शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2021

हवा के होते हैं सात प्रकार, जानिए उनका रहस्य...

मैं सुंदरकांड पढ़ते हुए 25वें दोहे पर थोड़ा रुक गया। तुलसीदास जी ने सुन्दरकांड में... जब हनुमानजी ने लंका में आग लगाई थी, उस प्रसंग पर लिखा है -

हरि प्रेरित तेहि अवसर, चले मरुत उनचास।
अट्टहास करि गर्जा कपि, बढ़ि लाग अकास।।25।।

अर्थात : 
जब हनुमानजी ने लंका में आग लगाई तो भगवान की प्रेरणा से उन्चासों पवन चलने लगी। हनुमान जी अट्टहास करके गर्जे 
और आकार बढ़ाकर आकाश से जा लगे।

मैंने सोचा कि, इन उन्चास मरुत का क्या अर्थ है ? 🤔
यह तुलसीदास जी ने भी नहीं लिखा..!🧐
फिर मैंने सुंदरकांड पूरा करने के बाद समय निकालकर 49 प्रकार की वायु के बारे में जानकारी खोजी...🕵️‍♂️
और अध्ययन करने पर सनातन धर्म पर अत्यंत गर्व हुआ।😇
तुलसीदासजी के वायु ज्ञान पर सुखद आश्चर्य हुआ, जिससे शायद आधुनिक मौसम विज्ञान भी अनभिज्ञ हैं।
        
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि वेदों में वायु की 7 शाखाओं के बारे में विस्तार से वर्णन मिलता है। 
अधिकतर लोग यही समझते हैं कि वायु तो एक ही प्रकार की होती है लेकिन उसका रूप बदलता रहता है... जैसे कि ठंडी वायु, गर्म वायु और समान वायु लेकिन ऐसा नहीं है..!

दरअसल, 
जल के भीतर जो वायु है, उसका वेद-पुराणों में अलग नाम दिया गया है और आकाश में स्थित जो वायु है, उसका नाम अलग है। अंतरिक्ष में जो वायु है, उसका नाम अलग और 
पाताल में स्थित वायु का नाम अलग है। 
नाम अलग होने का मतलब यह कि उसका गुण और व्यवहार भी अलग ही होता है। 

इस तरह वेदों में 7 प्रकार की वायु का वर्णन मिलता है।
ये 7 प्रकार हैं- 

1.प्रवह, 2.आवह, 3.उद्वह, 4.संवह, 
5.विवह, 6.परिवह और 7.परावह
 
1.प्रवह : पृथ्वी को लांघकर मेघमंडलपर्यंत जो वायु स्थित है, उसका नाम प्रवह है। इस प्रवह के भी प्रकार हैं। यह वायु अत्यंत शक्तिमान है और वही बादलों को इधर-उधर उड़ाकर ले जाती है। धूप तथा गर्मी से उत्पन्न होने वाले मेघों को यह प्रवह वायु ही समुद्र जल से परिपूर्ण करती है, जिससे ये मेघ काली घटा के रूप में परिणत हो जाते हैं और अतिशय वर्षा करने वाले होते हैं। 
 
2. आवह : आवह सूर्यमंडल में बंधी हुई है। उसी के द्वारा ध्रुव से आबद्ध होकर सूर्यमंडल घुमाया जाता है।
 
3. उद्वह : वायु की तीसरी शाखा का नाम उद्वह है, 
जो चन्द्रलोक में प्रतिष्ठित है। इसी के द्वारा ध्रुव से संबद्ध होकर यह चन्द्र मंडल घुमाया जाता है। 
 
4. संवह : वायु की चौथी शाखा का नाम संवह है, 
जो नक्षत्र मंडल में स्थित है। उसी से ध्रुव से आबद्ध होकर 
संपूर्ण नक्षत्र मंडल घूमता रहता है।
 
5. विवह : पांचवीं शाखा का नाम विवह है और यह ग्रह मंडल में स्थित है। उसके ही द्वारा यह ग्रह चक्र ध्रुव से संबद्ध होकर घूमता रहता है। 
 
6. परिवह : वायु की छठी शाखा का नाम परिवह है, 
जो सप्तर्षिमंडल में स्थित है। इसी के द्वारा ध्रुव से संबद्ध हो 
सप्तर्षि आकाश में भ्रमण करते हैं।
 
7. परावह : वायु के सातवें स्कंध का नाम परावह है, 
जो ध्रुव में आबद्ध है। इसी के द्वारा ध्रुव चक्र तथा 
अन्यान्य मंडल एक स्थान पर स्थापित रहते हैं।
 
इन सातों वायु के सात-सात गण हैं, जो निम्न जगह में विचरण करते हैं...

ब्रह्मलोक, इंद्रलोक, अंतरिक्ष, भूलोक की पूर्व दिशा, 
भूलोक की पश्चिम दिशा, भूलोक की उत्तर दिशा और 
भूलोक कि दक्षिण दिशा...

इस तरह  7 x 7 = 49 
कुल 49 मरुत हो जाते हैं जो देव रूप में विचरण करते रहते हैं।
  
है ना अद्भुत ज्ञान

हम अक्सर रामायण, भगवद् गीता पढ़ तो लेते हैं परंतु उनमें लिखी छोटी-छोटी बातों का गहन अध्ययन करने पर अनेक गूढ़ एवं ज्ञानवर्धक बातें ज्ञात होती हैं ।
साभार - राम कुमार अग्रवाल।

रविवार, 24 अक्तूबर 2021

करवा चौथ पर नारी की महिमा

नारी अति महान जगत में नारी अति महान...
जिसका घर-घर में सम्मान...
धर्म-कर्म शृंगार है इसके, सत्य-अहिंसा इसके प्राण,
जिसका घर-घर में सम्मान...


नारी का सत्कार यहां पे, पहले आये इसी का नाम,
सब कहते है सीता-राम, सब कहते है राधे श्याम,
लक्ष्मी-नारायण कहते सब, देवों से पाया वरदान...
जिसका घर-घर में सम्मान...

हर युग में भारत की नारी, पति की रक्षा करती आई।
कष्ट सह जीवन भर पत्नी, पति की सेवा करती आई।
कई बार तो पति की खातिर दे दें अपनी जान...
जिसका घर-घर में सम्मान...

आओ आज सुनाये तुम्हको #करवा_चौथ के व्रत की महिमा,
करवा चौथ की कथा बताती 'भारत की नारी' की महिमा...
इसी कथा और व्रत के कारण बढ़ा है नारी का सम्मान...
जिसका घर-घर में सम्मान...

भारत की नारी सब से प्यारी, इसको माने दुनिया सारी,
तन-मन दोनों से ही सूंदर, पति की सेवा धर्म है जिसका,
घर को माने है ये मंदिर, सास-ससुर को माने भगवान...
डोली बैठ पति संग आये, सारा जीवन धर्म निभाए...
अंत काल यही इच्छा इसकी, पति के कंधो पर ही जाएं,
ऐसे अपना धर्म निभाएं, पति के कंधो पर ही जाएं...🙏🏻⛳

शनिवार, 16 अक्तूबर 2021

शस्त्र की महिमा

शस्त्र निष्क्रिय होते हुए भी सक्रिय होता है, मतलब अगर वो कहीं किसी आलमारी में पड़ा-पड़ा जंग खा रहा हो तो भी अपना काम करता रहता हैं... उसकी मौजूदगी ही शत्रुओं के बुरे और कुत्सित विचारों को नष्ट करने के लिए काफी होती हैं।

दुनिया में अशांति इसलिए है क्योंकि सज्जनों ने शस्त्रों का त्याग कर दिया है और दुर्जन सदैव की तरह शस्त्रों से लैस हैं, यही वजह है कि दुर्जन हावी हैं और धरती पर अनाचार फैलता जा रहा हैं।

दुनिया को दो हिस्सों में बांटा जा सकता हैं, एक जिनके पास शस्त्र होता है और दूसरा जिनके पास शस्त्र नहीं होता है। जिनके पास शस्त्र होता है, वो सदैव निडर और वीर बने रहते हैं और जिनके पास शस्त्र नहीं होते है, वो सदैव भयभीत होते हैं और कायर पुरुष बने रहते हैं।

जिस घर में अस्त्र-शस्त्र होते हैं, उस घर की स्त्रियों पर कभी किसी की कुदृष्टि डालने की हिम्मत भी नहीं होती है और जिनके घर में अस्त्र-शस्त्र नहीं होते हैं, उनकी स्त्रियों के साथ राह चलते छेड़खानी होती है... लव जिहाद जैसी घटनाएं होती हैं और वो सदैव थाने के चक्कर ही लगाते रह जाते हैं, उन्हें बदनामी के सिवाय कभी कुछ हासिल नहीं होता..!

