शनिवार, 25 जनवरी 2020

15 अगस्त और 26 जनवरी के झंडे फहराने में दोनों का अलग-अलग महत्व और अंतर है। आओ जाने...

पहला अंतर🇮🇳
15 अगस्त स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर झंडे को नीचे से रस्सी द्वारा खींच कर ऊपर ले जाया जाता है, फिर खोल कर फहराया जाता है,  जिसे ध्वजारोहण कहा जाता है क्योंकि यह 15 अगस्त 1947 की ऐतिहासिक घटना  को सम्मान देने हेतु किया जाता है जब प्रधानमंत्री जी ने ऐसा किया था। संविधान में इसे अंग्रेजी में Flag Hoisting (ध्वजारोहण) कहा जाता है।

जबकि 

26 जनवरी गणतंत्र दिवस के अवसर पर झंडा ऊपर ही बंधा रहता है, जिसे खोल कर फहराया जाता है, संविधान में इसे  झंडा फहराना(Flag Unfurling) कहा जाता है।
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*🇮🇳दूसरा अंतर*

15 अगस्त के दिन *प्रधानमंत्री जो कि केंद्र सरकार के प्रमुख होते हैं वो ध्वजारोहण करते हैं,* क्योंकि स्वतंत्रता के दिन भारत का संविधान लागू नहीं हुआ था और राष्ट्रपति जो कि राष्ट्र के संवैधानिक प्रमुख होते है, उन्होंने पदभार ग्रहण नहीं किया था। इस दिन शाम को राष्ट्रपति अपना सन्देश राष्ट्र के नाम देते हैं।

जबकि

26 जनवरी जो कि देश में संविधान लागू होने के उपलक्ष्य में मनाया जाता है, *इस दिन संवैधानिक प्रमुख राष्ट्रपति झंडा फहराते हैं*
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*🇮🇳तीसरा अंतर*

स्वतंत्रता दिवस के दिन लाल किले से ध्वजारोहण किया जाता है।

जबकि

गणतंत्र दिवस के दिन राजपथ पर झंडा फहराया जाता है।

शनिवार, 18 जनवरी 2020

गाय vs cow

वैज्ञानिकों ने अब शिद्ध कर दिया है कि यूरोपीयन सूअर का दूध पिने लायक नहीं हैं। इसके दूध से केवल बीमारियाँ पैदा होती हैं। आज लोग जर्सी या हॉलस्टन नस्ल की cow का दूध पी रहे है, जबकि डेनमार्क और स्विटजरलैंड के वैज्ञानिक यह प्रमाणित कर चुके हैं कि जर्सी और हॉलस्टन cow का दूध स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। यह कैंसर की रोकथाम नहीं करता बल्कि कैंसर की बीमारी पैदा करता हैं। जर्सी या अमेरिकन cow भारतीय गाय का स्थान नहीं ले सकती। 
🐄यह गाय नहीं होती बल्कि गाय जैसा ही एक प्राणी है जिसे लोगों ने गाय का नाम दे दिया है। फ्रांस के जंगलों में 🐷जुरास नाम के पशु के डीएनए के साथ छेड़छाड़ करके ज्यादा दूध प्राप्त करने के उद्देश्य से जर्सी गाय नामक प्राणी की उत्पत्ति की गई। अंग्रेजों ने भारतीय संस्कृति में गाय माता के महत्व को देखकर ईष्र्यावश जर्सी का प्रचार-प्रसार कर डाला और आज तक लोग जर्सी को प्राथमिकता दे रहे है।
  • विदशों में विदेशी गाय उसके मांस (बीफ) के लिए पाली जाती है और दूध उसका गौढ़ उत्पाद है। अतः विदेशों में विदेशी गऊ वंश की उपयोगिता दूध पर से समाप्त या कम होते ही उसका मांस प्राप्त एवं उपयोग कर लिया जाता है। अध्ययन से पता चलता है कि विदेशों में गौ पालन फार्म्स की 90 प्रतिशत से अधिक आमदनी बीफ के द्वारा होती है जबकि देशी गाय को बीफ के लिए पाला जाना भारतवर्ष में असंभव है। अतः यह विचारणीय प्रश्न है कि गौ हत्या बंदी में विदेशी गाय को शामिल न किया जाये केवल देशी गौ हत्या बंदी हो। यह विदेश की स्थिति व देश की स्थिति की विडम्बना है कि देश के सिकुड़ते हुए संसाधनों में विदेशी गाय देशी गाय का हिस्सा ले इससे उलट विदेशी गाय का स्वभाविक प्रयोग जो विदेशों में होता है, बीफ के लिए किया जाये।

