शनिवार, 21 मई 2022

पित्तदोष


जाने पित्तदोष एवं पित्त के प्रकार

पित्त की वृद्धि ~72~ से ज्यादा रोगों का कारण हैं।

जरूर जानिए पित्त के ~5~ भेद, ~64~ लक्षण, ~13~ प्रकृति और दस उपाय...

•चिड़चिड़ाने वाला क्रोधित स्वभाव, •बात-बात पर गुस्सा,
•निगेटिव सोच, •धैर्य की कमी, 
•जल्दबाज़ी और •देह में दुर्गंध, 
ये सारी परेशानियां पित्त प्रकृति वाले पुरूष-स्त्री की बहुत हद तक मेल खाती हैं।
पित्त bile या gall गहरे हरे-पीले रंग का द्रव है, जो पाचन में मदद करता हैं।
इस लेख/ब्लॉग में हम आपको पित्त प्रकृति के गुण, लक्षण और इसे संतुलित करने के उपायों के बारे में विस्तार से बता रहे हैं-
【१】पित्त दोष क्या है?
【२】पित्त का स्वभाव
【३】पित्त के लक्षण,
【४】पित्त के प्रकार, भेद-गुण।
【५】पित्त का स्वभाव,
【६】पित्त प्रकृति की विशेषता,
【७】पित्त के पित्त बढ़ने के कारण,
【८】पित्त की कमी के लक्षण-उपचार,
【९】पित्त संतुलन के उपाय,
【१०】पित्तदोष की दवा/चिकित्सा

पित्त क्या होता हैं...
कभी-कभी पाचनतंत्र की कमजोरी के कारण भोजन न पचने से सुबह के समय अथवा किसी रोग की अवस्था में वमन या उल्टी करते समय जो हरे व पीले रंग का तरल पदार्थ मुँह के रास्ते बाहर आता है, उसे हम पित्त कहते हैं।
पित्त शब्द संस्कृत के ‘तप‘ शब्द से बना है, जिसका अर्थ है-शरीर में जो तत्व गर्मी उत्पन्न करता है, वही पित्त है।
यह शरीर में उत्पन्न होने वाले प्रकिण्व (★एंजाइम) और कार्बनिक रस (★हार्मोन) को नियंत्रित करता है।

★ एंजाइम के कार्य :-
भोजन को पचाने, मांसपेशियों के बनने और शरीर में विषाक्त पदार्थ खत्म करने के साथ शरीर के हजारों कामों को करने के लिए आवश्यक होते हैं।

★ हार्मोन्स के कार्य :-
हार्मोन शरीर के लिए महत्वपूर्ण रस हैं। शरीर के बढ़ने, उपापचय (मेटाबोलिज्म), यौन या सम्भोग गतिविधियों, प्रजनन और सेक्स मूड (mood) आदि क्रियाओं में हार्मोन विशेष भूमिका अदा करते हैं।

अंग्रेजी भाषा में पित्त को फायर बताया हैं।

पित्त का पॉवर बताने वाले ~9~ सन्दर्भ ग्रन्थ-के नाम…
{१} धन्वन्तरि कृत आयुर्वेदिक निधण्टु
{२} आयुर्विज्ञान ग्रंथमाला
{३} आयुर्वेद द्रव्यगुण विज्ञान
{४} आयुर्वेदिक काय चिकित्सा
{५} आयुर्वेद सारः संग्रह
{६} भावप्रकाश निघण्टु
{७} सुश्रुत सहिंता
{८} चरक सहिंता एवं
{९} वाग्भट्ट आदि ये सब ग्रन्थ

5000 वर्षों से भी प्राचीन हैं और आयुर्वेद की अमूल्य धरोहर है।
आयुर्वेद के आचार्य चरक के अनुसार-
~”दोष धातु मल मूलं हि शरीरम्“~
भावार्थ- वात, पित्‍त, कफ अंसतुलित (unbalanced) होने पर त्रिदोष कहलाते हैं। वात-पित्त-कफ, तीनों में से
कोई भी एक विषम होने पर देह की धातु और मल को दूषित कर देते हैं।
त्रिदोष रहित मनुष्य सदैव सुखी-स्वस्थ्य तनावमुक्त और प्रसन्नपूर्वक रहता है।

पित्त का स्वरूप…
तस्मात् तेजोमयं पित्तं पित्तोष्मा य: स पक्तिमान। (भोज)
अर्थात- पित्त देह में अग्निभाव का घोतक है। पित्त अग्नि के सामान गुण कर्म वाला होता है। तन को जीवित बनाये रखने में पित्त ही सहायक है।
अतः बाह्रलोक में जो अग्नि का महत्व है, वही शरीर में पित्त का है।
संस्कृत के मन्त्र मुताबिक-
सस्नेह मुष्णम् तीक्षणं च द्रव्यमग्लं सरं कटु!! (चरक)
पित्त भी पंचमहाभूतों में से एक अग्नि का प्रतिनिधि द्रव्य है।

■ शरीर में पित्त रहने का स्थान...
अग्नाशय यानि पेनक्रियाज (pancreas),
यकृत/लिवर (liver)
प्लीहा/तिल्ली (spleen)
हृदय, दोनों नेत्र, सम्पूर्ण देह और त्वचा/स्किन में पित्त निवास करता है।

■ 5 प्रकार के पित्त…
अमाशय (stomach) में पाचक पित्त,
यकृत तथा तिल्ली में रंजक पित्त,
ह्रदय में साधक पित्त,
सारे शरीर में भ्राजक पित्त और
दोनों आंखों में आलोचक पित्त रहता है।

यदि दृष्टि आलोचक अधिक है, तो ऐसे लोग पित्त प्रकोप से पीड़ित रहते हैं, यह भी एक पहचान है। इसलिए किसी ने पित्त दोष का एक बेहतरीन इलाज कविता द्वारा बताया है-
नजरों को बदले, तो नजारे बदल जाते हैं।
सोच को बदलते ही सितारे बदल जाते हैं।
 
■ शरीर में पित्त के कार्य....
!!”सत्वरजोबहुलोऽग्न“!!
पित्त के दो कार्य या कर्म हैं-
पहला प्राकृत कर्म यानि नेचुरल और
दूसरा है-वैकृत (deformed)कर्म
जब पित्त प्रकृतावस्था अर्थात नेचुरल स्थिति में रहता है, तब पित्त के द्वारा सम्पन्न होने वाला प्रत्येक कार्य शरीर के लिए उपयोगी और स्वस्थ्य रखने वाला होता है।
लेकिन वही नेचुरल/प्राकृत पित्त, जब विकृत यानि असन्तुलित होकर दूषित हो जाता है, तो वह पित्त शरीर को विकारग्रस्त बनाकर बीमारियों का अंबार लगा देता है तथा देह में पित्त जनित रोग उत्पन्न होने लगते हैं।

पित्तदोष असंतुलन के लक्षण...
पित्त पीड़ित स्त्री-पुरुषों को ये अवरोध उत्पन्न होने लगते हैं। जैसे-
1~मल-मूत्र साफ और खुलकर नहीं आता..!
2~शुक्र यानि वीर्य पतला होने लगता है।
3~अग्निस्तम्भन, यानि फुर्तीलापन का नाश...
4~बार-बार खट्टी डकारें आती हैं।
5~भूख-प्यास, निद्रा समय पर नहीं लगती..!
6~गले में खराश बनी रहना...
7~खाना न खाने पर जी मितली...
8~स्‍तनों या लिंग को छूने पर दर्द होना...
9~हार्मोनल असंतुलन..
10~माहवारी के दौरान दर्द होना...
11~माहवारी के समय ज्‍यादा खून आना...
12~धैर्य की कमी, चिड़चिड़ापन, नाराज़गी,
13~ईर्ष्या, जलन-कुढ़न, द्वेष-दुर्भावना और
अस्थिरता की भावना रहती है।
14~युवावस्था में बाल सफेद होना...
15~नेत्र लाल या पीेले होना।
16~गर्म पेशाब आना, जलन होना।
17~पेशाब का रंग लाल या पीला होना।
18~अचानक कब्ज या दस्त लगना...
19~नकसीर फूटना, नाक से रक्त बहना।
20~नाखून  और देह पीली पड़ना।
21~ठण्डी चीजें अच्छी लगना।
22~कभी भी शरीर में फोड़े-फुंसी,
23~त्वचारोग, स्किन डिसीज होना।
24~बेचैनी, घबराहट, चिन्ता, डर, भय।
25~अवसाद (डिप्रेशन) होना इत्यादि

पित्त क्षय के लक्षण- असंतुलन
26~ जिस तरह वायु घटती-बढ़ती रहती है, उसी प्रकार पित्त जब कम होता है, तब देह की अग्नि मंद, गर्मी कम तथा शरीर
की रौनक समाप्त होने लगती है।
27~ काया का उचित विकास नहीं हो पाता..! 
~ जवानी के दिनों में बुढापे के लक्षण प्रतीत होते हैं।

