शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2021

हवा के होते हैं सात प्रकार, जानिए उनका रहस्य...

मैं सुंदरकांड पढ़ते हुए 25वें दोहे पर थोड़ा रुक गया। तुलसीदास जी ने सुन्दरकांड में... जब हनुमानजी ने लंका में आग लगाई थी, उस प्रसंग पर लिखा है -

हरि प्रेरित तेहि अवसर, चले मरुत उनचास।
अट्टहास करि गर्जा कपि, बढ़ि लाग अकास।।25।।

अर्थात : 
जब हनुमानजी ने लंका में आग लगाई तो भगवान की प्रेरणा से उन्चासों पवन चलने लगी। हनुमान जी अट्टहास करके गर्जे 
और आकार बढ़ाकर आकाश से जा लगे।

मैंने सोचा कि, इन उन्चास मरुत का क्या अर्थ है ? 🤔
यह तुलसीदास जी ने भी नहीं लिखा..!🧐
फिर मैंने सुंदरकांड पूरा करने के बाद समय निकालकर 49 प्रकार की वायु के बारे में जानकारी खोजी...🕵️‍♂️
और अध्ययन करने पर सनातन धर्म पर अत्यंत गर्व हुआ।😇
तुलसीदासजी के वायु ज्ञान पर सुखद आश्चर्य हुआ, जिससे शायद आधुनिक मौसम विज्ञान भी अनभिज्ञ हैं।
        
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि वेदों में वायु की 7 शाखाओं के बारे में विस्तार से वर्णन मिलता है। 
अधिकतर लोग यही समझते हैं कि वायु तो एक ही प्रकार की होती है लेकिन उसका रूप बदलता रहता है... जैसे कि ठंडी वायु, गर्म वायु और समान वायु लेकिन ऐसा नहीं है..!

दरअसल, 
जल के भीतर जो वायु है, उसका वेद-पुराणों में अलग नाम दिया गया है और आकाश में स्थित जो वायु है, उसका नाम अलग है। अंतरिक्ष में जो वायु है, उसका नाम अलग और 
पाताल में स्थित वायु का नाम अलग है। 
नाम अलग होने का मतलब यह कि उसका गुण और व्यवहार भी अलग ही होता है। 

इस तरह वेदों में 7 प्रकार की वायु का वर्णन मिलता है।
ये 7 प्रकार हैं- 

1.प्रवह, 2.आवह, 3.उद्वह, 4.संवह, 
5.विवह, 6.परिवह और 7.परावह
 
1.प्रवह : पृथ्वी को लांघकर मेघमंडलपर्यंत जो वायु स्थित है, उसका नाम प्रवह है। इस प्रवह के भी प्रकार हैं। यह वायु अत्यंत शक्तिमान है और वही बादलों को इधर-उधर उड़ाकर ले जाती है। धूप तथा गर्मी से उत्पन्न होने वाले मेघों को यह प्रवह वायु ही समुद्र जल से परिपूर्ण करती है, जिससे ये मेघ काली घटा के रूप में परिणत हो जाते हैं और अतिशय वर्षा करने वाले होते हैं। 
 
2. आवह : आवह सूर्यमंडल में बंधी हुई है। उसी के द्वारा ध्रुव से आबद्ध होकर सूर्यमंडल घुमाया जाता है।
 
3. उद्वह : वायु की तीसरी शाखा का नाम उद्वह है, 
जो चन्द्रलोक में प्रतिष्ठित है। इसी के द्वारा ध्रुव से संबद्ध होकर यह चन्द्र मंडल घुमाया जाता है। 
 
4. संवह : वायु की चौथी शाखा का नाम संवह है, 
जो नक्षत्र मंडल में स्थित है। उसी से ध्रुव से आबद्ध होकर 
संपूर्ण नक्षत्र मंडल घूमता रहता है।
 
5. विवह : पांचवीं शाखा का नाम विवह है और यह ग्रह मंडल में स्थित है। उसके ही द्वारा यह ग्रह चक्र ध्रुव से संबद्ध होकर घूमता रहता है। 
 
6. परिवह : वायु की छठी शाखा का नाम परिवह है, 
जो सप्तर्षिमंडल में स्थित है। इसी के द्वारा ध्रुव से संबद्ध हो 
सप्तर्षि आकाश में भ्रमण करते हैं।
 
7. परावह : वायु के सातवें स्कंध का नाम परावह है, 
जो ध्रुव में आबद्ध है। इसी के द्वारा ध्रुव चक्र तथा 
अन्यान्य मंडल एक स्थान पर स्थापित रहते हैं।
 
इन सातों वायु के सात-सात गण हैं, जो निम्न जगह में विचरण करते हैं...

ब्रह्मलोक, इंद्रलोक, अंतरिक्ष, भूलोक की पूर्व दिशा, 
भूलोक की पश्चिम दिशा, भूलोक की उत्तर दिशा और 
भूलोक कि दक्षिण दिशा...

इस तरह  7 x 7 = 49 
कुल 49 मरुत हो जाते हैं जो देव रूप में विचरण करते रहते हैं।
  
है ना अद्भुत ज्ञान

हम अक्सर रामायण, भगवद् गीता पढ़ तो लेते हैं परंतु उनमें लिखी छोटी-छोटी बातों का गहन अध्ययन करने पर अनेक गूढ़ एवं ज्ञानवर्धक बातें ज्ञात होती हैं ।
साभार - राम कुमार अग्रवाल।

रविवार, 24 अक्तूबर 2021

करवा चौथ पर नारी की महिमा

नारी अति महान जगत में नारी अति महान...
जिसका घर-घर में सम्मान...
धर्म-कर्म शृंगार है इसके, सत्य-अहिंसा इसके प्राण,
जिसका घर-घर में सम्मान...


नारी का सत्कार यहां पे, पहले आये इसी का नाम,
सब कहते है सीता-राम, सब कहते है राधे श्याम,
लक्ष्मी-नारायण कहते सब, देवों से पाया वरदान...
जिसका घर-घर में सम्मान...

हर युग में भारत की नारी, पति की रक्षा करती आई।
कष्ट सह जीवन भर पत्नी, पति की सेवा करती आई।
कई बार तो पति की खातिर दे दें अपनी जान...
जिसका घर-घर में सम्मान...

आओ आज सुनाये तुम्हको #करवा_चौथ के व्रत की महिमा,
करवा चौथ की कथा बताती 'भारत की नारी' की महिमा...
इसी कथा और व्रत के कारण बढ़ा है नारी का सम्मान...
जिसका घर-घर में सम्मान...

भारत की नारी सब से प्यारी, इसको माने दुनिया सारी,
तन-मन दोनों से ही सूंदर, पति की सेवा धर्म है जिसका,
घर को माने है ये मंदिर, सास-ससुर को माने भगवान...
डोली बैठ पति संग आये, सारा जीवन धर्म निभाए...
अंत काल यही इच्छा इसकी, पति के कंधो पर ही जाएं,
ऐसे अपना धर्म निभाएं, पति के कंधो पर ही जाएं...🙏🏻⛳

शनिवार, 16 अक्तूबर 2021

शस्त्र की महिमा

शस्त्र निष्क्रिय होते हुए भी सक्रिय होता है, मतलब अगर वो कहीं किसी आलमारी में पड़ा-पड़ा जंग खा रहा हो तो भी अपना काम करता रहता हैं... उसकी मौजूदगी ही शत्रुओं के बुरे और कुत्सित विचारों को नष्ट करने के लिए काफी होती हैं।

दुनिया में अशांति इसलिए है क्योंकि सज्जनों ने शस्त्रों का त्याग कर दिया है और दुर्जन सदैव की तरह शस्त्रों से लैस हैं, यही वजह है कि दुर्जन हावी हैं और धरती पर अनाचार फैलता जा रहा हैं।

दुनिया को दो हिस्सों में बांटा जा सकता हैं, एक जिनके पास शस्त्र होता है और दूसरा जिनके पास शस्त्र नहीं होता है। जिनके पास शस्त्र होता है, वो सदैव निडर और वीर बने रहते हैं और जिनके पास शस्त्र नहीं होते है, वो सदैव भयभीत होते हैं और कायर पुरुष बने रहते हैं।

जिस घर में अस्त्र-शस्त्र होते हैं, उस घर की स्त्रियों पर कभी किसी की कुदृष्टि डालने की हिम्मत भी नहीं होती है और जिनके घर में अस्त्र-शस्त्र नहीं होते हैं, उनकी स्त्रियों के साथ राह चलते छेड़खानी होती है... लव जिहाद जैसी घटनाएं होती हैं और वो सदैव थाने के चक्कर ही लगाते रह जाते हैं, उन्हें बदनामी के सिवाय कभी कुछ हासिल नहीं होता..!

