बुधवार, 27 जनवरी 2021

वर्तमान घटनाक्रम को समझने और उसमें जीने के लिए आपको भगवान श्रीकृष्ण जी की ये 10 नीतियां जरूर पढ़नी और समझनी चाहिए।

श्रीकृष्ण ने संपूर्ण जगत के हित के लिए गोकुल, वृंदावन को ही नहीं छोड़ा बल्कि उन्होंने अपनी सबसे प्रिय बांसुरी और उससे भी प्रिय राधा को भी छोड़ दिया, क्योंकि उन्हें अधर्म के साम्राज्य को ध्‍वस्त करना था। श्रीकृष्ण का संपूर्ण जीवन अधर्म के विरूद्ध एक युद्ध था और उनके उस जीवन का अंतिम युद्ध महाभारत था। आओ जानते हैं क्या कहती है कृष्ण नीति।

महाभारत काल से आज तक युद्ध के मैदान और खेल बदलते रहे लेकिन युद्ध में जिस तरह से छल-कपट का खेल चलता आया है, उसी तरह का खेल आज भी जारी है। ऐसे में सत्य को हर मोर्चों कर कई बार हार का सामना करना पड़ता है, क्योंकि हर बार सत्य के साथ कोई कृष्‍ण साथ देने के लिए नहीं होते हैं।
ऐसे में कृष्ण की नीति को समझना जरूरी है।

1. यह स्पष्ट होना चाहिए कि कौन किधर है : श्रीकृष्ण ने कहा था कि कुल या कुटुम्ब से बढ़कर देश है और देश से बढ़कर धर्म, धर्म का नाश होने से देश और कुल का भी नाश हो जाता है। जब कुरुक्षेत्र में धर्मयुद्ध का प्रारंभ हुआ तो युधिष्ठिर दोनों सेनाओं के बीच में खड़े होकर कहते हैं कि मैं जहां खड़ा हूं उसके नीचे एक ऐसी रेखा है जो धर्म और अधर्म को बांटती है। निश्चित ही एक ओर धर्म और दूसरी ओर अधर्म है। दोनों ओर धर्म या अधर्म नहीं हो सकता। अत: जो भी यह समझता है कि हमारी ओर धर्म है वह हमारी ओर आ जाए और जो यह समझता है कि हमारे शत्रु पक्ष की ओर धर्म है तो वह उधर चला जाए क्योंकि यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि कौन किधर है। युद्ध प्रारंभ होने से यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि कौन किसकी ओर है? कौन शत्रु और कौन मित्र है? इससे युद्ध में किसी भी प्रकार की गफलत नहीं होती है। लेकिन फिर भी यह देखा गया था कि ऐसे कई योद्धा थे, जो विरोधी खेमे में होकर भीतरघात का काम करते थे। ऐसे लोगों की पहचान करना जरूरी होता है।

2. संधि या समझौता तब नहीं मानना चाहिए : भीष्म ने युद्ध के कुछ नियम बनाए थे। श्रीकृष्ण ने युद्ध के नियमों का तब तक पालन किया, जब तक कि अभिमन्यु को चक्रव्यूह में फंसाकर उसे युद्ध के नियमों के विरुद्ध निर्ममता से मार नहीं दिया गया। अभिमन्यू श्रीकृष्ण का भांजा था। श्रीकृष्ण ने तब ही तय कर लिया था कि अब युद्ध में किसी भी प्रकार के नियमों को नहीं मानना है। इससे यह सिद्ध हुआ कि कोई भी वचन, संधि या समझौता अटल नहीं होता। यदि उससे राष्ट्र का, धर्म का, सत्य का अहित हो रहा हो तो उसे तोड़ देना ही चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण ने अस्त्र न उठाने की अपनी प्रतिज्ञा भी तोड़कर धर्म की ही रक्षा की थी।

