन भारतीय साहित्य का महत्त्वपूर्ण अंग है, लेकिन इन्हें ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं कहा जा सकता और उनमें वर्णित चरित्रों तथा घटनाओं को भी प्रामाणिक सिद्ध नहीं किया जा सकता।

इससे पूर्व अहमदाबाद के मैरीन ऐंड वाटर रिसोर्सेज ग्रुप स्पेस एप्लिकेशन सेंटर ने कहा कि माना जाता है कि एडम्स ब्रिज या रामसेतु भगवान राम ने समुद्र पारकर श्रीलंका जाने के लिए बनाया था, जो मानव निर्मित नहीं है। सरकार और एएसआई ने भी इस मामले में इसी अध्ययन से मिलते जुलते विचार प्रकट किए हैं।

गौरतलब है कि रामसेतु की रक्षार्थ याचिकाकर्ता ने अदालत से रामसेतु को संरक्षित एवं प्राचीन स्मारक घोषित करने का अनुरोध किया था। यह निर्देश देने का भी अनुरोध किया गया था कि रामेश्वरम को श्रीलंका से जोड़ने वाले सेतु समुद्रम के निर्माण के समय रामसेतु को नष्ट न किया जाए। इस याचिका पर 14 सितम्बर 20007 को उच्चतम न्यायालय में सुनवाई हुई।

नया हलफनाम

विवाद के चलते भारत सरकार ने हलमनामें को वापस लेते हुए 29 फ़रवरी 2008 को उच्चतम न्यायालय में नया हलफनामा पेश कर कहा कि रामसेतु के मानव निर्मित अथवा प्राकृतिक बनावट सुनिश्चित करने के लिए कोई वैज्ञानिक विधि मौजूद नहीं है।

इस विवाद के चलते उधर तमिलनाडु की करुणानिधि सरकार ने रामसेतु को तोड़कर सेतु समुद्रम परियोजना को जल्द से जल्द पूरा करने के लिए कमर कस ली। हालाँकि उच्चतम न्यायालय ने अधिकारियों को निर्देश दिया है कि खनन गतिविधियों के दौरान रामसेतु को किसी प्रकार का नुकसान नहीं हो, लेकिन इस आदेश का पालन किस हद तक किया जा रहा है यह राज्य सरकार ही बता सकती है।

सरकारी दावे का खंडन

रामकथा के लेखक नरेंद्र कोहली के अनुसार, सरकार यह झूठ प्रचारित कर रही है कि राम ने लौटते हुए सेतु को तोड़ दिया था। जबकि रामायण के मुताबिक राम लंका से वायुमार्ग से लौटे थे, तो सोचे वह पुल कैसे तुड़वा सकते थे। रामायण में सेतु निर्माण का जितना जीवंत और विस्तृत वर्णन मिलता है, वह कल्पना नहीं हो सकता। यह सेतु कालांतर में समुद्री तूफ़ानों आदि की चोटें खाकर टूट गया, मगर इसके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता।

लालबहादुर शास्त्री विद्यापीठ के लेक्चरर डॉ. राम सलाई द्विवेदी का कहना है कि वाल्मीकि रामायण के अलावा कालिदास ने 'रघुवंश' के तेरहवें सर्ग में राम के आकाश मार्ग से लौटने का वर्णन किया है। इस सर्ग में राम द्वारा सीता को रामसेतु के बारे में बताने का वर्णन है। इसलिए यह कहना ग़लत है कि राम ने लंका से लौटते हुए सेतु तोड़ दिया था।

भारतीय नौ सेना की चिंता

सेतुसमुद्रम परियोजना को लेकर चल रही राजनीति के बीच कोस्ट गार्ड के डायरेक्टर जनरल आर.एफ. कॉन्ट्रैक्टर ने कहा था कि यह परियोजना देश की सुरक्षा के लिए एक ख़तरा साबित हो सकती है।

वाइस एडमिरल कॉन्ट्रैक्टर ने कहा था कि इसकी पूरी संभावना है कि इस चैनल का इस्तेमाल आतंकवादी कर सकते हैं। वाइस एडमिरल कॉन्ट्रैक्टर का इशारा श्रीलांकाई तमिल उग्रवादियों तथा अन्य आतंकवादियों की ओर है,जो इसका इस्तेमाल भारत में घुसने के लिए कर सकते हैं।

सेतु समुद्रम परियोजना का वैकल्पिक मार्ग

सेतु समुद्रम परियोजना के वैकल्पिक मार्ग भी उपलब्ध हैं, और जानकारों का कहना है कि रामेश्वरम और धनुकोष्टि के बीच फैले रेत के टीलों को हटाकर नया रास्ता बनाया जा सकता है। सेतु समुद्रम के वैकल्पिक मार्ग के रूप में वैज्ञानिकों ने पांच परियोजनाएं सुझाईं थी जिनमें रामसेतु पर कोई आंच न आती लेकिन सरकार यह छठा सुझाव लेकर रामसेतु तोड़ने की हठधर्मिता कर रही है। एक सवाल यह भी उठता है कि प्रधानमंत्री ने मार्च 2005 में तूती कोसिन बंदरगाह से 16 प्रश्नों का जवाब मांगा था लेकिन फिर ऐसा क्या हो गया कि जवाब देखने के पहले ही 2 जुलाई 2005 को परियोजना के उद्घाटन करने पहुंच गए। वहीं बताया तो यह भी जा रहा है कि इसके लिये पम्बन और धनुकोष्टि के बीच 15 किमी की मुख्य भूमि में खुदाई कर स्वेज और पनामा की तरह जलमार्ग बनाया जा सकता है वह भी बगैर किसी प्रागैतिहासिक धरोहर को नष्ट किये। यहां सवाल किस सरकार ने योजना बनाई और कौन आगे बढ़ा रही है का नहीं है बल्कि ऐतिहासिक धरोहर को बचाने का है। चाहे यह धरोहर प्रकृति निर्मित हो या फिर मानव निर्मित।

शुक्रवार, 28 जुलाई 2017

रक्षाबंधन

बहन से कलाई पर राखी तो बँधवा ली,
500 रू देकर रक्षा का वचन भी दे डाला!

राखी गुजरी, और धागा भी टूट गया,
इसी के साथ बहन का मतलब भी पीछे छूट गया!

फिर वही चौराहों पर महफिल सजने लगी,
लड़की दिखते ही सीटी फिर बजने लगी!

रक्षा बंधन पर आपकी बहन को दिया हुआ वचन,
आज सीटियों की आवाज में तब्दील हो गया !

रक्षाबंधन का ये पावन त्यौहार,
भरे बाजार में आज जलील हो गया !!

पर जवानी के इस आलम में,
एक बात तुझे ना याद रही!

वो भी तो किसी की बहन होगी
जिस पर छीटाकशी तूने करी !!

बहन तेरी भी है, चौराहे पर भी जाती है,
सीटी की आवाज उसके कानों में भी आती है!

क्या वो सीटी तुझसे सहन होगी,
जिसकी मंजिल तेरी अपनी ही बहन होगी?

अगर जवाब तेरा हाँ है, तो सुन,
चौराहे पर तुझे बुलावा है!

फिर कैसी राखी, कैसा प्यार
सब कुछ बस एक छलावा है!!

बन्द करो ये नाटक राखी का,
जब सोच ही तुम्हारी खोटी है!

हर लड़की को इज़्ज़त दो ,
यही रक्षाबंधन की कसौटी है !