पित्त-वृद्धि के लक्षण…
28~ तन में पित्त की अधिकता होने से शरीर पीला पड़ने लगता है।
29~ बार-बार पीलिया की समस्या होने लगती है।
30~ नया खून बनना कम हो जाता है।
31~ सदैव सन्ताप, दुःख, आत्मग्लानि का भाव उत्पन्न बना रहता है।
32~ किसी काम में मन नहीं लगता..!
33~ जीवन के प्रति उत्साह, उमंग क्षीण होने लगता है।
34~ जीने की चाह नहीं रहती।
35~ नींद कम आती है,
36~ सुस्ती, बेहोशी छाई रहती है।
37~ देह बलहीन तथा कामेन्द्रियाँ शिथिल होकर, नपुंसकता आने लगती है।
38~ सहवास या सेक्स की इच्छा नहीं रहती..!
39~ पेशाब पीला उतरता है तथा आंखे पीली हो जाती हैं।

पित्त-प्रकोप के लक्षण…
40~ देह में जब लम्बे समय तक गर्माहट, जलन का अनुभव करें,
41~ ऐसा महसूस हो जैसे धकधक आग जल रही हो, धुंआ सा निकलता मालूम होवे...
42~ बहुत ज्यादा खट्टी डकारें आयें।
43~ अन्तर्दाह हो, त्वचा या चमड़ा जलने लगे से अनुभव हो।
44~ लाल-लाल चकत्ते, फोड़े-फुंसी, मुहांसे होने लगे।
45~ कांख यानि बगल में कखलाई हो।
46~ मस्तिष्क में गर्मी, बेचैनी बहुत लगे।
47~ अत्यन्त स्वेद यानि पसीना आता हो।
48~ शरीर से बेकार सी बदबू आती हो।
49~ शरीर का कभी भी कोई अंग और अवयव फटने लगे।
50~ मुहँ में सदा कड़वाहट रहती हो।
51~ आंखों के सामने अंधेरा छाया रहे।
52~ स्किन हल्दी के रंग की होने लगे।
53~ मूत्र बहुत कम एव लाल-पीला एवं जलन के साथ होता हो।
54~ मल-मूत्र और नेत्र हरे या पीले हो।
55~ दस्त हमेशा पतला आता हो।
56~ पखाना नियमित न होना, बंधकर नहीं आना एक बार में पेट साफ न होना आदि।
57~ काला-पीला, ज्यादा गिला और चिकनाई  लिए मल का आना कफ, पित्त के कोप को इंगित करता है।
58~ पित्त दोष के रोगी का शरीर अक्सर गर्म सा रहता है।
 59~ पित्त रोगी चमकीले पदार्थ या वस्तु देखने में असहज महसूस करता है।
60~ पित्त दोष वाले व्यक्ति की जीभ अधिक लाल, काली, कड़वी और काँटों जैसी खुरखुरी हो जाती है।
61~ पित्त के असंतुलन से हिक्का रोग यानि बार-बार हिचकी भी आती हैं।
62~ आन-तान, बड़बड़ बकना इत्यादि पित्त के कुपित होने के लक्षण हैं।
63~ पित्त प्रकृति वालों को अक्सर पित्त ज्वर एवं रक्त-पित्त ज्वर हमेशा बीमार बनाये रखते हैं।
64~ कई बार ऐसा देखा गया है कि पित्त प्रधान व्यक्ति के बाल कम आयु में ही झड़कर गिरने तथा सफेद होने
लगते हैं।
पित्त से पीड़ित स्त्री-पुरुष की प्रकृति उपरोक्तानुसार हो, तो जान लें कि ये सारे लक्षण पित्त प्रकृति स्त्री-पुरुषों के हैं।
आयुर्वेद या अन्य चिकित्‍सा पद्धतियों में त्रिदोष अर्थात वात-पित्त और कफ प्रकृति के आधार पर व्‍यक्‍ति के रोगों को निर्धारित किया जाता है।

पित्त का स्वरूप…
पित्त एक तरह का पतला द्रव्य यह गर्म होता है। आमदोष से मिले पित्त का रंग नीला और आम दोष से भिन्न पीले रंग का होता है।

जब पित्त, आम दोष से मिल जाता है, तो उसे साम पित्त कहते हैं। सामपित्त दुर्गन्धयुक्त खट्टा, स्थिर, भारी और हरे या काले रंग का होता है। साम पित्त होने पर खट्टी डकारें आती हैं और इससे छाती व गले में जलन होती है।

■ कैसे पहचाने ‘13‘ पित्त प्रकृति को…
√ शरीर में से बहुत तेज दुर्गंध आती है?
√ बहुत जल्दी क्रोधित या गुस्सा हो जाते हैं।
√ स्वभाव अत्यन्त चिड़चिड़ा हो रहा है।
√ नकारात्मक विचार अधिक आते हों।
√ बार-बार बहुत भूख लगती हो।
√ ज्यादा समय तक भूखे नहीं रह पाते हो।
√ बाल ज्यादा झड़ते-टूटते हों।
√ युवावस्था में गंजेपन का शिकार होना।
√ हमेशा सिरदर्द या माइग्रेन बना रहता हो।
√ मुँह का स्वाद कड़वा, कसैला, खट्टा होना।
√ जीभ व आंखों का रंग लाल रहना।
√ शरीर गर्म, पेशाब का रंग पीला होता है।
√ अत्याधिक बार-बार पसीना आता है।

■ पित्त 2 तत्वों से निर्मित है...
शरीर में पित्त का निर्माण पंचतत्व में से ~2~ अग्नि तथा जल तत्व से हुआ है।
जल इस अग्नि के साथ मिलकर इसकी तीव्रता को शरीर की जरूरत के अनुसार पित्त सन्तुलित करता है।

■ नर-नारी निर्माता नारायण द्वारा मानव शरीर में इसे जल में धारण करवाया है, जिस का अर्थ है कि पित्त की अतिरिक्त गर्मी को जल द्वारा नियन्त्रित करके उसे शरीर की ऊर्जा के रूप में प्रयोग में लाना।

■ पित्त, अग्नि का दूसरा नाम है। अग्नि के दो गुण विशेष होते है। पहला-वस्तु को जलाकर नष्ट करना, दूसरा कार्य है-ऊर्जा देना।
पित्त से हमारा अभिप्राय हमारे शरीर की गर्मी से है। शरीर को गर्मी देकर, ऊर्जा दायक तत्व ही पित्त कहलाता है।

■ पित्त परमात्मा स्वरूप है–
पित्त शरीर का पोषण करता हैं। पित्त शरीर को बल देने वाला है। भोजन को पचाने में लारग्रंथि, अमाशय, अग्नाशय, लीवर व
छोटी आँत से निकलने वाला रस महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

■ क्यों जरूरी है सन्तुलित पित्त रहना…
# पित्त जीवन-मृत्यु विधाता है।
# पित्त के विषम या अशांत होने से...
# विकार पैदा होने लगते हैं।
# पित्त की सन्तुलित गर्मी से प्राणी जीवित रहता है।

पित्त का शरीर में कितना महत्व है, इसे हम इस प्रकार समझ सकते हैं कि # जब तक यह शरीर गर्म है, तब तक
यह जीवन है। जब शरीर ठण्डा हो जाता है, तो उस व्यक्ति को मरा हुआ या मृत घोषित कर दिया जाता है।

■ पित्त का स्वाद, रंग और वजन...
पेट में बनने वाला पित्त स्वाद में खट्टा, कड़वा व कसैला होता है। इसका रंग नीला, हरा व पीला हो सकता है।
पित्त शरीर में तरल पदार्थ के रूप में पाया जाता है। यह वज़न में वात की अपेक्षा भारी तथा कफ की तुलना में हल्का होता है।
पित्त सम्पूर्ण शरीर के भिन्न-भिन्न भागों में रहता है लेकिन इसका मुख्य स्थान हृदय से नाभि तक है।

■ ऋतु अनुसार पित्त की स्थिति….
मौसम की दृष्टि से बरसात के दौरान यह मई महीने से सितम्बर तक तथा दिन में दोपहर के समय तथा भोजन पचने के दौरान पित्त अधिक मात्रा में बनता है। युवावस्था में शरीर में पित्त
का निर्माण अधिक होता है।

■ पित्त के सम होने से लाभ…
पित्त हमारे पाचन को नियंत्रित करता है। शरीर के तापमान को बनाए रखता है, त्‍वचा की रंगत, बुद्धि और भावनाओं पर भी पित्त का प्रभाव होता है। पित्त में असंतुलन आने के कारण व्‍यक्‍ति शारीरिक और भावनात्‍मक रूप से अस्‍वस्‍थ होने
लगता है। अकेला पित्त शक्तिशाली आदमी को पल में चित्त करने की क्षमता रखता है।