3. शक्तिशाली से कूटनीति से काम लें : जब दुश्मन शक्तिशाली हो तो उससे सीधे लड़ाई लड़ने की बजाय कूटनीति से लड़ना चाहिए। भगवान कृष्ण ने कालयवन और जरासंध के साथ यही किया था। उन्होंने कालयवन को मु‍चुकुंद के हाथों मरवा दिया था, तो जरासंध को भीम के हाथों। ये दोनों ही योद्धा सबसे शक्तिशाली थे लेकिन कृष्ण ने इन्हें युद्ध के पूर्व ही निपटा दिया था। दरअसल, सीधे रास्‍ते से सब पाना आसान नहीं होता। खासतौर पर तब जब आपको विरोधि‍यों का पलड़ा भारी हो। ऐसे में कूटनीति का रास्‍ता अपनाएं।

4. संख्या नहीं साहस और सही समय की जरूरी : युद्ध में संख्या बल महत्व नहीं रखता, बल्कि साहस, नीति और सही समय पर सही अस्त्र एवं व्यक्ति का उपयोग करना ही महत्वपूर्ण कार्य होता है। पांडवों की संख्या कम थी लेकिन कृष्ण की नीति के चलते वे जीत गए। उन्होंने घटोत्कच को युद्ध में तभी उतारा, जब उसकी जरूरत थी। उसका बलिदान व्यर्थ नहीं गया। उसके कारण ही कर्ण को अपना अचूक अस्त्र अमोघास्त्र चलाना पड़ा जिसे वह अर्जुन पर चलाना चाहता था।

5. प्रत्येक सैनिक को राजा समझें : जो राजा या सेनापति अपने एक-एक सैनिक को भी राजा समझकर उसकी जान की रक्षा करता है, जीत उसकी सुनिश्‍चित होती है। एक-एक सैनिक की जिंदगी अमूल्य है। अर्जुन सहित पांचों पांडवों ने अपने साथ लड़ रहे सभी योद्धाओं को समय-समय पर बचाया है। जब वे देखते थे कि हमारे किसी योद्धा या सैनिक पर विरोधी पक्ष का कोई योद्धा या सैनिक भारी पड़ रहा है तो वे उसके पास उसकी सहायता के लिए पहुंच जाते थे।

6. अधर्मी को मारते वक्त सोचना नहीं : जब आपको दुश्मन को मारने का मौका मिल रहा है, तो उसे तुरंत ही मार दो। यदि वह बच गया तो निश्चित ही आपके लिए सिरदर्द बन जाएगा या हो सकता है कि वह आपकी हार का कारण भी बन जाए। अत: कोई भी दुश्मन किसी भी हालत में बचकर न जाने पाए। कृष्ण ने द्रोण और कर्ण के साथ यही किया था।

7. निष्पक्ष या तटस्थ पर ना करें भरोसा : जो निष्पक्ष हैं, तटस्थ या दोनों ओर हैं इतिहास उनका भी अपराध लिखेगा। दरअसल वह व्यक्ति ही सही है, जो धर्म, सत्य और न्याय के साथ है। निष्पक्ष, तटस्थ या जो दोनों ओर है उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता।

8. युद्ध के जोश में ज्ञान जरूरी है : इस भयंकर युद्ध के बीच भी श्रीकृष्ण ने गीता का ज्ञान दिया। यह सबसे अद्भुत था। कहने का तात्पर्य यह कि भले ही जीवन के किसी भी मोर्चे पर व्यक्ति युद्ध लड़ रहा हो लेकिन उसे ज्ञान, सत्संग और प्रवचन को सुनते रहना चाहिए। यह मोटिवेशन के लिए जरूरी है। इससे व्यक्ति को अपने मूल लक्ष्य का ध्यान रहता है।

9. युद्ध की योजना जरूरी है : भगवान श्रीकृष्ण ने जिस तरह युद्ध को अच्छे से मैनेज किया था, उसी तरह उन्होंने अपने संपूर्ण जीवन को भी मैनेज किया था। उन्होंने हर एक प्लान मैनेज किया था। यह संभव हुआ अनुशासन में जीने, व्यर्थ चिंता न करने, योजना बनाने और भविष्य की बजाय वर्तमान पर ध्यान केंद्रित करने से। मतलब यह कि यदि आपके पास 5, 10 या 15 साल का कोई प्लान नहीं है, तो आपकी सफलता की गारंटी नहीं हो सकती।

