शुक्रवार, 30 जुलाई 2021

डायर नहीं..! ओडवायर को मारा था, उधम सिंह जी ने...

31 जुलाई उधम सिंह जी के शहादत दिवस पर विशेष...
लोगों में आम धारणा है कि उधम सिंह ने जनरल डायर को मारकर जलियाँवाला बाग हत्याकांड का बदला लिया था, लेकिन भारत के इस सपूत ने डायर को नहीं बल्कि माइकल ओडवायर को मारा था, जो अमृतसर में बैसाखी के दिन हुए नरसंहार के समय पंजाब प्रांत का गवर्नर था।

ओडवायर के आदेश पर ही जनरल डायर ने जलियाँवाला बाग में सभा कर रहे निर्दोष लोगों पर अंधाधुँध गोलियाँ बरसवाई थी। उधम सिंह इस घटना के लिए ओडवायर को जिम्मेदार मानते थे।

26 दिसंबर 1899 को पंजाब के संगरूर जिले के सुनाम गाँव में जन्मे उधम सिंह ने जलियाँवाला बाग में हुए नरसंहार का बदला लेने की प्रतिज्ञा की थी। जिसे उन्होंने अपने सैकड़ों देशवासियों की सामूहिक हत्या के 21 साल बाद खुद अंग्रेजों के घर में जाकर पूरा किया।

उधम सिंह अनाथ थे। सन 1901 में उधम सिंह की माता और 1907 में उनके पिता का निधन हो गया। इस घटना के चलते उन्हें अपने बड़े भाई के साथ अमृतसर के एक अनाथालय में शरण लेनी पड़ी। उधम सिंह का बचपन का नाम शेर सिंह और उनके भाई का नाम मुक्ता सिंह था, जिन्हें अनाथालय में क्रमश: उधम सिंह और साधु सिंह के रूप में नए नाम मिले।

अनाथालय में उधम सिंह की जिन्दगी चल ही रही थी कि 1917 में उनके बड़े भाई का भी देहांत हो गया और वह दुनिया में एकदम अकेले रह गए। 1919 में उन्होंने अनाथालय छोड़ दिया और क्रांतिकारियों के साथ मिलकर आजादी की लड़ाई में शामिल हो गए।

डॉ. सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू की गिरफ्तारी तथा रोलट एक्ट के विरोध में अमृतसर के जलियाँवाला बाग में लोगों ने ते
13 अप्रैल 1919 को बैसाखी के दिन एक सभा रखी जिसमें उधम सिंह लोगों को पानी पिलाने का काम कर रहे थे।

इस सभा से तिलमिलाए पंजाब के तत्कालीन गवर्नर माइकल ओडवायर ने ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड डायर को आदेश दिया कि वह भारतीयों को सबक सिखा दें। इस पर जनरल डायर ने 90 सैनिकों को लेकर जलियाँवाला बाग को घेर लिया और मशीनगनों से अंधाधुंध गोलीबारी कर दी जिसमें सैकड़ों भारतीय मारे गए।

जान बचाने के लिए बहुत से लोगों ने पार्क में मौजूद कुएँ में छलाँग लगा दी। बाग में लगी पट्टिका पर लिखा है कि 120 शव तो सिर्फ कुएँ से ही मिले।

आधिकारिक रूप से मरने वालों की संख्या 379 बताई गई जबकि पंडित मदन मोहन मालवीय के अनुसार कम से कम 1300 लोग मारे गए थे। स्वामी श्रद्धानंद के अनुसार मरने वालों की संख्या 1500 से अधिक थी, जबकि अमृतसर के तत्कालीन सिविल सर्जन डॉक्टर स्मिथ के अनुसार मरने वालों की संख्या 1800 से अधिक थी।

राजनीतिक कारणों से जलियाँवाला बाग में मारे गए लोगों की सही संख्या कभी सामने नहीं आ पाई। इस घटना से वीर उधम सिंह तिलमिला गए और उन्होंने जलियाँवाला बाग की मिट्टी हाथ में लेकर माइकल ओडवायर को सबक सिखाने की प्रतिज्ञा ले ली।

उधम सिंह अपने काम को अंजाम देने के उद्देश्य से 1934 में लंदन पहुँचे। वहाँ उन्होंने एक कार और एक रिवाल्वर खरीदी तथा उचित समय का इंतजार करने लगे। भारत के इस योद्धा को जिस मौके का इंतजार था, वह उन्हें 13 मार्च 1940 को उस समय मिला जब माइकल ओडवायर लंदन के काक्सटन हाल में एक सभा में शामिल होने के लिए गया।

उधम सिंह ने एक मोटी किताब के पन्नों को रिवाल्वर के आकार में काटा और उनमें रिवाल्वर छिपाकर हाल के भीतर घुसने में कामयाब हो गए। सभा के अंत में मोर्चा संभालकर उन्होंने ओडवायर को निशाना बनाकर गोलियाँ दागनी शुरू कर दीं।

ओडवायर को दो गोलियाँ लगीं और वह वहीं ढेर हो गया। अदालत में उधम सिंह से पूछा गया कि जब उनके पास और भी गोलियाँ बचीं थीं, तो उन्होंने उस महिला को गोली क्यों नहीं मारी जिसने उन्हें पकड़ा था। इस पर उधम सिंह ने जवाब दिया हाँ ऐसा कर मैं भाग सकता था, लेकिन भारतीय संस्कृति में महिलाओं पर हमला करना पाप है। 31 जुलाई 1940 को पेंटविले जेल में उधम सिंह को फाँसी पर चढ़ा दिया गया जिसे उन्होंने हॅँसते-हँसते स्वीकार कर लिया।

उधम सिंह ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर दुनिया को संदेश दिया कि अत्याचारियों को भारतीय वीर कभी बख्शा नहीं करते...
31 जुलाई 1974 को ब्रिटेन ने उधम सिंह के अवशेष भारत को सौंप दिए। ओडवायर को जहाँ उधम सिंह ने गोली से उड़ा दिया, वहीं जनरल डायर कई तरह की बीमारियों से घिर कर तड़प-तड़प कर बुरी मौत मारा गया।

किसकी मर्जी से..?

क्या औकात है तुम्हारी..?
सिवा अपने जीवन में विषाद कुंठा और असफलता का विष घोलने के अतिरिक्त...!

तुम माँ के पेट में थे... नौ महीने तक, कोई दुकान तो चलाते नहीं थे..! फिर भी जिए...
हाथ-पैर भी न थे कि भोजन कर लो, फिर भी जिए।
श्वास लेने का भी उपाय न था, फिर भी जिए।

नौ महीने माँ के पेट में तुम थे, कैसे जिए...?
तुम्हारी मर्जी क्या थी..?
किसकी मर्जी से जिए..?

फिर माँ के गर्भ से जन्म हुआ... जन्मते ही, जन्म के पहले ही माँ के स्तनों में दूध भर आया। किसकी मर्जी से..?
अभी दूध को पीनेवाला आने ही वाला है कि दूध तैयार है।
किसकी मर्जी से..?

गर्भ से बाहर होते ही तुमने कभी इसके पहले साँस नहीं ली थी, माँ के पेट में तो माँ की साँस से ही काम चलता था...
लेकिन जैसे ही तुम्हें माँ से बाहर होने का अवसर आया...
तत्क्षण तुमने साँस ली, किसने सिखाया..?
पहले कभी साँस ली नहीं थी,
किसी पाठशाला में गए नहीं थे,
किसने सिखाया कैसे साँस लो..?
किसकी मर्जी से..?

फिर कौन पचाता है तुम्हारे दूध को.. जो तुम पीते हो,
और तुम्हारे भोजन को..?
कौन उसे हड्डी-मांस में बदलता है..?

किसने तुम्हें जीवन की सारी प्रक्रियाएँ दी हैं..?
कौन जब तुम थक जाते हो, तुम्हें सुला देता है..?
और कौन जब तुम्हारी नींद पूरी हो जाती है, तुम्हें उठा देता है..?

कौन चलाता है, इन सूर्य-चंद्रमा को..?
कौन इन वृक्षों को हरा रखता है..?
कौन खिलाता है फूल...
अनंत-अनंत रंगों के और गंधों के..?

इतने विराट का आयोजन, जिस स्रोत से चल रहा है...
क्या एक तुम्हारी छोटी-सी जिंदगी, उसके सहारे न चल सकेगी..?

थोड़ा सोचो... थोड़ा ध्यान करो...

अगर इस विराट के आयोजन को तुम चलते हुए देख रहे हो,
कहीं तो कोई व्यवधान नहीं है..!
सब सुंदर चल रहा है, सुंदरतम चल रहा है;
सब बेझिझक चल रहा है।
इसलिए सीताराम-सीताराम सीताराम कहिए... 
जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिए...