सोमवार, 13 जनवरी 2020

मकर संक्रांति के 10 रोचक तथ्य

उन त्योहार, पर्व या उत्सवों को मनाने का महत्व अधिक है जिनकी उत्पत्ति स्थानीय परम्परा, व्यक्ति विशेष या संस्कृति से न होकर जिनका उल्लेख वैदिक धर्मग्रंथ, धर्मसूत्र और आचार संहिता में मिलता है। ऐसे कुछ पर्व हैं और इनके मनाने के अपने नियम भी हैं। इन पर्वों में सूर्य-चंद्र की संक्रांतियों और कुम्भ का अधिक महत्व है। सूर्य संक्रांति में मकर सक्रांति का महत्व ही अधिक माना गया है। माघ माह में कृष्ण पंचमी को मकर सक्रांति देश के लगभग सभी राज्यों में अलग-अलग सांस्कृतिक रूपों में मनाई जाती है। आओ जानते हैं कि मकर संक्रांति के दिन कौन-कौन से खास कार्य होते हैं...
 
 
1. क्यों कहते हैं मकर संक्रांति?
मकर संक्रांति में 'मकर' शब्द मकर राशि को इंगित करता है जबकि 'संक्रांति' का अर्थ संक्रमण अर्थात प्रवेश करना है। मकर संक्रांति के दिन सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है। एक राशि को छोड़कर दूसरे में प्रवेश करने की इस विस्थापन क्रिया को संक्रांति कहते हैं। चूंकि सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है इसलिए इस समय को 'मकर संक्रांति' कहा जाता है। हिन्दू महीने के अनुसार पौष शुक्ल पक्ष में मकर संक्रांति पर्व मनाया जाता है।
 
 
2. इस दिन से सूर्य होता है उत्तरायन 
चन्द्र के आधार पर माह के 2 भाग हैं- कृष्ण और शुक्ल पक्ष। इसी तरह सूर्य के आधार पर वर्ष के 2 भाग हैं- उत्तरायन और दक्षिणायन। इस दिन से सूर्य उत्तरायन हो जाता है। उत्तरायन अर्थात उस समय से धरती का उत्तरी गोलार्द्ध सूर्य की ओर मुड़ जाता है, तो उत्तर ही से सूर्य निकलने लगता है। इसे सोम्यायन भी कहते हैं। 6 माह सूर्य उत्तरायन रहता है और 6 माह दक्षिणायन। अत: यह पर्व 'उत्तरायन' के नाम से भी जाना जाता है। मकर संक्रांति से लेकर कर्क संक्रांति के बीच के 6 मास के समयांतराल को उत्तरायन कहते हैं।

3. इस पर्व का भौगोलिक विवरण
पृथ्वी साढ़े 23 डिग्री अक्ष पर झुकी हुई सूर्य की परिक्रमा करती है तब वर्ष में 4 स्थितियां ऐसी होती हैं, जब सूर्य की सीधी किरणें 21 मार्च और 23 सितंबर को विषुवत रेखा, 21 जून को कर्क रेखा और 22 दिसंबर को मकर रेखा पर पड़ती है। वास्तव में चन्द्रमा के पथ को 27 नक्षत्रों में बांटा गया है जबकि सूर्य के पथ को 12 राशियों में बांटा गया है। भारतीय ज्योतिष में इन 4 स्थितियों को 12 संक्रांतियों में बांटा गया है जिसमें से 4 संक्रांतियां महत्वपूर्ण होती हैं- मेष, तुला, कर्क और मकर संक्रांति।
 
4. फसलें लहलहाने लगती हैं
इस दिन से वसंत ऋतु की भी शुरुआत होती है और यह पर्व संपूर्ण अखंड भारत में फसलों के आगमन की खुशी के रूप में मनाया जाता है। खरीफ की फसलें कट चुकी होती हैं और खेतों में रबी की फसलें लहलहा रही होती हैं। खेत में सरसों के फूल मनमोहक लगते हैं।
 