"सत्यमेव जयते" यानी सत्य की ही विजय होती है, इस तरह की सूक्तियों के भरोसे बैठने से कोई फायदा नहीं है..! सत्य तो हिंदुओं के साथ ही है फिर उनका पलायन क्यों हो रहा हैं..? सत्य तो युद्धिष्ठिर के साथ था लेकिन फिर भी वन-वन भटकते रहें... जब युद्धिष्ठिर ने शस्त्र उठाया तभी सत्यमेव जयते हुआ। इसीलिए अब कहावतें बदल गई हैं... ये कलियुग है और कलियुग में सदैव शस्त्र मेव जयते होता है यानी जिसके पास शस्त्र होगा, उसी की विजय होगी। इसलिए शस्त्र की खरीद करो... अपने पास सदैव शस्त्र रखो।

ज्योतिष के हिसाब से भी ध्यान दें... 
शस्त्र का मतलब है मंगल ग्रह अगर आपके पास शस्त्र है तो आपका मंगल मजबूत है और अगर आपका मंगल मजबूत है तो आप शत्रुओं पर सदैव विजय प्राप्त करते रहेंगे... इसलिए अपनी भुजाओं को शस्त्रों से मजबूत करें।

एक बार अपने हाथ में शस्त्र लेकर देखो... तब आपको ये महसूस होगा कि देशद्रोही शत्रु चींटियों के समान हैं। शस्त्र का होना ही आत्मविश्वास वर्धक महान मानसिक औषधि हैं, इसका नित्य सेवन करते रहो।

राष्ट्र के शत्रुओं की संख्या गिनकर चिंता में मत पड़ो... चिंता सदैव इस बात की करो कि तुम्हारे पास कितने अस्त्र-शस्त्र है..! सदैव सुनिश्चित करो कि तुम्हारे अस्त्र-शस्त्रों की संख्या, तुम्हारे शत्रुओं की संख्या से ज्यादा हो।
 
जैसा को तैसा जवाब देना सीखो... शिकायत मत करो..! शिकायत लेकर किसके पास जा रहे हो..? ये संविधान, कानून, प्रशासन और व्यवस्था सिर्फ उनके लिए है, जो शक्तिशाली हैं। कायर लोगों का साथ तो भगवान भी नहीं देते..! कायर लोग सिर्फ शिकायत करते रह जाते हैं। इतने दिनों में आपको ये अवश्य महसूस हुआ होगा कि प्रशासन भी सदैव अत्याचार करने वाले शक्तिशालियों का साथ ही देता है।

अपनी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी खुद लो। कोई सेना, कोई सरकार तुमको बचाने नहीं आएगी..! जब तुम पर संकट आएगा तो उस वक्त तुम और सिर्फ तुमको ही उसका सामना करना होगा। तुम्हारे सिवाय कोई तुम्हारी प्राण रक्षा नहीं कर सकता..!

इसीलिए नियमानुसार शस्त्रों का संचय करो... सदैव पराक्रमी बनो... सज्जन बनो लेकिन कायर नहीं... शस्त्र धारण करके सज्जन बनो, तभी तुम्हारी सज्जनता सुशोभित होगी। 

इस सूक्ति का नित्य पठन करते रहें “कोई सिंह को, वन के राजा के रूप में अभिषेक या संस्कार नहीं करता है..! अपने पराक्रम के बल पर सिंह स्वयं जंगल का राजा बन जाता है।”
  
✊🏻 जय हिंदुत्व ⛳ जय श्री राम 🏹

गुरुवार, 14 अक्तूबर 2021

लाला हरदयाल एक संन्यासी क्रांतिकारी🙏🏻🇮🇳⛳

🔸#लाला_हरदयाल ऐसे ‘संन्यासी क्रांतिकारी’ थे, जो जिंदगीभर अंग्रेजों की आंख का कांटा रहें।🔸
   
◆ लाला हरदयाल जी सिविल सर्विस की नौकरी ठुकराकर, सारे ऐशो आराम छोड़कर देश को आजाद कराने के अभियान में शामिल हो गए थे। आज उनकी जन्म जयंती है, आम के बारे में जानते हैं...

◆ मार्टिनिक नाम था उस टापू का, उसी के समुद्र तट की किसी गुफा में डेरा जमाए हुए था वो संन्यासी, जो कभी सिविल सर्विस की नौकरी ठुकराकर आया था और जिसे दुनियाभर में मशहूर ऑक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी (University of Oxford) में पढ़ने के लिए दो स्कॉलरशिप मिली थीं और वो जिंदगी के सारे ऐशो आराम छोड़कर, यहां दुनिया के दूसरे कोने में एक गुफा में साधना करने मे मग्न था और लक्ष्य था बस एक अपना राज #स्वराज 

◆ इतिहास में चंद चेहरों का ही जिक्र :
कभी क्रांतिकारियों की सूची में आपने लाला हरदयाल का नाम शायद ही पढ़ा हो..! ये भी बड़ी बिडंबना रही है कि हमारे देश के क्रांतिकारियों का इतिहास भी भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद जैसे गिनती के चेहरों के इर्द-गिर्द सिमट कर रह गया। ऐसे में जो लोग सम्पन्न परिवारों से थे या किसी स्कॉलरशिप पर विदेश में उच्च शिक्षा के लिए गए और वहीं से देश की आजादी के लिए क्रांति की मशाल जलाई, वहीं विदेशी धरती पर सालों तक अलख जगाए रखने वाले, अंग्रेजी सरकार के कुकृत्यों को दुनियाभर के देशों के सामने एक्सपोज करने वाले और विदेशों से धन, हथियार, राजनीतिक समर्थन ही नहीं सशस्त्र क्रांतिकारियों तक को भेजने वाले लोगों को तो देश में गिनती के लोग ही जानते हैं।

◆ राजा महेन्द्र प्रताप, मदन लाल धींगरा, ऊधम सिंह, करतार सिंह सराभा, रास बिहारी बोस, श्यामजी कृष्ण वर्मा, भीखाजी कामा, वीर सावरकर और लाला हरदयाल जैसे कई नाम इनमें शामिल हैं। इन सभी ने भारत के साथ-साथ विदेश की धरती को अपनी क्रांति भूमि बनाया। किसी ने जापान, किसी ने अमेरिका, किसी ने ब्रिटेन तो किसी ने फ्रांस... 
लाला हरदयाल जी के पिता दिल्ली की एक डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में रीडर थे, दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज से उन्होंने संस्कृत में डिग्री ली। प्रतिभाशाली इतने थे कि ऑक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी में पढ़ने के लिए उन्हें दो स्कॉलरशिप ऑफर की गईं।

◆ पढ़ाई के दौरान लिखा तीखा लेख :
लेकिन देश की आजादी को लेकर उनके तेवर शुरूआत से ही साफ और सख्त थे। ऑक्सफोर्ड में पढ़ाई के दौरान ही 1907 में उन्होंने ‘इंडियन सोशलिस्ट’ मैगजीन में लिखे एक लेख में अंग्रेजी सरकार पर सवाल उठाये थे। उसी वक्त उन्हें आईसीएस यानी इंडियन सिविल सर्विस (उस वक्त की आईएएस) का पद ऑफर हुआ था, उन्होंने ‘भाड़ में जाए आईसीएस’ कहते हुए ऑक्सफोर्ड की स्कॉलरशिप तक छोड़ दी और अगले साल भारत वापस आ गए। यहां वो पूना जाकर तिलक जी से और लाहौर में लाला लाजपत राय से मिले। उस वक्त कांग्रेस के यही दो बड़े नेता थे, जो गरम दल की अगुवाई करते थे।

◆ लेकिन अब वो अंग्रेजी सरकार की नजरों में चढ़ चुके थे, उन पर नजर रखा जाना शुरू हो गय़ा था लेकिन भारत में उनका ये कड़े तेवरों वाला लेखन जब जारी रहा तो अंग्रेजी सरकार उन पर प्रतिबंध लगाने और गिरफ्तार करने की सोचने लगी... कहीं से इसकी जानकारी लाला लाजपत राय जी को मिल गई। लाजपत राय जी को ये संदेह था कि काला पानी जैसी सजा लाला हरदयाल के इरादे तोड़ सकती है..! लाला जी ने ही हरदयाल को सलाह दी कि फौरन देश छोड़ दो, ये 'क्रांतिकारी लेखन' विदेश की धरती से करोगे तो अंग्रेज सरकार कुछ नहीं कर पाएगी..! हरदयाल जी तब तक ब्रिटिश अराजकतावादी कम्युनिस्ट व्यक्ति एल्ड्रेड के संपर्क में आ चुके थे, जो ‘इंडियन सोशलिस्ट’ छापता था। दिलचस्प बात थी कि एक तरफ वो एक वामपंथी के लिए लिख रहे थे, दूसरी तरफ हिंदू वादी नेता, लाला लाजपत राय उनकी मदद कर रहे थे...

◆ लाला लाजपत राय की सलाह पर छोड़ा देश :
लाला हरदयाल ने लाला लाजपत राय जी की बात समझकर भारत छोड़ दिया और 1909 में वो पेरिस जा पहुंचे। जहां जाकर उन्होंने जिनेवा से निकलने वाली पत्रिका #वंदेमातरम का सम्पादन शुरू कर दिया। ये मैगजीन दुनियाभर में बिखरे भारतीय क्रांतिकारियों के बीच क्रांति की अलख जगाने का काम करती थी। हरदयाल के लेखों ने उनके अंदर आजादी की आग जला दी। हालांकि पेरिस में उन्हें लगा था कि भारतीय समुदाय मदद देगा लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ तो उन्होंने दुखी होकर पेरिस छोड़ दिया और वो अल्जीरिया चले गए... वहां भी उनका मन नहीं लगा, जहां से वो क्यूबा या जापान जाना चाहते थे लेकिन फिर #मार्टिनिक चले गए। यहां आकर वो एक सन्यासी की तरह जीवन जीने लगे... भाई परमानंद उन्हें ढूंढते हुए पहुंचे और उनसे भारतभूमि को आजाद करवाने, भारतीय संस्कृति के प्रसार के लिए मदद मांगी...

