रविवार, 16 जनवरी 2022

स्वामी विवेकानंद एवं उत्तिष्ठ भारत की परिकल्पना

जाग्रत प्राप्य वरान्निबाधत
क्षुरस्थ धारा निशिता दुरत्यया दुर्ग पथस्तत्कवयो वदन्ति

अर्थात - उठो, जागो और जानकार श्रेष्ठ पुरुषों के सान्निध्य में ज्ञान प्राप्त करो। कठोपनिषद के इस सूत्र वाक्य का प्रयाग स्वामी विवेकानंद ने सदैव युवाओं को जागृत करने के लिए किया।

नव भारत का उदय होने दो... उसका उदय हल चलाने वाले किसानों की कुटिया से, मछुए, मोचियों और मेहतरों की झापड़ियों से हो, बनिये की दुकान से, रोटी बेचने वाले की भट्टी के पास से प्रकट हो। कारखानों, हाटों और बाजारों से वह निकलें। वह नव भारत अमराइयों और जंगलों से, पहाड़ों और पर्वतों से प्रकट हो। विवेकानन्द जी इस प्रकार नव भारत का उदय चाहते थे।
ओ युवा भारत
क्या आप यह हृदयभेदी आहवान सुन रहे हैं..? “उठो, जागो”

यह वही ध्वनि है, जिसकी इस राष्ट्र को कब से प्रतीक्षा थी। यह वही ध्वनि है, जिसने इस घोर राष्ट्र को घोर निद्रा से जगाया...

19वीं सदी के उत्तरकाल में भौतिकवाद, व्यक्तिवाद, एकेश्वरवाद (‘मेरा भगवान् ही सच्चा है’ की मानसिकता जिसने लोगों को मत परिवर्तन करने के लिए बाध्य किया) अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए दूसरों का शोषण अपने चरम सीमा पर था। ऐसा लगता था मानो परस्परावलंबन, संवेदनशीलता और आध्यात्मिकता जैसे मूल्य अपना आधार खोते जा रहे थे।

भारतभूमि जिसने इनको अपने राष्ट्रीय जीवन में उतारा था, ऐसा लगने लगा था कि इन सदिओं पुराने मूल्यों पर अविश्वास के कारण स्वयं गहरे संकट में है। परन्तु, चुनौतियों से सामना करने का इस चिरंतन राष्ट्र का अपमन ही मार्ग रहा है। भारत की ऐसी पृष्ठभूमि पर, श्रीरामकृष्ण परमहंस और उनके श्रेष्ठ शिष्य स्वामी विवेकानंद का प्रादुर्भाव हुआ।

स्वामी विवेकानंद ऐसे संन्यासी हैं, जिन्होंने हिमालय की कंदराओं में जाकर स्वयं के मोक्ष के प्रयास नहीं किये बल्कि भारत के उत्थान के लिए अपना जीवन खपा दिया। विश्व धर्म सम्मेलन के मंच से दुनिया को भारत के ‘स्व’ से परिचित कराने का सामर्थ्य स्वामी विवेकानंद में ही था, क्योंकि विवेकानंद अपनी मातृभूमि भारत से असीम प्रेम करते थे। भारत और उसकी उदात्त संस्कृति के प्रति उनकी अनन्य श्रद्धा थी। समाज में ऐसे अनेक लोग हैं, जो स्वामी जी या फिर अन्य महान आत्माओं के जीवन से प्रेरणा लेकर भारत की सेवा का संकल्प लेते हैं।

स्वामी विवेकानंद भारत माता के ऐसे ही बेटे थे, जो उनके एक-एक धूलि कण को चंदन की तरह माथे पर लपेटते थे। उनके लिए भारत का कंकर-कंकर शंकर था। उन्होंने स्वयं कहा है- "पश्चिम में आने से पहले मैं भारत से केवल प्रेम करता था, परंतु अब (विदेश से लौटते समय) मुझे प्रतीत होता है कि भारत की धूलि तक मेरे लिए पवित्र है, भारत की हवा तक मेरे लिए पावन है, भारत अब मेरे लिए पुण्यभूमि है, तीर्थ स्थान है।"