कर्म करो, फल की इच्छा मत करो...

शुक्रवार, 23 जुलाई 2021

गुरु पूर्णिमा विशेष : कौन हैं महर्षि वेदव्यास

महर्षि वेदव्यास जी अमर हैं। महान विभूति वेदव्यास का जन्म आषाढ़ पूर्णिमा को लगभग 3000 ई. पूर्व में हुआ था। महर्षि व्यास का पूरा नाम कृष्णद्वैपायन है। उन्होंने वेदों का विभाग किया, इसलिए उनको वेदव्यास कहा जाता है। उनके पिता महर्षि पराशर तथा माता सत्यवती है।
भारत भर में गुरुपूर्णिमा के दिन गुरुदेव की पूजा के साथ महर्षि व्यास की पूजा भी की जाती है। महर्षि वेदव्यास भगवान विष्णु के कालावतार माने गए हैं। द्वापर युग के अंतिम भाग में व्यासजी प्रकट हुए थे। उन्होंने अपनी सर्वज्ञ दृष्टि से समझ लिया कि कलियुग में मनुष्यों की शारीरिक शक्ति और बुद्धि शक्ति बहुत घट जाएगी। इसलिए कलियुग के मनुष्यों को सभी वेदों का अध्ययन करना और उनको समझ लेना संभव नहीं रहेगा। व्यासजी ने यह जानकर वेदों के चार विभाग कर दिए। जो लोग वेदों को पढ़, समझ नहीं सकते, उनके लिए महाभारत की रचना की। महाभारत में वेदों का सभी ज्ञान आ गया है। धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, उपासना और ज्ञान-विज्ञान की सभी बातें महाभारत में बड़े सरल ढंग से समझाई गई हैं।
इसके अतिरिक्त पुराणों की अधिकांश कथाओं द्वारा हमारे देश, समाज तथा धर्म का पूरा इतिहास महाभारत में आया है। महाभारत की कथाएं बड़ी रोचक और उपदेशप्रद हैं। सब प्रकार की रुचि रखने वाले लोग भगवान की उपासना में लगें और इस प्रकार सभी मनुष्यों का कल्याण हो। इसी भाव से व्यासजी ने अठारह पुराणों की रचना की। इन पुराणों में भगवान के सुंदर चरित्र व्यक्त किए गए हैं। भगवान के भक्त, धर्मात्मा लोगों की कथाएं पुराणों में सम्मिलित हैं। इसके साथ-साथ व्रत-उपवास को की विधि, तीर्थों का माहात्म्य आदि लाभदायक उपदेशों से पुराण परिपूर्ण है।
वेदांत दर्शन के रचना करने वाले महर्षि वेदव्यास ने वेदांत दर्शन को छोटे-छोटे सूत्रों में लिखा गया है, लेकिन गंभीर सूत्रों के कारण ही उनका अर्थ समझने के लिए बड़े-बड़े ग्रंथ लिखे हैं।
धार्मिक मान्यता के अनुसार ही गुरुपूर्णिमा पर गुरुदेव की पूजा के साथ ही महर्षि व्यास की पूजा भी की जाती है। हिन्दू धर्म के सभी भागों को व्यासजी ने पुराणों में भली-भांति समझाया है। महर्षि व्यास सभी हिन्दुओं के परम पुरुष हैं।

कमर दर्द, सरवाइकल और चारपाई (खाट)

सोने के लिए खाट हमारे पूर्वजों की सर्वोत्तम खोज है। हमारे पूर्वजों को क्या लकड़ी को चीरना नहीं जानते थे..! वे भी लकड़ी चीरकर उसकी पट्टियाँ बनाकर डबल बेड बना सकते थे। डबल बेड बनाना कोई रॉकेट सायंस नहीं है। लकड़ी की पट्टियों में कीलें ही ठोंकनी होती हैं। चारपाई भी भले कोई सायंस नहीं है लेकिन एक समझदारी है कि कैसे शरीर को अधिक आराम मिल सकें..? चारपाई बनाना एक कला है। उसे रस्सी से बुनना पड़ता है और उसमें दिमाग और श्रम लगता है।

जब हम सोते हैं, तब सिर और पांव के मुकाबले पेट को अधिक खून की जरूरत होती है; क्योंकि रात हो या दोपहर में लोग अक्सर खाने के बाद ही सोते हैं। पेट को पाचनक्रिया के लिए अधिक खून की जरूरत होती है। इसलिए सोते समय चारपाई की जोली ही इस स्वास्थ का लाभ पहुंचा सकती है।
 दुनिया में जितनी भी आरामकुर्सियां देख लें, सभी में चारपाई की तरह जोली बनाई जाती है। बच्चों का पुराना पालना सिर्फ कपड़ की जोली का था, लकड़ी का सपाट बनाकर उसे भी बिगाड़ दिया गया है। चारपाई पर सोने से कमर और पीठ का दर्द कभी नहीं होता है। दर्द होने पर चारपाई पर सोने की सलाह दी जाती है।

डबलबेड के नीचे अंधेरा होता है, उसमें रोग के कीटाणु पनपते हैं... वजन में भारी होता है तो रोज-रोज सफाई नहीं हो सकती। चारपाई को रोज सुबह खड़ा कर दिया जाता है और सफाई भी हो जाती है, सूरज का प्रकाश बहुत बढ़िया कीटनाशक है। खटिये को धूप में रखने से खटमल इत्यादि भी नहीं लगते हैं।
  अगर किसी को डॉक्टर Bed Rest लिख देता है तो दो तीन दिन में उसको English Bed पर लेटने से Bed-Soar शुरू हो जाता है। भारतीय चारपाई ऐसे मरीजों के बहुत काम की होती है। चारपाई पर Bed Soar नहीं होता क्योंकि इसमें से हवा आर पार होती रहती है।

गर्मियों में इंग्लिश Bed गर्म हो जाता है इसलिए AC की अधिक जरुरत पड़ती है जबकि सनातन चारपाई पर नीचे से हवा लगने के कारण गर्मी बहुत कम लगती है ।
बान की चारपाई पर सोने से सारी रात Automatically सारे शारीर का Acupressure होता रहता है ।

गर्मी में छत पर चारपाई डालकर सोने का आनंद ही और है। ताज़ी हवा, बदलता मौसम, तारों की छांव,चन्द्रमा की शीतलता जीवन में उमंग भर देती है। हर घर में एक स्वदेशी बाण की बुनी हुई (प्लास्टिक की नहीं) चारपाई होनी चाहिए।
  सस्ते प्लास्टिक की रस्सी और पट्टी आ गयी है, लेकिन वह सही नहीं है। स्वदेशी चारपाई के बदले हजारों रुपये की दवा और डॉक्टर का खर्च बचाया जा सकता है।

गुरुवार, 15 जुलाई 2021

ताज महल या तेजो महालय, जानिए इस रहस्य को...

हाल ही में केंद्रीय सूचना आयोग ने सरकार से पूछा है कि ताजमहल शाहजहां का बनवाया हुआ मकबरा है या प्राचीन शिव मंदिर..? 
इतिहास का ये सवाल सूचना के अधिकार के तहत केंद्रीय सूचना आयोग के समक्ष पहुंचा और अब सूचना आयोग ने भारत के संस्कृति मंत्रालय से इस संबंध में जवाब मांगा है। 
इस मामले में देश भर की कई अदालतों में याचिका भी दाखिल की गई है। सुप्रीम कोर्ट में भी इसे लेकर याचिका दायर की गई थी जिसे खारिज कर दिया गया था। हालांकि इससे जुड़े कई मामले अब भी लंबित हैं। हाल ही में सूचना आयुक्त श्रीधर अचार्युलु ने अपने एक आदेश में कहा था कि मंत्रालय को ताजमहल से जुड़ी सभी शंकाओं को खत्म कर देना चाहिए।
इस संदर्भ में पढ़िये इतिहासकार पुरुषोत्तम नागेश की पुस्तक को आधार बनाकर लिखा गया एक लेख...