◆ भारतीय भूमि से था खास लगाव :
खेलने कूदने की उम्र से ही लाला हरदयाल को मेरा देश, मेरी भूमि, मेरी संस्कृति, मेरी भाषा पर कुछ ज्यादा ही भरोसा था। जबकि वो मंदिर तक नहीं जाते थे, पूजा नहीं करते थे। मित्र उन्हें नास्तिक बोलते थे लेकिन उनको भारतीय भूमि से निकले हर धर्म, सम्प्रदाय, महापुरुष में काफी आस्था थी। भारतीय परम्पराओं से उनका खासा लगाव था। जब एक बार लाहौर में उनकी वाईएमसीए (यंग मैन क्रिश्चियन एसोसिएशन) क्लब के सचिव से किसी बात को लेकर कहासुनी हो गई तो उन्होंने लाहौर मे ‘यंग मैन इंडियन एसोसिएशन’ की स्थापना कर डाली। इसी एसोसिएशन के उदघाटन समारोह में हरदयाल के मित्र अल्लामा इकबाल ने अपनी मशहूर रचना 'सारे जहां से अच्छा, हिंदुस्ता हमारा' पहली बार गाकर सुनाई थी। बाद में यही #इकबाल मुस्लिम लीग में शामिल होकर अलग पाकिस्तान की मांग करने लगे थे।

◆ आर्यसमाज से जोड़ना चाहते थे परमानंद :
दूसरी तरफ भाई परमानंद उन्हें आर्यसमाज से जोड़ना चाहते थे, उन्होंने उन्हें राजी किया कि वो अमेरिका में आर्यसमाज के प्रचार प्रसार में मदद करेंगे। लाला जी बोस्टन गए, वहां से कैलीफोर्निया गए, लेकिन फिर मेडीटेशन करने हवाई द्वीप के होनोलूलू में चले गए। जहां उनकी मुलाकात जापानी बौद्ध भिक्षुओं से हुई, काफी दिन उनके साथ गुजारे... साथ में वहीं उन्होंने कार्ल मार्क्स को पढ़ा। भाई परमानंद वापस उन्हें कैलीफोर्निया लेकर आए, वो लाला हरदयाल की प्रतिभा को जाया नहीं जाने देना चाहते थे।

◆ कार्ल मार्क्स का असर ये हुआ कि उन्हें मजदूरों की समस्याओं से रूबरू होने का मौका मिला। कैलीफोर्निया आते ही वो मजदूरों की यूनियन से जुड़ गए, वहीं दूसरी तरफ वो भारतीय दर्शन और संस्कृत का प्रचार प्रसार कर रहे थे। ये दक्षिणपंथ और वामपंथ का अनोखा संगम उनके अंदर पैदा हो गया था। बहुत जल्द उन्हें स्टेनफोर्ड यूनीवर्सिटी में इंडियन फिलॉसोफी और संस्कृत का लैक्चरर बनने का मौका मिला लेकिन जिस मजदूर यूनियन से वो जुड़ गए थे, दरअसल वो अराजकता वादियों का बड़ा समूह था। उससे रिश्तों के चलते लाला हरदयाल को स्टेनफोर्ड यूनीवर्सिटी से अपना पद छोड़ना पड़ गया। बाद में हरदयाल जी ने उस समूह से भी दूरी बना ली।

◆ कैलीफोर्निया में बनाया इंडिया हाउस :
कैलीफोर्निया में उनकी मुलाकातें उस सिख समूह से होने लगीं, जो अपने देश को आजाद करवाने के लिए अमेरिका में संघर्ष कर रहा था यानी #गदर_क्रांतिकारी वो उन श्यामजी कृष्ण वर्मा के संपर्क में भी आए, जो #लंदन में #इंडिया_हाउस बनाकर कई क्रांतिकारियों को शरण दे रहे थे। उनको लंदन में स्कॉलरशिप देकर भारत से बुला रहे थे। वीर सावरकर और मदन लाल धींगरा ऐसी ही स्कॉलरशिप पर लंदन आए थे।

◆ श्याम जी कृष्ण वर्मा से प्रेरित होकर लाला हरदयाल ने वैसी ही स्कॉलरशिप अमेरिका में शुरू कर दी, और एक घर इंडिया हाउस की ही तरह कैलीफोर्निया में उन स्टूडेंट्स के लिए खड़ा किया, जिनको स्कॉलरशिप पर अमेरिका पढ़ने के लिए बुलाया जा सकता था। करतार सिंह सराभा और विष्णु पिंगले जैसे 6 भारतीय लड़कों की अमेरिकी में पढ़ाई का इंतजाम किया गया। अमेरिका में उनकी मदद तेजा सिंह और तारक नाथ दास ने की... जबकि स्कॉलरशिप के लिए गुरु गोविंद सिंह एजुकेशनल स्कॉलरशिप फंड बनाने में उनकी मदद अमेरिका के अमीर किसान ज्वाला सिंह जी ने की...

◆ भाषण के बाद देखने लायक था माहौल :
जब दिल्ली में रास बिहारी बोस, बसंत विश्वास और अमीचंद जी ने लॉर्ड हॉर्डिंग पर दिल्ली में घुसते वक्त बम फेंक दिया तो अमेरिका में लाला हरदयाल ने उत्साहित होकर एक जोरदार भाषण दिया.. जिसमें मीर तकी मीर की दो लाइनें पढ़ डालीं -
पगड़ी अपनी सम्भालिएगा मीर,
ये और बस्ती नहीं..! दिल्ली हैं।

◆ ये कार्यक्रम नालंदा हॉस्टल में हुआ था, उनके भाषण के बाद माहौल देखने लायक था। वंदेमातरम गीत पर युवा नाचने गाने लगे... सबको इंतजार था प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटेन के फंसने का, ताकि उसका फायदा उठाकर गदर क्रांति की जा सकें। सोहन सिंह भखना ने अमेरिका में ही गदर पार्टी की नींव रखी, दुनियाभर के क्रांतिकारियों से हाथ मिलाया। लंदन में श्याम जी कृष्ण वर्मा, भारत में बाघा जतिन और रास बिहारी बोस और अमेरिका में करतार सिंह सराभा और विष्णु पिंगले जैसे युवाओं ने कमान संभाल ली। लाला हरदयाल पत्र पत्रिकाओं में क्रांति के पक्ष में लेख लिख-लिखकर माहौल बनाने में इतने जुट गए थे की अमेरिकी सरकार उनके लेखों से परेशान हो गई। वो फिर से निशाने पर आ चुके थे। वैसे भी ब्रिटेन अब अमेरिका में बसे गदर क्रांतिकारियों के बारे में अमेरिका को आगाह कर रहा था।

◆ खुशी के बीच आई मातमी खबर :
हरदयाल प्रवासी सिखों के बीच अलख जगाने का काम करने लगे थे। वो अपने शानदार भाषणों के जरिए प्रवासी सिखों से भारत माता की सेवा करने के लिए भारत पहुंचने का आह्वान करते थे। माना जाता है कि दस हजार सिख उनसे प्रेरित होकर भारत निकल गए थे। उसी दौरान कामागाटामारू कांड भी हो गया। अप्रैल 1914 में लाला हरदयाल को अमेरिका में गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन वो किसी तरह निकल भागे और उनकी अगली मंजिल बर्लिन थी। वहां से वो स्वीडन निकल गए, इस तरह कुल 13 भाषाएं हरदयाल सीख गए थे।

◆ इसी बीच, वो अपनी पीएचडी लंदन की एक यूनीवर्सिटी से कर चुके थे। फिर वो लंदन में ही रहने लगे, अंग्रेजी सरकार उनकी हर हरकत पर नजर रखे हुई थी लेकिन वो उनकी नाक के नीचे ही लंदन में जमे रहें। 1927 में देशभक्तों ने उन्हें भारत लाने की काफी कोशिशें की थीं, जो कामयाब नहीं हो पाईं। 1938 में फिर ऐसी कोशिशें की... ब्रिटिश सरकार ने उन्हें भारत जाने की इजाजत दे दी। सब लोग भारत में इंतजार भी करने लगे, देश का माहौल भी काफी बदल चुका था। माना जाने लगा था कि देश को आजादी मिलने में ज्यादा देर नहीं..! लाला लंदन से निकल भी चुके थे कि अमेरिका के फिलाडेल्फिया से खबर आई कि 4 मार्च 1938 को लाला हरदयाल की मृत्यु हो गई है...😰

◆ जहर देने का किया था दावा :
किसी को समझ नहीं आया कि जब वो बेहतर स्वास्थ्य में थे, उन्हें भारत आने की अनुमति भी मिल गई थी लेकिन अचानक उनकी मौत कैसे हो गई..? उनके मित्र हनुमंत सहाय अपने मरने तक आरोप लगाते रहे कि हरदयाल को जहर देकर मारा गया था, उनकी मौत स्वभाविक नहीं थी..! लेकिन देश ना जाने कितने महापुरुषों की ऐसी #संदिग्ध_मौत देख चुका है।😓 श्यामा प्रसाद मुखर्जी से लेकर लाल बहादुर शास्त्री तक, किसी की मौत का खुलासा आज तक नहीं हुआ। सत्ता के खिलाफ जाने पर ऐसा अंजाम होने की आशंका तो रहती ही है।
साभार : zeenews.india.co.
भारत के प्रसिद्ध क्रांतिकारी और 'गदर पार्टी' के संस्थापक #लाला_हरदयाल जी को उनकी जन्म जयंती पर कोटि-कोटि नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि...🙏🏻⛳
भारत माता की जय 🇮🇳
#प्रेरणादायी_व्यक्तित्व

बुधवार, 13 अक्तूबर 2021

दशहरा पर्व से जुड़ीं परंपराएं एवं कैसे करें शस्त्र पूजन, आप भी जानिए...