क्या है रामसेतु

रामसेतु / नल सेतु / एडम ब्रिज / आदम पुल

क्या है रामसेतु

पृथ्वी पर रामसेतु की स्थिति

रामसेतु (Ramasetu) एक आश्चर्यजनक ऐतिहासिक पक्ष है जो भौतिक रूप में उत्तर में बंगाल की खाड़ी को दक्षिण में शांत और स्वच्छ पानी वाली मन्नार की खाड़ी से (मन्नार की खाड़ी और पाक जलडमरूमध्यको) अलग करता है, जो धार्मिक एवं मानसिक रूप सेदक्षिण भारत को उत्तर भारत से जोड़ता है। भारत के दक्षिणपूर्व में रामेश्वरम और श्रीलंका के पूर्वोत्तर में मन्नार द्वीप के बीच उथली चट्टानों की एक चेन है। इस इलाके में समुद्र बेहद उथला है। समुद्र में इन चट्टानों की गहराई सिर्फ़ 3 फुट से लेकर 30 फुट के बीच है। इसे भारत में रामसेतु व दुनिया में एडम्स ब्रिज के नाम से जाना जाता है। इस पुल की लंबाई लगभग 48 किमी है।

वाल्मीकि के रामायण में एक ऐसे रामसेतु का ज़िक्र है जो काफ़ी प्राचीन है और गहराई में हैं तथा जो 1.5 से 2.5 मीटर तक पतले कोरल और पत्थरों से भरा पड़ा है। इस पुल को राम के निर्देशन पर कोरल चट्टानों और रीफ से बनाया गया था। प्राचीन वस्तुकारों ने इस संरचना की परत का उपयोग बड़े पैमाने पर पत्थरों और गोल आकार के विशाल चट्टानों को कम करने में किया और साथ ही साथ कम से कम घनत्व तथा छोटे पत्थरों और चट्टानों का उपयोग किया, जिससे आसानी से एक लंबा रास्ता तो बना ही, साथ ही समय के साथ यह इतना मज़बूत भी बन गया कि मनुष्यों व समुद्र के दबाव को भी सह सके। शांत परिस्थिति के कारण मन्नार की खाड़ी में काफ़ी कम संख्या में कोरल और समुद्र जीव जंतुओं का विकास होता है, जबकि बंगाल की खाड़ी के क्षेत्र में ये जीव-जंतु पूरी तरह अनुपस्थित हैं।

ऐतिहासिक रामसेतु अथवा मिथक

भारतीय सेटेलाइट और अमेरिका के अन्तरिक्ष अनुसंधान संस्थान 'नासा (NASA)' ने उपग्रह से खीचे गए चित्रों में भारत के दक्षिण में धनुषकोटि तथा श्रीलंका के उत्तर पश्चिम में पम्बन के मध्य समुद्र में 48 किमी चौड़ी पट्टी के रूप में उभरे एक भू-भाग (द्वीपों) की रेखा दिखती है, उसे ही आज रामसेतु या राम का पुल माना जाता है। ईसाई या पश्चिमी लोग इसे एडम ब्रिज (Adam’s Bridge) और मुसलमानों ने आदम पुल कहने लगे हैं। इस चित्रों को अमेरिका के अन्तरिक्ष अनुसंधान संस्थान 'नासा' ने उपग्रह से खींचे गए चित्र जब 1993 में दुनिया भर में और दिल्ली के प्रगति मैदान में "राष्ट्रीय विज्ञान केन्द्र" की प्रदर्शनी में उपलब्ध कराये थे। तो भारत में इसे लेकर राजनीतिक वाद-विवाद का जन्म हो गया था। रामसेतु का यह चित्र नासा ने 14 दिसम्बर 1966 को जेमिनी-11 से अंतरिक्ष से प्राप्त किया था। इसके 22 साल बाद आई.एस.एस 1 ए ने तमिलनाडु तट पर स्थित रामेश्वरम और जाफना द्वीपों के बीच समुद्र के भीतर भूमि-भाग का पता लगाया और उसका चित्र लिया। इससे अमेरिकी उपग्रह के चित्र की पुष्टि हुई। इन चित्रो में समुद्रतल से नीचे एक पट्टी जैसी आकृति दिखायी देती है जो कि एक डूबे हुए पुल का भ्रम पैदा करती है| इस भ्रम से इस विश्वास को बल मिला कि यही मानव-निर्मित वह पुल है जिसे राम ने बनवाया था। हालांकि नासा ने इसका खंडन किया और कहा कि यह प्राकृतिक हैं और दो द्वीपो के बीच समुद्री लहरोों के द्वारा बनी एक भूमि पट्टी हैं। इसे टोम्बोलो (Tombolo) कहते हैं। ऐसे टोम्बोलो संसार में बहुत स्थानों पर मिले हैं।

रामसेतु की उम्र

उपग्रह से खीचे गए चित्रों में रामसेतु

वस्तुत: रामसेतु महातीर्थ है। रामसेतु की प्राचीनता पर शोधकर्ता एकमत नहीं है। रामसेतु की उम्र को लेकर महाकाव्य रामायण के संदर्भ में कई दावे किए जाते रहे हैं। कुछ इसे 3500 साल पुराना पुराना बताते हैं तो कछ इसे आज से 7000 हज़ार वर्ष पुराना बताते हैं। कुछ का मानना है कि यह 17 लाख वर्ष पूराना है। न केवल लोक मान्यताओ, विद्वानों के मतो से बल्कि पुरातत्त्वविदों के शोधों से भी यह सिद्ध हो गया है कि इस सेतु का काल 17,50,000 लाख वर्ष पुराना है जो रामायण काल के समकालीन बैठता है। हिन्दू धर्मग्रन्थों में निर्दिष्ट काल-गणना के अनुसार यह समय त्रेतायुग का है, जिसमें भगवान श्रीराम का अवतार हुआ था। सही मायनों में यह सेतु रामकथा की वास्तविकता का ऐतिहासिक प्रमाण है। समुद्र में जलमग्न हो जाने पर भी रामसेतु का आध्यात्मिक प्रभाव नष्ट नहीं हुआ है।

रामसेतु क़रीब 3500 साल पुराना है - रामासामी कहते हैं कि ज़मीन और बीचों का निर्माण साढ़े तीन हज़ार पहले रामनाथपुरम और पंबन के बीच हुआ था। इसकी वजह थी रामेश्वरम और तलाईमन्नार के दक्षिण में किनारों को काटने वाली लहरें। वह आगे कहते हैं कि हालांकि बीचों की कार्बन डेटिंग मुश्किल से ही रामायण काल से मिलती है, लेकिन रामायण से इसके संबंध की पड़ताल होनी ही चाहिए।

धर्म ग्रंथों और पुराणों में रामसेतु

श्रीराम और वानर सेना द्वारा रामसेतु का निर्माण

भारत का एक लम्बा व गौरवशाली इतिहास रहा है। हिन्दू परम्परा में ऐसा विश्वास है कि रामसेतु वास्तव में एक पुल है जो कि तमिलनाडु के रामेश्वरम द्वीप को श्रीलंका के मन्नार द्वीप से जोड़ता है। हिन्दुओ के प्राचीन धार्मिक ग्रंथ रामायण, महाभारतपुराण आदि में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम द्वारा श्रीलंका पर चढाई के समय रामसेतु निर्माण का स्पष्ट उल्लेख है। वेदिक ग्रंथो में वाल्मीकि रामायण सबसे प्राचीनतम ग्रंथ है। इस रामायण ग्रंथ में वर्णन है कि जब राम को लंका जाने के लिये समुद्र पर पुल बनाने की आवश्यकता हुई तो उन्होंने समुद्रदेवता से अनुमति लेकर अपने वानर सेना की सहायता से यह सौ योजन लम्बा पुल बनाया था तथा इस ग्रंथ में उल्लेख है कि श्रीराम की सेना लंका के विजय अभियान पर चलते समय जब समुद्र तट पर पहुची तब विभीषण के परामर्श पर समुद्र तट पर डाब के आसान पर लेटकर भगवान राम ने समुद्र से मार्ग देने का आग्रह किया था। महाभारत में भी इस घटना का उल्लेख है। रामेश्वरम में आज भी प्रभु श्रीराम चन्द्र की शयन मुद्रा मूर्ति है। समुद्र से रास्ता मांगने के लिए यहीं पर रामचंद्र जी ने तीन दिन तक प्राथना की थी। शास्त्रों में श्रीराम सेतु के आकार के साथ साथ इसकी निर्माण प्रक्रिया का भी उल्लेख है।