यमुना नदी के किनारे सफेद पत्थरों से निर्मित अलौकिक सुंदरता की तस्वीर 'ताजमहल' न केवल भारत में, बल्कि पूरे विश्व में अपनी पहचान बना चुका है। ताजमहल को दुनिया के सात आश्चर्यों में शामिल किया गया है। हालांकि इस बात को लेकर हमेशा से सवाल उठते रहे हैं कि ताजमहल को शाहजहां ने बनवाया है या फिर किसी और ने..!
भारतीय इतिहास के पन्नों में यह लिखा है कि ताजमहल को शाहजहां ने मुमताज के लिए बनवाया था। वह मुमताज से प्यार करता था। दुनिया भर में ताजमहल को प्रेम का प्रतीक माना जाता है, लेकिन कुछ इतिहासकार इससे इत्तेफाक नहीं रखते हैं। उनका मानना है कि ताजमहल को शाहजहां ने नहीं बनवाया, वह तो पहले से बना हुआ था। उसने इसमें हेर-फेर करके इसे इस्लामिक लुक दिया। दरअसल, इसे शाहजहां और मुमताज का मकबरा माना जाता है। उल्लेखनीय है कि ताजमहल के पूरा होने के तुरंत बाद ही शाहजहां को उसके पुत्र औरंगजेब द्वारा अपदस्थ कर आगरा के किले में कैद कर दिया गया था। शाहजहां की मृत्यु के बाद उसे उसकी पत्नी के बराबर में दफना दिया गया।
 
दौलत छुपाने की जगह या मुमताज का मकबरा? :
प्रसिद्ध शोधकर्ता और इतिहासकार पुरुषोत्तम नागेश ओक ने अपनी शोधपूर्ण पुस्तक में तथ्‍यों के माध्यम से ताजमहल के रहस्य से पर्दा उठाया है।  इतिहासकार पुरुषोत्तम ओक ने अपनी पुस्तक में लिखा हैं कि शाहजहां ने दरअसल, वहां अपनी लूट की दौलत छुपा रखी थी इसलिए उसे कब्र के रूप में प्रचारित किया गया। यदि शाहजहां चकाचौंध कर देने वाले ताजमहल का वास्तव में निर्माता होता तो इतिहास में ताजमहल में मुमताज को किस दिन बादशाही ठाठ के साथ दफनाया गया, उसका अवश्य उल्लेख होता।
 
ओक अनुसार जयपुर राजा से हड़प किए हुए पुराने महल में दफनाए जाने के कारण उस दिन का कोई महत्व नहीं? शहंशाह के लिए मुमताज के कोई मायने नहीं थे। क्योंकि जिस जनानखाने में हजारों सुंदर स्त्रियां हों उसमें भला प्रत्येक स्त्री की मृत्यु का हिसाब कैसे रखा जाए। जिस शाहजहां ने जीवित मुमताज के लिए एक भी निवास नहीं बनवाया वह उसके मरने के बाद भव्य महल बनवाएगा? 
 
यहां दफन है मुमताज
शोधकर्ताओं के अनुसार आगरा से 600 किलोमीटर दूर बुरहानपुर में मुमताज की कब्र है, जो आज भी ज्यों की त्यों है। बाद में उसके नाम से आगरे के ताजमहल में एक और कब्र बनी जो नकली है। बुरहानपुर से मुमताज का शव आगरे लाने का ढोंग क्यों किया गया? माना जाता है कि मुमताज को दफनाने के बहाने शहजहां ने राजा जयसिंह पर दबाव डालकर उनके महल (ताजमहल) पर कब्जा किया और वहां की संपत्ति हड़पकर उनके द्वारा लूटा गया खजाना छुपाकर सबसे नीचले माला पर रखा था जो बहुत काल तक वहीं रखा रहा। वर्तमान में स्थिति क्या है यह कोई नहीं जानता। 
 
मुमताज का इंतकाल 1631 को बुरहानपुर के बुलारा महल में हुआ था। वहीं उन्हें दफना दिया गया था। लेकिन माना जाता है कि उसके 6 महीने बाद राजकुमार शाह शूजा की निगरानी में उनके शरीर को आगरा लाया गया। आगरा के दक्षिण में उन्हें अस्थाई तौर फिर से दफन किया गया और आखिर में उन्हें अपने मुकाम यानी ताजमहल में दफन कर दिया गया। 
 
क्या शाहजहां और मुमताज में प्रेम था..?
पुरुषोत्तम अनुसार क्योंकि शाहजहां ने मुमताज के लिए दफन स्थान बनवाया और वह भी इतना सुंदर तो इतिहासकार मानने लगे कि निश्‍चित ही फिर उनका मुमताज के प्रति प्रेम होना ही चाहिए। तब तथाकथित इतिहासकारों और साहित्यकारों ने इसे प्रेम का प्रतीक लिखना शुरू कर दिया। उन्होंने उनकी गाथा को लैला-मजनू, रोमियो-जूलियट जैसा लिखा जिसके चलते फिल्में भी बनीं और दुनियाभर में ताजमहल प्रेम का प्रतीक बन गया। यह झूठ आज तक जारी है।
 
मुमताज से विवाह होने से पूर्व शाहजहां के कई अन्य विवाह हुए थे अत: मुमताज की मृत्यु पर उसकी कब्र के रूप में एक अनोखा खर्चीला ताजमहल बनवाने का कोई कारण नजर नहीं आता। मुमताज किसी सुल्तान या बादशाह की बेटी नहीं थी। उसे किसी विशेष प्रकार के भव्य महल में दफनाने का कोई कारण नजर नहीं अता। उसका कोई खास योगदान भी नहीं था। उसका नाम चर्चा में इसलिए आया क्योंकि युद्ध के रास्ते के दौरान उसने एक बेटी को जन्म दिया था और वह मर गई थी।
 
शाहजहां के बादशाह बनने के बाद ढाई-तीन वर्ष में ही मुमताज की मृत्यु हो गई थी। इतिहास में मुमताज से शाहजहां के प्रेम का उल्लेख जरा भी नहीं मिलता है। यह तो अंग्रेज शासनकाल के इतिहासकारों की मनगढ़ंत कल्पना है जिसे भारतीय इतिहासकारों ने विस्तार दिया। शाहजहां युद्ध कार्य में ही व्यस्त रहता था। वह अपने सारे विरोधियों की हत्या करने के बाद गद्दी पर बैठा था। ब्रिटिश ज्ञानकोष के अनुसार ताजमहल परिसर में अतिथिगृह, पहरेदारों के लिए कक्ष, अश्वशाला इत्यादि भी हैं। मृतक के लिए इन सबकी क्या आवश्यकता? 
 
ताजमहल के हिन्दू मंदिर होने के सबूत...
इतिहासकार पुरुषोत्त ओक ने अपनी किताब में लिखा है कि ताजमहल के हिन्दू मंदिर होने के कई सबूत मौजूद हैं। सबसे पहले यह कि मुख्य गुम्बद के किरीट पर जो कलश वह हिन्दू मंदिरों की तरह है। यह शिखर कलश आरंभिक 1800 ईस्वी तक स्वर्ण का था और अब यह कांसे का बना है। आज भी हिन्दू मंदिरों पर स्वर्ण कलश स्थापित करने की परंपरा है। यह हिन्दू मंदिरों के शिखर पर भी पाया जाता है। इस कलश पर चंद्रमा बना है। अपने नियोजन के कारण चन्द्रमा एवं कलश की नोक मिलकर एक त्रिशूल का आकार बनाती है, जो कि हिन्दू भगवान शिव का चिह्न है। इसका शिखर एक उलटे रखे कमल से अलंकृत है। यह गुम्बद के किनारों को शिखर पर सम्मिलन देता है।
 
शाहजहां द्वारा ताजमहल बनाने के कोई सबूत नहीं :
इतिहास में पढ़ाया जाता है कि ताजमहल का निर्माण कार्य 1632 में शुरू और लगभग 1653 में इसका निर्माण कार्य पूर्ण हुआ। अब सोचिए कि जब मुमताज का इंतकाल 1631 में हुआ तो फिर कैसे उन्हें 1631 में ही ताजमहल में दफना दिया गया, जबकि ताजमहल तो 1632 में बनना शुरू हुआ था। यह सब मनगढ़ंत बाते हैं जो अंग्रेज और मुस्लिम इतिहासकारों ने 18वीं सदी में लिखी।
 
दरअसल 1632 में हिन्दू मंदिर को इस्लामिक लुक देने का कार्य शुरू हुआ। 1649 में इसका मुख्य द्वार बना जिस पर कुरान की आयतें तराशी गईं। इस मुख्य द्वार के ऊपर हिन्‍दू शैली का छोटे गुम्‍बद के आकार का मंडप है और अत्‍यंत भव्‍य प्रतीत होता है। आस पास मीनारें खड़ी की गई और फिर सामने स्थित फव्वारे को फिर से बनाया गया। 
 