प्राचीनकाल से दशहरा (विजयादशमी) पर अपराजिता-पूजा, शमी पूजन, शस्त्र पूजन व सीमोल्लंघन की परंपरा रही है।
 
अपराजिता-पूजा : अपराजिता देवी सकल सिद्धियों की प्रदात्री साश्रात माता दुर्गा का ही अवतार हैं। भगवान श्री राम ने माता अपराजिता का पूजन करके ही रावण से युद्ध करने के लिए विजयदशमी को प्रस्थान किया था। ज्योतिषियों के अनुसार माता अपराजिता की पूजा का समय दोपहर के तत्काल बाद का होता है।
 
शमी पूजन : विजयादशमी के दिन शस्त्रों की पूजा के अलावा शमी के पौधे की पूजा का बेहद ही खास महत्व है। विजयादशमी के दिन प्रदोषकाल में शमी वृक्ष का पूजन अवश्य किया जाना चाहिए। खासकर क्षत्रियों में इस पूजन का महत्व ज्यादा है। कहा तो यह भी जाता है कि महाभारत के युद्ध में पांडवों ने इसी वृक्ष के ऊपर अपने हथियार छुपाए थे और बाद में उन्हें कौरवों से जीत प्राप्त हुई थी।
शमी शम्यते पापम् शमी शत्रुविनाशिनी। 
अर्जुनस्य धनुर्धारी रामस्य प्रियदर्शिनी।।
करिष्यमाणयात्राया यथाकालम् सुखम् मया। तत्रनिर्विघ्नकर्त्रीत्वं भव श्रीरामपूजिता।।

शस्त्र पूजन : दशहरा के मौके पर शस्त्रधारियों के लिए हथियारों के पूजन का विशेष महत्व है। इस दिन शस्त्रों की पूजा घरों और सैन्य संगठनों द्वारा की जाती है। नौ दिनों की उपासना के बाद 10वें दिन विजय कामना के साथ शस्त्रों का पूजन किया जाता है। विजयादशमी पर शक्तिरूपा दुर्गा, काली की पूजा के साथ शस्त्र पूजा की परंपरा हिंदू धर्म में लंबे समय से रही है। छत्रपति शिवाजी ने इसी दिन मां दुर्गा को प्रसन्न कर भवानी तलवार प्राप्त की थी।

सीमोल्लंघन : इतिहास में क्षत्रिय राजा इसी अवसर पर सीमोल्लंघन किया करते थे। हालांकि अब यह परंपरा समाप्त हो चुकी है, लेकिन शास्त्रीय आदेश के अनुसार यह प्रगति का प्रतीक है। यह मानव को एक परिधि से संतुष्ट न होकर सदा आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है।

सोमवार, 11 अक्तूबर 2021

"नाना जी देशमुख" एक प्रेरणादायक जीवन

“हम अपने लिए नहीं, अपनों के लिए हैं, अपने वे हैं जो सदियों से पीड़ित एवं उपेक्षित हैं।” यह कथन है युगदृष्टा चिंतक नानाजी देशमुख का... वो किसी बात को केवल कहते ही नहीं थे वरन उसे कार्यरूप में परिवर्तित भी करते थे। आधुनिक युग के इस दधीचि का पूरा जीवन ही एक प्रेरक कथा है। विविध गुणों एवं बहुमुखी प्रतिभा के धनी नानाजी देशमुख का पूरा नाम चण्डीदास अमृतराव उपाध्याय नानाजी देशमुख था। इनका जन्म 11 अक्टूबर सन 1916 को बुधवार के दिन महाराष्ट्र के हिंगोली जिले के एक छोटे से गांव कडोली में हुआ था। इनके पिता का नाम अमृतराव देशमुख था तथा माता का नाम राजाबाई था। नानाजी के दो भाई एवं तीन बहने थीं।

नानाजी जब छोटे थे तभी इनके माता-पिता का देहांत हो गया। बचपन गरीबी एवं अभाव में बीता। वे बचपन से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की दैनिक शाखा में जाया करते थे। बाल्यकाल में सेवा संस्कार का अंकुर यहीं फूटा। जब वे 9वीं कक्षा में अध्ययनरत थे, उसी समय उनकी मुलाकात संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार से हुई। डॉ. साहब इस बालक के कार्यों से बहुत प्रभावित हुए। मैट्रिक की पढ़ाई पूरी होने पर डॉ. हेडगेवार ने नानाजी को आगे की पढ़ाई करने के लिए पिलानी जाने का परामर्श दिया तथा कुछ आर्थिक मदद की भी पेशकश की, पर स्वाभिमानी नाना को आर्थिक मदद लेना स्वीकार्य न था। वे किसी से भी किसी तरह की सहायता नहीं लेना चाहते थे। उन्होंने डेढ़ साल तक मेहनत कर पैसा इकट्ठा किया और उसके बाद 1937 में पिलानी गये। पढ़ाई के साथ-साथ निरंतर संघ कार्य में लगे रहे। कई बार आर्थिक अभाव से मुश्किलें पैदा होती थीं परन्तु नानाजी कठोर श्रम करते ताकि उन्हें किसी से मदद न लेनी पड़े। सन् 1940 में उन्होंने नागपुर से संघ शिक्षा वर्ग का प्रथम वर्ष पूरा किया। उसी साल डाक्टर साहब का निधन हो गया। फिर बाबा साहब आप्टे के निर्देशन पर नानाजी आगरा में संघ का कार्य देखने लगे।

उसी साल पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी एम. ए. की पढ़ाई करने के लिए आगरा आये। नानाजी से कहा गया कि अब दीनदयाल यहां का काम देखेंगे, तुम गोरखपुर जाकर संघ कार्य प्रारम्भ करो। न कोई प्रश्न, न कोई प्रतिवाद। बस नानाजी चल पड़े अपने नये लक्ष्य को पूरा करने, नये सफर पर... नये लोग, अनजान जगह, इस स्थिति में कार्य खड़ा करना असंभव सा प्रतीत होता है। परन्तु नानाजी के लिए सब संभव था। उनकी कार्यशैली लोगों को प्रभावित किए बिना नहीं रहती थी। उन्हें चुनौतियों को पूरा करने में असीम आनंद आता था। लक्ष्य को पूरा किए बगैर उन्हें मानो चैन ही नहीं मिलता था। इस नई चुनौती को भी उन्होंने सहर्ष स्वीकारा और सफल बनाया।

सन् 1940 में गोरखपुर में पहली शाखा प्रारम्भ हुई। उनके कार्य की प्रगति को देखते हुए, उन्हें गोरखपुर विभाग को संभालने की जिम्मेदारी सौंपी गई। उन्होंने इस दायित्व को भी बखूबी निभाया। उनके अथक परिश्रम का ही परिणाम था कि 1944 तक गोरखपुर के देहातों में 250 शाखाएं लगने लगी थीं। निरंतर कर्मशील नानाजी ने अपनी मेहनत से संघकार्य को प्रगति की दिशा प्रदान की... 1944 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक गुरुजी गोरखपुर प्रवास पर आये। नानाजी के कार्यों को देखकर वे बहुत खुश हुए। उन्होंने गोण्डा से बलिया तक के सभी जिलों को नानाजी को सौंपकर उन्हें विभाग प्रचारक का कार्यभार सौंपा। कार्य की अधिकता और व्यापकता ने उन्हें कभी भी विचलित नहीं किया। जब भी कोई नया काम मिलता, वो पूरे उत्साह से उसमें लग जाते...

नानाजी प्रयोगवादी थे। उनके प्रयोगवादी रचनात्मक कार्यों का ही एक उदाहरण है, सरस्वती शिशु मंदिर। सरस्वती शिशु मंदिर आज भारत की सबसे बड़ी स्कूलों की श्रृंखला बन चुकी है। इसकी नींव नानाजी ने ही 1950 में गोरखपुर में रखी थी। इतना ही नहीं, संस्कार भारती के संस्थापक सदस्यों में एक रहे हैं नानाजी

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ‘राष्ट्रधर्म’ का प्रकाशन करने का निर्णय लिया तो पंडित दीनदयाल जी को मार्गदर्शक, अटल बिहारी वाजपेयी जी को सम्पादक व नानाजी को प्रबन्ध निदेशक का दायित्व दिया गया। नानाजी ने अपनी कार्य कुशलता का परिचय देते हुए ‘राष्ट्रधर्म’ के साथ-साथ ‘पांचजन्य’ व ‘दैनिक स्वदेश’ का प्रकाशन प्रारम्भ कर समाज में अपनी एक अलग पहचान बनाई।

1951 में उन्हें पंडित दीनदयाल के साथ भारतीय जनसंघ का कार्य करने को कहा गया। राजनीति में ‘संघर्ष नहीं समन्वय’, ‘सत्ता नहीं, अन्तिम व्यक्ति की सेवा’ आदि वाक्यों को नानाजी ने स्थापित करने की कोशिश की।

लोकनायक जयप्रकाश नारायण, डॉ. राममनोहर लोहिया, पं. गोविन्द वल्लभ पंत, पुरुषोत्तमदास टंडन, लाल बहादुर शास्त्री, गुरुजी, पंडित दीनदयाल उपाध्याय आदि महापुरुषों के साथ आपका घनिष्ठ संपर्क और सम्बन्ध था। इनके अलावा विनोबा भावे के साथ रहकर भूदान आंदोलन से भी नानाजी जुड़े थे।