"सत्यमेव जयते" यानी सत्य की ही विजय होती है, इस तरह की सूक्तियों के भरोसे बैठने से कोई फायदा नहीं है..! सत्य तो हिंदुओं के साथ ही है फिर उनका पलायन क्यों हो रहा हैं..? सत्य तो युद्धिष्ठिर के साथ था लेकिन फिर भी वन-वन भटकते रहें... जब युद्धिष्ठिर ने शस्त्र उठाया तभी सत्यमेव जयते हुआ। इसीलिए अब कहावतें बदल गई हैं... ये कलियुग है और कलियुग में सदैव शस्त्र मेव जयते होता है यानी जिसके पास शस्त्र होगा, उसी की विजय होगी। इसलिए शस्त्र की खरीद करो... अपने पास सदैव शस्त्र रखो।

ज्योतिष के हिसाब से भी ध्यान दें... 
शस्त्र का मतलब है मंगल ग्रह अगर आपके पास शस्त्र है तो आपका मंगल मजबूत है और अगर आपका मंगल मजबूत है तो आप शत्रुओं पर सदैव विजय प्राप्त करते रहेंगे... इसलिए अपनी भुजाओं को शस्त्रों से मजबूत करें।

एक बार अपने हाथ में शस्त्र लेकर देखो... तब आपको ये महसूस होगा कि देशद्रोही शत्रु चींटियों के समान हैं। शस्त्र का होना ही आत्मविश्वास वर्धक महान मानसिक औषधि हैं, इसका नित्य सेवन करते रहो।

राष्ट्र के शत्रुओं की संख्या गिनकर चिंता में मत पड़ो... चिंता सदैव इस बात की करो कि तुम्हारे पास कितने अस्त्र-शस्त्र है..! सदैव सुनिश्चित करो कि तुम्हारे अस्त्र-शस्त्रों की संख्या, तुम्हारे शत्रुओं की संख्या से ज्यादा हो।
 
जैसा को तैसा जवाब देना सीखो... शिकायत मत करो..! शिकायत लेकर किसके पास जा रहे हो..? ये संविधान, कानून, प्रशासन और व्यवस्था सिर्फ उनके लिए है, जो शक्तिशाली हैं। कायर लोगों का साथ तो भगवान भी नहीं देते..! कायर लोग सिर्फ शिकायत करते रह जाते हैं। इतने दिनों में आपको ये अवश्य महसूस हुआ होगा कि प्रशासन भी सदैव अत्याचार करने वाले शक्तिशालियों का साथ ही देता है।

अपनी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी खुद लो। कोई सेना, कोई सरकार तुमको बचाने नहीं आएगी..! जब तुम पर संकट आएगा तो उस वक्त तुम और सिर्फ तुमको ही उसका सामना करना होगा। तुम्हारे सिवाय कोई तुम्हारी प्राण रक्षा नहीं कर सकता..!

इसीलिए नियमानुसार शस्त्रों का संचय करो... सदैव पराक्रमी बनो... सज्जन बनो लेकिन कायर नहीं... शस्त्र धारण करके सज्जन बनो, तभी तुम्हारी सज्जनता सुशोभित होगी। 

इस सूक्ति का नित्य पठन करते रहें “कोई सिंह को, वन के राजा के रूप में अभिषेक या संस्कार नहीं करता है..! अपने पराक्रम के बल पर सिंह स्वयं जंगल का राजा बन जाता है।”
  
✊🏻 जय हिंदुत्व ⛳ जय श्री राम 🏹

गुरुवार, 14 अक्तूबर 2021

लाला हरदयाल एक संन्यासी क्रांतिकारी🙏🏻🇮🇳⛳

🔸#लाला_हरदयाल ऐसे ‘संन्यासी क्रांतिकारी’ थे, जो जिंदगीभर अंग्रेजों की आंख का कांटा रहें।🔸
   
◆ लाला हरदयाल जी सिविल सर्विस की नौकरी ठुकराकर, सारे ऐशो आराम छोड़कर देश को आजाद कराने के अभियान में शामिल हो गए थे। आज उनकी जन्म जयंती है, आम के बारे में जानते हैं...

◆ मार्टिनिक नाम था उस टापू का, उसी के समुद्र तट की किसी गुफा में डेरा जमाए हुए था वो संन्यासी, जो कभी सिविल सर्विस की नौकरी ठुकराकर आया था और जिसे दुनियाभर में मशहूर ऑक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी (University of Oxford) में पढ़ने के लिए दो स्कॉलरशिप मिली थीं और वो जिंदगी के सारे ऐशो आराम छोड़कर, यहां दुनिया के दूसरे कोने में एक गुफा में साधना करने मे मग्न था और लक्ष्य था बस एक अपना राज #स्वराज 

◆ इतिहास में चंद चेहरों का ही जिक्र :
कभी क्रांतिकारियों की सूची में आपने लाला हरदयाल का नाम शायद ही पढ़ा हो..! ये भी बड़ी बिडंबना रही है कि हमारे देश के क्रांतिकारियों का इतिहास भी भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद जैसे गिनती के चेहरों के इर्द-गिर्द सिमट कर रह गया। ऐसे में जो लोग सम्पन्न परिवारों से थे या किसी स्कॉलरशिप पर विदेश में उच्च शिक्षा के लिए गए और वहीं से देश की आजादी के लिए क्रांति की मशाल जलाई, वहीं विदेशी धरती पर सालों तक अलख जगाए रखने वाले, अंग्रेजी सरकार के कुकृत्यों को दुनियाभर के देशों के सामने एक्सपोज करने वाले और विदेशों से धन, हथियार, राजनीतिक समर्थन ही नहीं सशस्त्र क्रांतिकारियों तक को भेजने वाले लोगों को तो देश में गिनती के लोग ही जानते हैं।

◆ राजा महेन्द्र प्रताप, मदन लाल धींगरा, ऊधम सिंह, करतार सिंह सराभा, रास बिहारी बोस, श्यामजी कृष्ण वर्मा, भीखाजी कामा, वीर सावरकर और लाला हरदयाल जैसे कई नाम इनमें शामिल हैं। इन सभी ने भारत के साथ-साथ विदेश की धरती को अपनी क्रांति भूमि बनाया। किसी ने जापान, किसी ने अमेरिका, किसी ने ब्रिटेन तो किसी ने फ्रांस... 
लाला हरदयाल जी के पिता दिल्ली की एक डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में रीडर थे, दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज से उन्होंने संस्कृत में डिग्री ली। प्रतिभाशाली इतने थे कि ऑक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी में पढ़ने के लिए उन्हें दो स्कॉलरशिप ऑफर की गईं।

◆ पढ़ाई के दौरान लिखा तीखा लेख :
लेकिन देश की आजादी को लेकर उनके तेवर शुरूआत से ही साफ और सख्त थे। ऑक्सफोर्ड में पढ़ाई के दौरान ही 1907 में उन्होंने ‘इंडियन सोशलिस्ट’ मैगजीन में लिखे एक लेख में अंग्रेजी सरकार पर सवाल उठाये थे। उसी वक्त उन्हें आईसीएस यानी इंडियन सिविल सर्विस (उस वक्त की आईएएस) का पद ऑफर हुआ था, उन्होंने ‘भाड़ में जाए आईसीएस’ कहते हुए ऑक्सफोर्ड की स्कॉलरशिप तक छोड़ दी और अगले साल भारत वापस आ गए। यहां वो पूना जाकर तिलक जी से और लाहौर में लाला लाजपत राय से मिले। उस वक्त कांग्रेस के यही दो बड़े नेता थे, जो गरम दल की अगुवाई करते थे।

◆ लेकिन अब वो अंग्रेजी सरकार की नजरों में चढ़ चुके थे, उन पर नजर रखा जाना शुरू हो गय़ा था लेकिन भारत में उनका ये कड़े तेवरों वाला लेखन जब जारी रहा तो अंग्रेजी सरकार उन पर प्रतिबंध लगाने और गिरफ्तार करने की सोचने लगी... कहीं से इसकी जानकारी लाला लाजपत राय जी को मिल गई। लाजपत राय जी को ये संदेह था कि काला पानी जैसी सजा लाला हरदयाल के इरादे तोड़ सकती है..! लाला जी ने ही हरदयाल को सलाह दी कि फौरन देश छोड़ दो, ये 'क्रांतिकारी लेखन' विदेश की धरती से करोगे तो अंग्रेज सरकार कुछ नहीं कर पाएगी..! हरदयाल जी तब तक ब्रिटिश अराजकतावादी कम्युनिस्ट व्यक्ति एल्ड्रेड के संपर्क में आ चुके थे, जो ‘इंडियन सोशलिस्ट’ छापता था। दिलचस्प बात थी कि एक तरफ वो एक वामपंथी के लिए लिख रहे थे, दूसरी तरफ हिंदू वादी नेता, लाला लाजपत राय उनकी मदद कर रहे थे...

◆ लाला लाजपत राय की सलाह पर छोड़ा देश :
लाला हरदयाल ने लाला लाजपत राय जी की बात समझकर भारत छोड़ दिया और 1909 में वो पेरिस जा पहुंचे। जहां जाकर उन्होंने जिनेवा से निकलने वाली पत्रिका #वंदेमातरम का सम्पादन शुरू कर दिया। ये मैगजीन दुनियाभर में बिखरे भारतीय क्रांतिकारियों के बीच क्रांति की अलख जगाने का काम करती थी। हरदयाल के लेखों ने उनके अंदर आजादी की आग जला दी। हालांकि पेरिस में उन्हें लगा था कि भारतीय समुदाय मदद देगा लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ तो उन्होंने दुखी होकर पेरिस छोड़ दिया और वो अल्जीरिया चले गए... वहां भी उनका मन नहीं लगा, जहां से वो क्यूबा या जापान जाना चाहते थे लेकिन फिर #मार्टिनिक चले गए। यहां आकर वो एक सन्यासी की तरह जीवन जीने लगे... भाई परमानंद उन्हें ढूंढते हुए पहुंचे और उनसे भारतभूमि को आजाद करवाने, भारतीय संस्कृति के प्रसार के लिए मदद मांगी...