5. पर्व का सांस्कृतिक महत्व
मकर संक्रांति के इस पर्व को भारत के अलग-अलग राज्यों में वहां के स्थानीय तरीकों से मनाया जाता है। दक्षिण भारत में इस त्योहार को पोंगल के रूप में मनाया जाता है। उत्तर भारत में इसे लोहड़ी, खिचड़ी पर्व, पतंगोत्सव आदि कहा जाता है। मध्यभारत में इसे संक्रांति कहा जाता है। मकर संक्रांति को उत्तरायन, माघी, खिचड़ी आदि नाम से भी जाना जाता है।
 
 
6. तिल-गुड़ के लड्डू और पकवान
सर्दी के मौसम में वातावरण का तापमान बहुत कम होने के कारण शरीर में रोग और बीमारियां जल्दी लगती हैं इसलिए इस दिन गुड़ और तिल से बने मिष्ठान्न या पकवान बनाए, खाए और बांटे जाते हैं। इनमें गर्मी पैदा करने वाले तत्वों के साथ ही शरीर के लिए लाभदायक पोषक पदार्थ भी होते हैं। उत्तर भारत में इस दिन खिचड़ी का भोग लगाया जाता है। गुड़-तिल, रेवड़ी, गजक का प्रसाद बांटा जाता है।
 
 
7. स्नान, दान, पुण्य और पूजा
माना जाता है कि इस दिन सूर्य अपने पुत्र शनिदेव से नाराजगी त्यागकर उनके घर गए थे इसलिए इस दिन पवित्र नदी में स्नान, दान, पूजा आदि करने से पुण्य हजार गुना हो जाता है। इस दिन गंगासागर में मेला भी लगता है। इसी दिन मलमास भी समाप्त होने तथा शुभ माह प्रारंभ होने के कारण लोग दान-पुण्य से अच्छी शुरुआत करते हैं। इस दिन को सुख और समृद्धि का माना जाता है।
 
 
8. पतंग महोत्सव का पर्व
यह पर्व 'पतंग महोत्सव' के नाम से भी जाना जाता है। पतंग उड़ाने के पीछे मुख्य कारण है कुछ घंटे सूर्य के प्रकाश में बिताना। यह समय सर्दी का होता है और इस मौसम में सुबह का सूर्य प्रकाश शरीर के लिए स्वास्थवर्द्धक और त्वचा व हड्डियों के लिए अत्यंत लाभदायक होता है। अत: उत्सव के साथ ही सेहत का भी लाभ मिलता है।
 
9. अच्छे दिन की शुरुआत
भगवान श्रीकृष्ण ने भी उत्तरायन का महत्व बताते हुए गीता में कहा है कि उत्तरायन के 6 मास के शुभ काल में जब सूर्यदेव उत्तरायन होते हैं और पृथ्वी प्रकाशमय रहती है, तो इस प्रकाश में शरीर का परित्याग करने से व्यक्ति का पुनर्जन्म नहीं होता, ऐसे लोग ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। यही कारण था कि भीष्म पितामह ने शरीर तब तक नहीं त्यागा था, जब तक कि सूर्य उत्तरायन नहीं हो गया।
 
 
10. ऐतिहासिक तथ्‍य
हिन्दू धर्मशास्त्रों के अनुसार मकर संक्रांति से देवताओं का दिन आरंभ होता है, जो आषाढ़ मास तक रहता है। महाभारत काल में भीष्म पितामह ने अपनी देह त्यागने के लिए मकर संक्रांति का ही चयन किया था। मकर संक्रांति के दिन ही गंगाजी भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होती हुई सागर में जाकर मिली थीं। महाराज भगीरथ ने अपने पूर्वजों के लिए इस दिन तर्पण किया था इसलिए मकर संक्रांति पर गंगासागर में मेला लगता है

शुक्रवार, 10 जनवरी 2020

हिन्दी : राजभाषा, राष्ट्रभाषा या विश्वभाषा

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा 1917 में भरुच (गुजरात) में सर्वप्रथम राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को मान्यता प्रदान की गई थी। तत्पश्चात 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने एकमत से हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिए जाने का निर्णय लिया तथा 1950 में संविधान के अनुच्छेद 343 (1) के द्वारा हिन्दी को देवनागरी लिपि में राजभाषा का दर्जा दिया गया। 

राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अनुरोध पर 1953 से 14 सितंबर को 'हिन्दी-दिवस के रूप में मनाया जाता है। 

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 से लेकर अनुच्छेद 351 तक राजभाषा संबंधी संवैधानिक प्रावधान किए गए। भारत सरकार के गृह मंत्रालय के अधीन राजभाषा विभाग का गठन किया गया। भारत सरकार के गृह मंत्रालय के अधीन राजभाषा विभाग का गठन किया गया। राष्ट्रपति के आदेश द्वारा 1960 में आयोग की स्थापना के बाद 1963 में राजभाषा अधिनियम पारित हुआ, तत्पश्चात 1968 में राजभाषा संबंधी प्रस्ताव पारित किया गया।

राजभाषा अधिनियम की धारा 4 के तहत राजभाषा संसदीय समिति 1976 में गठित की गई। राजभाषा नियम 1976 में लागू किए गए तथा राजभाषा संसदीय सम‍िति की अनुशंसा पर राष्ट्रपति द्वारा 'राजभाषा नीति' बनाई जाकर लागू की गई। 

राजभाषा अधिनियम 1963 द्वारा राजभाषा के शासकीय कार्यों, नियमन हेतु प्रावधान किए गए। तीन भाषायी क्षेत्र बनाए गए जिसके तहत 'क' क्षेत्र में- उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, हरियाणा, हिमाचल, उत्तरांचल, झारखंड, राजस्थान, दिल्ली एवं अंडमान द्वीप समूह। 'ख' क्षेत्र में- गुजरात, महाराष्ट्र तथा 'ग' क्षेत्र में- उपरोक्त के अतिरिक्त सभी राज्य एवं संघ क्षेत्र रखे गए। 

यह सुनिश्चित किया गया कि राजभाषा में प्राप्त पत्रों के जवाब शत-प्रतिशत राजभाषा में दिए जाएं। अन्य भाषा में प्राप्त पत्रों के जवाब क्षेत्र 'क' में हिन्दी तथा अंग्रेजी में, 'ख' में 60 प्रतिशत हिन्दी-अंग्रेजी व शेष अंग्रेजी में तथा 'ग' में 40 प्रतिशत हिन्दी-अंग्रेजी तथा शेष अंग्रेजी में दिए जा सकते हैं। यह आंकड़ा धीरे-धीरे हिन्दी-अंग्रेजी की ओर बढ़ाया जाए तथा 'क' भाषी क्षेत्रों में पूर्णत: राजभाषा हिन्दी का प्रयोग सुनिश्चित किया जाए। 

राजभाषा विभाग प्रत्येक वर्ष वार्षिक कार्यक्रम जारी करता है, साथ ही राजभाषा नियम 1976 के तहत बनाए गए नियमों के अधीन मासिक, त्रैमासिक एवं अर्द्धवार्षिक रिपोर्ट के माध्यम से सतत निगरानी एवं विश्लेषण का कार्य करता है तथा अपनी समेकित रिपोर्ट संसदीय राजभाषा समिति जिसमें कि 30 सदस्य (क्रमश: 10 राज्यसभा और 20 लोकसभा से) होते हैं; के समक्ष प्रस्तुत करता है, जो‍ कि समय-समय पर विभिन्न विभागों का दौरा कर वस्तुस्थिति का अध्ययन करती है तथा अपनी निरीक्षण रिपोर्ट सीधे राष्ट्रपति को प्रस्तुत करती है। 

प्रत्येक कार्यालय में राजभाषा संबंधी एक त्रैमासिक बैठक का प्रावधान पिछली तिमाही में किए गए कार्यों, पत्राचार, तिमाही में आयोजित कार्यशाला एवं राजभाषा के प्रशिक्षण संबंधी उपलब्धता एवं परिमार्जन हेतु सुझाव आमंत्रित किए जाने हेतु किया गया। राजकीय विभागों में राजभाषा के प्रयोग हेतु सर्वाधिक प्रभावी प्रक्रिया पत्राचार है, क्योंकि उसी के आधार पर मिसिल अथवा फाइलों में टीप लिखी जाती है। 

