बुधवार, 31 जनवरी 2018

कछुए और खरगोश की दौड़ में... आलसी खरगोश कुछ दूर जाकर सो जाता है और मेहनती कछुआ जीत जाता है... कहानी खत्म हो जाती है..! लेकिन इस कहानी मे भयंकर twist है, फिर क्या होता हैं..? ये जानने के लिए आप इस आलेख को विस्तार से पढ़िए...

सामर्थवान मनुष्य जब किसी दुर्बल से हारता है तो उसका दंभ (ego) टूट जाता है और वह कुंठीत हो जाता है। ठीक वैसे ही चमत्कारिक तरीके से मिली जीत, हमें अतिउत्साही (overconfident) बना देती है। ये सब naturally हैं, जिसे हम अपने सकारात्मक या नकारात्मक विचारों से खुद मे स्थापित कर लेते है।

चूंकि खरगोश एक तेज दौड़ने वाला प्राणी होता है, कछुए की तुलना मे तो कई गुना अधिक सामर्थवान लेकिन हार चुका था, कुंठित हो गया।

खरगोश दोबारा प्रतियोगिता चाहता था... इसलिए कछुए से बोला - एक बार फिर से शर्त लगाता हूं... क्या तुम फिर से तैयार हो, इस चुनौती के लिए..?

अप्रत्याशित जीत से कछुआ भी अतिउत्साही था... जीत के नशे मे चूर कछुए ने हामी भर दी।

दौड़ शुरू हुई...
इस बार खरगोश ने कोई गलती नहीं की... वह पूरी ताकत से दौड़ा और जीत गया। लेकिन अतिउत्साह के कारण कछुआ अपना सम्मान गवां चुका था, जिसे वह फिर से पाना चाहता था।

कछुए ने हार नहीं मानी और चालाकी के साथ पुनः दौड़ के लिए खरगोश से कहा तो... खरगोश गर्व से बोला "तुम मुझसे अब कभी नहीं जीत सकते... मैं वह गलती दोबारा नहीं दोहराऊंगा और मैं हर बार तुमसे प्रतियोगिता के लिए तैयार हूं।"

कछुए ने दूसरे मार्ग से प्रतियोगिता की शर्त रखी... अहंकार में खरगोश ने विवेक खो दिया और शर्त स्वीकार कर ली।

तीसरी बार दौड़ प्रारंभ हुई खरगोश आगे था लेकिन रास्ते में नदी आ गई, खरगोश तैरना नहीं जानता था, वह किनारे पर कसमसाकर रह गया।
चालाक कछुआ धीरे-धीरे आया और नदी पार कर गया और वह खुद को उस सम्मान के लिए पुनर्स्थापित कर चुका था।

इस पूरी घटना को पेड़ पर बैठा एक चील देख रहा था उसने दोनों को समझा - "तुम दोनो यूनिक (अपने आप में खास) हो... ईश्वर ने सबको अलग गुण दिए हैं, उसका उपयोग सही दिशा में करो... दोनों मित्र बनो, आपातकाल में आवश्यकता होगी।

लेकिन दोनों न माने और चले गए...

एक समय जंगल में आग लग गई। सभी जानवर भागने लगे...
कछुआ नदी से बहुत दूर था। चाहकर भी बहुत जल्दी पानी तक नहीं जा सकता था, आग बढ़ती जा रही थी।
वही खरगोश की सीमाएं भी नदी के किनारे तक ही सीमीत थी।

तभी आकाश मे उड़ते चील ने उन्हें कहा "अब वक्त आ चुका हैं, एक-दूसरे की मदद से इस आग का सामना करो।

तब खरगोश जो की तेज दौड़ सकता था, उसने कछुए को अपनी पीठ पर बैठाकर आग को उन तक पहुंचने से पहले, नदी के किनारे तक ले आया।

अब बारी कछुए की थी... नदी मे पहुंचकर कछुए ने खरगोश को अपनी पीठ पर बैठाकर पार करवाया और अब दोनों आग से सुरक्षित थे।

हमें भी अपनी दबी मानसिकता, कुंठाओ से बाहर निकलना होगा, विवेक रखना होगा, सबको समान दृष्टि से देखना होगा।
ईश्वर ने सभी को अलग-अलग प्रतिभाएं दी हैं, सभी दूनिया मे यूनिक हैं, सभी के गुण अलग हैैं।
हमें इस वक्र मानसिकता से बाहर निकलकर  एक टीम भावना के साथ आपादा का सामना करना चाहिए...
अपने लोगों में छिपी प्रतिभााओं को बाहर निकालें...
अगर हम ऐसा कर सकेें तो जीत हर बार हमारी ही होगी, पूरे सम्मान के साथ, गरिमा के साथ...