ओक ने लिखा है कि जेए मॉण्डेलस्लो ने मुमताज की मृत्यु के 7 वर्ष पश्चात voyoges and travels into the east indies नाम से निजी पर्यटन के संस्मरणों में आगरे का तो उल्लेख किया गया है किंतु ताजमहल के निर्माण का कोई उल्लेख नहीं किया। टॉम्हरनिए के कथन के अनुसार 20 हजार मजदूर यदि 22 वर्ष तक ताजमहल का निर्माण करते रहते तो मॉण्डेलस्लो भी उस विशाल निर्माण कार्य का उल्लेख अवश्य करता।
 
ताज के नदी के तरफ के दरवाजे के लकड़ी के एक टुकड़े की एक अमेरिकन प्रयोगशाला में की गई कार्बन जांच से पता चला है कि लकड़ी का वो टुकड़ा शाहजहां के काल से 300 वर्ष पहले का है, क्योंकि ताज के दरवाजों को 11वीं सदी से ही मुस्लिम आक्रामकों द्वारा कई बार तोड़कर खोला गया है और फिर से बंद करने के लिए दूसरे दरवाजे भी लगाए गए हैं। ताज और भी पुराना हो सकता है। असल में ताज को सन् 1115 में अर्थात शाहजहां के समय से लगभग 500 वर्ष पूर्व बनवाया गया था।
 
ताजमहल के गुम्बद पर जो अष्टधातु का कलश खड़ा है वह त्रिशूल आकार का पूर्ण कुंभ है। उसके मध्य दंड के शिखर पर नारियल की आकृति बनी है। नारियल के तले दो झुके हुए आम के पत्ते और उसके नीचे कलश दर्शाया गया है। उस चंद्राकार के दो नोक और उनके बीचोबीच नारियल का शिखर मिलाकर त्रिशूल का आकार बना है। हिन्दू और बौद्ध मंदिरों पर ऐसे ही कलश बने होते हैं। कब्र के ऊपर गुंबद के मध्य से अष्टधातु की एक जंजीर लटक रही है। शिवलिंग पर जल सिंचन करने वाला सुवर्ण कलश इसी जंजीर पर टंगा रहता था। उसे निकालकर जब शाहजहां के खजाने में जमा करा दिया गया तो वह जंजीर लटकी रह गई। उस पर लॉर्ड कर्जन ने एक दीप लटकवा दिया, जो आज भी है। 
 
कब्रगाह या महल..?
कब्रगाह को महल क्यों कहा गया..? मकबरे को महल क्यों कहा गया..? क्या किसी ने इस पर कभी सोचा..! क्योंकि पहले से ही निर्मित एक महल को कब्रगाह में बदल दिया गया। कब्रगाह में बदलते वक्त उसका नाम नहीं बदला गया। यहीं पर शाहजहां से गलती हो गई। उस काल के किसी भी सरकारी या शाही दस्तावेज एवं अखबार आदि में 'ताजमहल' शब्द का उल्लेख नहीं आया है। ताजमहल को ताज-ए-महल समझना हास्यास्पद है।
 
क्या मुमताज के नाम पर रखा मुमताज महल..?
पुरुषोत्तम लिखते हैं कि 'महल' शब्द मुस्लिम शब्द नहीं है। अरब, ईरान, अफगानिस्तान आदि जगह पर एक भी ऐसी मस्जिद या कब्र नहीं है जिसके बाद महल लगाया गया हो। यह भी गलत है कि मुमताज के कारण इसका नाम मुमताज महल पड़ा, क्योंकि उनकी बेगम का नाम था मुमता-उल-जमानी। यदि मुमताज के नाम पर इसका नाम रखा होता तो ताजमहल के आगे से मुम को हटा देने का कोई औचित्य नजर नहीं आता।
 
'रहस्य महल'
विंसेंट स्मिथ अपनी पुस्तक 'Akbar the Great Moghul' में लिखते हैं, 'बाबर ने सन् 1630 में आगरा के वाटिका वाले महल में अपने उपद्रवी जीवन से मुक्ति पाई। वाटिका वाला वो महल यही ताजमहल था। यह इतना विशाल और भव्य था कि इसके जितना दूसरा कोई भारत में महल नहीं था। बाबर की पुत्री गुलबदन 'हुमायूंनामा' नामक अपने ऐतिहासिक वृत्तांत में ताज का संदर्भ 'रहस्य महल' (Mystic House) के नाम से देती है।
 
ओक के अनुसार प्राप्त सबूतों के आधार पर ताजमहल का निर्माण राजा परमर्दिदेव के शासनकाल में 1155 अश्विन शुक्ल पंचमी, रविवार को हुआ था। अत: बाद में मुहम्मद गौरी सहित कई मुस्लिम आक्रांताओं ने ताजमहल के द्वार आदि को तोड़कर उसको लूटा। यह महल आज के ताजमहल से कई गुना ज्यादा बड़ा था और इसके तीन गुम्बद हुआ करते थे। हिन्दुओं ने उसे फिर से मरम्मत करके बनवाया, लेकिन वे ज्यादा समय तक इस महल की रक्षा नहीं कर सके।
 
पहले कहते थे इसे "तेजो महलय"
पुरषोत्तम नागेश ओक ने ताजमहल पर शोधकार्य करके बताया कि ताजमहल को पहले 'तेजो महलय' कहते थे। वर्तमन ताजमहल पर ऐसे 700 चिन्ह खोजे गए हैं, जो इस बात को दर्शाते हैं कि इसका रिकंस्ट्रक्शन किया गया है। इसकी मीनारे बहुत बाद के काल में निर्मित की गई। वास्तुकला के विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र नामक प्रसिद्ध ग्रंथ में शिवलिंगों में 'तेज-लिंग' का वर्णन आता है। ताजमहल में 'तेज-लिंग' प्रतिष्ठित था इसीलिए उसका नाम 'तेजोमहालय' पड़ा था।
 
शाहजहां के समय यूरोपीय देशों से आने वाले कई लोगों ने भवन का उल्लेख 'ताज-ए-महल' के नाम से किया है, जो कि उसके शिव मंदिर वाले परंपरागत संस्कृत नाम 'तेजोमहालय' से मेल खाता है। इसके विरुद्ध शाहजहां और औरंगजेब ने बड़ी सावधानी के साथ संस्कृत से मेल खाते इस शब्द का कहीं पर भी प्रयोग न करते हुए उसके स्थान पर पवित्र मकबरा शब्द का ही प्रयोग किया है।
 
ओक के अनुसार हुमायूं, अकबर, मुमताज, एतमातुद्दौला और सफदरजंग जैसे सारे शाही और दरबारी लोगों को हिन्दू महलों या मंदिरों में दफनाया गया है। इस बात को स्वीकारना ही होगा कि ताजमहल के पहले से बने ताज के भीतर मुमताज की लाश दफनाई गई न कि लाश दफनाने के बाद उसके ऊपर ताज का निर्माण किया गया।
 
'ताजमहल' शिव मंदिर को इंगित करने वाले शब्द 'तेजोमहालय' शब्द का अपभ्रंश है। तेजोमहालय मंदिर में अग्रेश्वर महादेव प्रतिष्ठित थे। देखने वालों ने अवलोकन किया होगा कि तहखाने के अंदर कब्र वाले कमरे में केवल सफेद संगमरमर के पत्थर लगे हैं जबकि अटारी व कब्रों वाले कमरे में पुष्प लता आदि से चित्रित पच्चीकारी की गई है। इससे साफ जाहिर होता है कि मुमताज के मकबरे वाला कमरा ही शिव मंदिर का गर्भगृह है। संगमरमर की जाली में 108 कलश चित्रित उसके ऊपर 108 कलश आरूढ़ हैं, हिन्दू मंदिर परंपरा में 108 की संख्या को पवित्र माना जाता है।
 तेजो महालय का इतिहास :
तेजोमहालय उर्फ ताजमहल को नागनाथेश्वर के नाम से जाना जाता था, क्योंकि उसके जलहरी को नाग के द्वारा लपेटा हुआ जैसा बनाया गया था। यह मंदिर विशालकाय महल क्षेत्र में था।
 
आगरा को प्राचीनकाल में अंगिरा कहते थे, क्योंकि यह ऋषि अंगिरा की तपोभूमि थी। अं‍गिरा ऋषि भगवान शिव के उपासक थे। बहुत प्राचीन काल से ही आगरा में 5 शिव मंदिर बने थे। यहां के निवासी सदियों से इन 5 शिव मंदिरों में जाकर दर्शन व पूजन करते थे। लेकिन अब कुछ सदियों से बालकेश्वर, पृथ्वीनाथ, मनकामेश्वर और राजराजेश्वर नामक केवल 4 ही शिव मंदिर शेष हैं। 5वें शिव मंदिर को सदियों पूर्व कब्र में बदल दिया गया। स्पष्टतः वह 5वां शिव मंदिर आगरा के इष्टदेव नागराज अग्रेश्वर महादेव नागनाथेश्वर ही हैं, जो कि तेजोमहालय मंदिर उर्फ ताजमहल में प्रतिष्ठित थे।
 