10. भय को जीतना जरूरी : ‍कृष्ण सिखाते हैं कि संकट के समय या सफलता न मिलने पर साहस नहीं खोना चाहिए। इसकी बजाय असफलता या हार के कारणों को जानकर आगे बढ़ना चाहिए। समस्याओं का सामना करें। एक बार भय को जीत लिया तो फि‍र जीत आपके कदमों में होगी।

✍🏻 अनिरुद्ध जोशी ⛳

शुक्रवार, 8 जनवरी 2021

दृष्टिदोष

मोतियाबिंद दो तरह का होता है। एक सफेद मोतिया और दूसरा काला मोतिया। सफेद मोतिया में आंख के भीतर एक झिल्ली-सी बन जाती है, जिसे आसानी से हटा कर पुनः दृष्टि लौटाई जा सकती है। मगर काला मोतिया खतरनाक होता है। चिकित्सा विज्ञानी इसे ग्लूकोमा कहते हैं। इसमें खुद रोगी को एकदम से पता नहीं चलता कि उसकी दृष्टि धीरे-धीरे जा रही है। दरअसल, इसमें आंखों की बाहरी परिधि की तरफ से दिखना कम होता है और कुछ सालों बाद दृष्टि केवल केंद्र तक सिमट कर रह जाती है। यानी सामने तो दिखाई देता है, मगर अगल-बगल का कुछ दिखाई नहीं देता। फिर धीरे-धीरे सामने का दिखना भी बंद हो जाता है। इस रोग में दृष्टि का क्षरण धीरे-धीरे जरूर होता है, पर वह सदा के लिए यानी परमानेंट लॉस होता है। फिर जब पूरी तरह दिखना बंद हो जाता है, तो आदमी बस मन की आंखों से देखने को मजबूर होता है। 'मन की आखों' का आध्यात्मिक अर्थ बिल्कुल नहीं। वह जो पहले देख-समझ कर अपने भीतर अनुभव बटोरे रहता है, उसी को जीने लगता है। वही उसकी 'दिव्य-दृष्टि' बन जाती है। फिर उसे लाख समझाएं कि परिवेश बदल चुका है, अब वह हरियाली नहीं रही, जो तुमने कभी देखी थी, वह उसकी समझ से परे होता है। 

कुछ समय से, लगता है, सफेद मोतिया का प्रकोप कुछ अधिक बढ़ा है। बहुत सारे लोगों की दृष्टि का परमानेंट लॉस हो चुका है।

#असुर कौन होता है..?

कुछ लोगों को यह भ्रम हो गया है की असुर कोई पौराणिक काल में होने वाला काल्पनिक पदार्थ था, जो बीस फ़ीट लम्बा या उसके सिर पर सींग था।

जबकि ऐसा नहीं हैं...

आपने और हमने, हम सब ने एक बात सुनी होगी, कही होगी... "एक ही ज़िन्दगी मिली हैं, जम कर जियो।"

अब 'जम कर जियो' के स्थान पर... जम कर पियो, जम कर सिनेमा देखो, जम कर भोजन करो और रात में जाकर डांस क्लब इत्यादि में डांस करो।

यहाँ ध्यान रखिए... मनोरंजन, भोजन और नृत्य पर आक्षेप नहीं किया जा रहा। यहाँ उस मानसिकता पर आक्षेप किया जा रहा है जो एक ही ज़िंदगी हैं, 'जो मन में आए वह करो' वाली उच्छृंखल मानसिकता पर बात की जा रही है।

अब आते हैं, मूल प्रश्न पर... असुर कौन है ? 

संस्कृत भाषा में असु का अर्थ इंद्रियाँ होता है अर्थात् जो अपनी ही इंद्रियों में रमण करे वह असुर होता है।

और जैसे ही व्यक्ति अपने इंद्रियों के सुख में रमण करने लगता है, उसमें और इंद्रिय सुख भोगने की वासना बढ़ने लगती हैं। और वासना की पूर्ति न होने पर क्रोध और हिंसा रूपी आसुरी सम्पदा का प्रभाव भी पड़ने लगता हैं।

अत: निवेदन है कि आप जीवन एक माने या अनेक पर मन को उच्छृंखल न होने दें और जिस प्रकार भौतिक संसार में हर क्रिया की एक प्रतिक्रिया होती हैं, उसी प्रकार आध्यात्मिक जगत ( शरीर के अंदर मन में ) में होने वाली आसुरी सम्पदा को दैवीय सम्पदा से ही नियंत्रित किया जा सकता हैं। 

आइए, हम सब अपने हृदय में रहने वाले उस असुर को जो स्वंयम की वासनाओं को भड़काता रहता हैं, उसे मारें।

रविवार, 3 जनवरी 2021

आइए जानते हैं... #जनेऊ पहनने के लाभ...