वाल्मीकि रामायण कहता है कि सीताहरण के बाद जब श्रीराम ने सीता को लंकापति रावण से छुड़ाने के लिए लंका द्वीप पर चढ़ाई की, तो उस वक़्त उन्होंने सभी देवताओं का आह्‍वान किया और युद्ध में विजय के लिए आशीर्वाद माँगा था। इनमें समुद्र के देवता वरुण भी थे। वरुण से उन्होंने समुद्र पार जाने के लिए रास्ता माँगा था। जब वरुण ने उनकी प्रार्थना नहीं सुनी तो उन्होंने समुद्र को सुखाने के लिए धनुष उठाया। डरे हुए वरुण ने क्षमायाचना करते हुए उन्हें बताया कि श्रीराम की सेना में मौजूद नल-नील नाम के वानर जिस पत्थर पर उनका नाम लिखकर समुद्र में डाल देंगे, वह तैर जाएगा और इस तरह श्रीराम की सेना समुद्र पर पुल बनाकर उसे पार कर सकेगी। इसके बाद श्रीराम की सेना ने लंका के रास्ते में पुल बनाया और लंका पर हमला कर विजय हासिल की।

अंन्य ग्रंथों में कालीदास की रघुवंश में सेतु का वर्णन है। स्कंद पुराणविष्णु पुराणअग्नि पुराण औरब्रह्म पुराण में भी श्रीराम के सेतु का ज़िक्र किया गया है।

रामसेतु का धार्मिक महत्त्व केवल इससे ही जाना जा सकता है कि स्कन्द पुराण के ब्रह्मखण्ड में इस सेतु के माहात्म्य का बडे विस्तार से वर्णन किया गया है। नैमिषारण्य में ऋषियों के द्वारा जीवों की मुक्ति का सुगम उपाय पूछने पर सूत जी बोले -दृष्टमात्रेरामसेतौमुक्ति: संसार-सागरात्। हरे हरौचभक्ति: स्यात्तथापुण्यसमृद्धिता। (रामसेतु के दर्शन मात्र से संसार-सागर से मुक्ति मिल जाती है। भगवान विष्णु और शिव में भक्ति तथा पुण्य की वृद्धि होती है। इसलिए यह सेतु सबके लिए परम पूज्य है।) सेतु-महिमा का गुणगान करते हुए सूतजी शौनक आदि ऋषियों से कहते हैं - सेतु का दर्शन करने पर सब यज्ञों का, समस्त तीर्थो में स्नान का तथा सभी तपस्याओं का पुण्य फल प्राप्त होता है। सेतु-क्षेत्र में स्नान करने से सब प्रकार के पाप नष्ट हो जाते हैं तथा भक्त को मरणोपरांत वैकुण्ठ में प्रवेश मिलता है। सेतु तीर्थ का स्नान अन्त:करण को शुद्ध करके मोक्ष का अधिकारी बना देता है। पापनाशक सेतु तीर्थ में निष्काम भाव से किया हुआ स्नान मोक्ष देता है। जो मनुष्य धन-सम्पत्ति के उद्देश्य से सेतु तीर्थ में स्नान करता है, वह सुख-समृद्धि पाता है। जो विद्वान् चारों वेदों में पारंगत होने, समस्त शास्त्रों का ज्ञान और मंत्रों की सिद्धि के विचार से सर्वार्थ सिद्धि दायक सेतु तीर्थ में स्नान करता है, उसे मनोवांछित सिद्धि अवश्य प्राप्त होती है। जो भी सेतु तीर्थ में स्नान करता है, वह इहलोक और परलोक में कभी दु:ख का भागी नहीं होता। जिस प्रकार कामधेनु, चिन्तामणि तथा कल्पवृक्ष समस्त अभीष्ट वस्तुओं को प्रदान करते हैं, उसी प्रकार सेतु-स्नान सब मनोरथ पूर्ण करता है।

रामसेतु के क्षेत्र में अनेक तीर्थ स्थित हैं अत: स्कन्द पुराण में सेतु यात्रा का क्रम एवं विधान भी वर्णित है। सेतु तीर्थ में पहुंचने पर सेतु की वन्दना करें -रघुवीरपदन्यासपवित्रीकृतपांसवे। दशकण्ठशिरश्छेदहेतवेसेतवेनम:॥ केतवेरामचन्द्रस्यमोक्षमार्गैकहेतवे। सीतायामानसाम्भोजभानवेसेतवेनम:॥ (श्रीरघुवीर के चरण रखने से जिसकी धूलि परम पवित्र हो गई है, जो दशानन रावण के सिर कटने का एकमात्र हेतु है, उस सेतु को नमस्कार है। जो मोक्ष मार्ग का प्रधान हेतु तथा श्री रामचन्द्र जी के सुयश को फहराने वाला ध्वज है, सीता जी के हृदय कमल के खिलने के लिए सूर्यदेव के समान है, उस सेतु को मेरा नमस्कार है।)

श्री रामचरित मानस में स्वयं भगवान श्रीराम का कथन है - 

मम कृत सेतु जो दरसनुकरिही। 

सो बिनुश्रम भवसागर तरिही॥ 

(जो मेरे बनाए सेतु का दर्शन करेगा, वह कोई परिश्रम किए बिना ही संसार रूपी समुद्र से तर जाएगा।)

श्री वाल्मीकि रामायण के युद्धकाण्ड के 22 वें अध्याय में लिखा है कि विश्वकर्मा के पुत्र वानर श्रेष्ठ नल के नेतृत्व में वानरों ने मात्र पांच दिन में सौ योजन लंबा तथा दस योजन चौडा पुल समुद्र के ऊपर बनाकर रामजी की सेना के लंका में प्रवेश का मार्ग प्रशस्त कर दिया था। यह अपने आप में एक विश्व-कीर्तिमान है। आज के इस आधुनिक युग में नवीनतम तकनीक के द्वारा भी इतने कम समय में यह कारनामा कर दिखाना संभव नहीं लगता। यह निर्माण वानर सेना द्वारा यंत्रों के उपयोग से समुद्र तट पर लाई गई शिलाओं, चट्टानों, पेड़ों तथा लकड़ियों के उपयोग से किया गया। महान शिल्पकार नल के निर्देशानुसार महाबलि वानर बड़ी-बड़ी शिलाओं तथा चट्टानों को उखाड़कर यंत्रों द्वारा समुद्र तट पर ले आते थे। साथ ही वो बहुत से बड़े-बड़े वृक्षों को, जिनमें ताड़, नारियल, बकुल, आम, अशोक आदि शामिल थे, समुद्र तट पर पहुंचाते थे। नल ने कई वानरों को बहुत लम्बी रस्सियां दे दोनों तरफ खड़ा कर दिया था। इन रस्सियों के बीचोबीच पत्थर, चट्टानें, वृक्ष तथा लताएं डालकर वानर सेतु बांध रहे थे। इसे बांधने में 5 दिन का समय लगा। यह पुल श्रीराम द्वारा तीन दिन की खोजबीन के बाद चुने हुए समुद्र के उस भाग पर बनवाया गया जहां पानी बहुत कम गहरा था तथा जलमग्न भूमार्ग पहले से ही उपलब्ध था। इसलिए यह विवाद व्यर्थ है कि रामसेतु मानव निर्मित है या नहीं, क्योंकि यह पुल जलमग्न, द्वीपों, पर्वतों तथा बरेतीयों वाले प्राकृतिक मार्गो को जोड़कर उनके ऊपर ही बनवाया गया था।

