शुक्रवार, 25 सितंबर 2020

पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी द्वारा अपने मामाजी को लिखा पत्र....

श्रीमान् मामाजी सादर प्रणाम !

आपका पत्र मिला। देवी की बीमारी का हाल जानकर दुःख हुआ। आपने अपने पत्र में जो कुछ भी लिखा सो ठीक ही लिखा है। इसका क्या उत्तर दूँ, यह मेरी समझ में नहीं आता। परसों आपका पत्र मिला, तभी से विचारों का एवं कर्तव्यों का तुमुल युद्ध चल रहा है। एक ओर तो भावना और मोह खींचते हैं तो दूसरी ओर पुरखों की आत्माऐं पुकारती है। आपके लिखे अनुसार पहिले तो मेरा भी यही विचार था कि मैं किसी स्कूल में नौकरी कर लूंगा तथा साथ ही वहाँ का संघ कार्य भी करता रहूँगा। यही विचार लेकर में लखनऊ आया था परन्तु लखनऊ में आजकल की परिस्थिति तथा आगे कार्य का असीम क्षेत्र देख कर मुझे यही आज्ञा मिली कि बजाय एक नगर में कार्य करने के एक जिले में कार्य करना होगा। इस प्रकार सोते हुए हिन्दू समाज से मिलने वाले कार्यकर्ताओं की कमी को पूरा करना होता है। सारे जिले में काम करने के कारण न तो एक स्थान पर दो चार दिन से अधिक ठहराव संभव है और न किसी भी प्रकार की नौकरी। संघ के स्वयंसेवक के लिये पहला स्थान समाज और देश के कार्य का रहता है। और फिर अपने व्यक्तिगत कार्यों का। अतः मुझे समाज कार्य के लिये जो आज्ञा मिली थी, उसका पालन करना पड़ा।

मैं यह मानता हूँ कि मेरे इस कार्य से आपको कष्ट हुआ होगा। परन्तु आप जैसे विचारवान् एवं गंभीर पुरूषों को भी समाज कार्य में संलग्न रहते देखकर कष्ट हो तो फिर समाज कार्य करने के लिये कौन आगे आएगा ? शायद संघ के विषय में आपको अधिक मालूम न होने के कारण आप डर गये हैं। इसका कांग्रेस से किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं है और यह किसी भी राजनीति मे भाग भी नहीं लेता है। न यह सत्याग्रह करता है न यह जेल जाने में विश्वास रखता है। न यह अहिंसावादी ही और न यह हिंसावादी ही। इसका तो एक मात्र कार्य हिन्दुओं का संगठन करना है। इस कार्य को यह लगातार 17 साल से करता आ रहा है।  इसकी सारे भारतवर्ष में 1000 से ऊपर शाखाएँ तथा दो लाख से अधिक स्वयंसेवक है। मैं अकेला ही नहीं परन्तु इसी प्रकार 300 से ऊपर कार्यकर्ता हैं जो एक मात्र संघ कार्य ही करते हैं। सब शिक्षित और अच्छे और घरों के हैं। बहुत से बी.ए., एम.ए. और एल.एल.बी. पास हैं। ऐसा तो कोई शायद ही होगा जो कम से कम हाई स्कूल न हो और वह भी इने-गिने लोग। इतने लोगों ने अपना जीवन केवल समाज कार्य के लिये क्यों दे दिया, इसका एकमात्र कारण यही है कि बिना समाज की उन्नति हुए व्यक्ति की उन्नति संभव नहीं है। व्यक्ति कितना भी क्यों न बढ़ जाए, जब तक उसका समाज उन्नत नहीं होता, तब तक उसकी उन्नति का कोई अर्थ नहीं। यही कारण है कि हमारे यहाँ के बड़े बड़े नेताओं का दूसरे देशों में जाकर अपमान होता है। हरिसिंह गौड़ जो कि हमारे यहाँ के इतने बड़े व्यक्ति हैं, वे जब इंग्लैण्ड के एक होटल में गए तो वहां ठहरने को स्थान नहीं दिया गया, क्योंकि वे भारतीय थे। हिन्दुस्तान में आप हमारे बड़े से बड़े आदमी को ले लीजिये, क्या उसकी वास्तविक उन्नति है ? मुसलमान गुण्डे बड़े से बड़े आदमी की इज्जत को पल में खाक में मिला देते हैं, क्योंकि वे स्वयं बड़े हो सकते हैं पर जिस समाज के वे अंग हैं वह दुर्बल है, अधः पतित है, शक्तिहीन व स्वार्थी है।