इंसान का इंसान से हो भाईचारा, यही संदेश हमारा...

शुक्रवार, 12 जनवरी 2018

दूल्हा भट्टी की कहानी ( लोहड़ी पर्व )

लोहड़ी, संक्रांति, पोंगल, बीहू ये सारे पर्व देश में लगभग एक ही समय में मनाये जाते हैं। शीत ऋतु के मध्य में सूर्यदेव के उत्तरायण यात्रा के आरम्भ होने के उपलक्ष्य में और मकर संक्रांति के एक दिन पहले लोहड़ी का त्यौहार हर्षोल्लास, ढोल की थाप और नाच गाने के साथ परम्परागत तरीके से मनाया जाता हैं। ये सारे पर्व धर्म प्रधान नहीं हैं अपितु ऋतुओं के बदलाव के साथ प्रकृति एवं जनजीवन में आने वाले परिवर्तन के द्योतक हैं।

लोहड़ी पंजाब में मनाया जाने वाला पर्व है, जो पंजाब से अलग हो चुके प्रान्तों जैसे हिमाचल प्रदेश और हरियाणा में भी उसी उत्साह के साथ मनाया जाता हैं। इन प्रदेशों से आकर जो प्रवासी देश के विभिन्न भागों में बस गये हैं, वहाँ भी ये लोग उसी उमंग और उत्साह के साथ इस पर्व को मनाते हैं। बच्चे घर-घर जाकर गीत गाते हुए लोहड़ी का उपहार माँगते हैं और बदले में लकड़ियाँ, मिठाई, गजक, रेवड़ी इत्यादि उन्हें दिये जाते हैं। देर शाम किसी सार्वजनिक स्थल पर सभी लोग एकत्रित होते हैं और लकड़ियों को जला कर उसके चारों तरफ परिक्रमा लगाते हुए गीत गाते हैं और जोश और उल्लास के साथ भांगड़ा और गिद्धा करते हैं। तिल, गुड़, मूंगफली, गजक, रेवड़ी और अन्य भुने हुए अनाज खाते भी हैं और सबको बाँटते भी हैं।

इस पर्व से जुड़ी हुई एक रोचक लोक कथा भी हैं, जो दर्द भरी तो अवश्य है लेकिन हर सूरत में जन मानस का उत्साह बढ़ाने में कारगर हैं। इस कथा का नायक है दूल्हा भट्टी 

अकबर के शासन काल में अनेक राजपूतों ने अकबर के सामने घुटने टेकने के बजाय विद्रोह का मार्ग अपनाया और जंगलों में रह कर शाही फ़ौज के साथ छापे मार लड़ाई करने लगे। इन्हीं भाटी राजपूतों में से प्रसिद्द हुआ एक योद्धा जिसको दूल्हा भट्टी के नाम से जाना जाता हैं। दूल्हा भट्टी एक रोबिनहुड किस्म का व्यक्ति था, जो अमीर लोगों से धन लूट कर गरीब लोगों की मदद किया करता था। उसका एक और अभियान था कि ऐसी गरीब हिन्दू और सिख लड़कियों के विवाह में मदद करना जिनके ऊपर शाही ज़मींदारों और शासकों की बुरी नज़र होती थी और जिनको अगवा कर वे लोग गुलाम बना लेते थे और दासों के बाज़ार में बेच दिया करते थे। दूल्हा भट्टी ऐसी लड़कियों के लिये वर ढूँढता था और उनका कन्यादान स्वयं किया करता था। अपनी इसी परोपकारी प्रवृत्ति की वजह से दूल्हा भट्टी सबसे अधिक लोकप्रिय और प्रसिद्ध हुआ।

