शनिवार, 28 सितंबर 2019

हे जगदंबा ! जगत् की समस्त स्त्रियां तुम्हारा ही स्वरूप हैं, लेकिन रुकिए...

नवरात्र आते ही कुछ मूर्खों की टोलियां विधवा विलाप प्रारम्भ कर देती हैं। हर औरत(नारी) देवी दुर्गा की रूप हैं। मंदिर में तो देवी की पूजा करते हैं पर बाहर में स्त्रियों का अपमान करतें हैं।

एक अंश में इनका कथन उचित है क्योंकि कहा भी है कि स्त्रिया: समस्ता: सकला जगत्सु 

अर्थात

"हे जगदंबा ! जगत् की समस्त स्त्रियां तुम्हारा ही स्वरूप हैं।"

लेकिन रुकिए... यहाँ समस्ता का अर्थ सभी नहीं हैं अपितु वे सभी हैं जिस स्त्री में लज्जा है, जो शास्त्रानुरूप आचरण करतीं हैं, जो समग्र शास्त्रों में वर्णित विधिनिषेध का पालन करतीं हैं। इसीलिए सर्वप्रथम देवी के इस रूप के अनुसार आचरण कीजिये। 

या_देवी_सर्वभूतेषु_लज्जा_रूपेण_संस्थिता 

तब ही यह सोचियेगा कि आप देवी की स्वरूप हैं। यदि आपने ऐसा कर लिया तो कोई भी हो, आपका सम्मान अवश्य करेगा।  एक बार अपने वस्त्रों और देवी के वस्त्रों को जरूर देख लीजियेगा... अर्धकटीं न्याय नहीं चलेगा। कुछ इधर का मान लिया, कुछ उधर का और लगे चिल्लाने।


पाश्चात्य संस्कृति का पालन करते हुए समाज में अपना अंग प्रदर्शन कीजियेगा और अपने को भोग की वस्तु के रूप में स्थापित कीजियेगा तो असम्भव ही है कि कोई आपका सम्मान करे। अपनी मर्यादा में रहिए, सम्मान और आपकी पूजा आवश्य होगी। अपनी मर्यादा का अतिक्रमण कर के आप स्वछंद आचरण करके सम्मान चाहियेगा तो फिर वही होगा जो शूर्पणखा के साथ हुआ था।

#लछिमन_अति_लाघवँ_सो_नाक_कान_बिनु_कीन्हि
लक्ष्मण जी ने बड़ी फुर्ती से उसको बिना नाक-कान की कर दिया।

अतः अपने अंदर सीता, पद्मावती के समान व्यवहार आचार विचार लाने का प्रयत्न कीजिये... नहीं तो शूर्पणखा के जैसा हालत होगा तो फिर इधर-उधर सर पीटते रहिये। कोई रावण ही होगा जो आपकी सुनेगा। सनातन में लिंग विषेश का नहीं, चरित्र की पूजा करने का आदेश हैं।

#आचारहीनं_न_पुनन्ति_वेदा

   ।। श्री राम जय राम जय जय राम ।।

बुधवार, 25 सितंबर 2019

भीष्म पितामह को जल दिए बगैर श्राद्ध का विधान नहीं होता पूरा, जानिए क्यों है ऐसी रीत...

अपनी संस्कृति व परंपराओं का अभिमान, सनातन कुल के परंपरा पुरुषों का मान व सभी को अपने में समा लेने का वरदान, यही वे तीन प्राण तत्व हैं जो भारतीय धर्म-दर्शन को सनातन व अविनाशी बनाते हैं। समय काल- परिस्थिति के अनुसार खुद को ढाल लेने वाले इस जीवन दर्शन को उदात्तता के शिखर तक ले जाते हैं। इसी औदार्य व इसी श्रद्धा से जुड़ती है एक कहानी पितृपक्ष की, जो पाठकों को महाभारत काल तक ले जाती है। कितने गहरे तक जुड़ी है अपने महानायकों के प्रति भारतीय सनातन समाज की श्रद्धा व संवेदनाएं इसकी थाह बताती हैं।


महाभारत के कथानक तथा पौराणिक आख्यानों के अनुसार कुरुकुल के पितृ पुरुष और उस दौर के महानायकों में से एक पितामह भीष्म (देवव्रत) अपनों के बाणों से बिंध कर रण क्षेत्र में शर-शैय्या धारी हुए। स्वयं की इच्छा के अनुसार पितामह ने सूर्य के उत्तरायण होने के बाद अर्जुन के तीर से फूटे सोते का जल ग्रहण कर शरशैय्या पर ही मृत्यु का वरण किया। देवव्रत भीष्म चूंकि नि:संतान मरे, अतएव श्राद्ध तिथियों में उनके नाम का तर्पण कौन करेगा यह प्रश्न तत्कालीन समाज व्यवस्था के सामने था। सभी ने उनकी इस व्यथा से अपने को जोड़ा। कर्मकांड के महारथियों ने अपने इस महानायक की खातिर सारी लीकों को तोड़ा और शास्त्रीय व्यवस्था दी कि न सिर्फ पितामह के वंशज बल्कि समस्त भारतीय समाज और उनकी आने वाली पीढिय़ों, जाति-समुदाय, पंथ-गोत्र के दायरों से अलग युगों तक पितामह को स्मरण करेंगी।

एक परंपरा का अनुगमन करते हुए प्रत्येक श्राद्ध वार्षिकी में अपने कुल-गोत्र के पूर्वजों के साथ ही वैयाघ्र गोत्र के महारथी भीष्म के नाम का तर्पण कर यश-कीर्ति के पुण्यफल का वरण करेंगी। युग बीत गए। परिवर्तन की आंधियों के चलते न जाने कितने संस्कारों के घट रीत गए। फिर भी सनातन समाज आज भी हर श्राद्ध पक्ष में अपने पुरखों का जब भी तर्पण करता है तब 'वैयाघ्र पद गोत्राय सांग्कृत्य प्रवराय च-अपुत्राय ददाम्येतद् जलं भीष्माय वर्मणे' के मंत्र से जौ-अक्षत के साथ इस युग पुरुष को उनके अंश स्वरूप उनकी तर्पण की अंजलि हमेशा अर्पण करता है। उल्लेखनीय यह भी कि तर्पण की भीष्माजंलि के बगैर श्राद्ध संस्कारों की पूर्णता नहीं मानी जाती। यह सिर्फ एक रस्म नहीं, है हमारी थाती।

*यह संवेदना ही है सनातन की प्राण शक्ति*

कहते हैं दर्शन शास्त्र के विद्वान प्रो. देवव्रत चौबे 'मन की संवेदनाओं के साथ धार्मिक तत्वों का यह योग ही प्राण शक्ति है सनातन धर्म-दर्शन की। भीष्म तर्पण के विधान के साथ जुड़े भाव का ही दृष्टांत लें तो वे पद की दृष्टि से स्मरण शृंखला में पितृ पद से भी ऊपर देव पद पर प्रतिष्ठित हैं। इसीलिए जहां कुल के दिवंगतों को अपशव्य होकर दक्षिणाभिमुख तिलोदक देते हैं, वहीं पुत्र लाभ से वंचित पितामह को और ऊंचा पीढ़ा देते हुए शव्य (यज्ञोपवीत बाएं कंधे पर) मुद्रा में जल- अक्षत देकर उन्हें देव कोटि की पूर्वाभिमुख श्रद्धा-अंजलि समर्पित करते हैं।