अत: जब भी त्रैमासिक बैठकों में विचार-विमर्श होता है, तब सबसे ज्यादा सूक्ष्‍म विश्लेषण त्रैमासिक पत्राचार पर होता है, आंकड़ों की निगरानी भी होती है, कठिनाइयां सामने आती हैं और सुधार हेतु उपाय भी खोजे जाते हैं ताकि राजभाषा का अधिकाधिक प्रयोग पत्राचार में बढ़ाया जा सके। 

विभाग प्रमुख की अध्यक्षता में होने वाली इन बैठकों में विभाग के विभिन्न अनुभागों के जिम्मेदार अधिकारियों के बीच एक स्वस्थ प्रतियोगिता भी पनपती है कि वह और अधिक बेहतर परिणाम दैनंदिनी पत्रों में राजभाषा के प्रयोग द्वारा दे तथा उसके प्रयास सभी के बीच सराहे जा सकें। 

यह हमारी विडंबना रही है कि देश में राजभाषा के रूप में हिन्दी को संविधान लागू होने के पूर्व कभी भी आधिकारिक मान्यता नहीं मिली थी। मुगलों के समय राजभाषा के रूप में अरबी-फारसी का बोलबाला था, तो अंग्रेजों ने अंग्रेजी और उर्दू को राजकाज चलाने में इस्तेमाल किया। दरअसल, हिन्दुस्तान में खड़ी बोली और हिन्दी जनभाषा के रूप में मान्य रही और पुष्ट होती चली गई। 

आज भी सरकार ने राष्ट्रभाषा के रूप में राजभाषा को स्वीकार नहीं किया है, मगर जनता ने इसे राष्ट्रभाषा के रूप में अंगीकार ‍कर लिया है। इसकी व्यापक स्वीकृति शीघ्र इसे विश्वभाषा का दर्जा प्रदान करवा देगी। इसके पीछे देवनागरी का सांस्कृतिक होना भी है। 

संस्कृत संगणक (कम्प्यूटर) पर सर्वाधिक वैज्ञानिक भाषा के रूप में मान्य की गई है, मगर संस्कृत का प्रचार-प्रसार अत्यल्प होने के कारण उसकी निकटतम भाषा के रूप में तथा व्यापकता की दृष्टि से हमारी राजभाषा हिन्दी को फायदा मिलना सुनिश्चित है। 

साहित्य समाज का दर्पण होता है। समाज भौतिकतावादी हुआ है, उसकी सोच अर्थवादी हो गई है, विश्व बाजारवाद पर चल पड़ा है, तब हमारा देश ‍वैश्विक संस्कृति से अलग नहीं रह पा रहा है। हमने राजभाषा को पूर्णता होते हुए भी बाजारीय अर्थवादी सोच नहीं दी। यही कारण है कि हमारा लेखक याचक है और प्रकाशक दाता। 

हिन्दी की किताब छापना और बेचना घाटे का सौदा है, जबकि अंग्रेजी में किताब छापना मुनाफे का धंधा है। अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद हिन्दी की किताबों से ज्यादा प्रसद्धि और पैसा बटोर रहा है। 

मौजूदा समय में विश्‍व स्तर पर अंग्रेजी के सबसे अच्‍छे लेखक मूलत: भारतीय हैं। गीता जैसी सूक्ष्म प्रबंधकीय किताब होने के बावजूद हम राष्ट्रभाषा के प्रबंधन में कहीं न कहीं चूक गए हैं और यही चूक राजकीय स्तर पर भी हुई। 

हमारे नीति-निर्माताओं ने व्यापक सोच के स्थान पर भाषायी संकीर्णता और क्षेत्रीयता को तरजीह दी, फलत: 22 भाषाओं को राज्यों की राजभाषा के रूप में मान्यता प्रदान की गई। हम एक भाषा को राष्ट्रभाषा नहीं बना सके और यही कारण है कि हमें आज राजकीय त्रैमासिक पत्रों के विश्लेषण के माध्यम से अधिकारी-कर्मचारियों के राजभाषा हिन्दी के विकास में योगदान पर चर्चा करनी पड़ती है। 

यह हिन्दी की जीत है कि जिन क्षेत्रों से हिन्दी का विरोध हुआ उन्हीं क्षेत्रों के नाम पर 'चेन्नई एक्सप्रेस' जैसी हिन्दी फिल्में 3 दिन में 100 करोड़ और 300 करोड़ का आंकड़ा पार कर वैश्विक फिल्म का दर्जा पा रही है। 