ताजमहल के तेजो महालय होने के सबूत :
इतिहासकार ओक की पुस्तक अनुसार ताजमहल के हिन्दू निर्माण का साक्ष्य देने वाला काले पत्थर पर उत्कीर्ण एक संस्कृत शिलालेख लखनऊ के वास्तु संग्रहालय के ऊपर तीसरी मंजिल में रखा हुआ है। यह सन् 1155 का है। उसमें राजा परमर्दिदेव के मंत्री सलक्षण द्वारा कहा गया है कि 'स्फटिक जैसा शुभ्र इन्दुमौलीश्‍वर (शंकर) का मंदिर बनाया गया। (वह इ‍तना सुंदर था कि) उसमें निवास करने पर शिवजी को कैलाश लौटने की इच्छा ही नहीं रही। वह मंदिर आश्‍विन शुक्ल पंचमी, रविवार को बनकर तैयार हुआ।
 
ताजमहल के उद्यान में काले पत्थरों का एक मंडप था, यह एक ऐतिहासिक उल्लेख है। उसी में वह संस्कृत शिलालेख लगा था। उस शिलालेख को कनिंगहम ने जान-बूझकर वटेश्वर शिलालेख कहा है ताकि इतिहासकारों को भ्रम में डाला जा सके और ताजमहल के हिन्दू निर्माण का रहस्य गुप्त रहे। आगरे से 70 मिल दूर बटेश्वर में वह शिलालेख नहीं पाया गया अत: उसे बटेश्वर शिलालेख कहना अंग्रेजी षड्‍यंत्र है।
 
शाहजहां ने तेजोमहल में जो तोड़फोड़ और हेराफेरी की, उसका एक सूत्र सन् 1874 में प्रकाशित पुरातत्व खाते (आर्किओलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया) के वार्षिक वृत्त के चौथे खंड में पृष्ठ 216 से 17 पर अंकित है। उसमें लिखा है कि हाल में आगरे के वास्तु संग्रहालय के आंगन में जो चौखुंटा काले बसस्ट का प्रस्तर स्तंभ खड़ा है वह स्तंभ तथा उसी की जोड़ी का दूसरा स्तंभ उसके शिखर तथा चबूतरे सहित कभी ताजमहल के उद्यान में प्रस्थापित थे। इससे स्पष्ट है कि लखनऊ के वास्तु संग्रहालय में जो शिलालेख है वह भी काले पत्थर का होने से ताजमहल के उद्यान मंडप में प्रदर्शित था।
 
हिन्दू मंदिर प्रायः नदी या समुद्र तट पर बनाए जाते हैं। ताज भी यमुना नदी के तट पर बना है, जो कि शिव मंदिर के लिए एक उपयुक्त स्थान है। शिव मंदिर में एक मंजिल के ऊपर एक और मंजिल में दो शिवलिंग स्थापित करने का हिन्दुओं में रिवाज था, जैसा कि उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर और सोमनाथ मंदिर में देखा जा सकता है। ताजमहल में एक कब्र तहखाने में और एक कब्र उसके ऊपर की मंजिल के कक्ष में है तथा दोनों ही कब्रों को मुमताज का बताया जाता है।
 
जिन संगमरमर के पत्थरों पर कुरान की आयतें लिखी हुई हैं उनके रंग में पीलापन है जबकि शेष पत्थर ऊंची गुणवत्ता वाले शुभ्र रंग के हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि कुरान की आयतों वाले पत्थर बाद में लगाए गए हैं। ताज के दक्षिण में एक प्राचीन पशुशाला है। वहां पर तेजोमहालय की पालतू गायों को बांधा जाता था। मुस्लिम कब्र में गाय कोठा होना एक असंगत बात है।
 
ताजमहल में चारों ओर चार एक समान प्रवेशद्वार हैं, जो कि हिन्दू भवन निर्माण का एक विलक्षण तरीका है जिसे कि चतुर्मुखी भवन कहा जाता है। ताजमहल में ध्वनि को गुंजाने वाला गुम्बद है। हिन्दू मंदिरों के लिए गूंज उत्पन्न करने वाले गुम्बजों का होना अनिवार्य है। बौद्धकाल में इसी तरह के शिव मंदिरों का अधिक निर्माण हुआ था। ताजमहल का गुम्बज कमल की आकृति से अलंकृत है। आज हजारों ऐसे हिन्दू मंदिर हैं, जो कि कमल की आकृति से अलंकृत हैं।
 
ताजमहल के गुम्बज में सैकड़ों लोहे के छल्ले लगे हुए हैं जिस पर बहुत ही कम लोगों का ध्यान जा पाता है। इन छल्लों पर मिट्टी के आलोकित दीये रखे जाते थे जिससे कि संपूर्ण मंदिर आलोकमय हो जाता था। ताजमहल की चारों मीनारें बाद में बनाई गईं।
 
ताजमहल का गुप्त स्थान : 
इतिहासकार ओक के अनुसार ताज एक सात मंजिला भवन है। शहजादे औरंगजेब के शाहजहां को लिखे पत्र में भी इस बात का विवरण है। भवन की चार मंजिलें संगमरमर पत्थरों से बनी हैं जिनमें चबूतरा, चबूतरे के ऊपर विशाल वृत्तीय मुख्य कक्ष और तहखाने का कक्ष शामिल है। मध्य में दो मंजिलें और हैं जिनमें 12 से 15 विशाल कक्ष हैं। संगमरमर की इन चार मंजिलों के नीचे लाल पत्थरों से बनी दो और मंजिलें हैं, जो कि पिछवाड़े में नदी तट तक चली जाती हैं। सातवीं मंजिल अवश्य ही नदी तट से लगी भूमि के नीचे होनी चाहिए, क्योंकि सभी प्राचीन हिन्दू भवनों में भूमिगत मंजिल हुआ करती है।
 
नदी तट के भाग में संगमरमर की नींव के ठीक नीचे लाल पत्थरों वाले 22 कमरे हैं जिनके झरोखों को शाहजहां ने चुनवा दिया है। इन कमरों को, जिन्हें कि शाहजहां ने अतिगोपनीय बना दिया है, भारत के पुरातत्व विभाग द्वारा तालों में बंद रखा जाता है। सामान्य दर्शनार्थियों को इनके विषय में अंधेरे में रखा जाता है। इन 22 कमरों की दीवारों तथा भीतरी छतों पर अभी भी प्राचीन हिन्दू चित्रकारी अंकित हैं। इन कमरों से लगा हुआ लगभग 33 फुट लंबा गलियारा है। गलियारे के दोनों सिरों में एक-एक दरवाजे बने हुए हैं। इन दोनों दरवाजों को इस प्रकार से आकर्षक रूप से ईंटों और गारे से चुनवा दिया गया है कि वे दीवार जैसे प्रतीत हों।
 
स्पष्टत: मूल रूप से शाहजहां द्वारा चुनवाए गए इन दरवाजों को कई बार खुलवाया और फिर से चुनवाया गया है। सन् 1934 में दिल्ली के एक निवासी ने चुनवाए हुए दरवाजे के ऊपर पड़ी एक दरार से झांककर देखा था। उसके भीतर एक वृहत कक्ष (huge hall) और वहां के दृश्य को‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ देखकर वह हक्का-बक्का रह गया तथा भयभीत-सा हो गया। वहां बीचोबीच भगवान शिव का चित्र था जिसका सिर कटा हुआ था और उसके चारों ओर बहुत सारी मूर्तियों का जमावड़ा था। ऐसा भी हो सकता है कि वहां पर संस्कृत के शिलालेख भी हों। यह सुनिश्चित करने के लिए कि ताजमहल हिन्दू चित्र, संस्कृत शिलालेख, धार्मिक लेख, सिक्के तथा अन्य उपयोगी वस्तुओं जैसे कौन-कौन-से साक्ष्य छुपे हुए हैं, उसकी सातों मंजिलों को खोलकर साफ-सफाई कराने की नितांत आवश्यकता है।
 