डॉ. राममनोहर लोहिया को पंडित जवाहरलाल नेहरू के समक्ष 1962 में चुनाव लड़ाने के लिए नानाजी ने अथक प्रयत्न किया। इसमें वह सफल हुए और इसका परिणाम यह हुआ कि डॉ. लोहिया भले ही चुनाव हार गए पर वे जनसंघ के निकट आ गए। बाद में डॉ. लोहिया तथा पं. दीनदयाल उपाध्याय का भारत-पाक महासंघ के संबंध में एक महत्वपूर्ण संयुक्त वक्तव्य भी प्रकाशित हुआ।

उत्तर प्रदेश में भारतीय जनसंघ के संगठन को व्यापक और सुदृढ़ करने का कार्य जनसंघ के निर्माण के तुरन्त पश्चात नानाजी को सौंपा गया था। यह उन्हीं का परिश्रम था कि भारतीय जनसंघ उत्तर प्रदेश में कांग्रेस, प्रजा समाजवादी पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी इत्यादि की तुलना में एक नवीन संगठन होते हुए भी पांच सालों में विधानसभा में सबसे महत्वपूर्ण राजनैतिक दल के रूप में उभर कर सामने आई। सन् 1962 तक पहुंचते-पहुंचते तो जनसंघ प्रदेश की प्रमुख राजनैतिक शक्ति बन गई। नानाजी को उत्तर प्रदेश के साथ-साथ बिहार का काम भी सौंपा गया था और भारतीय जनसंघ बिहार में भी अपना स्थान बनाने में सफल हुआ। 1967 में अनेक प्रांतों में कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा।

तब 'उत्तर प्रदेश तथा बिहार में संयुक्त सरकार बनाने का प्रयास किया जाए' ऐसा संघ के अनेक महत्वपूर्ण कार्यकर्ताओं का अभिमत था। अधिकांश लोगों की दृष्टि में नानाजी देशमुख ही उन साझा सरकारों के प्रणेता थे, परन्तु वास्तविकता यह है कि वह ऐसी साझा सरकारों के प्रयोग के पक्षधार नहीं थे। परन्तु जब सब लोगों की राय ऐसे प्रयोगों को करने के लिए बन गई... तब यह नानाजी ही थे, जो चौधरी चरण सिंह जी और उनके सहयोगियों को कांग्रेस से विरक्त कर सकें और उत्तर प्रदेश में पहली साझा सरकार बन सकी। इससे नानाजी की अनुशासन प्रियता और सबको साथ लेकर चलने की क्षमता प्रदर्शित हुई।

11 फरवरी 1968 को पं. दीनदयाल के अकाल निधन के बाद नानाजी ने दीनदयाल स्मारक समिति का पंजीयन कराकर,एक नए अध्याय की शुरुआत की... 20 अगस्त 1972 से विधिवत ‘एकात्म मानव दर्शन’ के सिद्धांत को व्यवहारिक धरातल पर उतारने हेतु ‘दीनदयाल शोध संस्थान’ कार्यालय नई दिल्ली में नानाजी के नेतृत्व में कार्य करने लगा।

इसी दौरान जयप्रकाश नारायण ने समग्र क्रांति के नाम से कार्य प्रारम्भ किया, जिसका मुख्य केन्द्र पटना बनाया गया। इस समग्र क्रांति के आंदोलन का महामंत्री नानाजी को बनाया गया। नानाजी पूरे मनोयोग से समग्र क्रांति के कार्य में जयप्रकाश जी के सहयोगी बनें।

राजनीति के दांवों में उनकी पटुता की प्रशंसा ऐसी थी कि उनके विरोधी उन्हें नाना देखमुख नहीं, नाना फड़णनवीस ही कहा करते थे। 1977 के आपातकाल में तृतीय डिक्टेटर के नाते शासन का गुप्तचर विभाग भी उनको समझ नहीं पाया था।

जब इन्दिरा गांधी को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने लोकसभा की सदस्यता से वंचित कर दिया, तब इंदिरा गांधी ने लोकसभा से त्यागपत्र देने के स्थान पर देश में इमरजेंसी लागू कर दी। उन्होंने स्वयं को प्रधानमंत्री पद पर बनाये रखा और विरोधी दलों के सभी लोगों को जेल में ठूंस दिया। सन् 1977 के फरवरी माह में इन्दिरा गांधी ने लोकसभा के आम चुनाव की घोषणा कर दी। जेल से सभी नेताओं को छुट्टी दी किन्तु नानाजी को जेल में ही बन्दी बनाये रखा। नानाजी को छोड़ने के लिए कहा गया तो इन्दिरा गांधी ने कहा कि नानाजी तो चुनाव नहीं लड़ रहे हैं, उनको छोड़ने की क्या जरूरत है। तब नानाजी को चुनाव लड़ने के लिए सभी नेताओं ने आग्रह किया लेकिन नानाजी ने कहा, मुझे चुनाव लड़ना नहीं है, इसलिए मैं जेल में पड़ा रहूंगा। तब रामनाथ गोयनका ने जयप्रकाश से कहा कि आपके कहे बिना नानाजी चुनाव लड़ने को तैयार नहीं होंगे। जयप्रकाश ने नानाजी के पास अपना संदेशवाहक भेजकर चुनाव लड़ने के लिए राजी किया। नानाजी जेल से छूटे।

छूटने के बाद उन्हें बलरामपुर से चुनाव लड़ने को कहा गया। वे पौने दो लाख से अधिक वोटों से जीते। मोरारजी देसाई की सरकार बनी और नानाजी से पूछे बिना उन्हें मोरारजी ने अपने कैबिनेट में उद्योग मंत्री बनाने की घोषणा कर दी। किन्तु नानाजी ने मंत्री पद स्वीकार नहीं किया। उन्होंने कहा कि वे देहातों में समाज कार्य करेंगे। 60 वर्ष की आयु पूर्ण के साथ ही सक्रिय राजनीति से मुक्त होने के अपने विचार को उन्होंने खुद पर लागू भी किया। 1977 में बंगाल की खाड़ी की ओर से उठे समुद्री तूफान ने आंध्र प्रदेश एवं उड़ीसा के तटीय जिलों में भारी तबाही मचाई। कई गांवों का नामोनिशान नहीं रहा। नानाजी ने अपने साथियों के साथ अमनीगढ़ा तहसील में मुलापालम् गांव को दीनदयालपुरम् के रूप में पुन: बसाया तथा उड़ीसा के सुन्दरगढ़ जिले के लिए आंखों के चलित अस्पताल की व्यवस्था की...

1978 में उन्होंने गोण्डा बलरामपुर के पास जमीन लेकर जयप्रभा ग्राम नाम से ग्राम विकास, गो-संवर्धन, शिक्षा और कृषि तंत्र में सुधार हेतु काम करना प्रारम्भ किया। तत्काल ही पच्चीस हजार से भी अधिक बांस के नलकूपों का नया प्रयोग कर अलाभकर जोत को लाभकर बनाया व कर्ज से लदे भूखमरी का सामना कर रहे किसानों को खुशहाल बनाया।

अपने लम्बे राजनैतिक जीवन में नानाजी ने यह अनुभव कर लिया था कि केवल राजनीति से समाज कल्याण नहीं हो सकता है। उनका विश्वास था कि आर्थिक आत्म निर्भरता व सामाजिक पुनर्रचना से ही सार्थक सामाजिक बदलाव संभव है। उन्होंने दीनदयाल शोध संस्थान के कार्यों को विस्तार देना प्रारंभ किया। संस्थान का काम देश के विभिन्न भागों में शुरू हुआ। गोण्डा, बीड, नागपुर, अहमदाबाद, सिंहभूम, दिल्ली और चित्रकूट में संस्थान कई वर्षों से काम कर रहा है। सन् 1991 में भगवानन्दजी महाराज के आग्रह पर नानाजी चित्राकूट आये। देश के पहले ग्रामीण विश्वविद्यालय की स्थापना की और नाम रखा चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय। सन् 1991 से 1994 तक नानाजी ग्रामोदय विश्वविद्यालय के संस्थापक कुलाधिपति रहें, लेकिन सरकार की नीति से तंग आकर 1995 में कुलाधिपति पद से त्याग पत्र दिया और विश्वविद्यालय का काम सरकार के जिम्मे छोड़ दिया।

अपने जीवन के चुनौतीपूर्ण अनुभवों के साथ नानाजी ने ‘चित्रकूट प्रकल्प दीनदयाल शोध संस्थान’ के नाम से अलग कार्य प्रारम्भ किया। आज इसके विस्तार रूप में आरोग्यधाम, उद्यमिता विद्यापीठ, रामदर्शन, कृषि विज्ञान केन्द्र, जल प्रबन्धन, सुरेन्द्रपाल ग्रामोदय विद्यालय, गुरुकुल संकुल, नन्हीं दुनिया, शैक्षणिक अनुसंधान केन्द्र, दिशादर्शन केन्द्र, जन शिक्षण संस्थान, आजीवन स्वास्थ्य संवर्धन महाविद्यालय, गौ-विकास एवं अनुसंधान केन्द्र, रामनाथ आश्रमशाला, कृष्णादेवी वनवासी बालिका आवासीय विद्यालय, परमानंद आश्रम पद्धति विद्यालय, समाजशिल्पी दम्पति योजना एवं स्वावलम्बन अभियान जैसे अनेकों प्रकल्प चल रहे हैं।