भारत के बाहर जब स्वामी विवेकानंद ने अपना महत्वपूर्ण समय बिताया तब उन्होंने दुनिया की नजर में भारत को देखा, भारत के बारे में बनाई गई मिथ्या प्रतिमा खंड-खंड हो गईं। भारत का अप्रतिम सौंदर्य उनके सामने प्रकट हुआ। दुनिया की संस्कृतियों के उथलेपन ने उन्हें सिन्धु सागर की अथाह गहराई दिखा दी। एक महान आत्मा ही लोकप्रियता और आकर्षण के सर्वोच्च शिखर पर बैठकर भी विनम्रता से अपनी गलती को स्वीकार कर सकती है।

स्वामी विवेकानंद लिखते हैं - हम सभी भारत के पतन के बारे में काफी कुछ सुनते हैं... कभी मैं भी इस पर विश्वास करता था, मगर आज अनुभव की हृढ़ भूमि पर खड़े होकर दृष्टि को पूर्वाग्रहों से मुक्त करके और सर्वोपरि अन्य देशों के अतिरंजित चित्रों को प्रत्यक्ष रूप से उचित प्रकाश तथा छयाओं में देखकर मैं विनम्रता के साथ स्वीकार करता हूं कि मैं गलत था।

हे भारत, तू कभी पतित नहीं हुआ 
राजदंड टूटते रहें और फेंके जाते रहें... 
शक्ति की गेंद, एक हाथ से दूसरे में उछलती रही... पर भारत में दरबारों तथा राजाओं का प्रभाव सदा अल्प लोगों को ही छू सका, उच्चतम से निम्नतम तक जनता की विशाल राशि अपनी अनिवायं जीवनधारा का अनुसरण करने के लिए मुक्त रही है।

देशाटन के काल में नरेन्द्रनाथ ने भारत दशा का सभी तरह से प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त किया। सर्वत्र पुरातन भारत का गौरव चाहे वह राजनीतिक, सांस्कृतिक या आध्यात्मिक हो, उन्हें अपनी आँखों के सामने प्रबलता से दिखाई दिया। इस महान शिक्षा के चलते भारतीय समुदाय की दुर्गति की पीड़ा उनके मन में छा गई। जिससे उनकी यह इक्षा प्रबल हो गयी कि भारत की अवनति से सम्बंधित परेशानियों के उपशमन के लिए कुछ करना होगा। इस दिशा में संबल जुटाने के लिए वे एक रियासत से दूसरी रियासत में घूमते रहें...

भारत भ्रमण करके नरेन्द्रनाथ को पता चला कि धर्म ही भारत की शक्ति और सम्पदा है। अपने देश के प्रति प्रेम होने पर भी विवेकानन्द ने उसकी गलतियों को अनदेखा नहीं किया। लोगों की गरीबी, शिक्षा का अभाव और स्त्रियों की दुर्गति पर उनका ध्यान गया।

कन्याकुमारी वो अपनी यात्रा के अंतिम चरण में पहुंचे। अपने करोड़ों देश वासियों के दुःख से व्यथित ह्रदय लेकर, वो उस विराट समुद्र की लहरों को चिर कर दक्षिण सागर तट से कुछ दूर स्थित शिला पर बैठ कर पूरी रात गहरे ध्यान में मग्न हो गए। तीन दिन एवं तीन रात तक चला यह ध्यान ईश्वर के प्रति नहीं..! अपितु उसी भारत माता के प्रति था, जो स्वामी विवेकानंद के लिए भगवती दुर्गा की अवतार थी। तीन दिन व तीन रात 25, 26, 27 दिसम्बर 1892 को उस गहन ध्यान के पश्चात उन्होंने अपने जीवन का उद्देश्य खोज लिया। नरेन्द्रनाथ भविष्य में स्वामी विवेकानंद के रूप में परिवर्तित हुए।

