शनिवार, 24 अप्रैल 2021

आखिर #जनेऊ क्यों पहनते हैं हिंदू..?

जनेऊ धारण करना कभी सनातन में अनिवार्य कर्म माना जाता था। यह यहां तक स्वीकार्य था कि बुद्ध की जो असली मूर्ति मिलती हैं, उनमें भी जनेऊ स्प्ष्ट दिखाई देता है।
जनेऊ  को उपवीत, यज्ञसूत्र, व्रतबन्ध, बलबन्ध, मोनीबन्ध और ब्रह्मसूत्र भी कहते हैं, इसे उपनयन संस्कार भी कहते हैं।
 उपनयन का अर्थ है 'पास या सन्निकट ले जाना' किसके पास..? ब्रह्म (ईश्वर) और ज्ञान के पास ले जाना। हिन्दू समाज के हर वर्ग को जनेऊ धारण करना चाहिए। लोग जनेऊ धारण इसलिए नहीं करते क्योंकि फिर उन्हें उसके नियमों का पालन कर सादगीपूर्ण जीवन यापन करना होता है। जनेऊ के नियमों का पालन करके आप निरोगी जीवन जी सकते हैं। 

आध्यात्म के अतिरिक्त इसका वैज्ञानिक महत्व भी हैं। 
कुछ मुख्य एवं महत्वपूर्ण तथ्य निम्नवत हैं...
 
■जीवाणुओं-कीटाणुओं से बचाव : जो लोग जनेऊ पहनते हैं और इससे जुड़े नियमों का पालन करते हैं, वे मल-मूत्र त्याग करते वक्त अपना मुंह बंद रखते हैं। इसकी आदत पड़ जाने के बाद लोग बड़ी आसानी से गंदे स्थानों पर पाए जाने वाले जीवाणुओं और कीटाणुओं के प्रकोप से बच जाते हैं।
 
■गुर्दे की सुरक्षा : यह नियम है कि बैठकर ही जलपान करना चाहिए अर्थात खड़े रहकर पानी नहीं पीना चाहिए। इसी नियम के तहत बैठकर ही मूत्र त्याग करना चाहिए। उक्त दोनों नियमों का पालन करने से किडनी पर प्रेशर नहीं पड़ता। जनेऊ धारण करने से यह दोनों ही नियम अनिवार्य हो जाते हैं।
 
■हृदय रोग व ब्लडप्रेशर से बचाव : शोधानुसार मेडिकल साइंस ने भी यह पाया है कि जनेऊ पहनने वालों को हृदय रोग और ब्लडप्रेशर की आशंका अन्य लोगों के मुकाबले कम होती है। जनेऊ शरीर में खून के प्रवाह को भी कंट्रोल करने में मददगार होता है। ‍चिकित्सकों अनुसार यह जनेऊ के हृदय के पास से गुजरने से यह हृदय रोग की संभावना को कम करता है, क्योंकि इससे रक्त संचार सुचारू रूप से संचालित होने लगता है।
 
■लकवे से बचाव : जनेऊ धारण करने वाला आदमी को लकवे मारने की संभावना कम हो जाती है क्योंकि आदमी को बताया गया है कि जनेऊ धारण करने वाले को लघुशंका करते समय दांत पर दांत बैठा कर रहना चाहिए। मल मूत्र त्याग करते समय दांत पर दांत बैठाकर रहने से आदमी को लकवा नहीं मारता।
 
■कब्ज से बचाव : शौच के दौरान जनेऊ को कान के ऊपर कसकर लपेटने का नियम है। ऐसा करने से कान के पास से गुजरने वाली उन नसों पर भी दबाव पड़ता है, जिनका संबंध सीधे आंतों से है। इन नसों पर दबाव पड़ने से कब्ज की श‍िकायत नहीं होती है। पेट साफ होने पर शरीर और मन, दोनों ही पुष्ट रहते हैं।
 
■शुक्राणुओं की रक्षा : दाएं कान के पास से वे नसें भी गुजरती हैं, जिसका संबंध अंडकोष और गुप्तेंद्रियों से होता है। मूत्र त्याग के वक्त दाएं कान पर जनेऊ लपेटने से वे नसें दब जाती हैं, जिनसे वीर्य निकलता है। ऐसे में जाने-अनजाने शुक्राणुओं की रक्षा होती है। इससे इंसान के बल और तेज में वृद्ध‍ि होती है।
 