◆ भारतीय भूमि से था खास लगाव :
खेलने कूदने की उम्र से ही लाला हरदयाल को मेरा देश, मेरी भूमि, मेरी संस्कृति, मेरी भाषा पर कुछ ज्यादा ही भरोसा था। जबकि वो मंदिर तक नहीं जाते थे, पूजा नहीं करते थे। मित्र उन्हें नास्तिक बोलते थे लेकिन उनको भारतीय भूमि से निकले हर धर्म, सम्प्रदाय, महापुरुष में काफी आस्था थी। भारतीय परम्पराओं से उनका खासा लगाव था। जब एक बार लाहौर में उनकी वाईएमसीए (यंग मैन क्रिश्चियन एसोसिएशन) क्लब के सचिव से किसी बात को लेकर कहासुनी हो गई तो उन्होंने लाहौर मे ‘यंग मैन इंडियन एसोसिएशन’ की स्थापना कर डाली। इसी एसोसिएशन के उदघाटन समारोह में हरदयाल के मित्र अल्लामा इकबाल ने अपनी मशहूर रचना 'सारे जहां से अच्छा, हिंदुस्ता हमारा' पहली बार गाकर सुनाई थी। बाद में यही #इकबाल मुस्लिम लीग में शामिल होकर अलग पाकिस्तान की मांग करने लगे थे।

◆ आर्यसमाज से जोड़ना चाहते थे परमानंद :
दूसरी तरफ भाई परमानंद उन्हें आर्यसमाज से जोड़ना चाहते थे, उन्होंने उन्हें राजी किया कि वो अमेरिका में आर्यसमाज के प्रचार प्रसार में मदद करेंगे। लाला जी बोस्टन गए, वहां से कैलीफोर्निया गए, लेकिन फिर मेडीटेशन करने हवाई द्वीप के होनोलूलू में चले गए। जहां उनकी मुलाकात जापानी बौद्ध भिक्षुओं से हुई, काफी दिन उनके साथ गुजारे... साथ में वहीं उन्होंने कार्ल मार्क्स को पढ़ा। भाई परमानंद वापस उन्हें कैलीफोर्निया लेकर आए, वो लाला हरदयाल की प्रतिभा को जाया नहीं जाने देना चाहते थे।

◆ कार्ल मार्क्स का असर ये हुआ कि उन्हें मजदूरों की समस्याओं से रूबरू होने का मौका मिला। कैलीफोर्निया आते ही वो मजदूरों की यूनियन से जुड़ गए, वहीं दूसरी तरफ वो भारतीय दर्शन और संस्कृत का प्रचार प्रसार कर रहे थे। ये दक्षिणपंथ और वामपंथ का अनोखा संगम उनके अंदर पैदा हो गया था। बहुत जल्द उन्हें स्टेनफोर्ड यूनीवर्सिटी में इंडियन फिलॉसोफी और संस्कृत का लैक्चरर बनने का मौका मिला लेकिन जिस मजदूर यूनियन से वो जुड़ गए थे, दरअसल वो अराजकता वादियों का बड़ा समूह था। उससे रिश्तों के चलते लाला हरदयाल को स्टेनफोर्ड यूनीवर्सिटी से अपना पद छोड़ना पड़ गया। बाद में हरदयाल जी ने उस समूह से भी दूरी बना ली।

◆ कैलीफोर्निया में बनाया इंडिया हाउस :
कैलीफोर्निया में उनकी मुलाकातें उस सिख समूह से होने लगीं, जो अपने देश को आजाद करवाने के लिए अमेरिका में संघर्ष कर रहा था यानी #गदर_क्रांतिकारी वो उन श्यामजी कृष्ण वर्मा के संपर्क में भी आए, जो #लंदन में #इंडिया_हाउस बनाकर कई क्रांतिकारियों को शरण दे रहे थे। उनको लंदन में स्कॉलरशिप देकर भारत से बुला रहे थे। वीर सावरकर और मदन लाल धींगरा ऐसी ही स्कॉलरशिप पर लंदन आए थे।

◆ श्याम जी कृष्ण वर्मा से प्रेरित होकर लाला हरदयाल ने वैसी ही स्कॉलरशिप अमेरिका में शुरू कर दी, और एक घर इंडिया हाउस की ही तरह कैलीफोर्निया में उन स्टूडेंट्स के लिए खड़ा किया, जिनको स्कॉलरशिप पर अमेरिका पढ़ने के लिए बुलाया जा सकता था। करतार सिंह सराभा और विष्णु पिंगले जैसे 6 भारतीय लड़कों की अमेरिकी में पढ़ाई का इंतजाम किया गया। अमेरिका में उनकी मदद तेजा सिंह और तारक नाथ दास ने की... जबकि स्कॉलरशिप के लिए गुरु गोविंद सिंह एजुकेशनल स्कॉलरशिप फंड बनाने में उनकी मदद अमेरिका के अमीर किसान ज्वाला सिंह जी ने की...

◆ भाषण के बाद देखने लायक था माहौल :
जब दिल्ली में रास बिहारी बोस, बसंत विश्वास और अमीचंद जी ने लॉर्ड हॉर्डिंग पर दिल्ली में घुसते वक्त बम फेंक दिया तो अमेरिका में लाला हरदयाल ने उत्साहित होकर एक जोरदार भाषण दिया.. जिसमें मीर तकी मीर की दो लाइनें पढ़ डालीं -
पगड़ी अपनी सम्भालिएगा मीर,
ये और बस्ती नहीं..! दिल्ली हैं।

◆ ये कार्यक्रम नालंदा हॉस्टल में हुआ था, उनके भाषण के बाद माहौल देखने लायक था। वंदेमातरम गीत पर युवा नाचने गाने लगे... सबको इंतजार था प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटेन के फंसने का, ताकि उसका फायदा उठाकर गदर क्रांति की जा सकें। सोहन सिंह भखना ने अमेरिका में ही गदर पार्टी की नींव रखी, दुनियाभर के क्रांतिकारियों से हाथ मिलाया। लंदन में श्याम जी कृष्ण वर्मा, भारत में बाघा जतिन और रास बिहारी बोस और अमेरिका में करतार सिंह सराभा और विष्णु पिंगले जैसे युवाओं ने कमान संभाल ली। लाला हरदयाल पत्र पत्रिकाओं में क्रांति के पक्ष में लेख लिख-लिखकर माहौल बनाने में इतने जुट गए थे की अमेरिकी सरकार उनके लेखों से परेशान हो गई। वो फिर से निशाने पर आ चुके थे। वैसे भी ब्रिटेन अब अमेरिका में बसे गदर क्रांतिकारियों के बारे में अमेरिका को आगाह कर रहा था।

◆ खुशी के बीच आई मातमी खबर :
हरदयाल प्रवासी सिखों के बीच अलख जगाने का काम करने लगे थे। वो अपने शानदार भाषणों के जरिए प्रवासी सिखों से भारत माता की सेवा करने के लिए भारत पहुंचने का आह्वान करते थे। माना जाता है कि दस हजार सिख उनसे प्रेरित होकर भारत निकल गए थे। उसी दौरान कामागाटामारू कांड भी हो गया। अप्रैल 1914 में लाला हरदयाल को अमेरिका में गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन वो किसी तरह निकल भागे और उनकी अगली मंजिल बर्लिन थी। वहां से वो स्वीडन निकल गए, इस तरह कुल 13 भाषाएं हरदयाल सीख गए थे।

◆ इसी बीच, वो अपनी पीएचडी लंदन की एक यूनीवर्सिटी से कर चुके थे। फिर वो लंदन में ही रहने लगे, अंग्रेजी सरकार उनकी हर हरकत पर नजर रखे हुई थी लेकिन वो उनकी नाक के नीचे ही लंदन में जमे रहें। 1927 में देशभक्तों ने उन्हें भारत लाने की काफी कोशिशें की थीं, जो कामयाब नहीं हो पाईं। 1938 में फिर ऐसी कोशिशें की... ब्रिटिश सरकार ने उन्हें भारत जाने की इजाजत दे दी। सब लोग भारत में इंतजार भी करने लगे, देश का माहौल भी काफी बदल चुका था। माना जाने लगा था कि देश को आजादी मिलने में ज्यादा देर नहीं..! लाला लंदन से निकल भी चुके थे कि अमेरिका के फिलाडेल्फिया से खबर आई कि 4 मार्च 1938 को लाला हरदयाल की मृत्यु हो गई है...😰

◆ जहर देने का किया था दावा :
किसी को समझ नहीं आया कि जब वो बेहतर स्वास्थ्य में थे, उन्हें भारत आने की अनुमति भी मिल गई थी लेकिन अचानक उनकी मौत कैसे हो गई..? उनके मित्र हनुमंत सहाय अपने मरने तक आरोप लगाते रहे कि हरदयाल को जहर देकर मारा गया था, उनकी मौत स्वभाविक नहीं थी..! लेकिन देश ना जाने कितने महापुरुषों की ऐसी #संदिग्ध_मौत देख चुका है।😓 श्यामा प्रसाद मुखर्जी से लेकर लाल बहादुर शास्त्री तक, किसी की मौत का खुलासा आज तक नहीं हुआ। सत्ता के खिलाफ जाने पर ऐसा अंजाम होने की आशंका तो रहती ही है।
साभार : zeenews.india.co.
भारत के प्रसिद्ध क्रांतिकारी और 'गदर पार्टी' के संस्थापक #लाला_हरदयाल जी को उनकी जन्म जयंती पर कोटि-कोटि नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि...🙏🏻⛳
भारत माता की जय 🇮🇳
#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

बुधवार, 13 अक्तूबर 2021

दशहरा पर्व से जुड़ीं परंपराएं एवं कैसे करें शस्त्र पूजन, आप भी जानिए...

प्राचीनकाल से दशहरा (विजयादशमी) पर अपराजिता-पूजा, शमी पूजन, शस्त्र पूजन व सीमोल्लंघन की परंपरा रही है।
 
अपराजिता-पूजा : अपराजिता देवी सकल सिद्धियों की प्रदात्री साश्रात माता दुर्गा का ही अवतार हैं। भगवान श्री राम ने माता अपराजिता का पूजन करके ही रावण से युद्ध करने के लिए विजयदशमी को प्रस्थान किया था। ज्योतिषियों के अनुसार माता अपराजिता की पूजा का समय दोपहर के तत्काल बाद का होता है।
 
शमी पूजन : विजयादशमी के दिन शस्त्रों की पूजा के अलावा शमी के पौधे की पूजा का बेहद ही खास महत्व है। विजयादशमी के दिन प्रदोषकाल में शमी वृक्ष का पूजन अवश्य किया जाना चाहिए। खासकर क्षत्रियों में इस पूजन का महत्व ज्यादा है। कहा तो यह भी जाता है कि महाभारत के युद्ध में पांडवों ने इसी वृक्ष के ऊपर अपने हथियार छुपाए थे और बाद में उन्हें कौरवों से जीत प्राप्त हुई थी।
शमी शम्यते पापम् शमी शत्रुविनाशिनी। 
अर्जुनस्य धनुर्धारी रामस्य प्रियदर्शिनी।।
करिष्यमाणयात्राया यथाकालम् सुखम् मया। तत्रनिर्विघ्नकर्त्रीत्वं भव श्रीरामपूजिता।।