महात्मा गांधी सम्मान, एकात्मता पुरस्कार, श्रेष्ठ नागरिक सम्मान, पद्म विभूषण, वरिष्ठ नागरिक सम्मान, मानस हंस, जीवन गौरव, संत ज्ञानेश्वर पुरस्कार आदि पुरस्कारों से नानाजी को सम्मानित किया गया है। उन्हें अजमेर, मेरठ, झांसी, पूना एवं चित्रकूट विश्वविद्यालय द्वारा डी. लिट की मानद उपाधि दी गयी। कर्मयोगी नानाजी महामहिम राष्ट्रपति द्वारा 1999 में राज्यसभा के मनोनीत सदस्य रहें। नानाजी ने अमेरिका, इंग्लैंड, क्यूबा, जर्मनी, कनाडा, दक्षिण कोरिया, जापान, डेनमार्क, थाईलैण्ड, केन्या इत्यादि देशों में भारतीय जीवन मूल्यों की स्थापना हेतु प्रवास किये।

नानाजी मानते थे कि समाज के परस्परावलम्बन की भावना से ही ग्रामोदय संभव होगा। वे कहते थे... "नूतन संतान में सामाजिक दायित्व का बीजारोपण करना, परिवार का नैसर्गिक कर्तव्य है।"

नानाजी ने राष्ट्रीय प्रश्नों पर सच्ची राष्ट्रभक्ति से भरपूर अपने दृष्टिकोण को खुलकर रखने में कभी भी कोई अनावश्यक संकोच नहीं किया। चाहे संविधान के स्वरूप का प्रश्न हो या आर्थिक नवरचना का, धर्मांतरण का प्रश्न हो या श्रम-कानूनों का मुद्दा ही क्यों न हो... उन्होंने सभी विषयों पर बेबाक राय दी। 
नानाजी के आत्मीय रिश्ते न केवल विभिन्न राजनैतिक दलों के प्रमुख लोगों से थे बल्कि समाज के विभिन्न वर्गों के प्रतिनिधियों से भी समान रूप से आत्मीयता स्थापित कर लेने का विशिष्ट गुण उनमें था। उद्योगपति, किसान, दलित या वनवासी, प्रत्येक समुदाय के लोगों से उनके आत्मीय संबंध थे। आर्थिक-सामाजिक नवरचना के विस्तृत पक्षों का उन्हें ज्ञान था तो साथ ही प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रानिक मीडिया, साहित्य आदि की भी उनकी जानकारी अनूठी थी।

नानाजी का जीवन असंख्य लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत है। हम सबको सर्व भूत हिते रता: का पाठ पढ़ाते हुए 27 फरवरी 2010 को उन्होंने इस लोक से विदा ली। अपने जीवन में ही उन्होंने तय कर दिया था कि उनकी मृत्यु के पश्चात उनके शरीर को जलाया नहीं जाएगा बल्कि शोध के लिए अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, दिल्ली को सौंप दिया जाएगा। इस प्रकार जीवन भर तो उन्होंने समाज सेवा की ही जीवन त्यागने के बाद भी वो समाज सेवा में ही लीन हो गए।

शनिवार, 9 अक्तूबर 2021

आइये जानते है “रत्ति भर” मुहावरे की वास्तविक सच्चाई क्या हैं..?

जाने-अनजाने में हम कितने ही ऐसे शब्दों का उपयोग अपने दैनिक जीवन मे करते है, जिसका वास्तविक मतलब हमें मालूम ही नहीं होता..! परन्तु हम बोलते हैं। 
चाहे वो कोई अंग्रेजी के शब्द हो या कोई हिंदी का मुहावरा...
तो आइए आज हम आपको एक ऐसे ही मुहावरे के बारे में बताते हैं, जिस मुहावरे का इस्तेमाल हमने खुद किया होगा...
या हमारे सामने बहुत सारे लोगो ने, परन्तु उसका मतलब हमें नहीं पता हैं..!

रत्ती एक पौधा हैं। कभी न कभी हमारे सामने किसी ने भी 
रत्ति भर मुहावरे का उपयोग जरूर किया होगा..!
जैसे -  "उसे रत्ति भर अफसोस नही हैं।” 
और इसका मतलब हम कुछ और समझते है। 
परन्तु आज आपको इस बात से परिचित कराने जा रहे हैं कि
असल में रत्ति एक पौधे का नाम है।
रत्ति के पौधे पर लगे दाने आधे लाल और आधे काले होते हैं। 
अपने आप में ही यह पौधा रहस्मयी हैं, क्योंकि जब आप रत्ति के दाने को छुएंगे तो ये आपको बहुत कठोर लगेगा, परन्तु पक जाने के बाद रत्ति के दाने अपने आप पौधे से गिर जाते हैं।
रत्ति के पौधे आपको अधिकतर पहाड़ी जगहों पर देखने को मिलेंगे। 
आम लहजे की बात करे तो रत्ति को ” गुंजा” के नाम से भी जाना जाता है। इसके अंदर मटर जैसे फली के दाने भी होते है।
ये सोना मापने में अहम भुमिका निभाता हैं।

बहुत से लोगों ने जब रत्ति के पौधे के बारे में जांच पड़ताल शुरु की तब उन्हें इस बात का पता चला कि पुराने जमाने मे लोग सोने को मापने के लिए रत्ति का इस्तेमाल करते थे, क्योंकि प्राचीन काल मे मापने का कोई सटीक पैमाना नहीं था। 
ऐसा कहा जाता है कि यही से रत्ति माप की शुरुआत हुई है।
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि भारत के साथ यह पूरे एशिया में होता है। 
आज सोना मापने के बहुत सारे यंत्र और तकनीक उपलब्ध है, 
उसके बाद भी रत्ति विधि को सोना मापने के सर्वश्रेष्ठ विधि मानी गयी है। 
आप चाहे तो इस बारे में अपने सोनार से भी पूछ सकते हैं।

सेहत के लिए भी उपयोगी...

रत्ति हमारे सेहत के लिए फायदेमंद होता है।

अगर आपके मुंह में छाले हो गए हैं, तो रत्ति के पत्तो को चबाने से यह जल्दी से ठीक हो जाते है। रत्ति की जड़े भी बहुत लाभदायक होती हैं। 
रत्ति सकारात्मक ऊर्जा को उत्पन्न करता है, इसलिए बहुत सारे लोग रत्ति की अंगूठी या माला पहनते हैं। 
ताकि वो अपने जीवन मे हमेशा सकारात्मक रहें।

एक जैसा माप

इस पौधे की सबसे रहस्मयी बात यह है कि जब भी आप इस पौधे के अंदर के बीजों को मापेंगे तो इसका वजन आपको एक समान ही दिखेगा, थोड़ा-सा भी इधर-उधर नहीं...
इंसानों की बनाई गई यंत्र या मशीन पर आप शक कर सकते हैं
परन्तु प्रकृति का यह माप कभी गलत साबित नहीं होता... अगर आप वजन मापने की मशीन को देखे तो रत्ति का वजन 0.121497 ग्राम के आसपास होता है।

शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2021

कुलदेवी और देवताओं के बारे में चौंकाने वाली जानकारी...

भारत में कई समाज या जाति के कुलदेवी और देवता होते हैं। इसके अलावा पितृदेव भी होते हैं। भारतीय लोग हजारों वर्षों से अपने कुलदेवी और देवता की पूजा करते आ रहे हैं। कुलदेवी और देवता को पूजने के पीछे एक गहरा रहस्य है, जो बहुत कम लोग जानते होंगे। आओ जानते हैं कि सभी के कुलदेवी-देवता अलग क्यों होते हैं और उन्हें क्यों पूजना जरूरी होता है..?
 
जन्म, विवाह आदि मांगलिक कार्यों में कुलदेवी या देवताओं के स्थान पर जाकर उनकी पूजा की जाती है या उनके नाम से स्तुति की जाती है। इसके अलावा एक ऐसा भी दिन होता है जबकि संबंधित कुल के लोग अपने देवी और देवता के स्थान पर इकट्ठा होते हैं। जिन लोगों को अपने कुलदेवी और देवता के बारे में नहीं मालूम है या जो भूल गए हैं, वे अपने कुल की शाखा और जड़ों से कट गए हैं।

सवाल यह है कि कुल देवता और कुलदेवी सभी के अलग-अलग क्यों होते हैं..? इसका उत्तर यह है कि कुल अलग है, तो स्वाभाविक है कि कुलदेवी-देवता भी-अलग अलग ही होंगे।

  दरअसल, हजारों वर्षों से अपने कुल को संगठित करने और उसके इतिहास को संरक्षित करने के लिए ही कुलदेवी और देवताओं को एक निश्‍चित स्थान पर नियुक्त किया जाता था। वह स्थान उस वंश या कुल के लोगों का मूल स्थान होता था।

मान लो कोई व्यक्ति गुजरात में रहता है लेकिन उसके कुलदेवी और देवता राजस्थान के किसी स्थान पर हैं। यदि उस व्यक्ति को यह मालूम है कि मेरे कुलदेवी और देवता उक्त स्थान पर हैं, तो वह वहां जाकर अपने कुल के लोगों से मिल सकता है। वहां हजारों लोग किसी खास दिन इकट्ठा होते हैं। इसका मतलब है कि वे हजारों लोग आप ही के कुल के हैं। हालांकि कुछ स्‍थान इतने प्रसिद्ध हो गए हैं कि वहां दूसरे कुल के लोग भी दर्शन करने आते हैं।

उदाहरणार्थ आपके परदादा के परदादा ने किसी दौर में कहीं से किसी भी कारणवश पलायन करके जब किसी दूसरी जगह रैन-बसेरा बसाया होगा तो निश्चित ही उन्होंने वहां पर एक छोटा-सा मंदिर बनाया होगा, जहां पर आपके कुलदेवी और देवता की मूर्तियां रखी होंगी। सभी उस मंदिर से जुड़े रहकर यह जानते थे कि हमारे कुल का मूल क्या है..?
 