■स्मरण शक्ति की रक्षा : कान पर हर रोज जनेऊ रखने और कसने से स्मरण शक्त‍ि का क्षय नहीं होता है। इससे स्मृति कोष बढ़ता रहता है। कान पर दबाव पड़ने से दिमाग की वे नसें एक्ट‍िव हो जाती हैं, जिनका संबंध स्मरण शक्त‍ि से होता है। दरअसल, गलतियां करने पर बच्चों के कान पकड़ने या ऐंठने के पीछे भी मूल कारण यही होता था।
 
■आचरण की शुद्धता से बढ़ता मानसिक बल : कंधे पर जनेऊ है, इसका मात्र अहसास होने से ही मनुष्य बुरे कार्यों से दूर रहने लगता है। पवित्रता का अहसास होने से आचरण शुद्ध होने लगते हैं। आचरण की शुद्धत से मानसिक बल बढ़ता है।
 
सनातन की प्रत्येक आज्ञा स्वयं में शोधपरक सिद्धान्त है लेकिन ब्राह्मण विरोध तथा स्वयं को आधुनिक दिखने की चाह समाज को उससे दूर करती जा रही है...

शनिवार, 17 अप्रैल 2021

आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं...

जब आप...
करते नहीं कोई यात्रा...
पढ़ते नहीं कोई किताब...
सुनते नहीं जीवन की ध्वनियाँ,
करते नहीं किसी की तारीफ़...

आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं, जब आप...
मार डालते हैं अपना स्वाभिमान...
नहीं करने देते मदद अपनी और न ही करते मदद दूसरों की...

आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं, जब आप...
बन जाते हैं गुलाम अपनी आदतों के...
चलते हैं रोज़ उन्हीं रोज़ वाले रास्तों पे...
नहीं बदलते हैं अपना दैनिक नियम व्यवहार...
नहीं उठाते जोखिम नया रंग पहनने का...
नहीं करते बात उनसे जो हैं अजनबी-अनजान...

आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं, जब आप...
नहीं महसूस करना चाहते आवेगों को...
और उनसे जुड़ी अशांत भावनाओं को... 
वो जिनसे नम होती हों आपकी आँखें...
और करती है तेज़ आपकी धड़कनों को...

आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं, जब आप...
बदलते नहीं हो जीने का ढंग...
असंतुष्ट हो अपने ही काम से...
नहीं छोड़ सकते, अनिश्चित के लिए निश्चित को...

आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं, जब आप...
नहीं करते हों पीछा किसी स्वप्न का...
नहीं देते हों इजाज़त... कम से कम एक बार, 
किसी समझदार सलाह से दूर भाग जाने की...

तब आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं...

नहीं बदल सकते हों अपनी ज़िन्दगी को...

जियो आज जीवन... रचो आज...
उठाओ आज जोखिम...
मत दो मरने ख़ुद को, आज धीरे-धीरे...
मत भूलो ख़ुश रहना... 

कैसा था रामराज्य?

प्राय: हम लोग एक आदर्श शासन व्यवस्था की तुलना रामराज्य से करते हैं। ऐसे में बहुत से लोग ऐसे भी हैं जिनके मन में एक न एक बार यह प्रश्न जरूर उठता है कि आखिर रामराज्य में ऐसा क्या था, जो त्रेता युग के रामराज्य का उदाहरण आज भी दिया जाता है। तो आइए जानें इसके बारे में इस लेख के माध्यम से...
रामराज्य त्रेतायुग की घटना है। रामराज्य तथा रामायण की रचना समकालीन घटनाएं हैं। रामायण के रचयिता आदि कवि वाल्मीकि जी स्वयं राम के समकालीन थे। अयोध्या से अपने निष्कासन के उपरान्त सीता जी, वाल्मीकि जी के आश्रम में ही जाकर रही थी और वहीं पर लव तथा कुश का जन्म हुआ था। इस प्रकार रामायण की सभी घटनाएं यथार्थ सत्य है। रचयिता ने उन्हें स्वयं देखा है या अनुभव किया है। रामायण से हमें तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थतियों की भी पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है।