शस्त्र पूजन : दशहरा के मौके पर शस्त्रधारियों के लिए हथियारों के पूजन का विशेष महत्व है। इस दिन शस्त्रों की पूजा घरों और सैन्य संगठनों द्वारा की जाती है। नौ दिनों की उपासना के बाद 10वें दिन विजय कामना के साथ शस्त्रों का पूजन किया जाता है। विजयादशमी पर शक्तिरूपा दुर्गा, काली की पूजा के साथ शस्त्र पूजा की परंपरा हिंदू धर्म में लंबे समय से रही है। छत्रपति शिवाजी ने इसी दिन मां दुर्गा को प्रसन्न कर भवानी तलवार प्राप्त की थी।

सीमोल्लंघन : इतिहास में क्षत्रिय राजा इसी अवसर पर सीमोल्लंघन किया करते थे। हालांकि अब यह परंपरा समाप्त हो चुकी है, लेकिन शास्त्रीय आदेश के अनुसार यह प्रगति का प्रतीक है। यह मानव को एक परिधि से संतुष्ट न होकर सदा आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है।

सोमवार, 11 अक्तूबर 2021

"नाना जी देशमुख" एक प्रेरणादायक जीवन

“हम अपने लिए नहीं, अपनों के लिए हैं, अपने वे हैं जो सदियों से पीड़ित एवं उपेक्षित हैं।” यह कथन है युगदृष्टा चिंतक नानाजी देशमुख का... वो किसी बात को केवल कहते ही नहीं थे वरन उसे कार्यरूप में परिवर्तित भी करते थे। आधुनिक युग के इस दधीचि का पूरा जीवन ही एक प्रेरक कथा है। विविध गुणों एवं बहुमुखी प्रतिभा के धनी नानाजी देशमुख का पूरा नाम चण्डीदास अमृतराव उपाध्याय नानाजी देशमुख था। इनका जन्म 11 अक्टूबर सन 1916 को बुधवार के दिन महाराष्ट्र के हिंगोली जिले के एक छोटे से गांव कडोली में हुआ था। इनके पिता का नाम अमृतराव देशमुख था तथा माता का नाम राजाबाई था। नानाजी के दो भाई एवं तीन बहने थीं।

नानाजी जब छोटे थे तभी इनके माता-पिता का देहांत हो गया। बचपन गरीबी एवं अभाव में बीता। वे बचपन से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की दैनिक शाखा में जाया करते थे। बाल्यकाल में सेवा संस्कार का अंकुर यहीं फूटा। जब वे 9वीं कक्षा में अध्ययनरत थे, उसी समय उनकी मुलाकात संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार से हुई। डॉ. साहब इस बालक के कार्यों से बहुत प्रभावित हुए। मैट्रिक की पढ़ाई पूरी होने पर डॉ. हेडगेवार ने नानाजी को आगे की पढ़ाई करने के लिए पिलानी जाने का परामर्श दिया तथा कुछ आर्थिक मदद की भी पेशकश की, पर स्वाभिमानी नाना को आर्थिक मदद लेना स्वीकार्य न था। वे किसी से भी किसी तरह की सहायता नहीं लेना चाहते थे। उन्होंने डेढ़ साल तक मेहनत कर पैसा इकट्ठा किया और उसके बाद 1937 में पिलानी गये। पढ़ाई के साथ-साथ निरंतर संघ कार्य में लगे रहे। कई बार आर्थिक अभाव से मुश्किलें पैदा होती थीं परन्तु नानाजी कठोर श्रम करते ताकि उन्हें किसी से मदद न लेनी पड़े। सन् 1940 में उन्होंने नागपुर से संघ शिक्षा वर्ग का प्रथम वर्ष पूरा किया। उसी साल डाक्टर साहब का निधन हो गया। फिर बाबा साहब आप्टे के निर्देशन पर नानाजी आगरा में संघ का कार्य देखने लगे।

उसी साल पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी एम. ए. की पढ़ाई करने के लिए आगरा आये। नानाजी से कहा गया कि अब दीनदयाल यहां का काम देखेंगे, तुम गोरखपुर जाकर संघ कार्य प्रारम्भ करो। न कोई प्रश्न, न कोई प्रतिवाद। बस नानाजी चल पड़े अपने नये लक्ष्य को पूरा करने, नये सफर पर... नये लोग, अनजान जगह, इस स्थिति में कार्य खड़ा करना असंभव सा प्रतीत होता है। परन्तु नानाजी के लिए सब संभव था। उनकी कार्यशैली लोगों को प्रभावित किए बिना नहीं रहती थी। उन्हें चुनौतियों को पूरा करने में असीम आनंद आता था। लक्ष्य को पूरा किए बगैर उन्हें मानो चैन ही नहीं मिलता था। इस नई चुनौती को भी उन्होंने सहर्ष स्वीकारा और सफल बनाया।

सन् 1940 में गोरखपुर में पहली शाखा प्रारम्भ हुई। उनके कार्य की प्रगति को देखते हुए, उन्हें गोरखपुर विभाग को संभालने की जिम्मेदारी सौंपी गई। उन्होंने इस दायित्व को भी बखूबी निभाया। उनके अथक परिश्रम का ही परिणाम था कि 1944 तक गोरखपुर के देहातों में 250 शाखाएं लगने लगी थीं। निरंतर कर्मशील नानाजी ने अपनी मेहनत से संघकार्य को प्रगति की दिशा प्रदान की... 1944 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक गुरुजी गोरखपुर प्रवास पर आये। नानाजी के कार्यों को देखकर वे बहुत खुश हुए। उन्होंने गोण्डा से बलिया तक के सभी जिलों को नानाजी को सौंपकर उन्हें विभाग प्रचारक का कार्यभार सौंपा। कार्य की अधिकता और व्यापकता ने उन्हें कभी भी विचलित नहीं किया। जब भी कोई नया काम मिलता, वो पूरे उत्साह से उसमें लग जाते...

नानाजी प्रयोगवादी थे। उनके प्रयोगवादी रचनात्मक कार्यों का ही एक उदाहरण है, सरस्वती शिशु मंदिर। सरस्वती शिशु मंदिर आज भारत की सबसे बड़ी स्कूलों की श्रृंखला बन चुकी है। इसकी नींव नानाजी ने ही 1950 में गोरखपुर में रखी थी। इतना ही नहीं, संस्कार भारती के संस्थापक सदस्यों में एक रहे हैं नानाजी

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ‘राष्ट्रधर्म’ का प्रकाशन करने का निर्णय लिया तो पंडित दीनदयाल जी को मार्गदर्शक, अटल बिहारी वाजपेयी जी को सम्पादक व नानाजी को प्रबन्ध निदेशक का दायित्व दिया गया। नानाजी ने अपनी कार्य कुशलता का परिचय देते हुए ‘राष्ट्रधर्म’ के साथ-साथ ‘पांचजन्य’ व ‘दैनिक स्वदेश’ का प्रकाशन प्रारम्भ कर समाज में अपनी एक अलग पहचान बनाई।

1951 में उन्हें पंडित दीनदयाल के साथ भारतीय जनसंघ का कार्य करने को कहा गया। राजनीति में ‘संघर्ष नहीं समन्वय’, ‘सत्ता नहीं, अन्तिम व्यक्ति की सेवा’ आदि वाक्यों को नानाजी ने स्थापित करने की कोशिश की।

लोकनायक जयप्रकाश नारायण, डॉ. राममनोहर लोहिया, पं. गोविन्द वल्लभ पंत, पुरुषोत्तमदास टंडन, लाल बहादुर शास्त्री, गुरुजी, पंडित दीनदयाल उपाध्याय आदि महापुरुषों के साथ आपका घनिष्ठ संपर्क और सम्बन्ध था। इनके अलावा विनोबा भावे के साथ रहकर भूदान आंदोलन से भी नानाजी जुड़े थे।

डॉ. राममनोहर लोहिया को पंडित जवाहरलाल नेहरू के समक्ष 1962 में चुनाव लड़ाने के लिए नानाजी ने अथक प्रयत्न किया। इसमें वह सफल हुए और इसका परिणाम यह हुआ कि डॉ. लोहिया भले ही चुनाव हार गए पर वे जनसंघ के निकट आ गए। बाद में डॉ. लोहिया तथा पं. दीनदयाल उपाध्याय का भारत-पाक महासंघ के संबंध में एक महत्वपूर्ण संयुक्त वक्तव्य भी प्रकाशित हुआ।

उत्तर प्रदेश में भारतीय जनसंघ के संगठन को व्यापक और सुदृढ़ करने का कार्य जनसंघ के निर्माण के तुरन्त पश्चात नानाजी को सौंपा गया था। यह उन्हीं का परिश्रम था कि भारतीय जनसंघ उत्तर प्रदेश में कांग्रेस, प्रजा समाजवादी पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी इत्यादि की तुलना में एक नवीन संगठन होते हुए भी पांच सालों में विधानसभा में सबसे महत्वपूर्ण राजनैतिक दल के रूप में उभर कर सामने आई। सन् 1962 तक पहुंचते-पहुंचते तो जनसंघ प्रदेश की प्रमुख राजनैतिक शक्ति बन गई। नानाजी को उत्तर प्रदेश के साथ-साथ बिहार का काम भी सौंपा गया था और भारतीय जनसंघ बिहार में भी अपना स्थान बनाने में सफल हुआ। 1967 में अनेक प्रांतों में कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा।

तब 'उत्तर प्रदेश तथा बिहार में संयुक्त सरकार बनाने का प्रयास किया जाए' ऐसा संघ के अनेक महत्वपूर्ण कार्यकर्ताओं का अभिमत था। अधिकांश लोगों की दृष्टि में नानाजी देशमुख ही उन साझा सरकारों के प्रणेता थे, परन्तु वास्तविकता यह है कि वह ऐसी साझा सरकारों के प्रयोग के पक्षधार नहीं थे। परन्तु जब सब लोगों की राय ऐसे प्रयोगों को करने के लिए बन गई... तब यह नानाजी ही थे, जो चौधरी चरण सिंह जी और उनके सहयोगियों को कांग्रेस से विरक्त कर सकें और उत्तर प्रदेश में पहली साझा सरकार बन सकी। इससे नानाजी की अनुशासन प्रियता और सबको साथ लेकर चलने की क्षमता प्रदर्शित हुई।