अकबर की फ़ौज उसे डाकू मानती थी और उसे पकड़ने के लिये हमेशा पीछा करती रहती थी। ऐसे ही एक मुश्किल समय में दूल्हा भट्टी को सुन्दरी और मुंदरी नाम की दो गरीब लेकिन रूपवान बहनों के बारे में पता चला, जिन्हें वहाँ का ज़मीदार अगवा करना चाहता था और लड़कियों का गरीब चाचा उनकी रक्षा करने में असमर्थ था। अनेकों कठिनाइयों के बावजूद भी दूल्हा भट्टी ने उन लड़कियों के लिये वर ढूँढे और लोहड़ी के दिन रात के अँधेरे में जंगल में कुछ लकड़ियाँ जला कर उस अग्नि के चारों ओर फेरे लगवा कर विवाह सम्पन्न करवाया, उनका कन्यादान किया और उन लड़कियों को उनके पतियों के साथ विदा कर दिया। हर बार की तरह दूल्हा भट्टी सुन्दरी-मुंदरी के लिये कुछ भी दहेज या उपहारों की व्यवस्था नहीं कर पाया, इसलिए दोनों को सिर्फ एक-एक सेर शक्कर ही देकर डोली में बैठा दिया। इसी घटना को आज भी लोहड़ी के दिन याद किया जाता है और लोकगीतों में इसका वर्णन भी मिल जाता है।

कालान्तर में दूल्हा भट्टी अकबर की फ़ौज के हाथों पकड़ा गया और उसको फाँसी दे दी गयी, लेकिन अपने अनेकों लोकोपकारी कार्यों की वजह से वह अमर हो गया और आज भी लोक गीतों और लोक कथाओं के माध्यम से उसे याद किया जाता हैं। लोहड़ी के अवसर पर गाया जाने वाला सुन्दरी-मुंदरी का यह गीत अत्यन्त प्रसिद्ध लोकगीत हैं। आइये इस गीत के बोलों को पढ़े और आनंद लें...
  
सुन्दरी मुंदरी होय  (हे सुन्दरी और मुंदरी)                         

तेरा कौन विचारा होए !(तुम्हारी परवाह कौन करेगा)

दूल्हा भट्टी वाला होए !(दूल्हा भट्टी है ना)

दूल्हे दी दीह व्याही होए !(दूल्हा भट्टी बेटी बनाकर ब्याह करेगा)

सेर शक्कर पाई होए !(वो दहेज में एक किलो शक्कर ही दे पाया)

कुड़ी दा लाल पचाका होए !(लड़की ने दुल्हन वाला लाल जोड़ा पहना)

कुड़ी दा सालू पाट्टा होए !(लेकिन उसकी शाल फटी है)

सालू कौन समेटे होए !(उसकी शाल कौन सिलेगा, कौन उसका खोया मान लौटाएगा)

मामे चूरी कूटी ! (मामा ने मीठी चूरी बनाई थी)

ज़मींदारा लुट्टी ! (उसे भी ज़मींदार ने लूट लिया)

ज़मींदार सुधाए !(अमीर ज़मीदार ने लड़की का अपहरण कर लिया)

बड़े भोले आए !(कई गरीब लड़के आए)
 
इक भोला रह गया ! (एक सबसे गरीब लड़का रह गया)

सिपाही पकड़ के लै गया !(उसे भी सिपाहियों ने पकड़ लिया, शक था कि वो दूल्हा भट्टी का भेजा हुआ है)

सिपाही ने मारी ईट !(सिपाहियों ने उसे ईंट से मारा- प्रताड़ित किया)

पावें रो ते पावें पिट !(अब चाहे रोवो या सिर पीटो)

डब्बा भरया लीरां दा !(तोहफों से डिब्बा भर गया)              

ए घर अमीरा दा !(यह घर सच में दिलदारों का है)

हुक्का भई हुक्का(इन्होंने कुछ नहीं दिया)

ए घर भुक्खा !(यह घर कंजूसों का है)

साणू दे दे लोहड़ी !(हमें लोहड़ी का तोहफ़ा दे दो)

ते तेरी जीवे जोड़ी ! (तुम्हारी जोड़ी सलामत रहे)

     
हमारे तीज त्यौहार इतिहास के बहुत सारे पहलुओं को उजागर करते हैं, जो वर्तमान समय में विस्मृत होते जा रहे हैंं। हमारा दायित्व है कि हम इनके महत्व को पहचाने और आने वाली पीढ़ियों को भी इनसे परिचित करायें...⛳