महर्षि वाल्मीकि रामसेतु की प्रशंसा में कहते हैं -अशोभतमहान् सेतु: सीमन्तइवसागरे। वह महान सेतु सागर में सीमन्त (मांग) के समान शोभित था।सनलेनकृत: सेतु: सागरेमकरालये। शुशुभेसुभग: श्रीमान् स्वातीपथइवाम्बरे॥ मगरों से भरे समुद्र में नल के द्वारा निर्मित वह सुंदर सेतु आकाश में छायापथ के समान सुशोभित था। नासा के द्वारा अंतरिक्ष से खींचे गए चित्र से ये तथ्य अक्षरश: सत्य सिद्ध होते हैं।

स्कन्द पुराण के सेतु - माहात्म्य में धनुष्कोटि तीर्थ का उल्लेख भी है -दक्षिणाम्बुनिधौपुण्येरामसेतौविमुक्तिदे। धनुष्कोटिरितिख्यातंतीर्थमस्तिविमुक्तिदम्॥ ( दक्षिण-समुद्र के तट पर जहां परम पवित्र रामसेतु है, वहीं धनुष्कोटि नाम से विख्यात एक मुक्तिदायक तीर्थ है। ) इसके विषय में यह कथा है - भगवान श्रीराम जब लंका पर विजय प्राप्त करने के उपरान्त भगवती सीता के साथ वापस लौटने लगे तब लंकापति विभीषण ने प्रार्थना की - प्रभो ! आपके द्वारा बनवाया गया यह सेतु बना रहा तो भविष्य में इस मार्ग से भारत के बलाभिमानी राजा मेरी लंका पर आक्रमण करेंगे। लंका-नरेश विभीषण के अनुरोध पर श्रीरामचन्द्रजी ने अपने धनुष की कोटि (नोक) से सेतु को एक स्थान से तोडकर उस भाग को समुद्र में डुबो दिया। इससे उस स्थान का नाम धनुष्कोटि हो गया। इस पतितपावन तीर्थ में जप-तप, स्नान-दान से महापातकों का नाश, मनोकामना की पूर्ति तथा सद्गति मिलती है। धनुष्कोटि का दर्शन करने वाले व्यक्ति के हृदय की अज्ञानमयी ग्रंथि कट जाती है, उसके सब संशय दूर हो जाते हैं और संचित पापों का नाश हो जाता है। यहां पिण्डदान करने से पितरों को कल्पपर्यन्ततृप्ति रहती है। धनुष्कोटि तीर्थ में पृथ्वी के दस कोटि सहस्र (एक खरब) तीर्थो का वास है।

स्कंदपुराण, कूर्मपुराण आदि पुराणों में भगवान शिव का वचन है कि जब तक रामसेतु की आधार भूमि तथा रामसेतु का अस्तित्व किसी भी रूप में विद्यमान रहेगा, तब तक भगवान शंकर सेतुतीर्थ में सदैव उपस्थित रहेंगे। अत: श्रीरामसेतु आज भी दिव्य ऊर्जा का स्रोत है। पुरातात्विक महत्त्व की ऐसी सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षण प्रदान करते हुए हमें उसकी हर कीमत पर रक्षा करनी चाहिए। यह सेतु श्रीराम की लंका - विजय का साक्षी होने के साथ एक महातीर्थ भी है।

रामसेतु या नल सेतु

गीताप्रेस गोरखपुर से छपी पुस्तक श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण-कथा-सुख-सागर में वर्णन है कि राम ने सेतु के नामकरण के अवसर पर उसका नाम ‘नल सेतु’ रखा। इसका कारण था कि लंका तक पहुँचने के लिए निर्मित पुल का निर्माण विश्वकर्मा के पुत्र नल द्वारा बताई गई तकनीक से संपन्न हुआ था। महाभारत में भी राम के नल सेतु का ज़िक्र आया है।

समुद्र पर बनाए गए पुल के बारे में चर्चा तुलसीदासकृत श्रीरामचरितमानस और वाल्मीक रामायण के अलावा दूसरी अन्य राम कथाओं में भी मिलती हैं। आश्चर्यजनक ढंग से राम के सेतु की चर्चा तो आती है लेकिन उस सेतु का नाम रामसेतु था, ऐसा वर्णन नहीं मिलता। गीताप्रेस गोरखपुर से छपी पुस्तक श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण-कथा-सुख-सागर में अलग ही वर्णन आता है। कहा गया है कि राम ने सेतु के नामकरण के अवसर पर उसका नाम ‘नल सेतु’ रखा। इसका कारण था कि लंका तक पहुंचने के लिए निर्मित पुल का निर्माण विश्वकर्मा के पुत्र नल के बुद्धिकौशल से संपन्न हुआ था। वाल्मीक रामायण में वर्णन है कि : - नलर्श्चके महासेतुं मध्ये नदनदीपते:। स तदा क्रियते सेतुर्वानरैर्घोरकर्मभि:।।

रावण की लंका पर विजय पाने में समुद्र पार जाना सबसे कठिन चुनौती थी। कठिनता की यह बात वाल्मीक रामायण और तुलसीकृत रामचरितमानस दोनो में आती है - वाल्मीक रामायण में लिखा है -अब्रवीच्च हनुमांर्श्च सुग्रीवर्श्च विभीषणम। कथं सागरमक्षोभ्यं तराम वरुणालयम्।। सैन्यै: परिवृता: सर्वें वानराणां महौजसाम्।। (हमलोग इस अक्षोभ्य समुद्र को महाबलवान् वानरों की सेना के साथ किस प्रकार पार कर सकेंगे ?) (6/19/28) वहीं तुलसीकृत रामचरितमानस में वर्णन है - सुनु कपीस लंकापति बीरा। केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा।। संकुल मकर उरग झष जाती। अति अगाध दुस्तर सब भांती।।

समुद्र ने प्रार्थना करने पर भी जब रास्ता नहीं दिया तो राम के क्रोधित होने का भी वर्णन मिलता है। वाल्मीक रामायण में तो यहां तक लिखा है कि समुद्र पर प्रहार करने के लिए जब राम ने अपना धनुष उठाया तो भूमि और अंतरिक्ष मानो फटने लगे और पर्वत डगमडा उठे। तस्मिन् विकृष्टे सहसा राघवेण शरासने। रोदसी सम्पफालेव पर्वताक्ष्च चकम्पिरे।। गोस्वामी तुलसीदास रचित श्रीरामचरितमानस के सुंदरकांड में लिखा गया है कि तब समुद्र ने राम को स्वयं ही अपने ऊपर पुल बनाने की युक्ति बतलाई थी - नाथ नील नल कपि द्वौ भाई। लरिकाईं रिघि आसिष पाई।। तिन्ह कें परस किए" गिरि भारे। तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे।। (समुद्र ने कहा -) हे नाथ। नील और नल दो वानर भाई हैं। उन्होंने लड़कपन में ऋषि से आर्शीवाद पाया था। उनके स्पर्श कर लेने से ही भारी-भारी पहाड़ भी आपके प्रताप से समुद्र पर तैर जाएंगे।मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई। करिहउ" बल अनुमान सहाई।। एहि बिधि नाथ पयोधि ब"धाइअ। जेहि यह सुजसु लोक तिहु" गाइअ।। (मैं भी प्रभु की प्रभुता को हृदय में धारण कर अपने बल के अनुसार (जहां तक मुझसे बन पड़ेगा) सहायता करूंगा। हे नाथ! इस प्रकार समुद्र को बंधाइये, जिससे, तीनों लोकों में आपका सुन्दर यश गाया जाए।)