शासकीय कर्मचारी-अधिकारी देश के एक भाग से दूसरे भाग में आ-जा रहे हैं। स्थानांतरण के कारण तो वे राजभाषा के ध्वजवाहक बने हुए हैं। वैश्वीकरण का लाभ निश्चित रूप से हिन्दी को देश में पुष्टता प्राप्त करने में हुआ है। 

इंटरनेट ने देशों की दूरियां कम की हैं तब ‍‍‍अधि‍कारियों-कर्मचारियों को भाषा की महत्ता समझ में आ रही है। वे यह जान गए हैं कि ‍वैश्चिक स्तर की तरक्की के लिए अंग्रेजी जरूरी नहीं है। 

हमारे देश में विदेशी प्रतिनिधिमंडल आते हैं तो सरकारी दु‍भाष‍िए से काम चलाते हैं, क्योंकि इंग्लैंड-अमेरिका के लोगों को छोड़ दें तो ज्यादातर लोग अंग्रेजी नहीं जानते। 

शासकीय स्तर पर खासकर तकनीकी, न्यायालयीन, कर राजस्व आदि क्षेत्रों में मान्य मानक शब्दावली की हिन्दी में अनुपलब्धता ने राजभाषा के प्रयोग में बड़ी बाधा खड़ी की हुई है जिसका निराकरण भा‍षाविदों से अपेक्षित था। विभिन्न राजकीय अधिकारियों-कर्मचारियों ने इसका निदान व्यावहारिक तौर पर पत्राचार के माध्यम से अपने-अपने क्षेत्रों में नए प्रयोग से तकनीकी हिन्दी शब्दों का विकास किया है। तकनीकी शब्दावली आयोग भी प्रयासरत है यद्यपि एकरूपता का अभाव बना हुआ है। 

यह एक शुभ शकुन है कि शासकीय अधिकारियों और कर्मचारियों में राष्ट्रीयता की भावना, एक राष्ट्र-एक भाषा की आवश्यकता और राष्ट्रीय एकता की सोच स्पष्ट है। वह सूचना प्रौद्योगिकी के प्रति भी सचेत है और अपनी सी‍माओं में रहकर राजनेताओं के मंसूबे अच्छी तरह पहचानता है अत: राजभाषा के उन्नयन में समर्थ और सार्थक योगदान दे रहा है। 

अभाव से उत्साह कम नहीं होता 
हो भाव तो नियम में दम नहीं होता 
हैं समर्थ हम और सार्थक भी हम 
नियम भी हम हैं और नियामक भी हम 
एक नहीं थे, कमजोर नहीं, कभी रण से भागे न हम 
उन्नति के उन्नायक भी हम, रहे विश्व के नायक भी हम 
हिन्दी विश्वभाषा बने, हैं इस लायक भी हम।


गुरुवार, 2 जनवरी 2020

गुरु गोविंद सिंह जी के जन्म दिवस के अवसर पर नागरिक संशोधक एक्ट #CAA को समर्थन देती कविता

डर-डर कर जीते हैं हिंदू , जब इस  हिंदुस्तान में...
जाने कैसे जीते होंगे, हिन्दू पाकिस्तान में...
धर्म जुलूसों पर विवाद है, धर्म उसूलों पर विवाद हैं।
होली रखने पर विवाद हैं, होली में रंग पर विवाद हैं।
दीवाली पर चले पटाखे-फुलझडियों पर भी विवाद हैं।
आशंकित त्योहार मनाते हिन्दू ही हिन्दुस्तान में...
क्या त्योहार मनाते होंगे, हिन्दू पाकिस्तान में..?
गाय का पालन, गाय का पोषण हिन्दू की पहचान हैं।
गाय की सेवा, गाय की रक्षा हिन्दू का अरमान हैं...
गाय की हत्या प्रतिबंधित हैं, भारत के कानून से...
फिर क्यों सडकें रंग जाती हैं, गौ माता के खून से..?
सरेआम गौ हत्या होती हैं, जब हिन्दुस्तान में...
जाने क्या-क्या होता होगा... सोचो पाकिस्तान में...
छेड़-छाड़ का दंश झेलती, रोज-रोज हिन्दू नारी...
अपमानों का घूंट पी रही, रोज-रोज हिन्दू नारी...
चौराहे पर खडी हुई... सोच रही हिन्दू नारी...
या तो धर्म छोड़ दे अपना, या हो जाये हरि प्यारी।
दुष्कर्मी वे खोप घूमते हों, जब हिन्दुस्तान में...
सोचो क्या-क्या होता होगा फिर तो पाकिस्तान में...
छापे, तिलक, हवन करने से धर्म नहीं बचने वाला...
हलुवा-पूरी भंडारे से धर्म नहीं बचने वाला...
गुरु गोविंद सिंह का आव्हान कोने-कोने फैलाओ...
एक पुत्र दो... धर्म की खातिर, वीर प्रसूता माताओं🙏🏻
वरना दुभर हो जायेगा... रहना हिन्दुस्तान में...
सारा मुल्क बदल जायेगा, हिंसक पाकिस्तान में...