पूर्व में बालक की उम्र आठ वर्ष होते ही उसका यज्ञोपवित संस्कार कर दिया जाता था। वर्तमान में यह प्रथा विलुप्त-सी हो गयी है। 
जनेऊ पहनने का हमारे स्वास्थ्य से सीधा संबंध है। विवाह से पूर्व तीन धागों की तथा विवाहोपरांत छह धागों की जनेऊ धारण की जाती है। 

पूर्व काल में जनेऊ पहनने के पश्चात ही बालक को पढ़ने का अधिकार मिलता था। 

मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व जनेऊ को कानों पर कसकर तीन बार लपेटना पड़ता है। इससे कान के पीछे की दो नसें जिनका संबंध पेट की आंतों से है, आंतों पर दबाव डालकर उनको पूरा खोल देती है। जिससे मल विसर्जन आसानी से हो जाता है तथा कान के पास ही एक नस से ही मल-मूत्र विसर्जन 
के समय कुछ द्रव्य विसर्जित होता है। जनेऊ उसके वेग को रोक देती है, जिससे कब्ज, एसीडीटी, पेट रोग, मूत्रन्द्रीय रोग, रक्तचाप, हृदय रोगों सहित अन्य संक्रामक रोग नहीं होते..!
जनेऊ पहनने वाला नियमों में बंधा होता है। 
वह मल विसर्जन के पश्चात अपनी जनेऊ उतार नहीं सकता, जबतक वह हाथ-पैर धोकर कुल्ला न कर लें। 
अत: वह अच्छी तरह से अपनी सफाई करके ही जनेऊ कान से उतारता है। 
यह सफाई उसे दांत, मुंह, पेट, कृमि, जिवाणुओं के रोगों से बचाती है। 
जनेऊ का सबसे ज्यादा लाभ हृदय रोगियों को होता है।

यज्ञोपवीत (जनेऊ) एक संस्कार है। 
इसके बाद ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है। 
यज्ञोपवीत धारण करने के मूल में एक वैज्ञानिक पृष्ठभूमि भी है। 
शरीर के पृष्ठभाग में पीठ पर जाने वाली एक प्राकृतिक रेखा है जो विद्युत प्रवाह की तरह कार्य करती है। 
यह रेखा दाएं कंधे से लेकर कटि प्रदेश तक स्थित होती है। 
यह नैसर्गिक रेखा अति सूक्ष्म नस है। 
इसका स्वरूप लाजवंती वनस्पति की तरह होता है। 
यदि यह नस संकोचित अवस्था में हो तो मनुष्य काम-क्रोधादि विकारों की सीमा नहीं लांघ पाता..!

अपने कंधे पर यज्ञोपवीत है, इसकी मात्र अनुभूति होने से ही मनुष्य भ्रष्टाचार से परावृत्त होने लगता है। 

यदि उसकी प्राकृतिक नस का संकोच होने के कारण उसमें निहित विकार कम हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं है। 

इसीलिए सभी हिंदुओं में किसी न किसी कारणवश यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। 
सारनाथ की अति प्राचीन बुद्ध प्रतिमा का सूक्ष्म निरीक्षण करने से उसकी छाती पर यज्ञोपवीत की सूक्ष्म रेखा दिखाई देती है। 

यज्ञोपवीत केवल धर्माज्ञा ही नहीं बल्कि आरोग्य का पोषक भी है, अतएव इसको सदैव धारण करना चाहिए। 

शास्त्रों में दाएं कान में माहात्म्य का वर्णन भी किया गया है। 
आदित्य, वसु, रूद्र, वायु, अग्नि, धर्म, वेद, आप, सोम एवं सूर्य आदि देवताओं का निवास दाएं कान में होने के कारण उसे दाएं हाथ से सिर्फ स्पर्श करने पर भी आचमन का फल प्राप्त होता है। 
यदि ऎसे पवित्र दाएं कान पर यज्ञोपवीत रखा जाए तो अशुचित्व नहीं रहता..!