गुरुवार, 11 जनवरी 2018

प्रेम की परिभाषा

दोस्तों आज मैं "प्रेम" के विषय पर बात करना चाहूँगा।

दोस्तों "प्रेम" ऐसा शब्द है जिसके सुनते ही मन पुलकित हो जाता है और इन्सान प्रेम पाने के लिए अधीर हो उठता है। किसी वस्तु या प्राणी के प्रति आकर्षण की अधिकता व जिसके समीप रहने से सुख की अनुभूति होती हो तथा मन प्रसन्न हो उठे वह प्रेम कहलाता है।

दोस्तों प्रेम इन्सान को महान बनाता है तथा प्रेम करने वाला इन्सान सदैव अच्छे कार्य ही करता है, इस पर संतों का एक दोहा याद आता है...
पोथी पढ़-पढ़ जग मुहा, पंडित भया न कोए..!
ढाई अक्षर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होए... 🥰

अर्थात वेद, शास्त्र और ज्ञान व धर्म की पुस्तकों को पढ़कर कोई इन्सान विद्वान् नहीं बन जाता..! वह यदि प्रेम का पाठ पढ़ ले तो अवश्य विद्वान् बन जायेगा।

दोस्तों यह संदेश संतजी ने किसी ईलू-ईलू वाले प्रेम को करने के लिए नहीं कहा..! उन्होंने संसार से प्रेम करने का संदेश दिया है... क्योंकि जिस वस्तु या प्राणी से प्रेम हो जाता है, उसका अनिष्ट करना तो दूर उसके किसी प्रकार के नुकसान का विचार भी मन में नहीं आता..! जैसे इन्सान अपनी संतान से प्रेम करता है तथा जीवन भर उनके पालन-पोषण के लिए अपने सुखों को त्याग कर मेहनत करता है और अपना सारा जीवन उन पर न्योछावर कर देता है। इसी प्रकार यदि इन्सान सभी प्राणियों से प्रेम करने लगे तो वह किसी को भी हानि पहुँचाने या उनके प्रति अपराध करने का विचार भी मन में नहीं लायेगा। और दोस्तों यदि सम्पूर्ण संसार आपस में प्रेम करें तो संसार से शत्रुता, चोरी, लूट, हत्या जैसे अपराधों का समापन हो जाएगा।

दोस्तों प्रेम करने के कई प्रकार हैं... जैसे शरीरिक, भौतिक और अध्यात्मिक... इनमें सबसे उच्च कोटि का प्रेम अध्यात्मिक प्रेम होता है क्योंकि अध्यात्मिक प्रेम कुछ पाने अथवा सुख के लिए नहीं होता, यह निश्छल व निस्वार्थ होता है और संसार में किसी से भी हो सकता है। अध्यात्मिक प्रेम में इन्सान जिस से भी प्रेम करता हैं, उसे प्रत्येक प्रकार का सुख पहुंचाना तथा उसे प्रत्येक प्रकार से खुशहाल देखना चाहता है फिर चाहे वह पशु, पक्षी या कोई इन्सान हो। अध्यात्मिक प्रेम में सिर्फ त्याग होता है, प्राप्ति की कोई कामना नहीं होती..!

दोस्तों भौतिक प्रेम धन अथवा किसी धातु या धातु से निर्मित वस्तु एंव मकान या किसी साजों-सामान व वाहन से भी हो सकता है। यह प्रेम इन्सान के लिए दुःख का कारण बनता है क्योंकि सभी वस्तुएं नश्वर होती हैं और इन्सान के प्रयोग के लिए होती हैं, इनसे प्रेम कर सहेज कर रख देने से न तो किसी काम आती हैं और न ही सुरक्षित रह पाती हैं, जो इन्सान के लिए दुःख का कारण बनती हैं।

दोस्तों शरीरिक प्रेम अर्थात शरीरिक आकर्षण सदा नुकसान और दुःख का कारण ही बनता है। शरीरिक आकर्षण के दुष्परिणाम इंसान के जीवन का सर्वनाश कर देते हैं क्योंकि इंसान जिसके आकर्षण में फंसता है, उसके गुणों और अवगुणों को परखना अथवा देखना भी आवश्यक नहीं समझता तथा यही कारण उसे जीवन में बर्बादी के रास्ते पर ले जाता है। शरीरिक आकर्षण के दुष्परिणाम इन्सान को जब मालूम पड़ते हैं, जब तक वह अपना सब कुछ लुटा चुका होता है।