यह पुल इतना मज़बूत था कि रामचरितमानस के लंका कांड के शुरुआत में ही वर्णन आता है कि -बॉधि सेतु अति सुदृढ़ बनावा। वाल्मीक रामायण में वर्णन मिलता है कि पुल लगभग पांच दिनों में बन गया जिसकी लम्बाई सौ योजन थी और चौड़ाई दस योजन थी। दशयोजनविस्तीर्णं शतयोजनमायतम्। ददृशुर्देवगन्धर्वा नलसेतुं सुदुष्करम्।। (6/22/76), सेतु बनाने में हाई टेक्नालाजी प्रयोग हुई थी इसके वाल्मीक रामायण में कई प्रमाण हैं, जैसे - पर्वतांर्श्च समुत्पाट्य यन्त्नै: परिवहन्ति च। (कुछ वानर बड़े-बड़े पर्वतों को यन्त्रों के द्वारा - समुद्रतट पर ले आए)। इसी प्रकार एक अन्य जगह उदाहरण मिलता है -सूत्राण्यन्ये प्रगृहृन्ति हृयतं शतयोजनम्। (6/22/62) (कुछ वानर सौ योजन लम्बा सूत पकड़े हुए थे, अर्थात पुल का निर्माण सूत से - सिधाई में हो रहा था।)

सेतु पर रोचक प्रसंग :

तेलुगू भाषा की रंगनाथरामायण में प्रसंग आता है कि सेतु निर्माण में एक गिलहरी का जोड़ा भी योगदान दे रहा था। यह रेत के दाने लाकर पुल बनाने वाले स्थान पर डाल रहा था।एक अन्य प्रसंग में कहा गया है कि राम-राम लिखने पर पत्थर तैर तो रहे थे लेकिन वह इधर-उधर बह जाते थे। इनको जोड़ने के लिए हनुमान ने एक युक्ति निकाली और एक पत्थर पर ‘रा’ तो दूसरे पर ‘म’ लिखा जाने लगा। इससे पत्थर जुड़ने लगे और सेतु का काम आसान हो गया।तुलसीकृत श्रीरामचरित मानस में वर्णन आता है कि सेतु निर्माण के बाद राम की सेना में वयोवृद्ध जाम्बवंत ने कहा था - ‘श्री रघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान’ अर्थात भगवान श्री राम के प्रताप से सिंधु पर पत्थर भी तैरने लगे।विभिन्न पुस्तको और लेखो में रामसेतु

रामसेतु

ओ. एच. के. स्पाटे (O H K Spate) “भारत और पाकिस्तान (India and Pakistan, London, Pp. 727-728) में लिखते है कि राम सेतु वस्तुतः एक कोरल रीफ (coral reef) है, जो कि सामूहिक रूप से ऊपर उठ कर कोरल रॉक (coral rock) बन गये है। इन्सायक्लोपेडिया ब्रिटेनिका (The Encyclopaedia Britannica, (Volume - 1, 1766, p. 129)) में इस सेतु का वर्णन इस प्रकार है - आदम का पुल जिसे रामसेतु भी कहा जाता है, जो कि उत्तरी पश्चिमी श्रीलंका तथा भारत के दक्षिणी पुर्वी तट से दूर रामेश्वरम के समीप मन्नार के द्वीपों के मध्य ‘उथले स्थानों की श्रुंखला’ है। The Gazettier of India (Indian Union Vol - 1 pg 57) में लिखा है कि उत्तर की खाड़ी में भूमि की दो पतली पट्टियाँ, एक भारत की ओर से, दूसरा सिलोन (Ceylon i.e. Sri lanka) से आकर, एक अर्ध-डूबी पठार पट्टी के द्वारा जुड़ती है, एडम ब्रिज (रामसेतु) बनाती है, जो कि समुद्र तल से मुश्किल से चार मीटर नीचे है। यह हिम युग के बाद (post glacial time) समुद्र तल का उठने का प्रमाण है, जो कि भारत और सिलोन के बीच सम्पर्क के डूबने का कारण है।”

नीदरलैंड में सन् 1747 में बने मालाबार बोबन मानचित्र में रामन कोविल के नाम से रामसेतु को दिखाया गया है। इस मानचित्र का 1788 का संस्करण आज भी तंजावूर के सरस्वती महल पुस्तकालय में उपलब्ध है। जोसेफ मार्क्स नाम के ऑस्ट्रेलियाई शोधकर्ता ने इस मानचित्र में श्रीलंका से जोड़ने वाले रामसेतु को 'रामार ब्रिज' कहा है।

ब्रिटिश विद्वान् सी.डी मैकमिलन ने मैन्युअल आफ द एडमिनिस्ट्रेशन ऑफ मद्रास में सन् 1903 में यह बताया था कि सन् 1430 (15 वीं शताब्दी) तक भारत और श्रीलंका के लोग उक्त पुल से पैदल आते जाते थे। 1480 ईस्वी सन् में यह चक्रवात, तूफ़ानों एवं हिमाच्छादन के कारण टूट गया और समुद्र का जल स्तर बढ़ने के कारण उक्त पुल पानी में डूब गया जो अब भी तीन फीट से तीस फीट नीचे पानी में देखा जा सकता है।

जहां तक मान्यता का प्रश्न है कि प्रभु श्रीराम का सेतु पानी में बहने वाला था तो उसकी पुष्टि इसी से होती है कि यहा कोरल और सैंड स्टोन बहुतायत में पाये जाते हैं जो पानी में तैरते हैं। वहीं डिस्कवरी व नेशनल जियोग्राफिक चैनल के अनुसार यहां 18 से 20 हज़ार वर्ष पूर्व इस क्षेत्र में मानव उपस्थिति के भी साक्ष्य हैं।

कालान्तर में रामसेतु को आदम पुल के नाम से भी जाना जाता है। वस्तुतः आदम पुल नाम का ज़ोर भारत सरकार का है क्योंकि अमेरिकी रणनीतिक दबाव में वह पुल को तोड़ना चाहती है, (राजनीतिज्ञों के अनुसार) आदम पुल के पक्षधरों का कहना है कि श्रीलंका में आदम पुल की तरह आदम चोट भी है। वस्तुतः सन् 1806 में ईस्ट इंडिया कम्पनी के सर्वे पर जनरल रैनल ने रामसेतु के लिये एडम्स ब्रिज या आदम सेतु नाम का इस्तेमाल किया। रही बात भारत सरकार द्वारा इसे सेतु नहीं मानने की तो खुद भारत सरकार का सर्वेक्षण विभाग भारत को आसेतु - हिमालय बखानता है अर्थात वह भी इसे सेतु मानता है और भारत को रामसेतु से हिमालय तक मानता है।

रामसेतु मानव निर्मित या प्राकृतिक निर्मित

वैज्ञानिकों में इस ब्रिज को लेकर विवाद है। कुछ वैज्ञानिक इसे प्राकृतिक ब्रिज मानते हैं तो कुछ इसे मानव निर्मित मानते हैं।

रामसेतु का तैरता पत्थर

मानव निर्मित होने के पक्ष में मत और शोध

भू-विज्ञान विभाग, भारत सरकार, का शोध (मार्च 2007), परन्तु, कुछ मज़बूत तर्को के साथ इसे मानव निर्मित बताता है। शोध का सारांश कुछ इस प्रकार है -