हमारे यहाँ एक व्यक्ति स्वार्थों में लीन है तथा अपनी ही सोचता है। नाव में छेद हो जाने पर अपने बोझ को आप कितना भी ऊंचा क्यों न उठाइए वह तो आपके साथ डूबेगा ही। आज हिन्दू समाज की यही हालत है। घर में आग लग रही है, परन्तु प्रत्येक अपने अपने घर की परवाह कर रहा है। उस आग को बुझाने का किसी को ख्याल नहीं है। क्या आप अपनी स्थिति को सुरक्षित समझते हैं ? क्या आपको विश्वास है कि मौका पड़ने पर समाज आपका साथ देगा ? नहीं, इसलिए यहीं कि हमारा समाज संगठित नहीं है, इसीलिए हमारी आरती और बाजों पर लड़ाईयाँ होती है। इसीलिए हमारी माँ बहिनों को मुसलमान भगाकर ले जाते हैं, अंग्रेज सिपाही उन पर निःशंक होकर दिन दहाड़े अत्याचार करते हैं और हम अपनी बड़ी भारी इज्जत की दम भरने वाले, समाज में ऊंची नाक रखने वाले अपनी फूटी आँख से देखते रहते हैं। हम उसका प्रतिकार नहीं कर सकते हैं। अधिक हुआ तो इस सनसनीखेज मामले की खबर अखबारों में दे दी या महात्माजी ने ‘हरिजन’ में एक आर्टिकल लिख दिया। क्यों ? क्या हिन्दुओं में ऐसे ताकतवर आदमियों की कमी है जो उन दुष्टों का मुकाबला कर सकें ? नहीं, कमी तो इस बात की है कि किसी को विश्वास नहीं है कि वह कुछ करे तो समाज उसका साथ देगा। सच तो यह है कि किसी के हृदय में इन सब कांडों को देखकर टीस ही नहीं उठती है।
जब किसी मनुष्य के किसी अंग को लकवा मार जाता हैं तो वह चेतनाशून्य हो जाता है। इसी भांति हमारे समाज को लकवा मार गया है। उसको कोई कितना भी कष्ट क्यों न दे, कुछ महसूस ही नहीं होता। हरेक तभी महसूस करता है जब चोट उसके सिर पर आकर पड़ती है। आज हूणों का आक्रमण सिंध में है। हमको उसकी परवाह नहीं परन्तु वही हमारे प्रान्त में होने लग जाए तब कुछ खलबली मचेगी और होश तो तब आएगा जब हमारी बहू-बेटियों में से किसी को वे उठाकर ले जाएँ। फिर व्यक्तिगत रूप से यदि कोई बड़ा हो भी गया तो उसका क्या महत्व ? वह तो हानिकारक ही है। हमारा सारा शरीर का शरीर ही मोटा होता जाए तो ठीक है परन्तु यदि खाली पैर ही सूजकर कुप्पास हो गया और बाकी शरीर वैसा ही रहा हो तो वह फीलपाँव रोग हो जाएगा। यही कारण है कि इतने कार्यकर्ताओं ने व्यक्तिगत आकांक्षाओं को छोड़कर अपने आपको समाज उन्नति में ही लगा दिया है। हमारे पतन का कारण हममें संगठन की कमी है। बाकी बुराईयां अशिक्षा आदि तो पतित अवस्था के लक्षण मात्र ही हैं। इसीलिये संगठन करना ही संघ का ध्येय है और यह कुछ भी नहीं करना चाहता है। संघ का क्या व्यवहाकरिक रूप है, यह आप यदि कभी आगरा आवें तो देख सकते हैं। मेरा ख्याल है कि एक बार संघ के रूप को देखकर तथा उसकी उपयोगिता समझने के बाद आपको हर्ष ही होगा कि आपके एक पुत्र ने भी इसी कार्य को अपना जीवन कार्य बनाया है।

परमात्मा में हम लोगों को सब प्रकार समर्थ बनाया है, क्या फिर हम अपने में से एक को भी देश के लिये नहीं दे सकते हैं। उस कार्य के लिये जिसमें न मरने का सवाल है, न जेल की यातनाएँ सहन करने का, न भूखों मरना है और न नंगा रहना है। सवाल है केवल चंद रूपयों के न कमाने का। वे रूपये जिनमें निजी खर्च के बाद शायद ही कुछ बचा रहता। रही व्यक्तिगत नाम और यश की बात, सो तो आप जानते ही हैं कि गुलामों का कैसा नाम और कैसा यश ? फिर मास्टरों की तो इज्जत ही क्या है ? आपने मुझे शिक्षा-दीक्षा देकर सब प्रकार से योग्य बनाया। क्या अब आप मुझे समाज के लिये नहीं दे सकते, जिस समाज के हम इतने ऋणी हैं ? यह तो एक प्रकार से त्याग भी नहीं है, इनवेस्टमेंट है। समाज रूपी खेत में खाद देना है। आज हम केवल, फसल काटना तो जानते हैं पर खेत में खाद देना भूल गए हैं, अतः हमारा खेत जल्द ही अन उपजाऊ हो जाएगा ?