यज्ञोपवीत (संस्कृत संधि विच्छेद= यज्ञ+उपवीत) 
शब्द के दो अर्थ हैं-
उपनयन संस्कार जिसमें जनेऊ पहना जाता है और विद्यारंभ होता है। 
मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं। 
जनेऊ पहनाने का संस्कार

सूत से बना वह पवित्र धागा जिसे यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। 

यज्ञ द्वारा संस्कार किया गया उपवीत, यज्ञसूत्र या जनेऊ

यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। 
ब्राम्हणों के यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि होती है। 
तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है। 
तीन सूत्र हिंदू त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं। 
तीन सूत्र हमारे ऊपर तीन प्रकार के ऋणों का बारम्बार स्मरण कराते हैं कि उन्हें भी हमें चुकाना है।

1 - पितृ ऋण 
2 - मातृ ऋण
3 - गुरु ऋण

अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है। 
बिना यज्ञोपवीत धारण किये अन्न जल गृहण नहीं किया जाता। 
यज्ञोपवीत धारण करने का मन्त्र हैं...

यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् ।
आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।

जनेऊ को लेकर लोगों में कई भ्रांति मौजूद है| 

लोग जनेऊ को धर्म से जोड़ दिए हैं, जबकि सच तो कुछ और ही है।

जानें की सच क्या हैं..? 
जनेऊ पहनने से आदमी को लकवा से सुरक्षा मिल जाती है क्योंकि आदमी को बताया गया है कि जनेऊ धारण करने वाले को लघुशंका करते समय दाँत पर दाँत बैठा कर रहना चाहिए अन्यथा अधर्म होता है।
दरअसल इसके पीछे साइंस का गहरा रह्स्य छिपा है।
दाँत पर दाँत बैठा कर रहने से आदमी को लकवा नहीं मारता..!
आदमी को दो जनेऊ धारण कराया जाता है, 
एक पुरुष को बताता है कि उसे दो लोगों का भार या ज़िम्मेदारी वहन करना है, एक पत्नी पक्ष का और दूसरा अपने पक्ष का अर्थात् पति पक्ष का...

अब एक-एक जनेऊ में 9-9 धागे होते हैं।
जो हमें बताते हैं कि हम पर पत्नी और पत्नी पक्ष के 9-9 ग्रहों का भार/ऋण है, उसे हमें वहन करना है।
अब इन 9-9 धांगों के अंदर से 1-1 धागे निकालकर देंखें तो इसमें 27-27 धागे होते हैं। 
अर्थात् हमें पत्नी और पति पक्ष के 27-27 नक्षत्रों का भी भार या ऋण वहन करना है।
 अब अगर अंक विद्या के आधार पर देंखे तो 27+9 = 36 होता है, जिसको एकल अंक बनाने पर 36 = 3+6 = 9 आता है, जो एक पूर्ण अंक है। 

अब अगर इस 9 में दो जनेऊ की संख्या अर्थात 2 और जोड़ दें तो 9 + 2 = 11 होगा जो हमें बताता है कि हमारा जीवन अकेले-अकेले दो लोगों अर्थात् पति और पत्नी ( 1 और 1 ) के मिलने से बना है।
1 + 1 = 2 होता है, जो अंक विद्या के अनुसार चंद्रमा का अंक है और चंद्रमा हमें शीतलता प्रदान करता है।
जब हम अपने दोनों पक्षों का ऋण वहन कर लेते हैं तो हमें असीम शांति की प्राप्ति हो जाती है।