रामसेतु प्राकृतिक तौर पर नहीं बना - कोरल चट्टानों और रीफ से बने इस पुल की स्थापना की पुष्टि आधुनिक सैटेलाइट द्वारा खींचे गये चित्रों की मदद से की गयी है जिसके अनुसार कहा गया है कि यह एक प्राकृतिक नहीं, बल्कि मानवीय रचना है और इस बात की पुष्टि जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया द्वारा पेश की गयी एक रिपोर्ट में की गयी है जिसे सरकार द्वारा जनता से छुपाया गया। जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (भारत सरकार का भू विज्ञान विभाग) के पूर्व निदेशक और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओशन टैक्नोलॉजी के सदस्य डॉ. बद्रीनारायण कहते हैं कि इस तरह की प्राकृतिक बनावट मुश्किल से ही दिखती है। यह तभी हो सकता है, जब इसे किसी ने बनाया हो। कुछ शिलाखंड तो इतने हल्के हैं कि वे पानी पर तैर सकते हैं।

यह एक अच्छी तरह से स्थापित वैज्ञानिक तथ्य है कि 18000 BP के आसपास एक प्रमुख हिमयुग (ice age) अपने उच्चतम पर था। संसार के विभिन्न भागो में अर्धडूबी मूँगा चट्टानों की मदद से इसे देखा गया और इसका विस्तृत अध्ययन किया गया है। उस काल में समुद्रतल वर्तमान तल से 130 मीटर नीचे था। भारत के पूर्वी और पश्चिमी समुद्रतटों पर इसे प्रमाणो के साथ देखा गया, जहाँ जलमग्न मूँगा चट्टाने केवल 1 से 2 मीटर ही गहराई पर है और वे निकट तटीय क्षेत्र के स्पष्ट संकेत हैं।

राम सेतु रिज एक प्रमुख समुद्री विभाजन है। यह एक मेढ़ की तरह है, और बहुत कुछ अल्लाबन्द (Allaband) की तरह है। 19वीं शताब्दी में अरब सागर में एक बड़े भूकम्प के बाद अल्लाबन्द का निर्माण हुआ था। अल्लाबन्द में 90 किमी लम्बा और 0.5 से 4 किमी चौड़ा भूखण्ड समुद्र से उपर निकल आया था, और इसका कारण था - पृथ्वी के गर्भ में प्लेटो का खिसकना, जो कि हर भूकम्प का कारण होता है। लोगों को लगता है कि यह अल्लाह की इच्छा के कारण हुआ है इसलिये इसे अल्लाबन्द के नाम से बुलाया गया।

राम सेतु कुछ इसी प्रकार का है, लेकिन यह बहुत पहले बना है। पिछले हिमयुग (ice age) (18000 years BP) के दौरान सम्पूर्ण भारत से श्रीलंका और आगे दक्षिण और दक्षिण पूर्व के भाग एक ही भूखण्ड थे, क्योकि उस समय समुद्रतल आज के युग से बहुत नीचे था| और जब पहाड़ो और आर्कटिक क्षेत्र से बर्फ़ का पिघलना शुरू हुआ तो समुद्र स्तर उठना शुरू हो गया। जलमग्न मूँगा चट्टानो के निर्माण प्रक्रिया के अध्ययन के दौरान इस तथ्य को बहुत बार देखा गया। आज से लगभग 7300 साल पहले भारत के दक्षिणी भाग में समुद्र तल वर्तमान स्तर से 3.5 मी ऊपर था। यह डॉ. पी. के. बनर्जी ने पाबन (Paban), रामेश्वरम (Rameswaram), और तूतीकोरिन (Tuticorin) इत्यादि स्थानो पर चट्टानो का अध्ययन किया और इस तथ्य को सत्य पाया| इसके बाद समुद्र स्तर नीचे गिरा और आज से 5000 से 4000 साल के बीच वर्तमान से 2 मी उपर था।

रामसेतु के अंतर ज्वारीय क्षेत्रो में एन आई ओ टी (NIOT) के द्वारा किये गये छिद्रो के भूगर्भीय अध्ययन से बहुत ही रोचक जानकारी का पता चलता है। सभी छिद्रो का शीर्ष भाग ताजी समुद्री रेत से भरा हुआ देखा गया। लगभग सभी छिद्र 4.5 से 7.5m की गहराई पर कठोरता मिलती है, जो कि कैल्शियम युक्त (calcareous) पत्थरो और मूँगा चट्टानो की वजह से है। यहाँ पर ध्यान देने वाली बात यह है कि मूँगा चट्टाने (Coral Rocks) तुलनात्मक रूप से कम कठोर होती है और हल्की होती है, और कही ले जाने के लिये सरल होती है। यह चट्टाने ऊपर की ओर बढती है, और स्थायित्व के लिये इनका ऊपरी भाग अपेक्षाकृत कठोर होता है। इन चट्टानो का समूह स्थिर रहने के लिये ऊपर की ओर बढता है और समुद्र स्तर से हमेशा 1 से 2 मीटर की गहराई बना कर रखता है। इस ऊर्ध्वतर बढने को लक्षद्वीप, अन्दमान और मनार की खाडी में देखा गया है। इनका निचला भाग भी कठोर पाया गया है।

परन्तु राम सेतु में मूँगा चट्टाने मुश्किल से 1 से 2.5 मीटर की मिली है, बाकी भाग समुद्री रेत है। ये चट्टाने मूँगे के गोल, छोटे टुकडो जैसे है। ऐसा लगता है कि इन टुकडो को कही और से लाकर यहाँ रखा गया है। चूँकि यह कैल्शियम युक्त रेतीले पत्थर और मूँगा चट्टाने सामान्य चट्टानो से कम कठोर है, सम्भव है कि प्राचीन काल में लोगो ने इसका प्रयोग भारत और श्रीलंका के बीच सम्पर्क मार्ग बनाने के लिये किया हो।

रामसेतु के समय का सिक्का

इन निष्कर्षो के समर्थन में अन्य बहुत से पुरातत्त्व और भौगोलिक प्रमाण भारत के दक्षिणी भाग, रामेश्वर के चारो ओर्, तुतीकोरिन्, और श्रीलंका के पश्चिमी भाग में मिले है। यहाँ पर टेरी (Teri) मिले है, जो कि मध्य पाषाण युग के छोटे पत्थरो से बने औजारो के जैसे है। इससे निष्कर्ष निकलता है कि 8000 BP से 9000 BP और हाल के 4000 BP में यहाँ पर मानव की बस्तियाँ और और उनकी मज़बूत गतिविधियाँ थी। श्रीलंका में तो मानव और जानवरो के हड्डियो और जीवाश्मो के आधार पर ऐसे संकेत मिले है कि वहाँ मानव बस्तियाँ 13000 BP (late Pleistocene) में भी थी।

यह सभी बाते एक ही निष्कर्ष पर पहुँचाती है कि जब भारत और श्रीलंका के बीच समुद्रस्तर जब ठीक सुविधाजनक था, उसी समय राम सेतु के दोनो ओर मानव गतिविधियाँ भी तेज़ थी| यही वह समय था जब यह सेतु बनाया गया| कुछ विद्वान् रामायण का समय भी यही बताते है| सम्भव है कि यही वह पुल हो जिसे राम ने रावण से युद्ध करने के लिये बनाया हो|


जानिए क्यों स्वयं श्रीराम ने तोड़ दिया था रामसेतु?