11 फरवरी 1968 को पं. दीनदयाल के अकाल निधन के बाद नानाजी ने दीनदयाल स्मारक समिति का पंजीयन कराकर,एक नए अध्याय की शुरुआत की... 20 अगस्त 1972 से विधिवत ‘एकात्म मानव दर्शन’ के सिद्धांत को व्यवहारिक धरातल पर उतारने हेतु ‘दीनदयाल शोध संस्थान’ कार्यालय नई दिल्ली में नानाजी के नेतृत्व में कार्य करने लगा।

इसी दौरान जयप्रकाश नारायण ने समग्र क्रांति के नाम से कार्य प्रारम्भ किया, जिसका मुख्य केन्द्र पटना बनाया गया। इस समग्र क्रांति के आंदोलन का महामंत्री नानाजी को बनाया गया। नानाजी पूरे मनोयोग से समग्र क्रांति के कार्य में जयप्रकाश जी के सहयोगी बनें।

राजनीति के दांवों में उनकी पटुता की प्रशंसा ऐसी थी कि उनके विरोधी उन्हें नाना देखमुख नहीं, नाना फड़णनवीस ही कहा करते थे। 1977 के आपातकाल में तृतीय डिक्टेटर के नाते शासन का गुप्तचर विभाग भी उनको समझ नहीं पाया था।

जब इन्दिरा गांधी को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने लोकसभा की सदस्यता से वंचित कर दिया, तब इंदिरा गांधी ने लोकसभा से त्यागपत्र देने के स्थान पर देश में इमरजेंसी लागू कर दी। उन्होंने स्वयं को प्रधानमंत्री पद पर बनाये रखा और विरोधी दलों के सभी लोगों को जेल में ठूंस दिया। सन् 1977 के फरवरी माह में इन्दिरा गांधी ने लोकसभा के आम चुनाव की घोषणा कर दी। जेल से सभी नेताओं को छुट्टी दी किन्तु नानाजी को जेल में ही बन्दी बनाये रखा। नानाजी को छोड़ने के लिए कहा गया तो इन्दिरा गांधी ने कहा कि नानाजी तो चुनाव नहीं लड़ रहे हैं, उनको छोड़ने की क्या जरूरत है। तब नानाजी को चुनाव लड़ने के लिए सभी नेताओं ने आग्रह किया लेकिन नानाजी ने कहा, मुझे चुनाव लड़ना नहीं है, इसलिए मैं जेल में पड़ा रहूंगा। तब रामनाथ गोयनका ने जयप्रकाश से कहा कि आपके कहे बिना नानाजी चुनाव लड़ने को तैयार नहीं होंगे। जयप्रकाश ने नानाजी के पास अपना संदेशवाहक भेजकर चुनाव लड़ने के लिए राजी किया। नानाजी जेल से छूटे।

छूटने के बाद उन्हें बलरामपुर से चुनाव लड़ने को कहा गया। वे पौने दो लाख से अधिक वोटों से जीते। मोरारजी देसाई की सरकार बनी और नानाजी से पूछे बिना उन्हें मोरारजी ने अपने कैबिनेट में उद्योग मंत्री बनाने की घोषणा कर दी। किन्तु नानाजी ने मंत्री पद स्वीकार नहीं किया। उन्होंने कहा कि वे देहातों में समाज कार्य करेंगे। 60 वर्ष की आयु पूर्ण के साथ ही सक्रिय राजनीति से मुक्त होने के अपने विचार को उन्होंने खुद पर लागू भी किया। 1977 में बंगाल की खाड़ी की ओर से उठे समुद्री तूफान ने आंध्र प्रदेश एवं उड़ीसा के तटीय जिलों में भारी तबाही मचाई। कई गांवों का नामोनिशान नहीं रहा। नानाजी ने अपने साथियों के साथ अमनीगढ़ा तहसील में मुलापालम् गांव को दीनदयालपुरम् के रूप में पुन: बसाया तथा उड़ीसा के सुन्दरगढ़ जिले के लिए आंखों के चलित अस्पताल की व्यवस्था की...

1978 में उन्होंने गोण्डा बलरामपुर के पास जमीन लेकर जयप्रभा ग्राम नाम से ग्राम विकास, गो-संवर्धन, शिक्षा और कृषि तंत्र में सुधार हेतु काम करना प्रारम्भ किया। तत्काल ही पच्चीस हजार से भी अधिक बांस के नलकूपों का नया प्रयोग कर अलाभकर जोत को लाभकर बनाया व कर्ज से लदे भूखमरी का सामना कर रहे किसानों को खुशहाल बनाया।

अपने लम्बे राजनैतिक जीवन में नानाजी ने यह अनुभव कर लिया था कि केवल राजनीति से समाज कल्याण नहीं हो सकता है। उनका विश्वास था कि आर्थिक आत्म निर्भरता व सामाजिक पुनर्रचना से ही सार्थक सामाजिक बदलाव संभव है। उन्होंने दीनदयाल शोध संस्थान के कार्यों को विस्तार देना प्रारंभ किया। संस्थान का काम देश के विभिन्न भागों में शुरू हुआ। गोण्डा, बीड, नागपुर, अहमदाबाद, सिंहभूम, दिल्ली और चित्रकूट में संस्थान कई वर्षों से काम कर रहा है। सन् 1991 में भगवानन्दजी महाराज के आग्रह पर नानाजी चित्राकूट आये। देश के पहले ग्रामीण विश्वविद्यालय की स्थापना की और नाम रखा चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय। सन् 1991 से 1994 तक नानाजी ग्रामोदय विश्वविद्यालय के संस्थापक कुलाधिपति रहें, लेकिन सरकार की नीति से तंग आकर 1995 में कुलाधिपति पद से त्याग पत्र दिया और विश्वविद्यालय का काम सरकार के जिम्मे छोड़ दिया।

अपने जीवन के चुनौतीपूर्ण अनुभवों के साथ नानाजी ने ‘चित्रकूट प्रकल्प दीनदयाल शोध संस्थान’ के नाम से अलग कार्य प्रारम्भ किया। आज इसके विस्तार रूप में आरोग्यधाम, उद्यमिता विद्यापीठ, रामदर्शन, कृषि विज्ञान केन्द्र, जल प्रबन्धन, सुरेन्द्रपाल ग्रामोदय विद्यालय, गुरुकुल संकुल, नन्हीं दुनिया, शैक्षणिक अनुसंधान केन्द्र, दिशादर्शन केन्द्र, जन शिक्षण संस्थान, आजीवन स्वास्थ्य संवर्धन महाविद्यालय, गौ-विकास एवं अनुसंधान केन्द्र, रामनाथ आश्रमशाला, कृष्णादेवी वनवासी बालिका आवासीय विद्यालय, परमानंद आश्रम पद्धति विद्यालय, समाजशिल्पी दम्पति योजना एवं स्वावलम्बन अभियान जैसे अनेकों प्रकल्प चल रहे हैं।

महात्मा गांधी सम्मान, एकात्मता पुरस्कार, श्रेष्ठ नागरिक सम्मान, पद्म विभूषण, वरिष्ठ नागरिक सम्मान, मानस हंस, जीवन गौरव, संत ज्ञानेश्वर पुरस्कार आदि पुरस्कारों से नानाजी को सम्मानित किया गया है। उन्हें अजमेर, मेरठ, झांसी, पूना एवं चित्रकूट विश्वविद्यालय द्वारा डी. लिट की मानद उपाधि दी गयी। कर्मयोगी नानाजी महामहिम राष्ट्रपति द्वारा 1999 में राज्यसभा के मनोनीत सदस्य रहें। नानाजी ने अमेरिका, इंग्लैंड, क्यूबा, जर्मनी, कनाडा, दक्षिण कोरिया, जापान, डेनमार्क, थाईलैण्ड, केन्या इत्यादि देशों में भारतीय जीवन मूल्यों की स्थापना हेतु प्रवास किये।

नानाजी मानते थे कि समाज के परस्परावलम्बन की भावना से ही ग्रामोदय संभव होगा। वे कहते थे... "नूतन संतान में सामाजिक दायित्व का बीजारोपण करना, परिवार का नैसर्गिक कर्तव्य है।"

नानाजी ने राष्ट्रीय प्रश्नों पर सच्ची राष्ट्रभक्ति से भरपूर अपने दृष्टिकोण को खुलकर रखने में कभी भी कोई अनावश्यक संकोच नहीं किया। चाहे संविधान के स्वरूप का प्रश्न हो या आर्थिक नवरचना का, धर्मांतरण का प्रश्न हो या श्रम-कानूनों का मुद्दा ही क्यों न हो... उन्होंने सभी विषयों पर बेबाक राय दी। 
नानाजी के आत्मीय रिश्ते न केवल विभिन्न राजनैतिक दलों के प्रमुख लोगों से थे बल्कि समाज के विभिन्न वर्गों के प्रतिनिधियों से भी समान रूप से आत्मीयता स्थापित कर लेने का विशिष्ट गुण उनमें था। उद्योगपति, किसान, दलित या वनवासी, प्रत्येक समुदाय के लोगों से उनके आत्मीय संबंध थे। आर्थिक-सामाजिक नवरचना के विस्तृत पक्षों का उन्हें ज्ञान था तो साथ ही प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रानिक मीडिया, साहित्य आदि की भी उनकी जानकारी अनूठी थी।

नानाजी का जीवन असंख्य लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत है। हम सबको सर्व भूत हिते रता: का पाठ पढ़ाते हुए 27 फरवरी 2010 को उन्होंने इस लोक से विदा ली। अपने जीवन में ही उन्होंने तय कर दिया था कि उनकी मृत्यु के पश्चात उनके शरीर को जलाया नहीं जाएगा बल्कि शोध के लिए अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, दिल्ली को सौंप दिया जाएगा। इस प्रकार जीवन भर तो उन्होंने समाज सेवा की ही जीवन त्यागने के बाद भी वो समाज सेवा में ही लीन हो गए।

शनिवार, 9 अक्तूबर 2021

आइये जानते है “रत्ति भर” मुहावरे की वास्तविक सच्चाई क्या हैं..?