फ्रांसीसी यात्री बेर्नियर ने लिखा है कि ताज के निचले रहस्यमय कक्षों में गैर मुस्लिमों को जाने की इजाजत नहीं थी, क्योंकि वहां चौंधिया देने वाली वस्तुएं थीं। यदि वे वस्तुएं शाहजहां ने खुद ही रखवाई होती तो वह जनता के सामने उनका प्रदर्शन गौरव के साथ करता, परंतु वे तो लूटी हुई वस्तुएं थीं और शाहजहां उन्हें अपने खजाने में ले जाना चाहता था इसीलिए वह नहीं चाहता था कि कोई उन्हें देखे।
 
नदी के पिछवाड़े में हिन्दू बस्तियां, बहुत से हिन्दू प्राचीन घाट और प्राचीन हिन्दू शवदाह गृह हैं। यदि शाहजहां ने ताज को बनवाया होता तो इन सबको नष्ट कर दिया गया होता।
 
तोहफे में नहीं मिला था राजा जयसिंह से छीना था यह महल :
कोई किसी को मंदिर तोहफे में नहीं देता। पुरुषोत्तम ओक के अनुसार बादशाहनामा, जो कि शाहजहां के दरबार के लेखा-जोखा की पुस्तक है, में स्वीकारोक्ति है (पृष्ठ 403 भाग 1) कि मुमताज को दफनाने के लिए जयपुर के महाराजा जयसिंह से एक चमकदार, बड़े गुम्बद वाला विशाल भवन (इमारत-ए-आलीशान व गुम्बज) लिया गया, जो कि राजा मानसिंह के भवन के नाम से जाना जाता था।
 
जयपुर के पूर्व महाराजा ने अपनी दैनंदिनी में 18 दिसंबर, 1633 को जारी किए गए शाहजहां के ताज भवन समूह को मांगने के बाबत दो फरमानों (नए क्रमांक आर. 176 और 177) के विषय में लिख रखा है। यह बात जयपुर के उस समय के शासक के लिए घोर लज्जाजनक थी और इसे कभी भी आम नहीं किया गया।
 
ताजमहल के बाहर पुरातत्व विभाग में रखे हुए शिलालेख में वर्णित है कि शाहजहां ने अपनी बेगम मुमताज महल को दफनाने के लिए एक विशाल इमारत बनवाई जिसे बनाने में सन् 1631 से लेकर 1653 तक 22 वर्ष लगे। यह शिलालेख ऐतिहासिक घपले का नमूना है।
 
ओक लिखते हैं कि शहजादा औरंगजेब द्वारा अपने पिता को लिखी गई चिट्ठी को कम से कम तीन महत्वपूर्ण ऐतिहासिक वृत्तांतों में दर्ज किया गया है जिनके नाम 'आदाब-ए-आलमगिरी', 'यादगारनामा' और 'मुरुक्का-ए-अकबराबादी' (1931 में सैद अहमद, आगरा द्वारा संपादित, पृष्ठ 43, टीका 2) हैं। उस चिट्ठी में सन् 1662 में औरंगजेब ने खुद लिखा है कि मुमताज के सात मंजिला लोकप्रिय दफन स्थान के प्रांगण में स्थित कई इमारतें इतनी पुरानी हो चुकी हैं कि उनमें पानी चू रहा है और गुम्बद के उत्तरी सिरे में दरार पैदा हो गई है। इसी कारण से औरंगजेब ने खुद के खर्च से इमारतों की तुरंत मरम्मत के लिए फरमान जारी किया और बादशाह से सिफारिश की कि बाद में और भी विस्तारपूर्वक मरम्मत कार्य करवाया जाए। यह इस बात का साक्ष्य है कि शाहजहां के समय में ही ताज प्रांगण इतना पुराना हो चुका था कि तुरंत मरम्मत करवाने की जरूरत थी।
 
शाहजहां के दरबारी लेखक मुल्ला अब्दुल हमीद लाहौरी ने अपने 'बादशाहनामा' में मुगल शासक बादशाह का संपूर्ण वृत्तांत 1000 से ज्यादा पृष्ठों में लिखा है जिसके खंड एक के पृष्ठ 402 और 403 पर इस बात का उल्लेख है कि शाहजहां की बेगम मुमताज-उल-मानी जिसे मृत्यु के बाद बुरहानपुर (मध्यप्रदेश) में अस्थाई तौर पर दफना दिया गया था और इसके 6 माह बाद तारीख 15 मदी-उल-अउवल दिन शुक्रवार को अकबराबाद आगरा लाया गया फिर उसे महाराजा जयसिंह से लिए गए आगरा में स्थित एक असाधारण रूप से सुंदर और शानदार भवन (इमारते आलीशान) में पुनः दफनाया गया।
 
लाहौरी के अनुसार राजा जयसिंह अपने पुरखों की इस आलीशान मंजिल से बेहद प्यार करते थे, पर बादशाह के दबाव में वे इसे देने के लिए तैयार हो गए थे। इस बात की पुष्टि के लिए यहां यह बताना अत्यंत आवश्यक है कि जयपुर के पूर्व महाराज के गुप्त संग्रह में वे दोनों आदेश अभी तक रखे हुए हैं, जो शाहजहां द्वारा ताज भवन समर्पित करने के लिए राजा जयसिंह को दिए गए थे।
 
साभार : इतिहासकार पुरुषोत्तम नागेश ओक की पु्स्तक 'ताजमहल तेजोमहालय शिव मंदिर है' से अंश...

गुरुवार, 8 जुलाई 2021

हिन्दू धर्म में वैश्य समाज का महत्व और योगदान

पद्मावती फ़िल्म का सर्व हिन्दू समाज ने विरोध किया जो कि बहुत ही प्रसन्नता का विषय है। फ़िल्म के प्रखर विरोध के लिए श्री राजपूत करणी सेना व राजपूत संगठनों के साथ बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद, अन्य हिन्दू संगठन अग्रवाल महासभा, ब्राह्मण महासभा, वैश्य महासभा व अन्य 36 कौम एक साथ आई हैं। महारानी पद्मिनी सभी हिन्दूओं की माँ हैं और उनका सम्मान किसी के लिए बंटा हुआ नहीं है।

परन्तु जब भी हिन्दू एकजुट से दिखने लगते हैं, कुछ मूर्ख जातिवाद फैलाना चालू कर देते हैं। जैसे कुछ मूर्ख राजपूतों को कायर तक कह देते हैं, कुछ धूर्त ब्राह्मणों को बेरोकटोक गाली बक जाते हैं। ऐसे ही कुछ नमूने बनियों को धंधेबाज और स्वार्थी कहकर उनका अपमान करते हैं। वैश्यों ने अपना कभी भी प्रचार कर महानता की पीपुड़ी बजाकर, दूसरों को नीचा नहीं दिखाया इसलिए हमेशा ही उनका कम आकलन किया गया है और परिदृश्य से ही ओझल सा कर दिया जाता है। जबकि वैश्य समाज ने हमेशा हिन्दूओं की हर लड़ाई में ऐसे साथ दिया है जैसे गायक का साथ उसके संगतकार देते हैं। एक कवि की कुछ पंक्तियां हैं —

मुख्य गायक की गरज़ में,
वह अपनी गूँज मिलाता आया है प्राचीन काल से,
गायक जब अंतरे की जटिल तानों के जंगल में, खो चुका होता है,
तब संगतकार ही स्थाई को सँभाले रहता है।

तारसप्तक में जब बैठने लगता है उसका गला,
तभी मुख्य गायक को ढांढस बँधाता,
कहीं से चला आता है संगतकार का स्वर,
कभी-कभी वह यों ही दे देता है उसका साथ,
और उसकी आवाज़ में जो एक हिचक साफ़ सुनाई देती है,
या अपने स्वर को ऊँचा न उठाने की जो कोशिश है,
उसे विफलता नहीं,
उसकी मनुष्यता समझा जाना चाहिए।

ऐसा ही है वैश्य समाज जो कहीं से छिपकर, बिना किसी अहम् के धर्म की लड़ाई में गिलहरी योगदान देता आया है। जब हम कहते हैं कि विदेशी आक्रांताओं ने आक्रमण करके भारत का धन लूटा, व्यापार नष्ट कर दिए, तो वे लुटने वाले कौन थे? वे यही लोग थे। पर वे कभी धर्म से दूर नहीं हुए और अपने धन संसाधन सदैव धर्म के लिए निःस्वार्थ भाव से खोले रखे। युद्धों की सबसे ज्यादा गाज व्यापार पर ही गिरती है और वैश्य ही कर द्वारा राज्य को समृद्ध बनाते हैं।

जौहर केवल जाति विशेष का नहीं..