बुधवार, 1 जनवरी 2020

गुरु गोविन्द सिंह और जफरनामा का सच

गुरु गोविन्द सिंह जी एक महान योद्धा होने के साथ साथ महान विद्वान् भी थे। वह ब्रज भाषा, पंजाबी, संस्कृत और फारसी भी जानते थे और इन सभी भाषाओं में कविता भी लिख सकते थे। जब औरंगजेब के अत्याचार सीमा से बढ़ गए तो गुरूजी ने मार्च 1705 को एक पत्र भाई दयाल सिंह के हाथों औरंगजेब को भेजा। इसमे उसे सुधरने की नसीहत दी गयी थी। यह पत्र फारसी भाषा के छंद शेरों के रूप में लिखा गया है। इसमे कुल 134 शेर हैं। इस पत्र को ज़फरनामा कहा जाता है।

यद्यपि यह पत्र औरंगजेब के लिए था लेकिन इसमे जो उपदेश दिए गए हैं, वह आज हमारे लिए अत्यंत उपयोगी हैं। इसमें औरंगजेब के आलावा मु सल मानों के बारे में जो लिखा गया है, वह हमारी आँखें खोलने के लिए काफी हैं। इसीलिए ज़फरनामा को धार्मिक ग्रंथ गुरु गोविन्द सिंह और जफरनामा का सच के रूप में स्वीकार करते हुए दशम ग्रन्थ में शामिल किया गया है।

जफरनामासे विषयानुसार कुछ अंश प्रस्तुत किये जा रहे हैं. ताकि लोगों को इस्लाम की हकीकत पता चल सकें -

1 - शस्त्रधारी ईश्वर की वंदना -

बनामे खुदावंद तेगो तबर, खुदावंद तीरों सिनानो सिपर।
खुदावंद मर्दाने जंग आजमा, ख़ुदावंदे अस्पाने पा दर हवा।

उस ईश्वर की वंदना करता हूँ, जो तलवार, छुरा, बाण, बरछा और ढाल का स्वामी है और जो युद्ध में प्रवीण वीर पुरुषों का स्वामी है। जिनके पास पवन वेग से दौड़ने वाले घोड़े हैं।

2 - औरंगजेब के कुकर्म -

तो खाके पिदर रा बकिरादारे जिश्त, खूने बिरादर बिदादी सिरिश्त
वजा खानए खाम करदी बिना, बराए दरे दौलते खेश रा

तूने अपने बाप की मिट्टी को अपने भाइयों के खून से गूँधा और उस खून से सनी मिट्ट से अपने राज्य की नींव रखी। और अपना आलीशान महल तैयार किया।

3 - अल्लाह के नाम पर छल -

न दीगर गिरायम बनामे खुदात, कि दीदम खुदाओ व् कलामे खुदात
ब सौगंदे तो एतबारे न मांद, मिरा जुज ब शमशीर कारे न मांद

तेरे खुदा के नाम पर मैं धोखा नहीं खाऊंगा क्योंकि तेरा खु-दा और उसका कलाम झूठे हैं। मुझे उनपर यकीन नहीं है इसलिए सिवा तलवार के प्रयोग से कोई उपाय नहीं रहा।

4 - छोटे बच्चों की हत्या -

चि शुद शिगाले ब मकरो रिया, हमीं कुश्त दो बच्चये शेर रा
चिहा शुद कि चूँ बच्च गां कुश्त चार, कि बाकी बिमादंद पेचीदा मार