वायु की तरह पित्त भी नाम, स्थान एवं क्रियाओं के भेद से पित्त पाँच प्रकार का होता है- 
पित्त को हमारे शरीर में क्षेत्र व कार्य के आधार पर पाँच भागों में बाँटा गया है।
ये इस प्रकार हैः-
(एक) पाचक पित्त- यह अमाशय और पक्वाशय (duodenum) के बीच में रहकर छह तरह के आहारों को
पचाने में मददगार है और शेषाग्नि बल की वृद्धि कर- रस, मूत्र, मल आदि को अलग-अलग करता है।
पाचक पित्त का कार्य…
इसका मुख्य कार्य भोजन में मिलकर, उसका शोषण करना है। यह भोजन को पचा कर पाचक रस व मल को अलग-अलग करता है।
पाचक पित्तः-पाचक पित्त पंचअग्नियों (पाचक ग्रन्थियों) से निकलने वाले रसों का सम्मिश्रित रूप है। इसमें अग्नि तत्व की प्रधानता पायी जाती है।
ये पाँच रस इस प्रकार हैः-
1- लार ग्रन्थियों से बनने वाला लाररस
2- आमाशय में बनने वाला आमाशीय रस
3– अग्नाशय का स्त्राव।
4- पित्ताशय से बनने वाला पित्त रस।
5- आन्त्र रस।
यह पक्कवाशय में रहते हुए दूसरे पाचक रसों को शक्ति देता है। शरीर को गर्म रखना भी इसका मुख्य कार्य है।
पाचक पित्त मुख्यतः उदर में स्थित अमाशय और पक्वाशय में रहकर ही, अपनी पाचक शक्ति से शरीर के शेष अवयव यकृत, त्वचा, नेत्र आदि स्थानों सहित पूरे देह का पोषण (nutrition) न्यूट्रिशन करता है।
इसी पित्त को जठराग्नि अथवा पाचक अग्नि भी कहते हैं।
यह अग्नि कांच के पात्र में दीपक के समान है। यही अग्नि अनेक प्रकार के व्यंजनों तथा भोजन को पचाती है।
 
■ पित्त की अग्नि किसमें-कितनी…
बड़े विशाल देहधारियों में यह अग्नि जौ के बराबर, 
छोटे शरीर वालों यानि मानव शरीर में यह तिल के बराबर और अतिसूक्ष्म किट-पतंगों में बाल की नोंक के समान प्रज्वलित
रहती है।
पाचक पित्त अन्न रस का पाचन कर शरीर के संक्रमण, रोगाणु, विषाणु और बैक्टीरिया का नाश करता है।
यदि शरीर में पाचक पित्त सम अवस्था में बनता है, तो हमारा पाचनतन्त्र सुदृढ़ रहता है। जब शरीर में पाचन और निष्कासन क्रियाएं ठीक रहती हैं।

पित्त प्रकोप के दुष्प्रभाव…
जब देह में पाचक पित्त कुपित होता है,
तो शरीर में नीचे लिखे रोग हो सकते है-
¶ जठराग्नि का मन्द होना...
¶ दस्त लगना...
¶ खूनी पेचिश...
¶ कब्ज बनना...
¶ अम्लपित्त (एसिडिटी)
¶ अल्सर (पेेेट का फोड़ा, घाव)
¶ मधुमेह (डाइबिटीज)
¶ मोटापा...
¶ हृदय रोग तथा
¶ कैलस्ट्रोल का अधिक बनना...
पाचक पित्त को नियंत्रित यानि कन्ट्रोल करने के लिए नीचे लिखी दवाओं का उपयोग एवं क्रिया-साधनाओं का अभ्यास करना होगा।
पाचक पित्त दूषित होने पर…
a– व्यायाम, ध्यान अवश्य करें।
b– गुलकन्द युक्त पान खाएं।
c– नाश्ते में मीठा दही लेवें
d– सुपाच्य हल्का भोजन,
e– केवल सुबह या दुपहर में सलाद, हरी सब्जियाँ,
f– ताजे फलों का सेवन भी पाचक पित्त को सम अवस्था में
रखने में सहायक है।
g– कीलिव माल्ट 5 माह तक लेवें।
h– दूषित पित्त से उत्पन्न अम्लपित्त को सन्तुलित करने के लिए अमृतम जिओ गोल्ड माल्ट 7 से 8 महीने नियमित खाली पेट लेना हितकारी होगा।

(दो) भ्राजक पित्त–
यह पित्त सम्पूर्ण शरीर की त्वचा में रहकर विभिन्न कार्य करता है जैसे-
$– त्वचा को मुलायम बनाना...
$– शरीर को सौन्दर्य प्रदान करना...
$- विटामिन डी को ग्रहण करना तथा
$– वायुमण्डल में पाए जाने वाले रोगाणुओं से शरीर की रक्षा करना...
भ्राजक पित्त-
शरीर की कांति, चिकनाई आदि का उत्पादक तथा रक्षक है। यह पित्त देह की त्वचा में रहकर कान्ति, चमक, रौनक उत्पन्न कर देह को सुंदरता प्रदान करता है।
भ्राजक पित्त के कारण ही शरीर में किया गया लेप, चन्दन, उबटन, मालिश किया हुआ तेल आदि तन में समाहित होकर सूख पाते हैं।
क्यों आवश्यक है-अभ्यंग-
अनेक स्त्री-पुरुष महीनों तक मालिश, उबटन आदि नहीं करते, उनकी स्किन रूखी, कटी-फटी रंगहीन होने लगती है। काया की कान्ति नष्टप्रायः हो जाया करती है। स्किन डिसीज, सोरायसिस आदि रक्तविकारों का कारक भ्राजक पित्त माना जाता है।
भ्राजक पित्त के कुपित होने पर शरीर में नीचे लिखे रोग आने की सम्भावना बनी रहती है-
(अ) त्वचा पर सफेद दाग
(ब) लाल चकत्तों का दोष होना।
(स) चर्म रोग (स्किन डिसीज़) का होना।
(द) शरीर में फोड़ा, फुन्सी होना।
(ई) एग्जिमा, त्वचा का फटना आदि।
भ्राजक पित्त को विकार रहित बनाने के लिए करें ये उपाय-
£– कोई ऐसा श्रम करें, जिससे शरीर से पसीना निकलने लगे।
£– सुबह सूर्य की रोशनी लेवें।
£– स्नान के बाद तेल लगाएं।
विशेष कारगर हर्बल ऑयल...
यदि गुंजाइश हो, तो महीने में एक बार पूरी देह में बहुत ही बहुमूल्य
~अमृतम कुमकुमादि तेलम~
अच्छी तरह लगाकर अभ्यंग करें।
यह ऑयल 30 ml 2999/- का है।
£– मीठा दूध अवश्य पियें।

अघोरी की तिजोरी से उपाय…
£– कालीमिर्च,  सेंधानमक, नागकेशर 1-1 ग्राम, 
मीठा नीम, तुलसी, एलोवेरा, अमलताश गूदा 3-3 ग्राम
और दो नग अंजीर मिलाकर 20 बड़ी गोली बनाएं,
इसे दिन में 3 बार सादे जल से पाँच महीने तक लेने से अंसतुलित, दूषित भ्राजक पित्त सम हो जाता है।

£ भ्राजक पित्त को शरीर में सम अवस्था में रखने के लिए प्रतिदिन सूर्य समक्ष अमृतम
~काया की बॉडी मसाज ऑयल~
(चन्दन, गुलाब इत्र युक्त) से सप्ताह में 2 बार पूरे शरीर में सिर से तलबों तक मालिश कर स्नान करना लाभप्रद है।
भ्राजक पित्त को धन्वन्तरि सहिंता में वात-पित्त बताया है। इसलिए ऑर्थोकी गोल्ड केप्सूल रोज एक दूध के साथ 30 दिन तक सेवन करें।
£– अमृतम टेबलेट 1 से 2 गोली सुबह खाली पेट और रात को खाने से पहले या बाद में सादे जल से 5 से 6 माह लेवें।
€– कीलिव माल्ट दिन में 2 से 3 बार दूध या पानी के साथ 3 माह तक सेवन करें।