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वाल्मीकि रामायण के अनुसार लंका पर चढ़ाई करते समय भगवान श्रीराम के कहने पर वानरों और भालुओं ने रामसेतु का निर्माण किया था, ये बात हम सभी जानते हैं। लेकिन जब श्रीराम विभीषण से मिलने दोबारा लंका गए, तब उन्होंने रामसेतु का एक हिस्सा स्वयं ही तोड़ दिया था, ये बात बहुत कम लोग जानते हैं। इससे जुड़ी कथा का वर्णन पद्म पुराण के सृष्टि खंड में मिलता है।

श्रीराम इसलिए गए थे लंका पद्म पुराण के अनुसार, अयोध्या का राजा बनने के बाद एक दिन भगवान श्रीराम को विभीषण का विचार आया। उन्होंने सोचा कि- रावण की मृत्यु के बाद विभीषण किस तरह लंका का शासन कर रहे हैं, उन्हें कोई परेशानी तो नहीं है। जब श्रीराम ये सोच रहे थे, उसी समय वहां भरत भी आ गए।

भरत के पूछने पर श्रीराम उन्हें पूरी बात बताई। ऐसा विचार मन में आने पर श्रीराम लंका जाने की सोचते हैं। भरत भी उनके साथ जाने को तैयार हो जाते हैं। अयोध्या की रक्षा का भार लक्ष्मण को सौंपकर श्रीराम व भरत पुष्पक विमान पर सवार होकर लंका जाते हैं।

जब श्रीराम से मिले सुग्रीव और विभीषण
जब श्रीराम व भरत पुष्पक विमान से लंका जा रहे होते हैं, रास्ते में किष्किंधा नगरी आती है। श्रीराम व भरत थोड़ी देर वहां ठहरते हैं और सुग्रीव से अन्य वानरों से भी मिलते हैं। जब सुग्रीव को पता चलता है कि श्रीराम व भरत विभीषण से मिलने लंका जा रहे हैं, तो वे उनके साथ हो जाते हैं।

रास्ते में श्रीराम भरत को वह पुल दिखाते हैं, जो वानरों व भालुओं ने समुद्र पर बनाया था। जब विभीषण को पता चलता है कि श्रीराम, भरत व सुग्रीव लंका आ रहे हैं तो वे पूरे नगर को सजाने के लिए कहते हैं। विभीषण श्रीराम, भरत व सुग्रीव से मिलकर बहुत प्रसन्न होते हैं।

श्रीराम ने इसलिए तोड़ा था सेतु श्रीराम तीन दिन तक लंका में ठहरते हैं और विभीषण को धर्म-अधर्म का ज्ञान देते हैं और कहते हैं कि तुम हमेशा धर्म पूर्वक इस नगर पर राज्य करना।

जब श्रीराम पुन: अयोध्या जाने के लिए पुष्पक विमान पर बैठते हैं तो विभीषण उनसे कहता है कि- श्रीराम आपने जैसा मुझसे कहा है, ठीक उसी तरह मैं धर्म पूर्वक राज्य करूंगा। लेकिन इस सेतु (पुल) के मार्ग से जब मानव यहां आकर मुझे सताएंगे, उस स्थिति में मुझे क्या करना चाहिए।

विभीषण के ऐसा कहने पर श्रीराम ने अपने बाणों से उस सेतु के दो टुकड़े कर दिए। फिर तीन भाग करके बीच का हिस्सा भी अपने बाणों से तोड़ दिया। इस तरह स्वयं श्रीराम ने ही रामसेतु तोड़ा था।
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सोमवार, 24 जुलाई 2017

छोड़ जाऊँगा शब्दों की धरोहर...

मुसाफिर हूँ दोस्तो,
अपनी राह चला जाऊँगा|

अकेला था सफर में मैं,
अकेला चला जाऊँगा|

छोड़ जाऊँगा शब्दों की
धरोहर अपनों के लिये,

खाली हाथ आया था,
खाली हाथ चला जाऊँगा|

कितने रिश्ते बना लिये
इस ठहराव में मैंने,

मैं उनको बसा कर दिल में,
बस चला जाऊँगा

दोस्तो मुसाफिर का काम है
बस चलते जाना,

आज मैं यहाँ हूँ,
कल कहीं और चला जाऊँगा..

शनिवार, 22 जुलाई 2017

भविष्य पुराण में इस्लाम के बारे में मुहम्मद के जन्म से भी कई हज़ार वर्ष पहले बता दिया गया था।

लिंड्गच्छेदी शिखाहीनः श्मश्रुधारी सदूषकः।

उच्चालापी सर्वभक्षी भविष्यति जनो मम।। 25।।

विना कौलं च पश्वस्तेषां भक्ष्या मतामम।
मुसलेनैव संस्कारः कुशैरिव भविष्यति ।।26।


तस्मान्मुसलवन्त ो हि जातयो धर्मदूषकाः।
इति पैशाचधर्मश्च भविष्यति मया कृतः ।। 27।।


(भविष्य पुराण पर्व 3, खण्ड 3, अध्याय 1, श्लोक
25, 26, 27)

5 हज़ार वर्ष पहले भविष्य पुराण में स्पष्ट लिखा है।
इसका हिंदी अनुवाद: रेगिस्तान की धरती पर एक "पिशाच" जन्म लेगा जिसका नाम महामद (मोहम्मद) होगा, वो एक ऐसे धर्म की नींव रखेगा जिसके कारण मानव जाति त्राहि माम कर
उठेगी। वो असुर कुल सभी मानवों को समाप्त करने की चेष्टा करेगा। उस धर्म के लोग अपने लिंग के अग्रभाग को जन्म लेते ही काटेंगे, उनकी शिखा (चोटी ) नहीं होगी, वो दाढ़ी रखेंगे पर मूँछ नहीं रखेंगे। वो बहुत शोर करेंगे और मानव जाति को नाश करने की चेष्टा करेंगे। राक्षस जाति को बढ़ावा देंगे एवं वे अपने
को मुसलमान कहेंगे।

शुक्रवार, 21 जुलाई 2017

क्या है सूतक और पातक...

सूतक क्या है? 

हिन्दू धर्म में सूतक और पातक दोनों का ही बहुत बड़ा महत्व है। सूतक – पसूतक लग गया, अब मंदिर नहीं जाना, ऐसा कहा-सुना तो बहुत बार... किन्तु अब इसका अर्थ भी समझ लेना जरूरी है। 

सूतक का संबंध ‘जन्म के’ निमित्त से हुई अशुद्धि से है।
 

जन्म के अवसर पर जो नाल काटा जाता है और जन्म होने की प्रक्रिया में अन्य प्रकार की जो हिंसा होती है, उसमें लगने वाले दोष पाप के प्रायश्चित स्वरूप ‘सूतक’ माना जाता है।

जन्म के बाद नवजात की पीढ़ियों को हुई अशुचिता: 3 पीढ़ी तक – 10 दिन तक...  

ध्यान दें...

एक रसोई में भोजन करने वालों की पीढ़ी नहीं गिनी जाती... वहां पूरा 10 दिन का सूतक माना है। 

प्रसूति (नवजात की माँ) की 45 दिन का सूतक रहता है। प्रसूति स्थान 1 माह तक अशुद्ध है। इसीलिए कई लोग जब भी अस्पताल से घर आते हैं तो स्नान करते हैं।

जब भी परिवार में किसी का जन्म होता है तो परिवार पर दस दिन के लिए सूतक लग जाता है। इस दौरान परिवार का कोई भी सदस्य ना तो किसी धार्मिक कार्य में भाग ले सकता है और ना ही मंदिर जा सकता है। उन्हें इन दस दिनों के लिए पूजा-पाठ से दूर रहना होता है। इसके अलावा बच्चे को जन्म देने वाली स्त्री का रसोईघर में जाना या घर का कोई काम करना तब तक वर्जित होता है, जब तक कि घर में हवन ना हो जाएं।

जब बच्चे का जन्म होता है तो उसके शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास भी नहीं हुआ होता। वह बहुत ही जल्द संक्रमण के दायरे में आ सकता है, इसलिए 10-30 दिनों की समयावधि में उसे बाहरी लोगों से दूर रखा जाता था, उसे घर से बाहर नहीं लेकर जाया जाता था। बाद में जरूर सूतक को एक अंधविश्वास मान लिया गया लेकिन इसका मौलिक उद्देश्य स्त्री के शरीर को आराम देना और शिशु के स्वास्थ्य का ख्याल रखने से ही था।


पातक क्या है? 