जिस समाज और धर्म की रक्षा के लिये राम ने वनवास सहा, कृष्ण ने अनेकों कष्ट उठाएँ, राणा प्रताप जंगल-जंगल मारे फिरे, शिवाजी ने सर्वस्व अर्पण कर दिया, गुरू गोविन्द सिंह के छोटे-छोटे बच्चे जीते जी किले की दीवारों में चुने गए, क्या उनकी खातिर हम अपने जीवन की आकांक्षाओं का, झूठी आकांक्षाओं का त्याग भी नहीं कर सकते हैं ? आज समाज हाथ पसार कर भीख मांगता है और यदि हम समाज की ओर से ऐसे उदासीन रहें, तो एक दिन वह आएगा जब हमको वे चीजें, जिन्हें हम प्यार करते हैं, जबरदस्ती छोड़नी पड़ेगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि यदि आप संघ की कार्य प्रणाली से पहिले से परिचित होते तो आपके हृदय में किसी भी प्रकार की आशंका नहीं उठती। आप यकीन रखिये कि मैं ऐसा कोई भी कार्य नहीं करूंगा जिससे कोई भी आपकी ओर अंगुली उठाकर देख भी सके। उल्टा आपको गर्व होगा कि आपने देश और समाज के लिये अपने एक पुत्र को दे दिया। बिना किसी दबाव के केवल कर्तव्य के ख्याल से आपने लालन-पालन किया। अब क्या अंत में भावना कर्तव्य को धर दबाएगी ? अब वही कर्तव्य सारे हिन्दू समाज के प्रति हो गया है। यह तो केवल समय की प्रगति के साथ-साथ आपके कर्तव्य का विकास मात्र ही है। भावना से कर्तव्य सदैव ऊँचा रहता है। लोगों ने अपने इकलौते बेटों को सहर्ष सौंप दिया है। फिर आपके पास एक स्थान पर तीन-तीन पुत्र हैं, क्या उनमें से आप एक को भी समाज के लिये नहीं दे सकते हैं ? मैं जानता हूँ कि आप ‘नहीं’ नहीं कह सकते, कोई दूसरा स्वार्थी प्रवृति वाला मनुष्य चाहे एक बार कुछ कह भी देता।

आप शायद सोचते होंगे कि यह क्या उपदेश लिख दिया है। न मेरी इच्छा है, न मेरा उद्देश्य ही यह है। इतना सब इसलिये लिखना पड़ा कि आप संघ से ठीक-ठाक परिचित हो जाएँ। किसी भी कार्य की भलाई-बुराई का निर्णय उसकी परिस्थितियों और उद्देश्य को देखकर ही तो किया जाता है। पंडित श्याम नारायण जी मिश्र, जिनके पास मैं यहाँ ठहरा हुआ हूँ, वे स्वयं यहाँ के लीडिंग एडवोकेट है तथा बहुत ही माननीय (जेल जाने वाले नहीं) जिम्मेदार व्यक्तियों में से है। उनकी संरक्षता में रहते हुए मैं कोई भी गैर जिम्मेदारी का कार्य कर सकूँ, यह कैसे मुमकिन है।
शेष कुशल है। कृपा पत्र दीजिएगा। मेरा तो ख्याल है कि देवी का एलोपैथिक इलाज बन्द करवा के होमियोपैथिक इलाज करवाइए। यदि आप देवी की पूरी हिस्ट्री... और बीमारी तथा सम्पूर्ण लक्षण लिख भेजें तो यहाँ पर बहुत ही मशहूर होमियोपैथ है, उनसे पूछकर दवा लिख भेजूंगा। होमियापैथ इलाज यदि दवा ठीक लग गई तो बिना खतरे के ठीक प्रकार हो सकता है। भाई साहब व भाभी जी को नमस्ते, देवी व महादेवी को स्नेह। पत्रोत्तर दीजियेगा। भाई साहब को कभी पत्र लिखते ही नहीं।
                             

आपका भांजा

दीना (दीनदयाल)