विल ड्यूरेन्ट ने अपनी किताब द स्टोरी ऑफ सिविलाइज़ेशन में लिखा है कि, “जब अलाउद्दीन ने चित्तौड़ में प्रवेश किया तब परकोटे की चारदीवारी में मनुष्य जीवन का चिन्ह तक नहीं था। सभी पुरुष युद्ध में मारे जा चुके थे और उनकी पत्नियाँ जौहर में।” अमीर खुसरो के अनुसार “सैनिकों के अलावा 30 हज़ार हिन्दूओं का खिलजी ने क़त्ल करवाया था। जिस कारण लगता था कि खिज्रबाद में घास की बजाय पुरुष उगते थे।” इसलिए यह तो स्पष्ट है कि केवल राजपूत ही नहीं ब्राह्मण, वैश्य सभी का बलिदान और क़त्ल हुआ था। क्योंकि कोई भी नगर केवल एक जाति से नहीं बसता है। राजपूत साम्राज्य की छत्रछाया में वृहद हिन्दू समाज भी रहता था। ऐसे में शुरुआत से ही यह लड़ाई केवल एक समुदाय की नहीं अखिल हिन्दू समाज की लड़ाई है।

Image result for padmini johar

भामाशाह का दान

वैश्य समाज धर्म के लिए कभी भी पीछे नहीं रहा है। हल्दीघाटी युद्ध के बाद महाराणा प्रताप जब मेवाड़ के आत्मसम्मान के लिए जंगलों में भटक रहे थे तब भामाशाह ने सम्पूर्ण निजी सम्पत्ति का दान कर दिया था। जिससे 25000 सैनिकों का बारह वर्ष तक निर्वाह हो सकता था। प्राप्त सहयोग से महाराणा प्रताप में नया उत्साह उत्पन्न हुआ और उन्होंने पुन: सैन्य शक्ति संगठित कर मुगल शासकों को पराजित करके राज्य सम्भाला।

धर्मपरायणता के लिए जाति निकाला...

अग्रवाल वैश्यों के धर्माभिमान का ये स्तर था कि एक लाला रतनचंद मुग़ल बादशाह फ़र्रुख़सियर का दीवान बन गए और सैय्यद भाइयों के खास। उस समय लाला रतनचंद की भूमिका किंग मेकर जैसी थी। जज़िया का भी उन्होंने विरोध किया था। परन्तु अग्रवाल समाज को उनका मुस्लिमों की नौकरी करना नागवार गुजरा और उन्हें जाति बहिष्कृत कर दिया गया। रतनचंद से पहले किसी अग्रवाल का मुगलों से सम्बन्ध नहीं रहा था। बाद में रतनचंद ने राजवंशी नाम की अलग उपजाति बना ली। इसी धर्मपरायणता के कारण 1990 से पहले एक भी अग्रवाल का मुस्लिम बनने का मामला नहीं मिलता।

वैश्य: हिन्दू धर्म के निःस्वार्थ सेवक

देश के अधिकांश मंदिर निर्माण, प्रबंधन, धार्मिक आयोजन, सेवा प्रकल्प, यज्ञ याग आदि में तो इस समाज का योगदान बताने की आवश्यकता नहीं है। हिंदी के जनक भारतेंदु हरिश्चंद्र, क्रांतिकारियों के प्रेरणापुंज लाला लाजपत राय, गीताप्रेस के द्वारा सनातन धर्म की अकल्पनीय निःस्वार्थ सेवा करने वाले गीताप्रेस के संस्थापक ब्रह्मज्ञानी हनुमान प्रसाद पोद्दार जी, जयदयाल गोयन्दका जी हों, हिन्दुत्व को कलम से सींचने वाले सीताराम गोयल हों या देश में श्रीरामलला की आंधी चलाने वाले पूज्य अशोक सिंहल जी या हज़ारों युवा जिन्होंने श्रीरामजन्मभूमि आंदोलन में ऐतिहासिक भाग लिया वैश्यों ने कभी भी अपने कार्य को प्रचार और एहसान जताने के साधन नहीं बनाया। न इसके लिए किसी सम्मान की कभी उपेक्षा की। अपने हिस्से की धर्मसेवा की और उसे मन से निकालकर फेंक दिया। पुनः धर्म और सन्तों के सेवक बनकर गिलहरी योगदान देते रहने को ही जीवन का उद्देश्य माना। फिर भी जब कुछ जातिवाद के दम्भ से पीड़ित लोग वैश्यों को स्वार्थी, सांठगांठ करने वाला और निष्क्रिय बताकर अपने दम्भ को पोषित करने का प्रयास करते हैं तो हंसी नहीं तो दया के पात्र लगते हैं।

वैश्य समाज के लक्षण

पद्मावती फ़िल्म के विरोध में भी यह समाज सहज रूप से स्वयं प्रेरित भाव से ही अलख जगाता रहा। और माँ के सम्मान में हमेशा खड़ा रहेगा। राष्ट्रीय अग्रवाल महासभा उन सबका पूर्ण समर्थन और अभिवादन करती है जो माँ के सम्मान में खड़े हैं। समग्र वैश्य समाज तो धर्म के प्रत्येक कार्य में एकांत में योगदान देकर अपना कर्तव्य निभाता रहेगा। कभी कोने में घायल गौ के घाव भरता दिखेगा तो कभी रामलला के चौखट पर पत्थर लगाते। कभी किसी प्यासे को पानी पिलाते तो किसी पंगत में सन्तों की सेवा करते। कभी युद्ध में रसद पहुंचाते तो कभी युद्धभूमि में मुस्कुराते मुख के साथ बलिदान हुआ मिलेगा….

– राष्ट्रीय अग्रवाल महासभा

बुधवार, 7 जुलाई 2021

यदि "महाभारत" को पढ़ने का समय नहीं है, तो ये नौ सार-सूत्र जरूर पढ़े... आपके जीवन में उपयोगी सिद्ध होंगे :-

1. संतानों की गलत माँग और हठ पर समय रहते अंकुश नहीं लगाया गया, तो अंत में आप असहाय हो जायेंगे। (कौरवों को देख लो)

2. आप भले ही कितने बलवान हो लेकिन अधर्म के साथ हो तो, आपकी विद्या, अस्त्र-शस्त्र शक्ति और वरदान सब निष्फल हो जायेगा। (कर्ण को देख लो)

3. संतानों को इतना महत्वाकांक्षी मत बना दो कि विद्या का दुरुपयोग कर स्वयंनाश कर, सर्वनाश को आमंत्रित करें। (अश्वत्थामा को देख लो)

4. कभी किसी को ऐसा वचन मत दो कि आपको अधर्मियों के आगे समर्पण करना पड़े। (भीष्म पितामह को देख लो)

5. संपत्ति, शक्ति व सत्ता का दुरुपयोग और दुराचारियों का साथ अंत में स्वयंनाश का दर्शन कराता हैं। (दुर्योधन को देख लो)

6. मुद्रा, मदिरा, अज्ञान, मोह, काम और अंधव्यक्ति के हाथ में सत्ता भी विनाश की ओर ले जाती हैं। (धृतराष्ट्र को देख लो)

7. यदि व्यक्ति के पास विद्या, विवेक से बँधी हो तो विजय अवश्य मिलती हैं। (अर्जुन कौ देख लो)

8. हर कार्य में छल, कपट व प्रपंच रच कर आप हमेशा सफल नहीं हो सकते... (शकुनि को देख लो)

9. यदि आप नीति, धर्म व कर्म का सफलता पूर्वक पालन करेंगे तो विश्व की कोई भी शक्ति आपको पराजित नहीं कर सकती... (युधिष्ठिर को देख लो)

धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो... 🙏🏻⛳

सोमवार, 5 जुलाई 2021

श्री राम का अग्निबाण कहाँ चला था..?