(तीन) रंजक पित्त-
रंजक पित्त यकृत में बनकर पित्ताशय में रहता है। रंजक पित्त का कार्य देह में बड़ा ही महत्वपूर्ण एवं रहस्यमयी है।
मानव शरीर में भोजन के पचने पर जो रस बनता है, रंजक पित्त उसे शुद्ध करके उस रस से खून बनाता है।
अस्थियों की मज्जा (bone marrow) से जो रक्त कण (corpuscle) बनते हैं, उन्हें रंजक पित्त लाल रंग में
रंगने का कार्य करता है। तत्पश्चात इसे रक्तभ्रमण प्रणाली
(blood circulatory system-मानव शरीर- रुधिर परिसंचरण तंत्र) के माध्यम से शरीर की सम्पूर्ण रक्तवाहिनियों में पहुंचा दिया जाता है।
यदि रंजक पित्त का सन्तुलन बिगड़ जाता है, तो शरीर में लीवर से सम्बन्धित रोग होने लगते हैं।
जैसे-पीलिया, अल्परक्तता अर्थात खून की कमी, (anemia) तथा शरीर में कमजोरी आना अर्थात् शरीर की कार्य क्षमता कम हो जाना इत्यादि।
रंजक पित्त- पेट के पाचक रस को परिवर्तित कर रक्त निर्माण में सहायक है, मतलब यकृत यानी लिवर और प्लीहा में रहकर खून बनाने एवं रंगने का कार्य रंजक पित्त करता है।
मानव शरीर में प्लीहा या तिल्ली (spleen) एक अंग है यह पेट में स्थित रहता है। पुरानी लाल रक्त कोशिकाओं को नष्ट करने में रंजक पित्त सहायक है। ये रक्त का संचित भंडार भी है। यह रोग निरोधक तंत्र का एक भाग है।
रंजक पित्त की पवित्रता हेतु अमृतम गोल्ड माल्ट 3 माह तक लेवें।
रंजक पित्त नीचे लिखे उपायों से नियन्त्रित होता है- 
&– कब्ज, कॉन्स्टिपेशन कतई न होने दें
&-कपालभाति योग करें।
&– पपीता, गन्ने का रस, अमरूद लेवें।
&– कीलिव माल्ट का सदैव सेेेवन करें।
&– गुलकन्द, हरड़ मुरब्बा, बेल मुरब्बा लेवें।
&– धनिया का जूस 1 चम्मच गुड़ के साथ लें
&– रात को नमकीन दही कतई न लें।

(चार) साधक पित्त-
■ साधक पित्त के चमत्कारी लाभ…
¥ यह हृदय में रहता है।
¥ बुद्धि को तेज करता है।
¥ व्यक्ति को प्रतिभाशाली बनाता है।
¥ नवीन बुद्धि का निर्माण करता है।
¥ उत्साह व आनन्द की अनुभूति कराता है। 
¥ आध्यात्मिक शक्ति देता है।
¥ सात्विक वृत्ति का निर्माण करता है।
¥ ईर्ष्या, स्वार्थ, द्वेष-दुर्भावना को मिटाता है।
साधक पित्त-शरीर में सबसे महत्वपूर्ण हृदय में इसका स्थान है।
कफ और तमोगुण नाशक और मेधा तथा बुद्धि उत्पन्न कर
ब्रेन को क्रियाशील बनाये रखता है।

आचार्य डलहण ने लिखा है- हृदय में जो पित्त या द्रव्य विशेष होता है, वह चार पुरुषार्थ जैसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का
साधन करने वाला होने से, उसे साधक पित्त या साधकाग्नि की संज्ञा दी गई है। इसे ही इच्छित मनोरथो का साधन एवं पूर्ण करने वाला बताया है।
अतः साधकपित्त दूषित होने से सोचे हुए कार्य अथवा की गई प्रार्थना पूर्ण नहीं हो पाती..!
पवित्र बनाने का उपाय…
साधक पित्त निर्मल बनाने के लिए 5 माह तक ब्रेन की गोल्ड टेबलेट एवं ब्रेन की गोल्ड माल्ट का सेवन दूध के साथ दिन में 2 से 3 बार तक करना चाहिए।
■ अन्य सुझाव–
नीचे लिखी क्रियाओं के अभ्यास से साधक पित्त सन्तुलित रहता है। 
♂ धार्मिक व आध्यात्मिक पुस्तकें पढ़ना,
♂ महापुरुषों के प्रवचन सुनना,
♂ किसी शिवालय की साफ-सफाई करना।
♂ लोगों की मदद, भला करना।
♂ ॐ शम्भूतेजसे नमः मन्त्र जपना।
♂ आत्म-चिन्तन करना।
♂ लोकहित के कार्य करना।
♂ आसन, ध्यान, सूर्य नमस्कार करना।
♂ प्राणायाम, शवासन, योग निद्रा करना।
■ साधक पित्त के कुपित होने पर होती हैं ये परेशानियां…
[!] स्नायु तन्त्र गड़बड़ा जाता है।
[!!] मानसिक रोग होने लगते हैं। जैसे-
[!!!] जीवन में नीरसता आना।
[!!!!] आधाशीशी, सिरदर्द, माईग्रेन, मूर्छा,
[!!!!!]अवसाद (डिप्रेशन), अधरंग, अनिद्रा
[!!!!!!]और मन में उच्च व निम्न रक्तचाप तथा हृदय रोग का भय बने रहना।

(पांच) आलोचक पित्त के फायदे…
आलोचक पित्त-यह पित्त आंखों में रहता है। देखने की क्रिया का संचालन करता है। नेत्र ज्योति को बढ़ाना और दिव्य दृष्टि को बनाए रखना इसके मुख्य कार्य हैं। इसी के कारण प्राणी देख पाता है और रूप के प्रतिबिंब को ग्रहण करता है। यह पुतली के बीचोबीच रहता है और मात्रा में तिल के बराबर है। इसी से सबको दिखाई पड़ता है।
आलोचक पित्त की शुद्धि हेतु–
सुबह नँगे पावँ दूर्वा, हरि घास में उल्टे चले।
कालीमिर्च, मिश्री, बादाम, सौंफ समभाग लेकर चूर्ण बनाएं। सुबह-शाम 1 से 2 चम्मच जल या दूध से लें।
(()) कुन्तल केयर हर्बल माल्ट 1 से 2 चम्मच दिन में दो बार लेवें।
(()) कुन्तल केयर हर्बल हेयर स्पा (हेम्प युक्त) बालों में लगायें।
(()) अमृतम भृंगराज शेम्पू से बाल धोएं
■ आलोचक पित्त की विषमता से आंखे हो जाती हैं खराब- 
आलोचक पित्त जब कुपित होता है, तो नेत्र सम्बन्धी दोष शरीर में आने लगते हैं यथा
~ नज़र कमजोर होना,
~ आंखों में काला मोतिया व सफेद मोतिया के दोष आना।
आलोचक पित्त को नियन्त्रित करने के लिये साधक को नीचे लिखी क्रियाओं का अभ्यास करना चाहिये।
■ कैसे करें आलोचक पित्त की शुद्धि...
● सुबह खाली पेट देशी घी में बताशे गर्म करके, उस पर कालीमिर्च, सेंधा नमक भुरककर खाएं। पानी न पिएं।
● प्रतिदिन आंखें साफ करें।
● नेत्रधोति का अभ्यास करें।
● मुँह में पानी भरकर आँखों में शुद्ध जल के छींटे लगाएं।
● सादे जल में गंगाजल मिलाकर अथवा त्रिफले के पानी में
आंखों को डुबो कर आंख की पुतलियों को तीन-चार बार ऊपर-नीचे, दाएं-बाएं एवं वृत्ताकार दिशा में घुमाएं।

■ पित्त कोप के कारण क्या हैं-
◆ अधिक क्रोध, शोक, दुःख, परिश्रम,
◆ व्रत-उपवास, मैथुन/सेक्स करना।
◆ ज्यादा दौड़ना या चलना।
◆ बहुत खट्टे फल, केंरी, अमचूर आदि
◆ तेज मिर्ची का नमकीन, रूखे, चरपरे, गर्म, हल्के और दाह
अर्थात गर्मी पैदा करने वाले खाद्य-पदार्थों का सेवन करना।
◆ नीठ शराब यानि बिना पानी के पीना।
◆ रात्रि में अरहर की दाल,
◆ नमकीन दही, छाछ एवं
◆ तेज मसाले युक्त भोजन लेना।
हरी सब्जी कच्ची खाना।
◆ गर्मी, क्रोध या पसीने में सम्भोग करना
◆ नशीले पदार्थों का सेवन करना।
◆ ज्यादा देर तक तेज धूप में रहना।
◆ अधिक नमक का सेवन करना।
ये सब पित्त प्रकोप के कारण हैं। वर्षाकाल में रात को जागने तथा अधिक श्रम से पित्त की वृद्धि होने लगती है।
पित्त के प्रकोपित होने का समय…
गर्मी के दिनों में, शरद ऋतु के समय मध्यान्ह काल में। आधी रात और भोजन पचते वक्त पित्त विशेषकर कुपित होता है।
जवानी के समय सभी को पित्त व्यापता है। इसलिए सही समय, कम उम्र में विवाह करना स्वास्थ्य के लिए हितकारी होता है।
■ पित्त शान्ति के प्राकृतिक उपाय...
¢ सूर्योदय से पूर्व उठे।
¢ बिस्तर पर धीरे-धीरे गहरी-गहरी सांसे नाभि तक ले जाकर 5 बार छोड़ें।
फिर दोनो हाथों को रगड़कर आंखों पर लगाकर अत्यन्त प्रसन्नपूर्वक उठकर,
¢ ताम्बे या मिट्टी के पात्र का 3 से 4 गिलास जल पियें।
¢ कुछ देर टहलकर शौचादि से निवृत हों।
¢ देशी घी, मख्खन, मीठा दही,
¢ गुलकन्द, आँवला मुरब्बा, सेव मुरब्बा और हरड़ मुरब्बा और
जिओ गोल्ड माल्ट का खालीपेट सेवन करना लाभकारी रहता है।
¢ प्रतिदिन अमृतम काया की मसाज ऑयल से अभ्यंग अर्थात मालिश करें।
रोज 2 गोली अमृतम टेबलेट रात्रि में भोजन से पूर्व सादा जल से लेवें। यह टेबलेट अमाशय में घुसकर विकार कर्ता पित्त के मूल को पूर्णरूप से छेदन कर मल द्वारा पूरा पित्त बाहर निकाल फेंकती है।