वास्तव में शिकागो की धर्म संसद में स्वामी जी की उपस्थिति भारत के इतिहास की महत्वपूर्ण घटना रहीं... श्री अरविन्द कहते हैं, “ विवेकानंद का पश्चिम में जाना… विश्व के सामने पहला जीता-जागता संकेत था कि भारत जाग उठा हैं, न केवल जीवित रहने के लिए बल्कि विजयी होने के लिए” स्वामी विवेकानंद का स्वदेश लौटे विजयी वीर की तरह जय-ध्वनि के साथ स्वागत हुआ। यह किसी व्यक्ति की मात्र स्वदेश वापसी नहीं थी। यह तो भारत की आत्मा की वापसी थी।
शिकागो से लौटकर चेन्नई में दिए गये उनके प्रसिद्ध भाषण से एक अंश उद्धृत कर रहा हूँ...
युगों से जनता को आत्मग्लानि का पाठ पढ़ाया गया है। उसे सिखाया गया है कि वह नगण्य है। संसार में सर्वत्र जनसाधारण को बताया गया है कि तुम मनुष्य नहीं हो..! शताब्दियों तक वह इतना भीरु रहा है कि अब पशु-तुल्य हो गया है। कभी उसे अपने आत्मन का दर्शन ही नहीं करने दिया गया। उसे आत्मन को पहचानने दो, जानने दो कि अध्यात्म जीव में भी आत्मन का निवास है... जो अनश्वर है, अजन्मा है... जिसे न शस्त्र छेद सकता है, न अग्नि जला सकती है, न वायु सुखा सकती है; जो अमर है, अनादि है, अनन्त उसी निर्वीकार, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी आत्मन को जानने दो”

“हम उस धर्म के अन्वेषी हैं, जो मनुष्य का उद्धार करें। हम सर्वत्र उस शिक्षा का प्रसार चाहते हैं जो मनुष्य को मुक्त करें। मनुष्य का हित करें, ऐसे ही शास्त्र हम चाहते हैं। सत्य की कसौटी हाथ में लो… जो कुछ तुम्हें मन से, बुद्धि से, शरीर से निर्बल करें... उसे विष के समान त्याग दो, उसमें जीवन नहीं है, वह मिथ्या है, सत्य हो ही नहीं सकता। सत्य शक्ति देता है। सत्य ही शुचि है, सत्य ही परम ज्ञान है… सत्य शक्तिकर होगा ही, कल्याणकर होगा ही, प्राणप्रद होगा ही… यह दैन्यकारक प्रमाद त्याग दो, शक्ति का वरण करो… कण-कण में ही तो सहज सत्य व्याप्त है, तुम्हारे अस्तित्व जैसा ही सहज है वह…उसे ग्रहण करो”

“मेरी परिकल्पना है, देश–देशान्तर में प्रचारित करने की योग्यता रखने वाले हमारे शास्त्रों का सत्य नवयुवकों को प्रदान करने वाले विद्यालय भारत में स्थापित हों। मुझे और कुछ नहीं चाहिए..! साधन चाहिए; 
समर्थ, सजीव, हृदय से सच्चे नवयुवक मुझे दो, शेष सब आप ही प्रस्तुत हो जायेगा... सौ ऐसे युवक हों तो संसार में क्रांति हो जाएं... आत्मबल सर्वोपरि है, वह सर्वजयी है क्योंकि वह परमात्मा का अंश है… निस्संशय तेजस्वी आत्मा ही सर्वशक्तिमान है”

दक्षिणपंथी हों या वामपंथी सभी इन मुद्दों पर ध्‍यान देने से कतराते हैं। रही बात विवेकानंद का नाम लेकर दुकान चला रहे झंडाबरदारों की, तो वो सिर्फ उतनी ही बातें सामने लाते हैं जिनसे उनकी दुकान जारी रहें... उनके लिये विवेकानंद का जिक्र ’उत्तिष्‍ठ’ जागृत से शुरू होता है और शिकागो वाले सम्मेलन के जिक्र पर खत्‍म हो जाता है। बस..!’