यदि सियार शेर के बच्चों को अकेला पाकर धोखे से मार डाले तो क्या हुआ... अभी बदला लेने वाला उसका पिता कुंडली मारे विषधर की तरह बाकी है। जो तुझ से पूरा बदला चुका लेगा।

5 - मु-सलमानों पर विश्वास नहीं -

मरा एतबारे बरीं हल्फ नेस्त, कि एजद गवाहस्तो यजदां यकेस्त
न कतरा मरा एतबारे बरूस्त, कि बख्शी ओ दीवां हम कज्ब गोस्त.
कसे कोले कुरआं कुनद ऐतबार, हमा रोजे आखिर शवद खारो जार
अगर सद ब कुरआं बिखुर्दी कसम, मारा एतबारे न यक जर्रे दम

मुझे इस बात पर यकीन नहीं कि तेरा खुदा एक है। तेरी किताब (कुरान) और उसका लाने वाला सभी झूठे हैं। जो भी कु-रान पर विश्वास करेगा, वह आखिर में दुखी और अपमानित होगा। अगर कोई कुरान कि सौ बार भी कसम खाए, तो उस पर यकीन नहीं करना चाहिए।

6 - दुष्टों का अंजाम -

कुजा शाह इस्कंदर ओ शेरशाह, कि यक हम न मांदस्त जिन्दा बजाह
कुजा शाह तैमूर ओ बाबर कुजास्त, हुमायूं कुजस्त शाह अकबर कुजास्त

सिकंदर कहाँ है और शेरशाह कहाँ है, सब जिन्दा नहीं रहे। कोई भी अमर नहीं हैं, तैमूर, बाबर, हुमायूँ और अकबर कहाँ गए। सब का एकसा अंजाम हुआ।

7 - गुरूजी की प्रतिज्ञा -

कि हरगिज अजां चार दीवार शूम, निशानी न मानद बरीं पाक बूम
चूं शेरे जियां जिन्दा मानद हमें, जी तो इन्ताकामे सीतानद हमें
चूँ कार अज हमां हीलते दर गुजश्त, हलालस्त बुर्दन ब शमशीर दस्त

हम तेरे शासन की दीवारों की नींव इस पवित्र देश से उखाड़ देंगे। मेरे शेर जब तक जिन्दा रहेंगे, बदला लेते रहेंगे। जब हरेक उपाय निष्फल हो जाएँ तो हाथों में तलवार उठाना ही धर्म है।

8 - ईश्वर सत्य के साथ है -

इके यार बाशद चि दुश्मन कुनद, अगर दुश्मनी रा बसद तन कुनद.श
उदू दुश्मनी गर हजार आवरद, न यक मूए ऊरा न जरा आवरद

यदि ईश्वर मित्र हो, तो दुश्मन क्या क़र सकेगा, चाहे वह सौ शरीर धारण क़र ले। यदि हजारों शत्रु हों, तो भी वह बाल बांका नहीं क़र सकते है। सदा ही धर्म की विजय होती है।

गुरु गोविन्द सिंह ने अपनी इसी प्रकार की ओजस्वी वाणियों से लोगों को इतना निर्भय और महान योद्धा बना दिया कि अब भी शांतिप्रिय सिखों से उलझाने से कतराते हैं। वह जानते हैं कि सिख अपना बदला लिए बिना नहीं रह सकते, इसलिए उनसे दूर ही रहे।

इस लेख का एकमात्र उद्देश्य है कि आप लोग गुरु गोविन्द साहिब कि वाणी को आदर पूर्वक पढ़ें और श्री गुरु तेगबहादुर और गुरु गोविन्द सिंह जी के बच्चों के महान बलिदानों को हमेशा स्मरण रखें और उनको अपना आदर्श मनाकर देश-धर्म की रक्षा के लिए कटिबद्ध हो जाएँ, वर्ना यह सेकुलर और जिहादी एक दिन हिन्दुओं को विलुप्त प्राणी बनाकर मानेंगे।

गुरु गोविन्द सिंह का बलिदान सर्वोपरि और अद्वितीय हैं।

सकल जगत में खालसा पंथ गाजे, 
बढे धर्म हिन्दू सकल भंड भागे।⛳