■ पित्तदोष का देशी इलाज…
पित्त नाशक फल, मेवा-मुरब्बे आदि..
मुनक्का (द्राक्षा), केला, अनारदाना या जूस, छुहारा, ककड़ी, खीरा, करेला, पेठा, पुराने चावल, गेहूं, मिश्री, दूध, चना, मूंग की छिलके वाली दाल, धान्य की खील अपने भोजन का हिस्सा बनाये।
बिना खर्च की चिकित्सा
माथे और पेट पर चन्दन का लेप लगाएं
अमृतम चन्दन लगाने से तन-मन, अन्तर्मन और आत्मा पवित्र-शुद्ध हो जाती है। 
पित्त की शोधन चिकित्सा…
वमन, विरेचन, वस्ति, नस्य
द्वारा शरीर से दूषित, विषाक्त तत्वों (टॉक्सिन्स) को शरीर से निकाला जाता है।

पित्त की शमन चिकित्सा….

द्वारा दीपन, पाचन (पाचन तंत्र) और उपवास आदि उपाय करके शरीर के दोषों को निरोग कर शरीर को सामान्य स्थिति में वापस लाया जाता है। त्रिदोषनाशक यह दोनों चिकित्सा एवं उपाय शरीर में मानसिक व शारीरिक शांति बनाने के लिए आवश्यक हैं। आयुर्वेद रोगरहित, शांतिप्रिय जीवन जीने का तरीका सिखाता है।

मंगलवार, 17 मई 2022

हिंदू महज मूर्ति की नहीं बल्कि भगवान की पूजा करते हैं।

हिन्दू धर्म एक समुद्र की तरह है, यहाँ हर तरह की पूजा पद्धति हैं। ये कोई पंथ या संप्रदाय नहीं है, जो एक ही दिशा में बहेगा। हिन्दू धर्म में प्रतिमा स्थापन का विधान है। मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा का विधान है, यज्ञ किया जाता है, शक्तियां उतरती है मन्त्रों के द्वारा...
अगर आप मिट्टी का पार्थिव शिव लिंग भी बनाते है, तब भी आवाहन होता है और पूजा करने के बाद विसर्जन होता है। जैसे कि नवरात्री में दुर्गा पूजा और गणेश उत्सव...

बहुत से लोग ये कहते हैं कि हिन्दू धर्म में बहुत से देवी-देवता हैं तो मैं इसके बारे में बोलना चाहूंगा कि हिन्दू धर्म भगवान को एक नहीं, अनंत मानता है। हिन्दू धर्म का मानना हैं, भगवान एक रूप में नहीं बंधे हुए है वो अनंत रूपों को धारण कर सकते हैं और किया हुआ भी है। हिन्दू धर्म एक भगवान कि जगह अनेक नहीं, बल्कि अनंत रूप को मानता है। हिन्दू धर्म इस बात कि पुष्टि करता है कि भगवान अनंत है। आपको जिस किसी एक कि पूजा करनी है वो करो या अनेक की करो...

यदि भगवान की मूर्ति महज मूर्ति है क्योंकि वो पत्थर या मिट्टी की बनी है, तब तो जितने भी धार्मिक ग्रन्थ कागज के बने हुए हैं तो क्या धार्मिक ग्रन्थ पढ़ना केवल कागज की पूजा करना हैं..? ऐसा नहीं है। तब तो जितनी भी पाठ, पूजा, मंत्र, प्रार्थना सब व्यर्थ ही है। अ, आ, इ, क, ख, ग इन्हीं शब्दों से ही तो मिलकर बने हैं सारे मंत्र, तो क्या इसे शब्द की पूजा बोली जाये..? पर ऐसा नहीं है।

मूर्ति, कागज या शब्द भगवान से जुड़ने के बाद भगवान को रिप्रेजेंट करती है। ठीक उसी तरह किसी देश का झंडा, उस देश को रिप्रेजेंट करता है। आप उसे महज कपड़े का टुकड़ा समझकर, उस के साथ ख़राब बर्ताव नहीं कर सकते..! करके देखिये आपके ऊपर देशद्रोह का मुकदमा हो जायेगा।

कुछ लोग ये बोलते हैं कि "एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति" तो वो एक एक्सट्रीम ह्य्पोथेटिकल कंडीशन है। जिसमें ये माना जाता हैं कि सब में ब्रह्म रूप परमात्मा हैं। उसमें ये माना जाता है कि शैतान में भी वही ब्रह्म हैं और भगवान में भी वही ब्रह्म हैं, और मैं भी ब्रह्म हूँ। तभी कुछ लोग बोलते हैं कि "अहम् ब्रह्मास्मि" यानि मैं ब्रह्मस्वरूप हूँ। ये उन लोगों के लिए हैं जो ज्ञानी हैं, जिसकी कुण्डिलिनी जागृत हो चुकी हैं, जो तुर्या अवस्था में हैं।(प्राणियों की चार अवस्थाओं में से अन्तिम अवस्था जो ब्रह्म में होने वाली लीनता या मोक्ष हैं) आम जिंदगी में कोई भगवान और शैतान को एक कैसे मान सकता हैं..!

पूजा करने के यही तीन रास्ते हैं, आप किसी भगवान की मूर्ति का अभिषेक कर रहें हैं या फिर कोई घार्मिक ग्रन्थ पढ़ रहे हैं या फिर कोई मंत्र का जप कर रहे हैं।

निराकार का प्रतीकात्मक सूचक क्या है, खाली आकाश जो चारों तरफ फैला है। तो पूर्वजों ने आसान तरीका मूर्ति पूजा के रूप में चुना, साकार और निराकार वैसे ही है जैसे बर्फ और पानी...

सोमवार, 16 मई 2022

जनेऊ कितने प्रकार के होते हैं

जनेऊ निम्न प्रकार के बताए गए हैं...

 (1) ब्राह्मण जनेऊ में सात ग्रन्थियां लगायी जाती हैं। ब्राम्हणों के यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि होती है। तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है। (2) 6 सूत्रों वाला जनेऊ क्षत्रिये के लिये, इसमें गोत्र के जितने प्रवर होंगे उतने ग्रन्थियां लगेंगी। (3)9 सूत्रों वाला जनेऊ यह वैश्य वर्ग के द्विजों केलिये होता है। (4) कुछ ब्राह्मणों में ऐसी भी मान्यता है कि  ब्रह्मचारी तीन और विवाहित छह धागों की जनेऊ पहनता है। यज्ञोपवीत के छह धागों में से तीन धागे स्वयं के और तीन धागे पत्नी के बतलाए गए हैं। इस प्रकार से भिन्न भिन्न वेद शाखाओं में भिन्न भिन्न तरह के परम्पराओं का जनेऊ के सम्बन्ध में मान्यताएं हैं। अर्थात परम्परा भेद होता है। जिसकी जो परपरा होती है वो उसी के अनुसार जनेऊ धारण करता है।यज्ञोपवीत की लंबाई 96 अंगुल होती है। अर्थात कमर से नीचे जहां तक सिद्धे में हमारी हथेली जाए।उपनयन संस्कार (जनेऊ धारण करना) का अधिकार केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य को दिया गया था। शूद्रों को उपनयन संस्कार का अधिकार नहीं है। ब्राह्मण सूत का जनेऊ क्षत्रिय सन का जनेऊ और वैश्य उन का जनेऊ पहनते हैं। ब्राह्मण केलिये जनेऊ वसन्त ,क्षत्रिय केलिये ग्रीष्म और वैश्य केलिये शरद ऋतु रखा गया है। इस प्रकार और बाटे भी हैं लेकिन अगर समुचित रूप से कहें तो जनेऊ के तीन प्रकार होते हैं जो ब्राह्मण जनेऊ वैश्य जनेऊ और क्षत्रिय जनेऊ के रूप में है।