जाने-अनजाने में हम कितने ही ऐसे शब्दों का उपयोग अपने दैनिक जीवन मे करते है, जिसका वास्तविक मतलब हमें मालूम ही नहीं होता..! परन्तु हम बोलते हैं। 
चाहे वो कोई अंग्रेजी के शब्द हो या कोई हिंदी का मुहावरा...
तो आइए आज हम आपको एक ऐसे ही मुहावरे के बारे में बताते हैं, जिस मुहावरे का इस्तेमाल हमने खुद किया होगा...
या हमारे सामने बहुत सारे लोगो ने, परन्तु उसका मतलब हमें नहीं पता हैं..!

रत्ती एक पौधा हैं। कभी न कभी हमारे सामने किसी ने भी 
रत्ति भर मुहावरे का उपयोग जरूर किया होगा..!
जैसे -  "उसे रत्ति भर अफसोस नही हैं।” 
और इसका मतलब हम कुछ और समझते है। 
परन्तु आज आपको इस बात से परिचित कराने जा रहे हैं कि
असल में रत्ति एक पौधे का नाम है।
रत्ति के पौधे पर लगे दाने आधे लाल और आधे काले होते हैं। 
अपने आप में ही यह पौधा रहस्मयी हैं, क्योंकि जब आप रत्ति के दाने को छुएंगे तो ये आपको बहुत कठोर लगेगा, परन्तु पक जाने के बाद रत्ति के दाने अपने आप पौधे से गिर जाते हैं।
रत्ति के पौधे आपको अधिकतर पहाड़ी जगहों पर देखने को मिलेंगे। 
आम लहजे की बात करे तो रत्ति को ” गुंजा” के नाम से भी जाना जाता है। इसके अंदर मटर जैसे फली के दाने भी होते है।
ये सोना मापने में अहम भुमिका निभाता हैं।

बहुत से लोगों ने जब रत्ति के पौधे के बारे में जांच पड़ताल शुरु की तब उन्हें इस बात का पता चला कि पुराने जमाने मे लोग सोने को मापने के लिए रत्ति का इस्तेमाल करते थे, क्योंकि प्राचीन काल मे मापने का कोई सटीक पैमाना नहीं था। 
ऐसा कहा जाता है कि यही से रत्ति माप की शुरुआत हुई है।
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि भारत के साथ यह पूरे एशिया में होता है। 
आज सोना मापने के बहुत सारे यंत्र और तकनीक उपलब्ध है, 
उसके बाद भी रत्ति विधि को सोना मापने के सर्वश्रेष्ठ विधि मानी गयी है। 
आप चाहे तो इस बारे में अपने सोनार से भी पूछ सकते हैं।

सेहत के लिए भी उपयोगी...

रत्ति हमारे सेहत के लिए फायदेमंद होता है।

अगर आपके मुंह में छाले हो गए हैं, तो रत्ति के पत्तो को चबाने से यह जल्दी से ठीक हो जाते है। रत्ति की जड़े भी बहुत लाभदायक होती हैं। 
रत्ति सकारात्मक ऊर्जा को उत्पन्न करता है, इसलिए बहुत सारे लोग रत्ति की अंगूठी या माला पहनते हैं। 
ताकि वो अपने जीवन मे हमेशा सकारात्मक रहें।

एक जैसा माप

इस पौधे की सबसे रहस्मयी बात यह है कि जब भी आप इस पौधे के अंदर के बीजों को मापेंगे तो इसका वजन आपको एक समान ही दिखेगा, थोड़ा-सा भी इधर-उधर नहीं...
इंसानों की बनाई गई यंत्र या मशीन पर आप शक कर सकते हैं
परन्तु प्रकृति का यह माप कभी गलत साबित नहीं होता... अगर आप वजन मापने की मशीन को देखे तो रत्ति का वजन 0.121497 ग्राम के आसपास होता है।

शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2021

कुलदेवी और देवताओं के बारे में चौंकाने वाली जानकारी...

भारत में कई समाज या जाति के कुलदेवी और देवता होते हैं। इसके अलावा पितृदेव भी होते हैं। भारतीय लोग हजारों वर्षों से अपने कुलदेवी और देवता की पूजा करते आ रहे हैं। कुलदेवी और देवता को पूजने के पीछे एक गहरा रहस्य है, जो बहुत कम लोग जानते होंगे। आओ जानते हैं कि सभी के कुलदेवी-देवता अलग क्यों होते हैं और उन्हें क्यों पूजना जरूरी होता है..?
 
जन्म, विवाह आदि मांगलिक कार्यों में कुलदेवी या देवताओं के स्थान पर जाकर उनकी पूजा की जाती है या उनके नाम से स्तुति की जाती है। इसके अलावा एक ऐसा भी दिन होता है जबकि संबंधित कुल के लोग अपने देवी और देवता के स्थान पर इकट्ठा होते हैं। जिन लोगों को अपने कुलदेवी और देवता के बारे में नहीं मालूम है या जो भूल गए हैं, वे अपने कुल की शाखा और जड़ों से कट गए हैं।

सवाल यह है कि कुल देवता और कुलदेवी सभी के अलग-अलग क्यों होते हैं..? इसका उत्तर यह है कि कुल अलग है, तो स्वाभाविक है कि कुलदेवी-देवता भी-अलग अलग ही होंगे।

  दरअसल, हजारों वर्षों से अपने कुल को संगठित करने और उसके इतिहास को संरक्षित करने के लिए ही कुलदेवी और देवताओं को एक निश्‍चित स्थान पर नियुक्त किया जाता था। वह स्थान उस वंश या कुल के लोगों का मूल स्थान होता था।

मान लो कोई व्यक्ति गुजरात में रहता है लेकिन उसके कुलदेवी और देवता राजस्थान के किसी स्थान पर हैं। यदि उस व्यक्ति को यह मालूम है कि मेरे कुलदेवी और देवता उक्त स्थान पर हैं, तो वह वहां जाकर अपने कुल के लोगों से मिल सकता है। वहां हजारों लोग किसी खास दिन इकट्ठा होते हैं। इसका मतलब है कि वे हजारों लोग आप ही के कुल के हैं। हालांकि कुछ स्‍थान इतने प्रसिद्ध हो गए हैं कि वहां दूसरे कुल के लोग भी दर्शन करने आते हैं।

उदाहरणार्थ आपके परदादा के परदादा ने किसी दौर में कहीं से किसी भी कारणवश पलायन करके जब किसी दूसरी जगह रैन-बसेरा बसाया होगा तो निश्चित ही उन्होंने वहां पर एक छोटा-सा मंदिर बनाया होगा, जहां पर आपके कुलदेवी और देवता की मूर्तियां रखी होंगी। सभी उस मंदिर से जुड़े रहकर यह जानते थे कि हमारे कुल का मूल क्या है..?
 
यह उस दौर की बात है, जब लोगों को आक्रांताओं से बचने के लिए एक शहर से दूसरे शहर या एक राज्य से दूसरे राज्य में पलायन करना होता था। ऐसे में वे अपने साथ अपने कुल और जाति के लोगों को संगठित और बचाएं रखने के लिए वे एक जगह ऐसा मंदिर बनाते थे, जहां पर कि उनके कुल के बिखरे हुए लोग इकट्टा हो सकें।
 
पहले यह होता था कि मंदिर से जुड़े व्यक्ति के पास एक बड़ी-सी पोथी होती थी जिसमें वह उन लोगों के नाम, पते और गोत्र दर्ज करता था, जो आकर दर्ज करवाते थे। इस तरह एक ही कुल के लोगों का एक डाटा तैयार हो जाता था। यह कार्य वैसा ही था, जैसा कि गंगा किनारे बैठा तीर्थ पुरोहित या पंडे आपके कुल और गोत्र का नाम दर्ज करते हैं। आपको अपने परदादा के परदादा का नाम नहीं मालूम होगा लेकिन उन तीर्थ पुरोहित के पास आपके पूर्वजों के नाम लिखे होते हैं।
 
इसी तरह कुलदेवी और देवता आपको आपके पूर्वजों से ही नहीं जोड़ते बल्कि वह वर्तमान में जिंदा आपके कुल खानदान के हजारों अनजान लोगों से भी मिलने का जरिया भी बनते हैं। इसीलिए कुलदेवी और कुल देवता को पूजने का महत्व है। इससे आप अपने वंशवृक्ष से जुड़े रहते हैं और यदि यह सत्य है कि आत्मा होती है और पूर्वज होते हैं, तो वे भी आपको कहीं से देख रहे होते हैं। उन्हें यह देखकर अच्‍छा लगता है और वे आपको ढेर सारे आशीर्वाद देते हैं।
 
अब फिर से समझें कि प्रत्येक हिन्दू परिवार किसी न किसी देवी, देवता या ऋषि के वंश से संबंधित है। उसके गोत्र से यह पता चलता है कि वह किस वंश से संबधित है। मान लीजिए किसी व्यक्ति का गोत्र भारद्वाज है तो वह भारद्वाज ऋषि की संतान है। कालांतर में भारद्वाज के कुल में ही आगे चलकर कोई व्यक्ति हुआ और उसने अपने नाम से कुल चलाया, तो उस कुल को उस नाम से लोग जानने लगे। इस तरह हमें भारद्वाज गोत्र के लोग सभी जाति और समाज में मिल जाएंगे।
 
हर जाति वर्ग, किसी न किसी ऋषि की संतान है और उन मूल ऋषि से उत्पन्न संतान के लिए वे ऋषि या ऋषि पत्नी कुलदेव व कुलदेवी के रूप में पूज्य हैं। इसके अलावा किसी कुल के पूर्वजों के खानदान के वरिष्ठों ने अपने लिए उपयुक्त कुल देवता अथवा कुलदेवी का चुनाव कर उन्हें पूजित करना शुरू किया और उसके लिए एक निश्चित जगह एक मंदिर बनवाया ताकि एक आध्यात्मिक और पारलौकिक शक्ति से उनका कुल जुड़ा रहे और वहां से उसकी रक्षा होती रहें।
 
कुलदेवी या देवता कुल या वंश के रक्षक देवी-देवता होते हैं। ये घर-परिवार या वंश-परंपरा के प्रथम पूज्य तथा मूल अधिकारी देव होते हैं। इनकी गणना हमारे घर के बुजुर्ग सदस्यों जैसी होती है। अत: प्रत्येक कार्य में इन्हें याद करना जरूरी होता है। इनका प्रभाव इतना महत्वपूर्ण होता है कि यदि ये रुष्ट हो जाएं तो हनुमानजी के अलावा अन्य कोई देवी या देवता इनके दुष्प्रभाव या हानि को कम नहीं कर सकता या रोक नहीं लगा सकता..! इसे यूं समझें कि यदि घर का मुखिया पिताजी या माताजी आपसे नाराज हो तो पड़ोस के या बाहर का कोई भी आपके भले के लिए आपके घर में प्रवेश नहीं कर सकता..! क्योंकि वे 'बाहरी' होते हैं। गीता में इस संबंध में विस्तार से उल्लेख मिलता है कि कुल का नाश कैसा होता हैं..?
 