आधुनिक परिभाषा के अनुसार, रामराज्य को जनतन्त्र या गणतन्त्र नहीं कहा जा सकता, वह मर्यादित राजतंत्र था। मगर वह एक ऐसा आदर्श राजतंत्र था, जिसमें श्रेष्ठ जनतंत्र व कुलीनतंत्र की विशेषताओं को भी सम्मिलित कर लिया गया था। सुप्रसिद्ध यूनानी चिन्तक प्लेटो ने अपनी पुस्तक 'रिपब्लिक' में एक ऐसे दर्शनिक राजा की कल्पना की थी, जो प्रतिभा का प्रतीक है और जो अपने देश या समाज के लिए, सभी व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं को त्याग देता है। रामराज्य का राजा इससे भी आगे बढ़ा हुआ है। प्लेटो का दार्शनिक राजा अपनी प्रतिभा के सामने किसी भी कानून या परंपराओं की मर्यादा को स्वीकार नहीं करता। इसके विपरीत राजा राम, प्रतिभा व कुशलता के धनी होते हुए भी, राज्य के कानून और समाज की मर्यादाओं का पालन करते हैं। राज्य द्वारा बनाये गये कानून केवल जनता के लिए ही नहीं, राजा के लिए भी होते हैं। राम इसके प्रमाण हैं। राम मर्यादा पुरुषेत्तम हैं। अयोध्या कांड के सर्ग 69 में, राम, जाबालि ऋषि से कहते हैं- 'मर्यादा का उल्लंघन करने वाला मनुष्य पापाचरण युक्त होता है। वह सज्जनों में सम्मानित नहीं होता।' राजा राम इस बात को स्वीकार करते हैं कि 'राजा का आचरण जिस प्रकार का होता है, प्रजा का आचरण भी उसी प्रकार का होता है।' इसलिए अपनी प्रजा को कोई बात कहने से पहले वे स्वयं उसपर अमल करते हैं।
 
महात्मा गांधी सहित अनेक विचारकों ने रामराज्य की प्रशंसा की है और उसे अपनाने के लिए, अपनी उत्कट अभिलाषा व्यक्त की है। रामराज्य को अपनाने से उनका अभिप्राय, जनतंत्र को हटाकर राजतन्त्र की स्थापना से नहीं था। रामराज्य से उनके अभिप्राय में दो बातें प्रमुख थीं। प्रथम देश के शासक और पदाधिकारी राम के समान आदर्श और 'मर्यादा पुरुषोत्तम' हों। वे अपने स्वयं के स्वार्थों में लिप्त न रहकर केवल जनता का हितचिन्तन करें। दूसरे, देश की जनता उसी प्रकार से सुखी और समृद्धशाली हो, जिस प्रकार वह रामराज्य में थी। 
महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में जनता की खुशहाली की चर्चा की है। वहां समयानुसार वृष्टि' होती थी और सदा सुख देने वाला पवन चलता था। नगरों और देहातों में ‘हृष्ट-पुष्ट' मनुष्य रहते थे। किसी की असामयिक मृत्यु नहीं होती थी और न कोई किसी प्रकार के रोग से पीड़ित था। श्रीराम उदास होंगे, इस विचार से आपस में लोग एक दूसरे का जी तक नहीं दुखाते थे। चारों वर्णों में से कोई भी लोभी या लालची नहीं था। सब अपना अपना काम करते हुए संतुष्ट' रहा करते थे। रामराज्य में संपूर्ण प्रजा धर्मरत थी और झूठ से दूर रहती थी।
रामायण के अराजक राज्य की काफी निन्दा की गई है। उसके अनुसार 'अराजक राज्य की वैसी ही दशा होती है, जैसी कि जलरहित नदियों की, बिना वृक्ष के वन की और गोपाल रहित गोओं की। अराजक स्थिति में कोई अपना नहीं होता। वहां मछलियों की तरह मनुष्य एक दूसरे को खा जाते हैं। (अयोध्या कांड सर्ग 43) राज्य के लिए जहां राजा आवश्यक है, वहां राजा के ऊपर बहुत बड़ा उत्तरदायित्व भी है। अयोध्या कांड के सर्ग 3 में, दशरथ राम को उपदेश देते हुए कहते हैं- 'पुत्र यद्यपि तुम राजगुणों से युक्त हो, तथापि मैं तुम्हें स्नेहवश हितकारी बात बतलाता हूं। 'तुम और अधिक विनय को धारण करके सदैव जितेन्द्रिय रहो। तुम काम और क्रोध से उत्पन्न होने वाले व्यसनों को त्यागे रखना। दूतादि द्वारा परोक्ष रूप से सत्यासत्य का भेद लेना एवं राज्य कर्मचारियों तथा प्रजा का न्याय करते हुए उन्हें प्रसन्न रखना। जो राजा प्रजा से प्रेम करता हुआ और प्रजा को अपना प्रशंसक बनाता हुआ राज्य करता है, उसकी प्रजा मित्र बनकर आनन्दित रहती है।' अयोध्या कांड के 100वें अध्याय में कहा गया है-'राजाओं को वृद्धों, विद्वानों और चरित्रवान व्यक्तियों का आदर करना चाहिए। राजाओं को अनुशासित दैनिक जीवन बिताना चाहिए और उन्हें व्यसनों तथा बुरी प्रवृत्तियों से दूर रहना चाहिए।'