शुक्रवार, 6 मई 2022

आदिगुरु शंकराचार्य

आदि शंकर (संस्कृत: आदिशङ्कराचार्यः) ये भारत के एक महान दार्शनिक एवं धर्मप्रवर्तक थे। इन्होंने अद्वैत वेदान्त को ठोस आधार प्रदान किया।
अद्वैत वेदान्त वेदान्त की एक शाखा है। अहं ब्रह्मास्मि अद्वैत वेदांत यह भारत में उपजी हुई कई विचारधाराओं में से एक है। जिसके आदि शंकराचार्य पुरस्कर्ता थे। भारत में परब्रह्म के स्वरुप के बारे में कई विचारधाराएं हैं। जिसमें द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, केवलाद्वैत, द्वैताद्वैत ऐसी कई विचारधाराएँ हैं। जिसे आचार्य ने जिस रूप में (ब्रह्म) को देखा उसका वर्णन किया। इतनी विचारधाराएँ होने पर भी सभी यह मानते है कि भगवान ही इस सृष्टि का नियंता है। अद्वैत विचारधारा के संस्थापक शंकराचार्य है, उसे शांकराद्वैत भी कहा जाता है। शंकराचार्य मानते हैं कि संसार में ब्रह्म ही सत्य है, जगत् मिथ्या है, जीव और ब्रह्म अलग नहीं हैं। जीव केवल अज्ञान के कारण ही ब्रह्म को नहीं जान पाता जबकि ब्रह्म तो उसके ही अंदर विराजमान है। उन्होंने अपने ब्रह्मसूत्र में "अहं ब्रह्मास्मि" ऐसा कहकर अद्वैत सिद्धांत बताया है। अद्वैत सिद्धांत चराचर सृष्टि में भी व्याप्त है। 
शंकराचार्य एक महान समन्वयवादी थे। उन्हें सनातन धर्म को पुनः स्थापित एवं प्रतिष्ठित करने का श्रेय दिया जाता है। एक तरफ उन्होने अद्वैत चिन्तन को पुनर्जीवित करके सनातन हिन्दू धर्म के दार्शनिक आधार को सुदृढ़ किया, तो दूसरी तरफ उन्होने जनसामान्य में प्रचलित मूर्तिपूजा का औचित्य सिद्ध करने का भी प्रयास किया।

आदि शंकराचार्य के अद्वैत का दर्शन का सार-
ब्रह्म और जीव मूलतः और तत्वतः एक हैं। हमे जो भी अंतर नजर आता है उसका कारण अज्ञान है।
जीव की मुक्ति के लिये ज्ञान आवश्यक है।
जीव की मुक्ति ब्रह्म में लीन हो जाने में है।
भगवद्गीता, उपनिषदों और वेदांतसूत्रों पर लिखी हुई, इनकी टीकाएँ बहुत प्रसिद्ध हैं। उन्होंने सांख्य दर्शन का प्रधानकारणवाद और मीमांसा दर्शन के ज्ञान-कर्मसमुच्चयवाद का खण्डन किया। परम्परा के अनुसार उनका जन्म ई. 788 में तथा महासमाधि 820 ई. में हुई थी। इन्होंने भारतवर्ष में चार कोनों में चार मठों की स्थापना की थी, जो अभी तक बहुत प्रसिद्ध और पवित्र माने जाते हैं और जिन पर आसीन संन्यासी 'शंकराचार्य' कहे जाते हैं। वे चारों स्थान ये हैं- (१) ज्योतिष्पीठ बदरिकाश्रम, (२) श्रृंगेरी पीठ, (३) द्वारिका शारदा पीठ और (४) पुरी गोवर्धन पीठ। 
इन्होंने अनेक विधर्मियों को भी अपने धर्म में दीक्षित किया था। इन्होंने ब्रह्मसूत्रों की बड़ी ही विशद और रोचक व्याख्या की है।

इनके विचारोपदेश आत्मा और परमात्मा की एकरूपता पर आधारित हैं, जिसके अनुसार परमात्मा एक ही समय में सगुण और निर्गुण दोनों ही स्वरूपों में रहता है। स्मार्त संप्रदाय में आदि शंकराचार्य को शिव का अवतार माना जाता है। इन्होंने ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक और छान्दोग्योपनिषद् पर भाष्य लिखा। वेदों में लिखे ज्ञान को एकमात्र ईश्वर को संबोधित समझा और उसका प्रचार तथा वार्ता पूरे भारतवर्ष में की। उस समय वेदों की समझ के बारे में मतभेद होने पर उत्पन्न चार्वाक, जैन और बौद्ध मतों को शास्त्रार्थों द्वारा खण्डित किया और भारत में चार कोनों पर ज्योति, गोवर्धन, श्रृंगेरी एवं द्वारिका आदि चार मठों की स्थापना की...
कलियुग के प्रथम चरण में विलुप्त तथा विकृत वैदिक ज्ञानविज्ञान को उद्भासित और विशुद्ध कर वैदिक वाङ्मय को दार्शनिक, व्यावहारिक, वैज्ञानिक धरातल पर समृद्ध करने वाले एवं राजर्षि सुधन्वा को सार्वभौम सम्राट ख्यापित करने वाले चतुराम्नाय-चतुष्पीठ संस्थापक नित्य तथा नैमित्तिक युग्मावतार श्रीशिवस्वरुप भगवत्पाद शंकराचार्य की अमोघदृष्टि तथा अद्भुत कृति सर्वथा स्तुत्य है।

व्यासपीठ के पोषक राजपीठ के परिपालक धर्माचार्यों को श्रीभगवत्पाद ने नीतिशास्त्र , कुलाचार तथा श्रौत-स्मार्त कर्म , उपासना तथा ज्ञानकाण्ड के यथायोग्य प्रचार-प्रसार की भावना से अपने अधिकार क्षेत्र में परिभ्रमण का उपदेश दिया। उन्होंने धर्मराज्य की स्थापना के लिये व्यासपीठ तथा राजपीठ में सद्भावपूर्ण सम्वाद के माध्यम से सामंजस्य बनाये रखने की प्रेरणा प्रदान की। ब्रह्मतेज तथा क्षात्रबल के साहचर्य से सर्वसुमंगल कालयोग की सिद्धि को सुनिश्चित मानकर कालगर्भित तथा कालातीतदर्शी आचार्य शंकर ने व्यासपीठ तथा राजपीठ का शोधनकर दोनों में सैद्धान्तिक सामंजस्य साधा।

दसनामी गुसांई गोस्वामी (सरस्वती,गिरि, पुरी, बन, पर्वत, अरण्य, सागर, तीर्थ, आश्रम और भारती उपनाम वाले गुसांई, गोसाई, गोस्वामी) इनके आध्यात्मिक उत्तराधिकारी माने जाते हैं और उनके प्रमुख सामाजिक संगठन का नाम "अंतरराष्ट्रीय जगतगुरु दसनाम गुसांई गोस्वामी एकता अखाड़ा परिषद" है। शंकराचार्य ने पूरे भारत में मंदिरों और शक्तिपीठों की पुनः स्थापना की। नील पर्वत पर स्थित चंडी देवी मंदिर इन्हीं द्वारा स्थापित किया माना जाता है। शिवालिक पर्वत श्रृंखला की पहाड़ियों के मध्य स्थित माता शाकंभरी देवी शक्तिपीठ में जाकर इन्होंने पूजा अर्चना की और शाकंभरी देवी के साथ तीन देवियां भीमा, भ्रामरी और शताक्षी देवी की प्रतिमाओं को स्थापित किया। कामाक्षी देवी मंदिर भी इन्हीं द्वारा स्थापित है जिससे उस युग में धर्म का बढ़-चढ़कर प्रसार हुआ था।
जीवनचरित

शारदा पीठमें लिखा है -

"युधिष्ठिर शके 2631 वैशाखशुक्लापंचम्यां श्रीमच्ठछंकरावतार:।

तदनु 2663 कार्तिकशुक्लपूर्णिमायां श्रीमच्छंकरभगवत्पूज्यपादा निजदेहेनैव निजधाम प्राविशन्निति।

अर्थात् युधिष्ठिर संवत् 2631 में वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को श्रीशंकराचार्य का जन्म हुआ और युधि. सं.2663 कार्तिकशुक्ल पूर्णिमा को देहत्याग हुआ। 