इसलिये दोस्तों यदि इन्सान जीवन में प्रेम करता है, तो वह महान कार्य कर रहा है... परन्तु अपने विवेक द्वारा परखना भी आवश्यक होता है कि कहीं प्रेम उसके लिए जीवन की बर्बादी का कारण तो नहीं बनने जा रहा..! जीवन को स्थापित करना तथा उसे सफल बनाना सबसे महत्वपूर्ण कार्य है और संसार व समाज में सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त करना भी आवश्यक है, जिसे सभी इंसानों से प्रेम व सद्भाव से ही प्राप्त किया जा सकता है। किसी की उच्च कोटि की मानसिकता और विचारों से प्रेम करना ही इंसानियत से प्रेम है।

शनिवार, 6 जनवरी 2018

डॉक्टर संभाजी भिडे

मीडिया के बहकावे में आके इनको गाली देने से पहले जान लीजिये की ये व्यक्ति है कौन ?


मीडिया के बहकावे में आकर इनको गाली देने से पहले या इनके उपर दंगे भडकाने का स्टीकर चिपकाने से पहले जान लीजिये की ये व्यक्ति है कौन ? नाम है डॉक्टर संभाजी भिडे। साधारण सा दिखने वाला ये आदमी साधारण नहीं बहुत विशेष है। 

आप भैतिकी( फिजिक्स) मे गोल्ड मेडलिस्ट हैं। आप पुणे के प्रतिष्ठित फेगर्सन कॉलेज में प्रोफेसर रह चुके हैं। आपको आपके कार्य के लिये 100 से भी ज्यादा राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरुस्कारों पुरुस्कृत किया जा चुका है। आपने 67 डॉक्टोरल एवं पोस्ट डॉक्टोरल रिसर्च कार्य किये हैं। आप नासा एवं पेंटागन के सलाहकार सद्स्यों की कमेटी के सद्स्य रह चुके हैं, ये गौरव प्राप्त करने वाले आप पहले और एक मात्र भारतीय वैज्ञानिक हैं।


 हिंदुत्व के लिये आपका योगदान अवर्णनीय है। वर्तमान में आपका निवास स्थान सबनिसवाडी सतारा में है। आपने प्रचारक के तौर पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में भी अपनी सेवायें दी हैं। 1980 में आपने स्वेच्छा से संघ से मुक्त होकर "शिव प्रतिष्ठान" नामक एक स्वयंसेवक संगठन का निर्माण किया।


आज ये महापुरुष किसी मल्टीनेशनल कंपनी के लिये काम नहीं कर रहा। बल्कि गांव गांव फिरकर गरीबों की सेवा करना उनको शिक्षित करना उन्हें रोजगार दिलाना ही इनका मुख्य कार्य है। आज महाराष्ट्र मे १० लाख से भी ज्यादा युवा इनको फॉलो करते हैं। इन्होंने मां भारती की सेवा में अपना पूरा जीवन समर्पित किया है। ये सिर्फ खादी पहनते हैं और बिना चप्पल के यात्रा करते हैं चाहे कितनी दूरी की क्यों न हो। ये मानव नहीं महामानव है, राष्ट्र के लिये अपना सब कुछ समर्पित करने वाले ऐसे महापुरुष पर दंगे भडकाने का आरोप लगाना राजनीति के रसातल में जाने के संकेत है।

२०० साल से अंग्रेजों की जीत का जो भीमाकोरेगांव उत्सव है जिसे शौर्य दिवस के रूप में मनाया जाता है, भिडे जी ने इसे न मनाने के लिये विनम्र निवेदन किया और महारों को समझाने के लिये एक बैठक बुलाई। ३१ दिसंबर को उमर खा-लीद और जिग्नेश मेवाणी ने भिडे जी के खिलाफ भडकाऊ भाषण दिये जिससे वहां की स्थानीय जनता भडक गयी और कुछ हाथापाई हुई। अब इसमें भिडे जी का क्या दोष ???