रामायण-काल में अत्याचारी शासक के लिए कोई स्थान नहीं। ऐसे राजा को न केवल निष्कासित ही किया जा सकता था, बल्कि उसे मृत्युदंड भी दिया जा सकता था। राजा सगर ने अपने ज्येष्ठ' पुत्र 'असमंजस' को इसी प्रकार राज्य से निकाल दिया था। 'वेन' नाम के राजा को मृत्युदंड भी दिया गया था

रामराज्य में संसद का भी उल्लेख है। संसद के सदस्यों को आर्यगण, आर्यमित्र तथा सभासद जैसे आदरसूचक शब्दों से संबोधित किया जाता था। संसद में अमात्यों, प्रतिष्ठित ब्राह्मणों और क्षत्रियों के अतिरिक्त शूद्रों, किसानों तथा अन्य नगरवासियों के प्रतिनिधि भी सम्मिलित होते थे। संसद की बैठक विशेष अवसरों पर ही आमंत्रित की जाती थी। उदाहरणार्थ युवराज का वरण, युद्ध और शांति का निर्णय तथा सम्राट के उत्तराधिकारी का निर्वाचन आदि। संसद के सदस्यों को पूर्ण वैचारिक स्वतंत्रता प्राप्त थी और उनके निर्णय के अनुसार ही कार्य किया जाता था।

राजा दशरथ ने संसद का विशेष अधिवेशन उस समय आमन्त्रित किया था, जब वृद्धावस्था के कारण वे अपना शासन भार अपने बड़े पुत्र राम को सौंपना चाहते थे। उन्होंने सभा के सामने अपना प्रस्ताव इन शब्दों में रखा-'पराक्रम में इन्द्र के समान और शत्रुओं पर विजय पाने वाले मेरे ज्येष्ठ पुत्र राम सब गुणों में, मेरे अनुयायी सिद्ध हुए हैं। चंद्रमा के समान प्रजापालकों में श्रेष्ठ उस पुरुष श्रेष्ठ को मैं युवराज पद पर आयुक्त करना चाहता हूं। यदि यह विचार आप लोगों के लिए अनुकूल सिद्ध हो तो आप इसकी अनुमति दीजिए। जब संसद ने सर्वसम्मति से इस प्रस्ताव को स्वीकार किया तो भी राजा दशरथ ने उन्हें पुन: कहा- 'आपने जो मेरे कथन को सुनकर राम को राजा बनाने की इच्छा प्रकट की है, उसमें मुझे यह सन्देह है कि आपने मेरे प्रस्ताव को मेरे कहने से मान लिया है, अपनी आन्तरिक इच्छा से प्रेरित होकर नहीं।' इस पर सभा के सदस्यों ने राम को शासन भार सौंपने का पुन: पुरजोर समर्थन किया, तभी राजा दशरथ ने अपने प्रस्ताव को स्वीकृत माना।