ऐसे अनेक परिवार हैं जिन्हें अपने कुलदेवी या देवता के बारे में कुछ भी नहीं मालूम है। ऐसा इसलिए कि उन्होंने कुलदेवी या देवताओं के स्थान पर जाना ही नहीं छोड़ा बल्कि उनकी पूजा भी बंद कर दी है। लेकिन उनके पूर्वज और उनके देवता उन्हें बराबर देख रहे होते हैं। यदि किसी को अपने कुलदेवी और देवताओं के बारे में नहीं मालूम है, तो उन्हें अपने बड़े-बुजुर्गों, रिश्तेदारों या पंडितों से पूछकर इसकी जानकारी लेना चाहिए। यह जानने की कोशिश करना चाहिए कि झडूला, मुंडन संस्कार आपके गोत्र परंपरानुसार कहां होता है या 'जात' कहां दी जाती है। यह भी कि विवाह के बाद एक अंतिम फेरा (5, 6, 7वां) कहां होता है..?
 
कहते हैं कि कालांतर में परिवारों के एक स्थान से दूसरे स्थानों पर स्थानांतरित होने, धर्म परिवर्तन करने, आक्रांताओं के भय से विस्थापित होने, जानकार व्यक्ति के असमय मृत होने, संस्कारों का क्षय होने, विजातीयता पनपने, पाश्चात्य मानसिकता के पनपने और नए विचारों के संतों की संगत के ज्ञानभ्रम में उलझकर लोग अपने कुल खानदान के कुलदेवी और देवताओं को भूलकर अपने वंश का इतिहास भी भूल गए हैं। खासकर यह प्रवृत्ति शहरों में देखने को ज्यादा मिलती है।
 
ऐसा भी देखने में आया है कि कुल देवी-देवता की पूजा छोड़ने के बाद कुछ वर्षों तक तो कोई खास परिवर्तन नहीं होता, लेकिन जब देवताओं का सुरक्षा चक्र हटता है तो परिवार में घटनाओं और दुर्घटनाओं का दौर शुरू हो जाता है, उन्नति रुकने लगती है, गृहकलह, उपद्रव व अशांति आदि शुरू हो जाती हैं। आगे वंश नहीं चल पाता..! पिताद्रोही होकर व्यक्ति अपने वंश को नष्ट कर लेता हैं।

बुधवार, 6 अक्तूबर 2021

अमावस्या

कर दिया आज पित्तरों को विदा...
पर कहां होते हैं, दिल से जुदा..!

हमारी चाल-ढाल, भाषा, हाव-भाव में...
संग चलते हैं, जीवन की राह में...
नहीं देख छू सकते हैं उनको...
पर कहां भूल सकते हैं उनको..!
जीवन उनकी यादों से है लदा...
कहां होते हैं दिल से जुदा..!

जीवन के मीठे फीके रंग में...
महसूस करते हैं उनको संग में...
आती है जब मुश्किल की घड़ी...
राह दिखाती है उनकी छड़ी...
तरसता है मन मिलने को सदा...
कहां होते हैं दिल से जुदा..!

लाल-पीली मोली में, तिलक की रोली में...
मन्त्र की बोली में, गोत्र की टोली में...
पूजा की थाली में, कलश-कुशा निराली में...
हंसी की ताली में, रात शगुनों वाली में...
ख्यालों में दिख जाते हैं यदाकदा...
कहां होते हैं दिल से जुदा..!

आ जाते हैं आंखों में, जब बजते हैं बाजे...
ढ़ूंढ़ते हैं उनको, देहरी-दरवाजे...
उनका ही अंश हैं, उनका ही वंश हैं।
जीवन का यही सारांश हैं।
यही तो हैं हमारे संस्कार...
कहां होते हैं दिल से जुदा..!


🙏🏻 जय श्री राम ⛳

सोमवार, 4 अक्तूबर 2021

'कुतुब मीनार' नहीं, "ध्रुव स्तंभ"

सदियों के उत्पीड़न और ब्रेनवॉश के कारण, हिंदू न केवल उन पर फेंके गए हर "धर्मनिरपेक्ष" प्रचार के सामने आत्मसमर्पण कर रहे हैं बल्कि अपने स्वयं के सांस्कृतिक अधिकारों को भी छोड़ रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप अन्य धर्मों द्वारा बड़े पैमाने पर सांस्कृतिक विनियोग किया गया है। 
सांस्कृतिक विनियोग का एक ऐसा उदाहरण जहां एक हिंदू स्मारक को इस्लामिक आक्रमणकारियों द्वारा हड़प लिया गया है, वह स्मारक को आज "कुतुब मीनार" कहा जाता है।

अगर हम अपने दिमाग की धुलाई और भावनाओं को एक तरफ रख दें और तार्किक रूप से संरचना का विश्लेषण करना शुरू करें... तो हमें हिंदू धर्म के पक्ष में बहुत सारे सबूत मिलते हैं जिन्हें केवल संयोग के रूप में खारिज नहीं किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, संरचना का शीर्ष दृश्य खुद को 24 किनारों के साथ प्राकृतिक रूप से सममित कमल की पंखुड़ी के आकार के रूप में दर्शाता है, जो दिन के 24 घंटे दर्शाता है।  संरचना के भीतर कुल कदम 360+ हैं, जो एक वर्ष में दिनों की संख्या को दर्शाता है। जमीनी स्तर पर, 12 डायल हैं, जो 12 राशियों को दर्शाते हैं।

और सबसे दिलचस्प बात यह है कि यह 27 प्राचीन मंदिरों (जो अब खंडहर में हैं) से घिरे एक परिसर के भीतर स्थित है, जो 27 नक्षत्रों को दर्शाता है। इसके अलावा, बाहरी और साथ ही अंदरूनी समृद्ध नक्काशी से भरे हुए हैं जो दुनिया के किसी भी हिस्से में किसी भी मीनार में कभी नहीं पाए जा सकते हैं, क्योंकि इस तरह की नक्काशी इस्लाम के लोकाचार के खिलाफ है, जिससे इस बात को और मजबूती मिलती है कि यह एक मीनार तो बिल्कुल नहीं था लेकिन एक हिंदू स्मारक  अवश्य था, जो आक्रमणकारियों से बहुत पहले मौजूद था।

इसलिए, एकमात्र तार्किक निष्कर्ष यह है कि स्मारक मूल रूप से एक खगोलीय वेधशाला टॉवर था अर्थात "ध्रुव स्तम्भ" जो प्राचीन भारतीय सभ्यता से जुड़ा था और मध्ययुगीन काल के दौरान, यह इस्लामिक आक्रमणकारियों की क्रूरता का शिकार हो गया जिन्होंने बस नाम बदल दिया।  संभवत: यह उचित समय है, जब हम गहन जांच (कार्बन डेटिंग सहित) कर सकते हैं, ताकि हम हिंदू अंततः वह प्राप्त कर सकें जो हमारा हैं।⛳

शनिवार, 2 अक्तूबर 2021

क्या #शास्त्री_जी की #हत्या का रहस्य छुपाने के लिए दो और हत्याएं की गईं थी..?