'सबसे पहले भारत को अपना मानो, फिर भारत को जानो, उसके बाद भारत के बनो और सबसे आखिर में भारत को बनाओ।’
भारत के निर्माण में जो भी कोई अपना योगदान देना चाहता है, उसे पहले इन बातों को अपने जीवन में उतरना होगा। भारत को मानेंगे नहीं तो उसकी विरासत पर विश्वास और गौरव नहीं होगा..! भारत को जानेंगे नहीं तों उसके लिए क्‍या करना है, क्‍या करने की आवश्यकता है, यह ध्यान ही नहीं आएगा..! भारत के बनेंगे नहीं तो बाहरी मन से भारत को कैसे बना पाएंगे..? भारत को बनाना है तो भारत का भक्त बनना होगा... उसके प्रति अगाध श्रद्धा मन में उत्पन्न करनी होगी।

यूरोप भ्रमण के दौरान गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगौर ने प्रसिद्ध चिंतक साहित्यकार रोमारोलां से कहा कि यदि भारत को जानना चाहते हो तो विवेकानंद को पढ़ो-समझो... वहाँ सब कुछ सकारात्मक है, नाकरात्मक कुछ भी नहीं मिलेगा।

✍🏻नीरज कृष्ण 
एडवोकेट पटना हाई कोर्ट

बुधवार, 12 जनवरी 2022

आज की आधुनिक माँ..!


कृपया पूरा लेख अवश्य पढ़े...

बात सच्ची है, इसलिये कड़वी भी हैं।

माँ जो एक पवित्र भावना है, संवेदना है, कोमल अहसास है।

तपती दोपहरी में मीठे पानी का झरना है, इक खुशबू है माँ जो कभी मिटती नहीं..!

देह मिट भी जाये तो अपने बच्चों की देह में रूह बन कर सिमट जाती है।

उनके लब पर दुआ तो कभी मन में अहसास बन कर ढल जाती है।

आज मैं उस माँ की बात नहीं कर रहा, जो बेसन की रोटी पर खट्टी चटनी जैसी लगती थी।

आज उस माँ की बात भी नहीं, जिसका बेटा परदेश में रोता था तो देश में उसका प्यार भीग जाया करता था।

मैं मेक्सिम गोर्की की माँ की बात भी नहीं कर रहा और ना #जीजा_बाई की जिसने एक बालक को शिवा जी बना दिया।
आज बात है... आज के दौर की, आज की नारी की, आज की माँ की, आधुनिक भारतीय नारी की...

वो अब खुद गीले में सोकर अपने बच्चे को सूखे में सुलाने की भूल नहीं करती, वो अब अपने बच्चे को खुद से दूर झूले में सुलाती है। 


नींद में खलल नहीं पड़े, इसलिए बच्चे के मुहँ में दूध की बोतल चिपका दी जाती है।

ये आधुनिक माताएं अपने शौक के लिए, पैसों के लिए अपनी कोख भी किराए पर देने में नहीं चूकती...

अपने स्वार्थों के लिए ये कोख में ही अपनी बेटी का गला घोट डालने में ज़रा संकोच नहीं करती..!

अपने अवसर, अपने करियर की खातिर ये बच्चों को "आया" के हवाले कर चल देती है। 

बच्चों से पीछा छुड़ाने के लिए उन्हें बहुत छोटी उमर में ही प्ले स्कूल में छोड़ देती है।

गए वो दिन जब माँ दो-तीन वर्ष की उम्र तक के बच्चों को घर में ही पढ़ाया करती थी।

संस्कारों, जीवन मूल्यों के पाठ अब अधिकतर घरों में नहीं पढ़ाये जाते..!