राजा अपना दैनिक प्रशासन अमात्यों की सलाह और सहायता से किया करते थे। 'रामायण' में आठ अमात्यों की चर्चा की गई है, जो महात्मा, धनुर्वेदवेत्ता, दृढ़विक्रमी, कीर्तिवान, सावधानचित्त, आज्ञाकारी, तेजस्वी, क्षमाशील, यशस्वी, इन्द्रीयजीत, सत्यवादी तथा हंसकर बात करने वाले थे। समय पड़ने पर वे न्यायनुसार अपने पुत्रों को भी दंड दे सकते थे। अमात्यों के नाम इस प्रकार थे- धृष्टि' जयन्त, विजय, सुराष्ट्र, राष्ट्रवर्धन, प्रकोप, धर्मपाल और सुमन्त। वरिष्ठ' की वहां पर विशेष स्थिति थी। वे राजपुराहित तथा प्रधानमंत्री थे। सभी अमात्य उनके निर्देशन में काम करते थे।

न्यायधीशों को 'धर्मपालक' कहा जाता था। वे पर्याप्त जांच पड़ताल और सोच विचार कर फैसला किया करते थे। अंतिम निर्णय का अधिकार सम्राट को था। न्यायाधीश के रूप में उसके आसन को 'धर्मासन' कहा जाता था। राम-राज्य में अपराध, अपवाद स्वरूप ही हुआ करते थे। जनता सर्वत्र स्वछन्द और सुख से विचरण किया करती थी। रामराज्य में गुप्तचर विभाग भी था। गुप्तचरों का अपराधों की जांच पड़ताल के अतिरिक्त प्रमुख कार्य यह देखना था कि राजा तथा राजनीतिक व्यवस्था के बारे में जनता के क्या विचार हैं। राजा, नियमित रूप से अपने विश्वस्त चरों से मिलता तथा जनता की शिकायतों को दूर करने की कोशिश करता।

रामराज्य में प्रत्येक व्यक्ति को विचार तथा अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता प्राप्त थी। राजा की नीति और कार्यों पर कोई भी व्यक्ति टीका-टिप्पणी कर सकता था। राजा राम ने एक बार अपने सभासदों से कहा- 'यदि मैं अनीति की बात कहूं तो मुझे निर्भय होकर रोक दो, परंतु अनुशासन मानना समस्त प्रजा का कर्त्तव्य है।' राम का यह कथन, रामराज्य में अनुशासन की भावनाओं को भी प्रकट करता है। मगर अनुशासन का अर्थ न्यायसंगत विरोध का अभाव नहीं है। रामायण में इस प्रकार के विरोध स्वरूप जनता की हड़ताल का भी उल्लेख है। जब कैकेयी की दुबुद्धि के कारण प्रजा के निर्णय के अनुसार राम को राजा नहीं बनाया जा सका तो जनता ने पूर्ण हड़ताल की...

रामराज्य में राजा का केवल शुद्ध और सदाचारी होना पर्याप्त नहीं माना जाता था, बल्कि यह भी आवश्यक था कि जनता उसे सदाचारी समझे। जनमानस में अपनी शुद्धता और पवित्रता को प्रमाणित करने के लिए राजा को हर प्रकार के त्याग एवं बलिदान करने के लिए तैयार रहना होता था। ऐसी ही परीक्षा की एक घड़ी उस समय राजा राम के सामने उपस्थित हुई जब एक गुप्तचर ने आकर उन्हें संदेश दिया कि 'रावण द्वारा सीता का हरण और राजमहिषी के रूप में सीता की पद-स्थिति से लोगों में कुछ अपवाद फैल गया है। वे कहते हैं कि अब हम लोगों को भी अपनी स्त्रियों के दोषों की उपेक्षा करनी पड़ेगी, क्योंकि जैसा राजा करता है, उसकी प्रजा भी वैसा ही व्यवहार करती है।

राम के सामने विकट स्थिति थी। सीता की पवित्रता के बारे में वे विश्वस्त थे। मगर प्रश्न जनता के विश्वास का था। राजा के रूप में उनपर एक बड़ा उत्तरदायित्व था, जिसके सामने उनकी व्यक्तिगत भावनाओं या सुख-दुख का महत्त्व नहीं था। उन्होंने सीता-परित्याग का निश्चय किया और उस निश्चय को क्रियान्वित भी किया। 'रघुवंश में आये एक उल्लेख के अनुसार स्वयं महर्षि वाल्मीकि को भी श्री राम के इस आचरण पर बड़ा क्रोध आया था। मगर, मर्यादा पुरुषोत्तम राजा राम अपने निर्णय पर अटल रहे।