1977 में केंद्र की सत्ता से कांग्रेसी वर्चस्व के सफाए के बाद प्रचण्ड बहुमत से बनी जनता पार्टी की सरकार ने पूर्व प्रधानमंत्री स्व. लाल बहादुर शास्त्री की सन्देहास्पद परिस्थितियों में हुई मृत्यु की जांच के लिये रामनारायण कमेटी का गठन किया था।
इस कमेटी ने शास्त्री जी की मृत्यु से सम्बन्धित दो प्रत्यक्षदर्शी गवाहों को गवाही देने के लिए बुलाया था। पहले गवाह थे, उस समय ताशकंद में शास्त्री जी के साथ रहे उनके निजी चिकित्सक आरएन चुघ, जिन्हें बहुत देर बाद शास्त्री जी के कमरे में बुलाया गया था और जिनके सामने शास्त्री जी ने "राम" नाम जपते हुए अपने प्राण त्यागे थे। दूसरे गवाह थे उनके निजी बावर्ची रामनाथ, जो उस पूरे दौरे के दौरान शास्त्री जी के लिये भोजन बनाते थे लेकिन शास्त्री जी की मृत्यु वाले दिन रूस में भारत के राजदूत टीएन कौल ने उनके बजाय अपने खास बावर्ची जान मोहम्मद से शास्त्री जी का भोजन बनवाया था। यहां यह उल्लेख बहुत जरूरी है कि ये टीएन कौल कश्मीरी पंडित था और नेहरू परिवार से उसकी खानदानी निकटता इतनी प्रगाढ़ थी कि 1959 में लाल बहादुर शास्त्री जी के प्रचण्ड विरोध के बावजूद नेहरू ने जब इंदिरा गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनवाया था, तब इंदिरा गांधी का सलाहकार (Advisor) इसी टीएन कौल को ही बनाया था।
यह है उस सनसनीखेज रहस्यमय पहेली की संक्षिप्त पृष्ठभूमि जो आजतक नहीं सुलझी..! वो पहेली यह है कि जनता सरकार द्वारा गठित कमेटी ने गवाही के लिए जिन डॉक्टर आरएन चुघ को बुलाया था, वो कमेटी के सामने गवाही देने के लिए अपनी कार से जब दिल्ली आ रहे थे तो रास्ते में एक ट्रक ने उनकी कार को इतनी बुरी तरह रौंद दिया था कि कार में सवार डॉक्टर चुघ उनकी पत्नी, पुत्री समेत सभी की मौत हो गयी थी। दूसरे गवाह रामनाथ जब दिल्ली आए और जांच कमेटी के सामने गवाही देने जा रहे थे तो एक तेज रफ्तार कार ने उनको सड़क पर बुरी तरह रौंद दिया था। संयोग से रामनाथ की तत्काल मौत नहीं हुई थी लेकिन उनकी दोनों टांगे बेकार हो गईं थीं और सिर पर लगी गम्भीर चोटों के कारण उनकी स्मृति पूरी तरह खत्म हो गयी थी। उस दुर्घटना के कारण लगी गम्भीर चोटों के कारण कुछ समय पश्चात उनकी भी मौत हो गयी थी। उल्लेखनीय है कि स्व. शास्त्री जी की पत्नी ललिता शास्त्री जी ने उस समय बताया था कि कमेटी के सामने गवाही देने जाने से पहले उस दिन रामनाथ उनसे मिलने आए थे और यह कहकर गए थे कि... "बहुत दिन का बोझ था अम्मा, आज सब बता देंगें।"
शास्त्री जी की मृत्यु की जांच कर रही कमेटी के सामने गवाही देने जा रहें दोनों प्रत्यक्षदर्शी गवाहों की ऐसी मौत क्या केवल संयोग हो सकती है..?
अतः उपरोक्त घटनाक्रम आज 43साल बाद भी एक पहेली की तरह यह सवाल पूछ रहा है कि क्या शास्त्री जी हत्या का रहस्य छुपाने के लिए दो और हत्याएं की गईं थी..?
पता नहीं यह पहेली कब सुलझेगी, सुलझेगी भी या नहीं..!
लेकिन हर वर्ष स्व. लाल बहादुर शास्त्री जी की जयंती पर यह पहेली आने वाली पीढ़ियों को सदियों तक झकझोरती रहेगी...
मात्र डेढ़ वर्ष के अपने कार्यकाल में "जय जवान जय किसान" के अपने अमर नारे के साथ देश को खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने की अपनी ऐतिहासिक उपलब्धि वाले स्व. शास्त्री जी कितनी दृढ़ इच्छाशक्ति वाले व्यक्ति थे। यह इसी से समझा जा सकता है कि अंतरराष्ट्रीय नियमों, दबावों, तनावों को ताक पर रखकर देशहित में उनके द्वारा लिए एक साहसिक निर्णय ने ही 1965 के भारत-पाक युद्ध का रुख पूरी तरह से भारत के पक्ष में कर दिया था।
ऐसी दृढ़ इच्छाशक्ति वाले जननायक के लिए देश में दशकों तक एक सुनियोजित अफवाह फैलाई गई कि ताशकंद में समझौता करने का दबाव नहीं सह सकने के कारण शास्त्री जी को हार्टअटैक पड़ गया था जिसके कारण उनकी मृत्यु हो गयी थी।
सच क्या हैं, इसका फैसला एक दिन जरूर होगा... और दुनिया के सामने सच जरूर आएगा। इसी आशा एवं अपेक्षा के साथ मां भारती के महान सपूत लाल बहादुर शास्त्री जी को उनकी जयंती पर कोटि कोटि नमन... विनम्र श्रद्धांजलि...💐🙏🏻🇮🇳

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2021

70 प्रकार की बीमारियों को ठीक कर देता है #चूना

चूना जो पान में लगा के खाया जाता है, उसकी एक डिब्बी ला कर घर में रखें... यह सत्तर प्रकार की बीमारियों को ठीक कर देता हैं। 

गेहूँ के दाने के बराबर चूना गन्ने के रस में मिलाकर पिलाने से बहुत जल्दी पीलिया ठीक हो जाता हैं।

चूना नपुंसकता की सबसे अच्छी दवा हैं - अगर किसी के शुक्राणु नहीं बनता, उसको अगर गन्ने के रस के साथ चूना पिलाया जाये तो साल डेढ़ साल में भरपूर शुक्राणु बनने लगेंगे।
जिन माताओं के शरीर में अन्डे नहीं बनते, उन्हें भी इस चूने का सेवन करना चाहिए। 

शुगर रोज़ सुबह ख़ाली पेट एक गिलास पानी में एक छोटे चने के बराबर चुना मिलकर पीने से शुगर जड़ से ख़त्म हो जाती हैं। (समय समय पर जाँच करवाते रहें... वरना शुगर का लेवल माइनस भी हो सकता हैं।)

विद्यार्थीओं के लिए चूना बहुत अच्छा है जो लम्बाई बढ़ता है - गेहूँ के दाने के बराबर चूना रोज दही में मिला के खाना चाहिए... दही नहीं हैं तो दाल में मिला के या पानी में मिला के लिया जा सकता हैं। इससे लम्बाई बढ़ने के साथ-साथ स्मरण शक्ति भी बहुत अच्छी होती है। 

जिन बच्चों की बुद्धि कम है, ऐसे मतिमंद बच्चों के लिए सबसे अच्छी दवा है चूना जो बच्चे बुद्धि से कम है, दिमाग देर में काम करता है, देर में सोचते है... हर चीज उनकी स्लो हैं, उन सभी बच्चे को चूना खिलाने से अच्छे हो जायेंगे। 

बहनों को अपने मासिक धर्म के समय अगर कुछ भी तकलीफ होती हो तो उसका सबसे अच्छी दवा है चूना
मेनोपौज़ की सभी समस्याओं के लिए गेहूँ के दाने के बराबर चूना हर दिन खाना दाल में, लस्सी में... नहीं तो पानी में घोल के पीना चाहिए। इससे ओस्टीओपोरोसिस होने की संभावना भी नहीं रहती..!

जब कोई माँ गर्भावस्था में है तो चूना रोज खाना चाहिए, क्योंकि गर्भवती माँ को सबसे ज्यादा केल्शियम की जरुरत होती है और चूना केल्शियम का सबसे बड़ा भंडार है। गर्भवती माँ को चूना खिलाना चाहिए, अनार के रस में... अनार का रस एक कप और चूना गेहूँ के दाने के बराबर चूना मिलाके रोज पिलाइए... नौ महीने तक लगातार दीजिये तो चार फायदे होंगे - पहला फायदा होगा के माँ को बच्चे के जन्म के समय कोई तकलीफ नहीं होगी और नॉर्मल डीलिवरी होगी। दूसरा बच्चा जो पैदा होगा वो बहुत हृष्ट-पुष्ट और तंदुरुस्त होगा। तीसरा फ़ायदा वो बच्चा जिन्दगी में जल्दी बीमार नहीं पड़ता जिसकी माँ ने चूना खाया और चौथा सबसे बड़ा लाभ हैं, वो बच्चा बहुत होशियार होता है। बहुत Intelligent और Brilliant होता है। उसका IQ बहुत अच्छा होता हैं। 

चूना घुटने का दर्द ठीक करता है, कमर का दर्द ठीक करता है, कंधे का दर्द ठीक करता है, एक खतरनाक बीमारी है Spondylitis वो चुने से ठीक होता है। कई बार हमारे रीढ़ की हड्डी में जो मनके होते हैं, उसमें दूरी बढ़ जाती है(Gap आ जाता है) जिसे ये चूना ही ठीक करता है। रीढ़ की हड्डी की सब बीमारिया चूने से ठीक होती है। 

अगर हड्डी टूट जाये तो टूटी हुई हड्डी को जोड़ने की ताकत सबसे ज्यादा चूने में है। इसके लिए चूने का सेवन सुबह खाली पेट करें। 

अगर मुंह में ठंडा-गरम पानी लगता है तो चूना खाने से बिलकुल ठीक हो जाता है, मुंह में अगर छाले हो गए है तो चूने का पानी पिने से तुरन्त ठीक हो जाता है। 

शरीर में जब खून कम हो जाये तो चूना जरुर लेना चाहिए। एनीमिया है, खून की कमी है उसकी सबसे अच्छी दवा हैं ये चूना गन्ने के रस में या संतरे के रस में... नहीं तो सबसे अच्छा हैं, अनार के रस में डाल कर चूना लें। अनार के रस में चूना पिने से खून बहुत बढ़त है... बहुत जल्दी खून बनता है - एक कप अनार का रस गेहूँ के दाने के बराबर चूना सुबह खाली पेट लें। 

भारत के जो लोग चूने से पान खाते है, बहुत होशियार है और वे महर्षि वाग्भट के अनुयायी है, पर पान बिना तम्बाखू, सुपारी और कत्थे के लें... तम्बाखू ज़हर है और चूना अमृत है। कत्था केंसर करता है, पान में सौंठ, इलायची, लौंग, केसर, सौंफ, गुलकंद, चूना, कसा हुआ नारियल आदि डाल के खाएं। 
अगर घुटने में घिसाव आ गया हो और डॉक्टर कहे के घुटना बदल दो तो भी जरुरत नहीं चूना खाते रहिये और हरसिंगार (पारिजातक या प्राजक्ता) के पत्ते का काढ़ा पीजिये... घुटने बहुत अच्छे काम करेंगे। 

चूना खाइए पर चूना लगाइए मत..!
ये चूना लगाने के लिए नहीं हैं, खाने के लिए हैं।