शंकर दिग्विजय, शंकरविजयविलास, शंकरजय आदि ग्रन्थों में उनके जीवन से सम्बन्धित तथ्य उद्घाटित होते हैं। दक्षिण भारत के केरल राज्य (तत्कालीन मालाबारप्रांत) में आद्य शंकराचार्य जी का जन्म हुआ था। उनके पिता शिव गुरु तैत्तिरीय शाखा के यजुर्वेदी भट्ट ब्राह्मण थे। भारतीय प्राच्य परम्परा में आद्यशंकराचार्य को शिव का अवतार स्वीकार किया जाता है। कुछ उनके जीवन के चमत्कारिक तथ्य सामने आते हैं, जिससे प्रतीत होता है कि वास्तव में आद्य शंकराचार्य शिव के अवतार थे। आठ वर्ष की अवस्था में श्री गोविन्द नाथ के शिष्यत्व को ग्रहण कर संन्यासी हो जाना, पुन: वाराणसी से होते हुए बद्रिकाश्रम तक की पैदल यात्रा करना, सोलह वर्ष की अवस्था में बद्रीकाश्रम पहुंच कर ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखना, सम्पूर्ण भारत वर्ष में भ्रमण कर अद्वैत वेदान्त का प्रचार करना, दरभंगा में जाकर मण्डन मिश्र से शास्त्रार्थ कर वेदान्त की दीक्षा देना तथा मण्डन मिश्र को संन्यास धारण कराना, भारतवर्ष में प्रचलित तत्कालीन कुरीतियों को दूर कर समभावदर्शी धर्म की स्थापना करना - इत्यादि कार्य इनके महत्व को और बढ़ा देता है। दशनाम गोस्वामी समाज (सरस्वती, गिरि, पुरी, बन, भारती, तीर्थ, सागर, अरण्य, पर्वत और आश्रम ) की सस्थापना कर, हिंदू धर्मगुरू के रूप में हिंदुओं के प्रचार प्रसार व रक्षा का कार्य सौपा और उन्हें अपना आध्यात्मिक उत्तराधिकारी भी बताया।

 बहुत दिन तक सपत्नीक शिव को आराधना करने के अनंतर शिवगुरु ने पुत्र-रत्न पाया था, अत: उसका नाम शंकर रखा। जब ये तीन ही वर्ष के थे तब इनके पिता का देहांत हो गया। ये बड़े ही मेधावी तथा प्रतिभाशाली थे। छह वर्ष की अवस्था में ही ये प्रकांड पंडित हो गए थे और आठ वर्ष की अवस्था में इन्होंने संन्यास ग्रहण किया था। इनके संन्यास ग्रहण करने के समय की कथा बड़ी विचित्र है। कहते हैं, माता एकमात्र पुत्र को संन्यासी बनने की आज्ञा नहीं देती थीं। तब एक दिन नदीकिनारे एक मगरमच्छ ने शंकराचार्यजी का पैर पकड़ लिया तब इस वक्त का फायदा उठाते शंकराचार्यजी ने अपने माँ से कहा " माँ मुझे सन्यास लेने की आज्ञा दो नही तो हे मगरमच्छ मुझे खा जायेगी ", इससे भयभीत होकर माता ने तुरंत इन्हें संन्यासी होने की आज्ञा प्रदान की ; और आश्चर्य की बात है की, जैसे ही माता ने आज्ञा दी वैसे तुरन्त मगरमच्छ ने शंकराचार्यजी का पैर छोड़ दिया। और इन्होंने गोविन्द नाथ से संन्यास ग्रहण किया।

पहले ये कुछ दिनों तक काशी में रहे, और तब इन्होंने विजिलबिंदु के तालवन में मण्डन मिश्र को सपत्नीक शास्त्रार्थ में परास्त किया। इन्होंने समस्त भारतवर्ष में भ्रमण करके बौद्ध धर्म को मिथ्या प्रमाणित किया तथा वैदिक धर्म को पुनरुज्जीवित किया। कुछ बौद्ध इन्हें अपना शत्रु भी समझते हैं, क्योंकि इन्होंने बौद्धों को कई बार शास्त्रार्थ में पराजित करके वैदिक धर्म की पुन: स्थापना की।

३२ वर्ष की अल्प आयु में सम्वत ४७७ ई . पू.में केदारनाथ के समीप शिवलोक गमन कर गए थे।

शास्त्रीय प्रमाण

सर्गे प्राथमिके प्रयाति विरतिं मार्गे स्थिते दौर्गते
स्वर्गे दुर्गमतामुपेयुषि भृशं दुर्गेऽपवर्गे सति।
वर्गे देहभृतां निसर्ग मलिने जातोपसर्गेऽखिले
सर्गे विश्वसृजस्तदीयवपुषा भर्गोऽवतीर्णो भुवि। ।
अर्थ:- " सनातन संस्कृति के पुरोधा सनकादि महर्षियों का प्राथमिक सर्ग जब उपरति को प्राप्त हो गया , अभ्युदय तथा नि:श्रेयसप्रद वैदिक सन्मार्ग की दुर्गति होने लगी , फलस्वरुप स्वर्ग दुर्गम होने लगा ,अपवर्ग अगम हो गया , तब इस भूतल पर भगवान भर्ग ( शिव ) शंकर रूप से अवतीर्ण हुऐ। "

भगवान शिव द्वारा द्वारा कलियुग के प्रथम चरण में अपने चार शिष्यों के साथ जगदगुरु आचार्य शंकर के रूप में अवतार लेने का वर्णन पुराणशास्त्र में भी वर्णित हैं जो इस प्रकार हैं :-

कल्यब्दे द्विसहस्त्रान्ते लोकानुग्रहकाम्यया।
चतुर्भि: सह शिष्यैस्तु शंकरोऽवतरिष्यति। । ( भविष्योत्तर पुराण ३६ )
अर्थ :- " कलि के दो सहस्त्र वर्ष व्यतीत होने के पश्चात लोक अनुग्रह की कामना से श्री सर्वेश्वर शिव अपने चार शिष्यों के साथ अवतार धारण कर अवतरित होते हैं। "

निन्दन्ति वेदविद्यांच द्विजा: कर्माणि वै कलौ।
कलौ देवो महादेव: शंकरो नीललोहित:। ।
प्रकाशते प्रतिष्ठार्थं धर्मस्य विकृताकृति:।
ये तं विप्रा निषेवन्ते येन केनापि शंकरम्। ।
कलिदोषान्विनिर्जित्य प्रयान्ति परमं पदम्। (लिंगपुराण ४०. २०-२१.१/२)
अर्थ:- " कलि में ब्राह्मण वेदविद्या और वैदिक कर्मों की जब निन्दा करने लगते हैं ; रुद्र संज्ञक विकटरुप नीललोहित महादेव धर्म की प्रतिष्ठा के लिये अवतीर्ण होते हैं। जो ब्राह्मणादि जिस किसी उपाय से उनका आस्था सहित अनुसरण सेवन करते हैं ; वे परमगति को प्राप्त होते हैं। "

कलौ रुद्रो महादेवो लोकानामीश्वर: पर:।
न देवता भवेन्नृणां देवतानांच दैवतम्। ।
करिष्यत्यवताराणि शंकरो नीललोहित:।
श्रौतस्मार्त्तप्रतिष्ठार्थं भक्तानां हितकाम्यया। ।
उपदेक्ष्यति तज्ज्ञानं शिष्याणां ब्रह्मासंज्ञितम।
सर्ववेदान्तसार हि धर्मान वेदनदिर्शितान। ।
ये तं विप्रा निषेवन्ते येन केनोपचारत:।
विजित्य कलिजान दोषान यान्ति ते परमं पदम। । ( कूर्मपुराण १.२८.३२-३४)
अर्थ:- " कलि में देवों के देव महादेव लोकों के परमेश्वर रुद्र शिव मनुष्यों के उद्धार के लिये उन भक्तों की हित की कामना से श्रौत-स्मार्त -प्रतिपादित धर्म की प्रतिष्ठा के लिये विविध अवतारों को ग्रहण करेंगें। वे शिष्यों को वेदप्रतिपादित सर्ववेदान्तसार ब्रह्मज्ञानरुप मोक्ष धर्मों का उपदेश करेंगें। जो ब्राह्मण जिस किसी भी प्रकार उनक‍ा सेवन करते हैं ; वे कलिप्रभव दोषों को जीतकर परमपद को प्राप्त करते हैं। "

व्याकुर्वन् व्याससूत्रार्थं श्रुतेरर्थं यथोचिवान्।
श्रुतेर्न्याय: स एवार्थ: शंकर: सवितानन:। । ( शिवपुराण-रुद्रखण्ड ७.१)
अर्थ:- "सूर्यसदृश प्रतापी श्री शिवावतार आचार्य शंकर श्री बादरायण - वेदव्यासविरचित ब्रह्मसूत्रों पर श्रुतिसम्मत युक्तियुक्त भाष्य संरचना करते हैं। "