एक बात जिस पर विचार होना चाहिए कि सेतु बाँधने से पहले समुद्र को सुखाने के लिए प्रभु राम ने जो अग्नि बाण का संधान किया था, वह किस स्थान पर चला था...?
संघानेउ प्रभु बिसिख कराला। 
उठी उदधि उर अंतर ज्वाला।।
मकर उरग झष गन अकुलाने। 
जरत जंतु जलनिधि जब जाने।।

और बाण चढाते ही समुद्र में भयंकर ज्वालाए उठने लगीं, समुद्री जीव जंतु जलने लगे तब समुद ने मानव रूप में आकर विनती की और नल नील से पुल बनवाने को कहा और धनुष पर  चढे हये भयंकर अग्नि बाण का क्या हो, इसके बारे में प्रभु से प्रार्थना की -

एहि सर मम उत्तर तट बासी। 
हतहु नाथ खल नर अघ रासी॥
सुनि कृपाल सागर मन पीरा।
तुरतहिं हरी राम रनधीरा ॥3॥

निवेदन किया की इस बाण से मेरे उत्तर तट पर रहने वाले पाप के राशि दुष्ट मनुष्यों का वध कीजिए। कृपालु और रणधीर श्री रामजी ने समुद्र के मन की पीड़ा सुनकर उसे तुरंत ही हर लिया (अर्थात्‌ बाण को उस दिशा में भेज कर उन दुष्टों का वध कर दिया)

देखि राम बल पौरुष भारी।
हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी॥
सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा।
चरन बंदि पाथोधि सिधावा ॥4॥

श्री राम ने ऐसा ही किया उस अग्नि बाण को जैसा समुद्र ने कहा था चला दिया और श्री राम के असीम बल पौरुष को देखकर समुद्र प्रसन्न हुआ-- श्री राम धनुषकोटि पर थे और पास में अरब सागर और जिसके उत्तर में आज के अरब देश और अफ्रीका का उत्तरी हिस्सा होना चाहिए। लगता है उस समय वहाँ सारी मानव जाति को कष्ट पहुचाने वाले मनुष्य रहते थे जिनका उस समय समूल नाश श्री राम के अग्नि बाण ने किया - वाल्मिकी रामायण के अनुसार वहाँ सभी मनुष्य - जीव जंतु-पेड़ पौधे सब कुछ नष्ट हो गया और रेगिस्तान हो गया  - पानी सूख गया। तो क्या उस समय अरब देशो में असुर रहते थे जिनका समूल विनाश भगवान राम ने अग्नि बाण से किया और मृत सागर (डेड सी) लाल सागर इसी भयानक त्रासदी के कारण बने है ? 
इस पर विद्वान मनिषियों को शोध करना चाहिए...
साभार: ऋषि कण्डवाल

क्या जाति एक समस्या है..?

कुछ लोग अपने जाति को समस्या मानते हैं। उनके लिए यह विशेष पोस्ट...

हिन्दू जनमानस जाति विषय पर बैकफुट आ जाते हैं। उन्हें पता नहीं होता क्या उत्तर दें। 

जाति का सीधा सीधा अर्थ है आपके कुल से। आपकी पहचान से है। आपकी पहचान समस्या कैसे हो सकती है? और यह देश लूटा गया और हारा गया इसलिए नहीं कि, क्योंकि यहाँ पर सब आपस में बंटे हुए थे। बल्कि इसलिए क्योंकि सामने से जो आसमानी किताब से प्रेरित अब्राहमिक लोग यहाँ पर आए, उनके लिए तुम या तो 'काफिर' हो या 'हेमेटिक'। दूसरे शब्दों में कहें तो वे 'फनाटिक्स' हैं।  तुम उनके लिए मात्र गुलामी कर सकते हो। वह युद्ध में हारा तो माफी मांगेगा। लेकिन फिर वह पुनः आप पर आघात करेगा। यही हुआ है। हमारी आपकी उदारता ने हमें पराजित किया। हमारी सरलता ने किया। जाति ने नहीं। 17 बार किसी को हराकर कोई क्षमा करता है? 

सत्य तो यह है इसाई लोग जहाँ जहाँ गए, उन्होंने वहां की समस्त सभ्यता को नष्ट कर दिया। यूरोप की सारी सभ्यताएँ ईसाइयों ने नष्ट किया। और मिडल ईस्ट, ईरान की सारी सभ्यताएँ इस्लाम ने नष्ट किया। दोनो भाई है। दोनों की उतपत्ति एक ही जगह से हुई है। 

उन समस्त यूरोप में जाति तो नहीं थी? फिर वह सारी सभ्यताएँ समूल नष्ट  कैसे हो गई?

मुस्लिम के 300 वर्ष शासन के बाद भी भारत आज जीवित है आखिर क्यों? भारत में ऐसी कौनसी व्यवस्था थी जिससे हम बचे? और उसके बाद आते हैं ईसाई लोग। ईसाइयों की 200 वर्ष शासन काल के बाद भी हम और हमारी सभ्यता दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यता आज ही जीवित है, और डंके की चोट पर अपनी बात रख रहा है। ऐसा क्या था भारत में? जिससे हम बचे रहे? यही हमारी जाति व्यवस्था तो वो शक्ति है।  यह #लोक_संस्कृति से विकसित एक ब्रह्मास्त्र है। इसाई ब्रिटिश के 100 वर्ष शाशन के बाद भी, यहाँ कोई कन्वर्ट नहीं हो रहा था। ऐसा क्या था? इस बात को समझने के लिए आपको मैक्समूलर के कथन को समझना होगा, "हिंदुओं को कन्वर्ट करने में सबसे बड़ी बाधा यहाँ की कास्ट सिस्टम है।" फिर इसके बाद 1872 दूसरा पादरी "एम ए शेररिंग" आता है। वह कास्ट को निशाना बनाता है। कास्ट बुरा है। बीमारी है। कास्ट ब्राह्मणों की वजह से बना है। आपको अपने जाति को लेकर जो अवधारणा है, वह सब इसी एम ए शेरिंग की देन है। उसकी बात आजकल हर "टॉम डिक एंड हेरी" अपने भाषण में कहते है। 

इसी जाति के वजह से भारत दुनियां की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति थी। 1750 ई तक 24% जीडीपी थी। सबसे ज्यादा समृद्ध। तो यहाँ पर शोषित और वंचित कौन था? कोई नहीं। यहाँ तक कि इसका कोई भी एक भी रिकॉर्ड ही नही है। अपितु, जितने भी विदेशी यात्री भारत आए हैं। सब ने भारत को हमेशा समृद्ध ही कहा है। कई फ़्रांस यात्री 17वीं शताब्दी में भारत आए उन्होंने ही ऐसा कहा है। Dr. BRA भी एक भी उदाहरण नहीं दे पाए। 

मूल समस्या तब आयी जब इस देश के #लोक_संस्कृति से विकसित जाति के परम्परागत व्यवसाय को नष्ट कर दिया गया। 1750 ई के बाद, मात्र 200 वर्ष में 45 USD त्रिलयन लूटा गया, जो आज अमेरिका की इकोनॉमी के दो गुना है। यही से अभाव की मनोस्थिति उत्पन्न हुई। और इसी अभाव को समस्त इसाई मिशनरी, मैकाले इसाई शिक्षा पद्धति से अपने एट्रोसिटी लिटरेचर से प्रभावित किया। नहीं तो आप देख लीजिए, 1871 ई वी मे जनगणना में कोई Lower caste नहीं है। ईसाइयों के लूट से यहाँ पर एक वर्ग उतपन्न हुआ जिसको डिप्रेस्ड क्लास बोला गया, बाद में 1901 में उन्हें ही Untouchables बोला गया। जिसकी परिभाषा यह थी कि जिनके हाथों से न केवल ब्राह्मण अपितु शुद्र जातियां भी पानी नहीं लेती थी। ये लोग या तो कसाई थे या मांस व्यापारी, जो लोग गो हत्या भी करते थे। विश्व के किसी भी कोने में ऐसे व्यवसाय में लगे लोगों से समाज सदैव दूरी बनाए रखता है। आप चाहे तो विश्व का इतिहास पढ़ लें। स्वयम बौद्ध इतिहास इसी से पूरा भरा पड़ा है। 

और रही बात 'जाति' वैज्ञानिक सोच नहीं। इससे समानता नहीं बनती।।ऐसा कहने वाला व्यक्ति विज्ञान से अनभिज्ञ होता है। विज्ञान का आधार ही भेद है। विभिन्नता है। यदि वह भेद नहीं कर सकता तो कैसा वैज्ञानिक है। साथ साथ वह सबके भेद को जानते हुए भी एक ही मानता है। भेद को स्वीकारता है। उदाहरण स्वरूप: Chemistry का आधार ही भेद है और वहीं पर Physics सभी वस्तुओं को एक समान दृष्टि से देखता है। कहने का अर्थ यह हुआ, भेद को स्वीकार कर, समरूप दृष्टिकोण ही विज्ञान है। यही हमारे वेद का आधार है। 

साथ साथ विज्ञान वही है, जो आपको आजीविका दे। क्या आपके जाति ने आपके लिए आजीविका नहीं देती है?  आप उसी जाति के विध्वंस के बारे में सोचते हैं? 

तो अभी आप निर्णय ले! जाति का महत्व क्या है।

मैं नहीं कहता कि आप इसे कट्टर रूप से माने ही। लेकिन, आप अभाव एवं प्रभाव की वजह से अपने कुल को दोष देना बंद कीजिए।

#Repost
डॉ देवदास सिंघानिया पीएचडी