यह उस दौर की बात है, जब लोगों को आक्रांताओं से बचने के लिए एक शहर से दूसरे शहर या एक राज्य से दूसरे राज्य में पलायन करना होता था। ऐसे में वे अपने साथ अपने कुल और जाति के लोगों को संगठित और बचाएं रखने के लिए वे एक जगह ऐसा मंदिर बनाते थे, जहां पर कि उनके कुल के बिखरे हुए लोग इकट्टा हो सकें।
 
पहले यह होता था कि मंदिर से जुड़े व्यक्ति के पास एक बड़ी-सी पोथी होती थी जिसमें वह उन लोगों के नाम, पते और गोत्र दर्ज करता था, जो आकर दर्ज करवाते थे। इस तरह एक ही कुल के लोगों का एक डाटा तैयार हो जाता था। यह कार्य वैसा ही था, जैसा कि गंगा किनारे बैठा तीर्थ पुरोहित या पंडे आपके कुल और गोत्र का नाम दर्ज करते हैं। आपको अपने परदादा के परदादा का नाम नहीं मालूम होगा लेकिन उन तीर्थ पुरोहित के पास आपके पूर्वजों के नाम लिखे होते हैं।
 
इसी तरह कुलदेवी और देवता आपको आपके पूर्वजों से ही नहीं जोड़ते बल्कि वह वर्तमान में जिंदा आपके कुल खानदान के हजारों अनजान लोगों से भी मिलने का जरिया भी बनते हैं। इसीलिए कुलदेवी और कुल देवता को पूजने का महत्व है। इससे आप अपने वंशवृक्ष से जुड़े रहते हैं और यदि यह सत्य है कि आत्मा होती है और पूर्वज होते हैं, तो वे भी आपको कहीं से देख रहे होते हैं। उन्हें यह देखकर अच्‍छा लगता है और वे आपको ढेर सारे आशीर्वाद देते हैं।
 
अब फिर से समझें कि प्रत्येक हिन्दू परिवार किसी न किसी देवी, देवता या ऋषि के वंश से संबंधित है। उसके गोत्र से यह पता चलता है कि वह किस वंश से संबधित है। मान लीजिए किसी व्यक्ति का गोत्र भारद्वाज है तो वह भारद्वाज ऋषि की संतान है। कालांतर में भारद्वाज के कुल में ही आगे चलकर कोई व्यक्ति हुआ और उसने अपने नाम से कुल चलाया, तो उस कुल को उस नाम से लोग जानने लगे। इस तरह हमें भारद्वाज गोत्र के लोग सभी जाति और समाज में मिल जाएंगे।
 
हर जाति वर्ग, किसी न किसी ऋषि की संतान है और उन मूल ऋषि से उत्पन्न संतान के लिए वे ऋषि या ऋषि पत्नी कुलदेव व कुलदेवी के रूप में पूज्य हैं। इसके अलावा किसी कुल के पूर्वजों के खानदान के वरिष्ठों ने अपने लिए उपयुक्त कुल देवता अथवा कुलदेवी का चुनाव कर उन्हें पूजित करना शुरू किया और उसके लिए एक निश्चित जगह एक मंदिर बनवाया ताकि एक आध्यात्मिक और पारलौकिक शक्ति से उनका कुल जुड़ा रहे और वहां से उसकी रक्षा होती रहें।
 
कुलदेवी या देवता कुल या वंश के रक्षक देवी-देवता होते हैं। ये घर-परिवार या वंश-परंपरा के प्रथम पूज्य तथा मूल अधिकारी देव होते हैं। इनकी गणना हमारे घर के बुजुर्ग सदस्यों जैसी होती है। अत: प्रत्येक कार्य में इन्हें याद करना जरूरी होता है। इनका प्रभाव इतना महत्वपूर्ण होता है कि यदि ये रुष्ट हो जाएं तो हनुमानजी के अलावा अन्य कोई देवी या देवता इनके दुष्प्रभाव या हानि को कम नहीं कर सकता या रोक नहीं लगा सकता..! इसे यूं समझें कि यदि घर का मुखिया पिताजी या माताजी आपसे नाराज हो तो पड़ोस के या बाहर का कोई भी आपके भले के लिए आपके घर में प्रवेश नहीं कर सकता..! क्योंकि वे 'बाहरी' होते हैं। गीता में इस संबंध में विस्तार से उल्लेख मिलता है कि कुल का नाश कैसा होता हैं..?
 
ऐसे अनेक परिवार हैं जिन्हें अपने कुलदेवी या देवता के बारे में कुछ भी नहीं मालूम है। ऐसा इसलिए कि उन्होंने कुलदेवी या देवताओं के स्थान पर जाना ही नहीं छोड़ा बल्कि उनकी पूजा भी बंद कर दी है। लेकिन उनके पूर्वज और उनके देवता उन्हें बराबर देख रहे होते हैं। यदि किसी को अपने कुलदेवी और देवताओं के बारे में नहीं मालूम है, तो उन्हें अपने बड़े-बुजुर्गों, रिश्तेदारों या पंडितों से पूछकर इसकी जानकारी लेना चाहिए। यह जानने की कोशिश करना चाहिए कि झडूला, मुंडन संस्कार आपके गोत्र परंपरानुसार कहां होता है या 'जात' कहां दी जाती है। यह भी कि विवाह के बाद एक अंतिम फेरा (5, 6, 7वां) कहां होता है..?
 
कहते हैं कि कालांतर में परिवारों के एक स्थान से दूसरे स्थानों पर स्थानांतरित होने, धर्म परिवर्तन करने, आक्रांताओं के भय से विस्थापित होने, जानकार व्यक्ति के असमय मृत होने, संस्कारों का क्षय होने, विजातीयता पनपने, पाश्चात्य मानसिकता के पनपने और नए विचारों के संतों की संगत के ज्ञानभ्रम में उलझकर लोग अपने कुल खानदान के कुलदेवी और देवताओं को भूलकर अपने वंश का इतिहास भी भूल गए हैं। खासकर यह प्रवृत्ति शहरों में देखने को ज्यादा मिलती है।
 
ऐसा भी देखने में आया है कि कुल देवी-देवता की पूजा छोड़ने के बाद कुछ वर्षों तक तो कोई खास परिवर्तन नहीं होता, लेकिन जब देवताओं का सुरक्षा चक्र हटता है तो परिवार में घटनाओं और दुर्घटनाओं का दौर शुरू हो जाता है, उन्नति रुकने लगती है, गृहकलह, उपद्रव व अशांति आदि शुरू हो जाती हैं। आगे वंश नहीं चल पाता..! पिताद्रोही होकर व्यक्ति अपने वंश को नष्ट कर लेता हैं।

बुधवार, 6 अक्तूबर 2021

अमावस्या

कर दिया आज पित्तरों को विदा...
पर कहां होते हैं, दिल से जुदा..!

हमारी चाल-ढाल, भाषा, हाव-भाव में...
संग चलते हैं, जीवन की राह में...
नहीं देख छू सकते हैं उनको...
पर कहां भूल सकते हैं उनको..!
जीवन उनकी यादों से है लदा...
कहां होते हैं दिल से जुदा..!

जीवन के मीठे फीके रंग में...
महसूस करते हैं उनको संग में...
आती है जब मुश्किल की घड़ी...
राह दिखाती है उनकी छड़ी...
तरसता है मन मिलने को सदा...
कहां होते हैं दिल से जुदा..!

लाल-पीली मोली में, तिलक की रोली में...
मन्त्र की बोली में, गोत्र की टोली में...
पूजा की थाली में, कलश-कुशा निराली में...
हंसी की ताली में, रात शगुनों वाली में...
ख्यालों में दिख जाते हैं यदाकदा...
कहां होते हैं दिल से जुदा..!

आ जाते हैं आंखों में, जब बजते हैं बाजे...
ढ़ूंढ़ते हैं उनको, देहरी-दरवाजे...
उनका ही अंश हैं, उनका ही वंश हैं।
जीवन का यही सारांश हैं।
यही तो हैं हमारे संस्कार...
कहां होते हैं दिल से जुदा..!