पातक का अर्थ भी समझ लेना जरूरी है।

 पातक का संबंध ‘मरण के’ निमित्त से हुई अशुद्धि से है।

 मरण के अवसर पर दाह – संस्कार में इत्यादि में जो हिंसा होती है, उसमें लगने वाले दोष पाप के प्रायश्चित स्वरूप ‘पातक’ माना जाता है।

 मरण के बाद हुई अशुचिता: 3 पीढ़ी तक – 12 दिन।

किसी लंबी और घातक बीमारी या फिर एक्सिडेंट की वजह से या फिर वृद्धावस्था के कारण व्यक्ति की मृत्यु होती है। कारण चाहे कुछ भी हो लेकिन इन सभी की वजह से संक्रमण फैलने की संभावनाएं बहुत हद तक बढ़ जाती हैं। इसलिए ऐसा कहा जाता है कि दाह-संस्कार के पश्चात स्नान आवश्यक है ताकि श्मशान घाट और घर के भीतर मौजूद कीटाणुओं से मुक्ति मिल सके।

पालतू पशुओं का सूतक पातक :-
घर के पालतू गाय, भैंस, घोड़ी, बकरी इत्यादि को घर में बच्चा होने पर हमे 1 दिन का सूतक रहता है किन्तु घर से दूर-बाहर जन्म होने पर कोई सूतक नहीं रहता ।
– बच्चा देने वाली गाय, भैंस और बकरी का दूध, क्रमशः 15 दिन, 10 दिन और 8 दिन तक “अभक्ष्य/अशुद्ध” रहता है ।


भगवान रामचन्द्र जी के १४ वर्षों के वनवास यात्रा का विवरण



अब हम श्री राम से जुडे कुछ अहम् सबुत पेश करने जा रहे हैं........
जिसे पढ़ के नास्तिक भी सोच में पड जायेंगे की रामायण सच्ची हैं या काल्पनिक ||

भगवान रामचन्द्र जी के १४ वर्षों के वनवास यात्रा का विवरण >>>>
पुराने उपलब्ध प्रमाणों और राम अवतार जी के शोध और अनुशंधानों के अनुसार कुल १९५ स्थानों पर राम और सीता जी के पुख्ता प्रमाण मिले हैं जिन्हें ५ भागों में वर्णित कर रहा हूँ

१.>>>वनवास का प्रथम चरण गंगा का अंचल >>>
सबसे पहले राम जी अयोध्या से चलकर तमसा नदी (गौराघाट,फैजाबाद,उत्तर प्रदेश) को पार किया जो अयोध्या से २० किमी की दूरी पर है |
आगे बढ़ते हुए राम जी ने गोमती नदी को पर किया और श्रिंगवेरपुर (वर्त्तमान सिंगरोर,जिला इलाहाबाद )पहुंचे ...आगे 2 किलोमीटर पर गंगा जी थीं और यहाँ से सुमंत को राम जी ने वापस कर दिया |
बस यही जगह केवट प्रसंग के लिए प्रसिद्ध है |
इसके बाद यमुना नदी को संगम के निकट पार कर के राम जी चित्रकूट में प्रवेश करते हैं|
वाल्मीकि आश्रम,मंडव्य आश्रम,भारत कूप आज भी इन प्रसंगों की गाथा का गान कर रहे हैं |
भारत मिलाप के बाद राम जी का चित्रकूट से प्रस्थान ,भारत चरण पादुका लेकर अयोध्या जी वापस |
अगला पड़ाव श्री अत्रि मुनि का आश्रम

२.बनवास का द्वितीय चरण दंडक वन(दंडकारन्य)>>>
घने जंगलों और बरसात वाले जीवन को जीते हुए राम जी सीता और लक्षमण सहित सरभंग और सुतीक्षण मुनि के आश्रमों में पहुचते हैं |
नर्मदा और महानदी के अंचल में उन्होंने अपना ज्यादा जीवन बिताया ,पन्ना ,रायपुर,बस्तर और जगदलपुर में
तमाम जंगलों ,झीलों पहाड़ों और नदियों को पारकर राम जी अगस्त्य मुनि के आश्रम नाशिक पहुँचते हैं |
जहाँ उन्हें अगस्त्य मुनि, अग्निशाला में बनाये हुए अपने अशत्र शस्त्र प्रदान करते हैं |

३.वनवास का तृतीय चरण गोदावरी अंचल >>>
अगस्त्य मुनि से मिलन के पश्चात राम जी पंचवटी (पांच वट वृक्षों से घिरा क्षेत्र ) जो आज भी नाशिक में गोदावरी के तट पर है यहाँ अपना निवास स्थान बनाये |यहीं आपने तड़का ,खर और दूषण का वध किया |
यही वो "जनस्थान" है जो वाल्मीकि रामायण में कहा गया है ...आज भी स्थित है नाशिक में
जहाँ मारीच का वध हुआ वह स्थान मृग व्यघेश्वर और बानेश्वर नाम से आज भी मौजूद है नाशिक में |
इसके बाद ही सीता हरण हुआ ....जटायु की मृत्यु सर्वतीर्थ नाम के स्थान पार हुई जो इगतपुरी तालुका नाशिक के ताकीद गाँव में मौजूद है |दूरी ५६ किमी नाशिक से |
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इस स्थान को सर्वतीर्थ इसलिए कहा गया क्यों की यहीं पर मरणसन्न जटायु ने बताया था की सम्राट दशरथ की मृत्यु हो गई है ...और राम जी ने यहाँ जटायु का अंतिम संस्कार कर के पिता और जटायु का श्राद्ध तर्पण किया था |
यद्यपि भारत ने भी अयोध्या में किया था श्राद्ध ,मानस में प्रसंग है "भरत किन्ही दस्गात्र विधाना "
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४.वनवास का चतुर्थ चरण तुंगभद्रा और कावेरी के अंचल में >>>>
सीता की तलाश में राम लक्षमण जटायु मिलन और कबंध बाहुछेद कर के ऋष्यमूक पर्वत की ओर बढे ....|
रास्ते में पंपा सरोवर के पास शबरी से मुलाकात हुई और नवधा भक्ति से शबरी को मुक्ति मिली |जो आज कल बेलगाँव का सुरेवन का इलाका है और आज भी ये बेर के कटीले वृक्षों के लिए ही प्रसिद्ध है |
चन्दन के जंगलों को पार कर राम जी ऋष्यमूक की ओर बढ़ते हुए हनुमान और सुग्रीव से मिले ,सीता के आभूषण प्राप्त हुए और बाली का वध हुआ ....ये स्थान आज भी कर्णाटक के बेल्लारी के हम्पी में स्थित है |

५.बनवास का पंचम चरण समुद्र का अंचल >>>>
कावेरी नदी के किनारे चलते ,चन्दन के वनों को पार करते कोड्डीकराई पहुचे पर पुनः पुल के निर्माण हेतु रामेश्वर आये जिसके हर प्रमाण छेदुकराई में उपलब्ध है |सागर तट के तीन दिनों तक अन्वेषण और शोध के बाद राम जी ने कोड्डीकराई और छेदुकराई को छोड़ सागर पर पुल निर्माण की सबसे उत्तम स्थिति रामेश्वरम की पाई ....और चौथे दिन इंजिनियर नल और नील ने पुल बंधन का कार्य प्रारम्भ किया |
...इति शुभम