यथा-निवीनी दक्षिण कर्णे यज्ञोपवीतं कृत्वा मूत्रपुरीषे विसृजेत। 

अर्थात अशौच एवं मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ रखना आवश्यक है। 
अपनी अशुचि अवस्था को सूचित करने के लिए भी यह कृत्य उपयुक्त सिद्ध होता है। 
हाथ पैर धोकर और कुल्ला करके जनेऊ कान पर से उतारें। 
इस नियम के मूल में शास्त्रीय कारण यह है कि शरीर के नाभि प्रदेश से ऊपरी भाग धार्मिक क्रिया के लिए पवित्र और उसके नीचे का हिस्सा अपवित्र माना गया है। 

दाएं कान को इतना महत्व देने का वैज्ञानिक कारण यह है कि इस कान की नस, गुप्तेंद्रिय और अंडकोष का आपस में अभिन्न संबंध है। 

मूत्रोत्सर्ग के समय सूक्ष्म वीर्य स्त्राव होने की संभावना रहती है। 
दाएं कान को ब्रह्म सूत्र में लपेटने पर शुक्र नाश से बचाव होता है। 

यह बात आयुर्वेद की दृष्टि से भी सिद्ध हुई है। 
यदि बार-बार स्वप्नदोष होता हो तो दायां कान बम्ह्रसूत्र से बांधकर सोने से रोग दूर हो जाता है।

बिस्तर में पेशाब करने वाले लडकों को दाएं कान में धागा बांधने से यह प्रवृत्ति रूक जाती है। 
किसी भी उच्छृंखल जानवर का दायां कान पकडने से वह उसी क्षण नरम हो जाता है। 

अंडवृद्धि के सात कारण हैं। 
मूत्रज अंडवृद्धि उनमें से एक है। 
दायां कान सूत्रवेष्टित होने पर मूत्रज अंडवृद्धि का प्रतिकार होता है। 
इन सभी कारणों से मूत्र तथा पुरीषोत्सर्ग करते समय दाएं कान पर जनेऊ रखने की शास्त्रीय आज्ञा है।

शनिवार, 2 जनवरी 2021

आइए जानते हैं #नववर्ष और #New_Year में क्या अंतर है..?

भारतीय और अंग्रेजी नववर्ष में जानिए अंतर क्या हैं...

भारत में कुछ लोग अपना नूतन वर्ष भूल गए हैं और अंग्रेजो का नववर्ष मनाने लगे हैं, उसमें किसी भारतीय की गलती नहीं है लेकिन भारत में अंग्रेजो ने 190 साल राज किया है और अंग्रेजों ने भारतीय संस्कृति खत्म करके अपनी पश्चिमी संस्कृति थोपनी चाही। उसके कारण आज भी कई भारतवासी मानसिक रूप से गुलाम हो गये जिसके कारण वे भारतीय नववर्ष भूल गये और ईसाई अंग्रेजों का नया साल मना रहे हैं।
1 जनवरी आने से पहले ही कुछ नादान भारतवासी नववर्ष की बधाई देने लगते हैं...

What is the difference between Indian and English New Year...

भारत देश त्यौहारों का देश है, सनातन (हिन्दू) धर्म में लगभग 40 त्यौहार आते हैं। यह त्यौहार करीब हर महीने या उससे भी अधिक आते है जिससे जीवन में हमेशा खुशियां बनी रहती हैं और बड़ी बात है कि हिन्दू त्यौहारों में एक भी ऐसा त्यौहार नहीं है जिसमें दारू पीना, पशु हत्या करना, मास खाना, पार्टी करने आदि के नाम पर दुष्कर्म को बढ़ावा मिलता हो। ये सनातन हिन्दू धर्म की महिमा है। भारतीय हर त्यौहार के पीछे कुछ न कुछ वैज्ञानिक तथ्य भी छुपे होते हैं जो जीवन का सर्वांगीण विकास करते हैं।
ईसाई धर्म में 1 जनवरी को जो नया वर्ष मनाते है उसमें कुछ तो नयी अनुभूति होनी चाहिए लेकिन ऐसा कुछ भी नही होता है ।
रोमन देश के अनुसार ईसाई धर्म का नववर्ष 1 जनवरी को और भारतीय नववर्ष (विक्रमी संवत) चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को मनाया जाता है। आईये देखते हैं दोनों का तुलनात्मक अंतर क्या है?