शास्त्रार्थ

आदि शंकराचार्य ने बौद्ध धर्म सहित अपने समय के विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं से धार्मिक वाद-विवाद किया और शास्त्रार्थ में कुछ उल्लेखनीय लोगों को सार्वजनिक रूप से हराया।[13] वे केरल से लंबी पदयात्रा करके नर्मदा नदी के तट पर स्थित ओंकारनाथ पहुँचे। वहाँ गुरु गोविंदपाद से योग शिक्षा तथा अद्वैत ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करने लगे। तीन वर्ष तक आचार्य शंकर अद्वैत तत्व की साधना करते रहे। तत्पश्चात गुरु आज्ञा से वे काशी विश्वनाथ जी के दर्शन के लिए निकल पड़े। जब वे काशी जा रहे थे कि एक चांडाल उनकी राह में आ गया। उन्होंने क्रोधित हो चांडाल को वहाँ से हट जाने के लिए कहा तो चांडाल बोला- ‘हे मुनि! आप शरीरों में रहने वाले एक परमात्मा की उपेक्षा कर रहे हैं, इसलिए आप अब्राह्मण हैं। अतएव मेरे मार्ग से आप हट जायें।’ चांडाल की देववाणी सुन आचार्य शंकर ने अति प्रभावित होकर कहा-‘आपने मुझे ज्ञान दिया है, अत: आप मेरे गुरु हुए।’ यह कहकर आचार्य शंकर ने उन्हें प्रणाम किया तो चांडाल के स्थान पर शिव तथा चार देवों के उन्हें दर्शन हुए। काशी में कुछ दिन रहने के दौरान वे माहिष्मति नगरी (बिहार का महिषी) में आचार्य मंडन मिश्र से मिलने गए। आचार्य मिश्र के घर जो पालतू मैना थी वह भी वेद मंत्रों का उच्चारण करती थी। मिश्र जी के घर जाकर आचार्य शंकर ने उन्हें शास्त्रार्थ में हरा दिया। पति आचार्य मिश्र को हारता देख पत्नी आचार्य शंकर से बोलीं- ‘महात्मन! अभी आपने आधे ही अंग को जीता है। अपनी युक्तियों से मुझे पराजित करके ही आप विजयी कहला सकेंगे।’

तब मिश्र जी की पत्नी भारती ने कामशास्त्र पर प्रश्न करने प्रारम्भ किए। किंतु आचार्य शंकर तो बाल-ब्रह्मचारी थे, अत: काम से संबंधित उनके प्रश्नों के उत्तर कहाँ से देते? इस पर उन्होंने भारती देवी से कुछ दिनों का समय माँगा तथा पर-काया में प्रवेश कर उस विषय की सारी जानकारी प्राप्त की। इसके बाद आचार्य शंकर ने भारती को भी शास्त्रार्थ में हरा दिया। काशी में प्रवास के दौरान उन्होंने और भी बड़े-बड़े ज्ञानी पंडितों को शास्त्रार्थ में परास्त किया और गुरु पद पर प्रतिष्ठित हुए। अनेक शिष्यों ने उनसे दीक्षा ग्रहण की। इसके बाद वे धर्म का प्रचार करने लगे। वेदांत प्रचार में संलग्न रहकर उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना भी की। अद्वैत ब्रह्मवादी आचार्य शंकर केवल निर्विशेष ब्रह्म को सत्य मानते थे और ब्रह्मज्ञान में ही निमग्न रहते थे। एक बार वे ब्रह्म मुहूर्त में अपने शिष्यों के साथ एक अति सँकरी गली से स्नान हेतु मणिकर्णिका घाट जा रहे थे। रास्ते में एक युवती अपने मृत पति का सिर गोद में लिए विलाप करती हुई बैठी थी। आचार्य शंकर के शिष्यों ने उस स्त्री से अपने पति के शव को हटाकर रास्ता देने की प्रार्थना की, लेकिन वह स्त्री उसे अनसुना कर रुदन करती रही। तब स्वयं आचार्य ने उससे वह शव हटाने का अनुरोध किया। उनका आग्रह सुनकर वह स्त्री कहने लगी- ‘हे संन्यासी! आप मुझसे बार-बार यह शव हटाने के लिए कह रहे हैं। आप इस शव को ही हट जाने के लिए क्यों नहीं कहते?’ यह सुनकर आचार्य बोले- ‘हे देवी! आप शोक में कदाचित यह भी भूल गई कि शव में स्वयं हटने की शक्ति ही नहीं है।’ स्त्री ने तुरंत उत्तर दिया- ‘महात्मन् आपकी दृष्टि में तो शक्ति निरपेक्ष ब्रह्म ही जगत का कर्ता है। फिर शक्ति के बिना यह शव क्यों नहीं हट सकता?’ उस स्त्री का ऐसा गंभीर, ज्ञानमय, रहस्यपूर्ण वाक्य सुनकर आचार्य वहीं बैठ गए। उन्हें समाधि लग गई। अंत:चक्षु में उन्होंने देखा- सर्वत्र आद्याशक्ति महामाया लीला विलाप कर रही हैं। उनका हृदय अनिवर्चनीय आनंद से भर गया और मुख से मातृ वंदना की शब्दमयी धारा स्तोत्र बनकर फूट पड़ी।


अब आचार्य शंकर ऐसे महासागर बन गए, जिसमें अद्वैतवाद, शुद्धाद्वैतवाद, विशिष्टा द्वैतवाद, निर्गुण ब्रह्म ज्ञान के साथ सगुण साकार की भक्ति की धाराएँ एक साथ हिलोरें लेने लगीं। उन्होंने अनुभव किया कि ज्ञान की अद्वैत भूमि पर जो परमात्मा निर्गुण निराकार ब्रह्म है, वही द्वैत की भूमि पर सगुण साकार है। उन्होंने निर्गुण और सगुण दोनों का समर्थन करके निर्गुण तक पहुँचने के लिए सगुण की उपासना को अपरिहार्य सीढ़ी माना। ज्ञान और भक्ति की मिलन भूमि पर यह भी अनुभव किया कि अद्वैत ज्ञान ही सभी साधनाओं की परम उपलब्धि है। उन्होंने ‘ब्रह्मं सत्यं जगन्मिथ्या’ का उद्घोष भी किया और शिव, पार्वती, गणेश, विष्णु आदि के भक्तिरसपूर्ण स्तोत्र भी रचे, ‘सौन्दर्य लहरी’, ‘विवेक चूड़ामणि’ जैसे श्रेष्ठतम ग्रंथों की रचना की। प्रस्थान त्रयी के भष्य भी लिखे। अपने अकाट्य तर्कों से शैव-शाक्त-वैष्णवों का द्वंद्व समाप्त किया और पंचदेवोपासना का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने आसेतु हिमालय संपूर्ण भरत की यात्रा की और चार मठों की स्थापना करके पूरे देश को सांस्कृतिक, धार्मिक, दार्शनिक, आध्यात्मिक तथा भौगोलिक एकता के अविच्छिन्न सूत्र में बाँध दिया। उन्होंने समस्त मानव जाति को जीवन्मुक्ति का एक सूत्र दिया-

दुर्जन: सज्जनो भूयात सज्जन: शांतिमाप्नुयात्।
शान्तो मुच्येत बंधेम्यो मुक्त: चान्यान् विमोच्येत्॥
अर्थात दुर्जन सज्जन बनें, सज्जन शांति बनें। शांतजन बंधनों से मुक्त हों और मुक्त अन्य जनों को मुक्त करें। अपना प्रयोजन पूरा होने बाद तैंतीस वर्ष की अल्पायु में उन्होंने इस नश्वर देह को छोड़ दिया।

बौद्ध मत का पतन

उन्होंने अपने समय में अस्तित्वहीन रीति-रिवाजों, ईश्वरविहीन बौद्ध मत और कई अन्य परंपराओं के प्रतिकारक रूप का विरोध किया। अद्वैत परंपरा के अनुयायियों का दावा है कि वह "बौद्धों को दूर भगाने" के लिए भी जिम्मेदार थे। ऐतिहासिक रूप से भारत में बौद्ध मत का पतन शंकर या यहां तक ​​कि कुमारिल भट्ट (जिन्होंने एक परंपरा के अनुसार "बौद्धों को वाद-विवाद में हराकर" उनका रंग फीका किया था) के बाद लंबे समय तक जाना जाता है, अफगानिस्तान में मुस्लिम आक्रमण से कुछ समय पहले (पहले गांधार)। परंपरा के अनुसार, उन्होंने रूढ़िवादी हिंदू परंपराओं और विधर्मी गैर-हिंदू-परंपराओं दोनों से अन्य विचारकों के साथ प्रवचन और तात्विक तर्क-वितर्क के माध्यम से अपने दर्शन का प्रचार करने के लिए भारतीय उपमहाद्वीप में यात्रा की। यद्यपि अद्वैत के आज के अनुयायी मानते हैं कि शंकर ने व्यक्तिगत रूप से बौद्धों के खिलाफ तर्क दिया, एक ऐतिहासिक स्रोत, माधवीय शंकर विजयम, इंगित करता है कि शंकर ने मीमांसा, सांख्य, न्याय, वैशेषिक और योग विद्वानों के साथ बहस की उतनी ही उत्सुकता से मांग की जितनी कि किसी भी बौद्ध के साथ।

विन्सेंट स्मिथ सहित कई विद्वानों का भी तर्क है कि भारत में बौद्ध मत के पतन में आदि शंकराचार्य की कुछ प्रमुख भूमिका रही होगी। आदि शंकराचार्य के आने से भारतीय उपमहाद्वीप पर बौद्ध मत का प्रभाव कम हो गया। इसके साथ ही एक बार फिर वैदिक धर्म का पुनः पुनरुद्धार होना शुरू हुआ।