बच्चों को अब रातों को कोई कहानियाँ नहीं सुनाई जाती और ना कोई लोरी..!

अपने काम अपने शौक और अपने फायदे को देखने वाली इन moms के पास अपने बच्चों के लिए कोई समय नहीं..!

ऐसा नहीं है कि उन्हें अपने बच्चों की चिंता नहीं है, दिन में एक दो बार फोन करके वो "आया" से अपने बच्चों का हाल जरुर पूछ लेती हैं।

बच्चे भी अब माँ से ज्यादा अपनी दूध की बोतल और आया को प्यार करते हैं।

थोड़े बड़े होकर वीडियों गेम और फिर नेट और मोबाईल उनके साथी बन जाते है।

जितनी दूर माँ हो रही है बच्चों से, उतने ही दूर बच्चे भी हो रहे हैं माँ से...

यही वजह है कि जितने झूलाघर रोज खुल रहे हैं, उनसे कहीं ज्यादा वृद्धाश्रम (old age home) बनाये जा रहे हैं।

आधुनिक जीवन शैली और पुरुषों की नक़ल करने के चक्कर में महिलाओं ने खुद को अपने स्त्रियोंचित गुणों से दूर कर लिया है। महिलाओं में पुरुषों की तरह शराब और सिगरेट पीने का चलन भी अब आम बात है।

चिंता ये है कि जो युवतियां अपनी रातें "पब" में शराब और सिगरेट के धुएं में बिताती हैं, क्या कल ये युवतियां एक अच्छी पत्नी या इक अच्छी माँ बन सकेगी..?

क्या फिर कोई मुनव्वर राणा ये कह पायेगे कि “मैं जब तक घर नहीं जाता, मेरी माँ सजदे में रहती है"

ये कैसी महिलाए हैं..? ये कैसी भविष्य की माताएं हैं..?

जिनके दिल में किसी के लिए प्रेम नहीं, वात्सल्य नहीं, ये सिर्फ खुद से प्रेम करती हैं। 

खुद के सुखों की खातिर अपना घर परिवार बच्चे सब कुछ इक झटके में तोड़ देती हैं, छोड़ देती है।
{रोज बिखरते परिवार इसका उदाहरण है}

अक्सर मैंने देखा है, शादी पार्टी या कोई होटल या रेस्टोरेंट में आजकल महिलायें कभी भी अपने बच्चों को गोद में नहीं उठाती..!
इनके पति बच्चों को देखते हैं या फिर आया को साथ रखती हैं।
बच्चे रोये या बिलखते रहे इन्हें परवाह नहीं, इनकी साड़ी या मेकअप खराब नहीं होना चाहिए।
अपने बच्चों को अपनी गोद में रखने में इन्हें अब शर्म आती है।
आजकल पिताओं को मैंने बच्चों की ज्यादा परवाह करते देखा है।

यदि वास्तव में माँ की कहानियों और लोरियों में ताकत होती, पकड़ होती तो युवा पीढ़ी इस कदर भटकती नहीं..!

कहीं न कहीं कोई कमी जरुर है जिसे बच्चे बाहर जाकर पूरी कर रहे है, दोस्तों में, नशे में वो सुकून तलाश रहे है जो उन्हें घर में ही मिलना चाहिए था।

माताओं को सोचना होगा, क्यों बेटे-बेटियाँ उनसे दूर हो रहे हैं..?

क्या बेटे के दुःख से उनका आँचल अब भी भीगता है..! या उन्होंने अपने बच्चों की उगंली छोड़ दी है...

यदि माँ की पकड़ ढीली हो गयी तो क्या कोई बेटा परदेश में ये बात महसूस कर सकेगा..! “मैं रोया परदेश में, भीगा माँ का प्यार"