1. प्रकृति:-
एक जनवरी को कोई अंतर नहीं जैसा दिसम्बर वैसी जनवरी
चैत्र मास में चारों तरफ फूल खिल जाते हैं, पेड़ो पर नए पत्ते आ जाते हैं। चारो तरफ हरियाली मानो प्रकृति नया साल मना रही हो।

2. मौसम:-
दिसम्बर और जनवरी में वही वस्त्र, कंबल, रजाई, ठिठुरते हाथ-पैर
चैत्र मास में सर्दी जा रही होती है, गर्मी का आगमन होने जा रहा होता हैं।

3. शिक्षा :-
विद्यालयों का नया सत्र-दिसंबर जनवरी में वही कक्षा, कुछ नया नहीं..!
मार्च-अप्रैल में स्कूलों का रिजल्ट आता है। नई कक्षा, नया सत्र यानि विद्यार्थियों का नया साल

4. वित्तीय वर्ष:-
दिसम्बर-जनवरी में खातों की क्लोजिंग नहीं होती..!
31 मार्च को बैंको की (audit) क्लोजिंग होती हैं, नए बहीखाते खोले जाते हैं। सरकार का भी नया सत्र शुरू होता है।

5. कलैण्डर:-
जनवरी में सिर्फ नया कलैण्डर आता हैं।
चैत्र में ग्रह नक्षत्र के हिसाब से नया पंचांग आता है। उसी से सभी भारतीय पर्व, विवाह और अन्य महूर्त देखे जाते हैं। इसके बिना हिन्दू समाज जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता। इतना महत्वपूर्ण है ये कैलेंडर यानि पंचांग 

6. किसान:-
दिसंबर-जनवरी में खेतो में वही फसल होती है।
मार्च-अप्रैल में फसल कटती है। नया अनाज घर में आता है तो किसानो का नया वर्ष और उत्साह 

7. पर्व मनाने की विधि:-
31 दिसम्बर की रात नए साल के स्वागत के लिए लोग जमकर शराब पीते है, हंगामा करते हैं, रात को पीकर गाड़ी चलाने से दुर्घटना की सम्भावना, रेप जैसी वारदात, पुलिस प्रशासन बेहाल और भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों का विनाश
भारतीय नववर्ष व्रत से शुरू होता हैं... पहला नवरात्र होता हैं, घर-घर मे माता रानी की पूजा होती है, गरीबों में मिठाई, जीवनपयोगी सामग्री बांटी जाती है, पूजा पाठ से शुद्ध सात्विक वातावरण बनता हैं।

8. ऐतिहासिक महत्त्व:-
1 जनवरी का कोई ऐतिहासिक महत्व नहीं है।
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन
1- ब्रह्माजी ने सृष्टि का निर्माण किया था। इसी दिन से नया संवत्सर शुंरू होता है।
2- पुरूषोत्‍तम श्रीराम का राज्‍याभिषेक
3- माँ दुर्गा की उपासना की नवरात्र व्रत का प्रारंभ
4- प्रारम्‍भयुगाब्‍द (युधिष्‍ठिर संवत्) का आरम्‍भ
5- ‍उज्जयिनी सम्राट- विक्रामादित्‍य द्वारा विक्रमी संवत्प्रारम्‍भ
6- शालिवाहन शक संवत् (भारत सरकार का राष्‍ट्रीय पंचांग) महर्षि दयानन्द द्वारा आर्य समाज की स्‍थापना
7- भगवान झुलेलाल का अवतरण दिन।
8- मत्स्यावतार दिन
9- गणितज्ञ भास्कराचार्य ने सूर्योदय से सूर्यास्त तक दिन, महीना और वर्ष की गणना करते हुए ‘पंचांग ‘ की रचना की...

आप इन तथ्यों से समझ गए होंगे कि सनातन (हिन्दू) धर्म की भारतीय संस्कृति कितनी महान हैं। अतः आप गुलाम बनाने वाले अंग्रेजो का 1 जनवरी वाला वर्ष न मनाकर, महान हिन्दू धर्म वाला चैत्री शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को ही नववर्ष मनायें...

🙏🏻 सत्य सनातन धर्म की जय ⛳