🙏🏻 जय श्री राम ⛳

सोमवार, 4 अक्तूबर 2021

'कुतुब मीनार' नहीं, "ध्रुव स्तंभ"

सदियों के उत्पीड़न और ब्रेनवॉश के कारण, हिंदू न केवल उन पर फेंके गए हर "धर्मनिरपेक्ष" प्रचार के सामने आत्मसमर्पण कर रहे हैं बल्कि अपने स्वयं के सांस्कृतिक अधिकारों को भी छोड़ रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप अन्य धर्मों द्वारा बड़े पैमाने पर सांस्कृतिक विनियोग किया गया है। 
सांस्कृतिक विनियोग का एक ऐसा उदाहरण जहां एक हिंदू स्मारक को इस्लामिक आक्रमणकारियों द्वारा हड़प लिया गया है, वह स्मारक को आज "कुतुब मीनार" कहा जाता है।

अगर हम अपने दिमाग की धुलाई और भावनाओं को एक तरफ रख दें और तार्किक रूप से संरचना का विश्लेषण करना शुरू करें... तो हमें हिंदू धर्म के पक्ष में बहुत सारे सबूत मिलते हैं जिन्हें केवल संयोग के रूप में खारिज नहीं किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, संरचना का शीर्ष दृश्य खुद को 24 किनारों के साथ प्राकृतिक रूप से सममित कमल की पंखुड़ी के आकार के रूप में दर्शाता है, जो दिन के 24 घंटे दर्शाता है।  संरचना के भीतर कुल कदम 360+ हैं, जो एक वर्ष में दिनों की संख्या को दर्शाता है। जमीनी स्तर पर, 12 डायल हैं, जो 12 राशियों को दर्शाते हैं।

और सबसे दिलचस्प बात यह है कि यह 27 प्राचीन मंदिरों (जो अब खंडहर में हैं) से घिरे एक परिसर के भीतर स्थित है, जो 27 नक्षत्रों को दर्शाता है। इसके अलावा, बाहरी और साथ ही अंदरूनी समृद्ध नक्काशी से भरे हुए हैं जो दुनिया के किसी भी हिस्से में किसी भी मीनार में कभी नहीं पाए जा सकते हैं, क्योंकि इस तरह की नक्काशी इस्लाम के लोकाचार के खिलाफ है, जिससे इस बात को और मजबूती मिलती है कि यह एक मीनार तो बिल्कुल नहीं था लेकिन एक हिंदू स्मारक  अवश्य था, जो आक्रमणकारियों से बहुत पहले मौजूद था।

इसलिए, एकमात्र तार्किक निष्कर्ष यह है कि स्मारक मूल रूप से एक खगोलीय वेधशाला टॉवर था अर्थात "ध्रुव स्तम्भ" जो प्राचीन भारतीय सभ्यता से जुड़ा था और मध्ययुगीन काल के दौरान, यह इस्लामिक आक्रमणकारियों की क्रूरता का शिकार हो गया जिन्होंने बस नाम बदल दिया।  संभवत: यह उचित समय है, जब हम गहन जांच (कार्बन डेटिंग सहित) कर सकते हैं, ताकि हम हिंदू अंततः वह प्राप्त कर सकें जो हमारा हैं।⛳

शनिवार, 2 अक्तूबर 2021

क्या #शास्त्री_जी की #हत्या का रहस्य छुपाने के लिए दो और हत्याएं की गईं थी..?

1977 में केंद्र की सत्ता से कांग्रेसी वर्चस्व के सफाए के बाद प्रचण्ड बहुमत से बनी जनता पार्टी की सरकार ने पूर्व प्रधानमंत्री स्व. लाल बहादुर शास्त्री की सन्देहास्पद परिस्थितियों में हुई मृत्यु की जांच के लिये रामनारायण कमेटी का गठन किया था।
इस कमेटी ने शास्त्री जी की मृत्यु से सम्बन्धित दो प्रत्यक्षदर्शी गवाहों को गवाही देने के लिए बुलाया था। पहले गवाह थे, उस समय ताशकंद में शास्त्री जी के साथ रहे उनके निजी चिकित्सक आरएन चुघ, जिन्हें बहुत देर बाद शास्त्री जी के कमरे में बुलाया गया था और जिनके सामने शास्त्री जी ने "राम" नाम जपते हुए अपने प्राण त्यागे थे। दूसरे गवाह थे उनके निजी बावर्ची रामनाथ, जो उस पूरे दौरे के दौरान शास्त्री जी के लिये भोजन बनाते थे लेकिन शास्त्री जी की मृत्यु वाले दिन रूस में भारत के राजदूत टीएन कौल ने उनके बजाय अपने खास बावर्ची जान मोहम्मद से शास्त्री जी का भोजन बनवाया था। यहां यह उल्लेख बहुत जरूरी है कि ये टीएन कौल कश्मीरी पंडित था और नेहरू परिवार से उसकी खानदानी निकटता इतनी प्रगाढ़ थी कि 1959 में लाल बहादुर शास्त्री जी के प्रचण्ड विरोध के बावजूद नेहरू ने जब इंदिरा गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनवाया था, तब इंदिरा गांधी का सलाहकार (Advisor) इसी टीएन कौल को ही बनाया था।
यह है उस सनसनीखेज रहस्यमय पहेली की संक्षिप्त पृष्ठभूमि जो आजतक नहीं सुलझी..! वो पहेली यह है कि जनता सरकार द्वारा गठित कमेटी ने गवाही के लिए जिन डॉक्टर आरएन चुघ को बुलाया था, वो कमेटी के सामने गवाही देने के लिए अपनी कार से जब दिल्ली आ रहे थे तो रास्ते में एक ट्रक ने उनकी कार को इतनी बुरी तरह रौंद दिया था कि कार में सवार डॉक्टर चुघ उनकी पत्नी, पुत्री समेत सभी की मौत हो गयी थी। दूसरे गवाह रामनाथ जब दिल्ली आए और जांच कमेटी के सामने गवाही देने जा रहे थे तो एक तेज रफ्तार कार ने उनको सड़क पर बुरी तरह रौंद दिया था। संयोग से रामनाथ की तत्काल मौत नहीं हुई थी लेकिन उनकी दोनों टांगे बेकार हो गईं थीं और सिर पर लगी गम्भीर चोटों के कारण उनकी स्मृति पूरी तरह खत्म हो गयी थी। उस दुर्घटना के कारण लगी गम्भीर चोटों के कारण कुछ समय पश्चात उनकी भी मौत हो गयी थी। उल्लेखनीय है कि स्व. शास्त्री जी की पत्नी ललिता शास्त्री जी ने उस समय बताया था कि कमेटी के सामने गवाही देने जाने से पहले उस दिन रामनाथ उनसे मिलने आए थे और यह कहकर गए थे कि... "बहुत दिन का बोझ था अम्मा, आज सब बता देंगें।"
शास्त्री जी की मृत्यु की जांच कर रही कमेटी के सामने गवाही देने जा रहें दोनों प्रत्यक्षदर्शी गवाहों की ऐसी मौत क्या केवल संयोग हो सकती है..?
अतः उपरोक्त घटनाक्रम आज 43साल बाद भी एक पहेली की तरह यह सवाल पूछ रहा है कि क्या शास्त्री जी हत्या का रहस्य छुपाने के लिए दो और हत्याएं की गईं थी..?
पता नहीं यह पहेली कब सुलझेगी, सुलझेगी भी या नहीं..!
लेकिन हर वर्ष स्व. लाल बहादुर शास्त्री जी की जयंती पर यह पहेली आने वाली पीढ़ियों को सदियों तक झकझोरती रहेगी...
मात्र डेढ़ वर्ष के अपने कार्यकाल में "जय जवान जय किसान" के अपने अमर नारे के साथ देश को खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने की अपनी ऐतिहासिक उपलब्धि वाले स्व. शास्त्री जी कितनी दृढ़ इच्छाशक्ति वाले व्यक्ति थे। यह इसी से समझा जा सकता है कि अंतरराष्ट्रीय नियमों, दबावों, तनावों को ताक पर रखकर देशहित में उनके द्वारा लिए एक साहसिक निर्णय ने ही 1965 के भारत-पाक युद्ध का रुख पूरी तरह से भारत के पक्ष में कर दिया था।
ऐसी दृढ़ इच्छाशक्ति वाले जननायक के लिए देश में दशकों तक एक सुनियोजित अफवाह फैलाई गई कि ताशकंद में समझौता करने का दबाव नहीं सह सकने के कारण शास्त्री जी को हार्टअटैक पड़ गया था जिसके कारण उनकी मृत्यु हो गयी थी।
सच क्या हैं, इसका फैसला एक दिन जरूर होगा... और दुनिया के सामने सच जरूर आएगा। इसी आशा एवं अपेक्षा के साथ मां भारती के महान सपूत लाल बहादुर शास्त्री जी को उनकी जयंती पर कोटि कोटि नमन... विनम्र श्रद्धांजलि...💐🙏🏻🇮🇳

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2021

70 प्रकार की बीमारियों को ठीक कर देता है #चूना

चूना जो पान में लगा के खाया जाता है, उसकी एक डिब्बी ला कर घर में रखें... यह सत्तर प्रकार की बीमारियों को ठीक कर देता हैं। 

गेहूँ के दाने के बराबर चूना गन्ने के रस में मिलाकर पिलाने से बहुत जल्दी पीलिया ठीक हो जाता हैं।

चूना नपुंसकता की सबसे अच्छी दवा हैं - अगर किसी के शुक्राणु नहीं बनता, उसको अगर गन्ने के रस के साथ चूना पिलाया जाये तो साल डेढ़ साल में भरपूर शुक्राणु बनने लगेंगे।
जिन माताओं के शरीर में अन्डे नहीं बनते, उन्हें भी इस चूने का सेवन करना चाहिए। 

शुगर रोज़ सुबह ख़ाली पेट एक गिलास पानी में एक छोटे चने के बराबर चुना मिलकर पीने से शुगर जड़ से ख़त्म हो जाती हैं। (समय समय पर जाँच करवाते रहें... वरना शुगर का लेवल माइनस भी हो सकता हैं।)

विद्यार्थीओं के लिए चूना बहुत अच्छा है जो लम्बाई बढ़ता है - गेहूँ के दाने के बराबर चूना रोज दही में मिला के खाना चाहिए... दही नहीं हैं तो दाल में मिला के या पानी में मिला के लिया जा सकता हैं। इससे लम्बाई बढ़ने के साथ-साथ स्मरण शक्ति भी बहुत अच्छी होती है। 

जिन बच्चों की बुद्धि कम है, ऐसे मतिमंद बच्चों के लिए सबसे अच्छी दवा है चूना जो बच्चे बुद्धि से कम है, दिमाग देर में काम करता है, देर में सोचते है... हर चीज उनकी स्लो हैं, उन सभी बच्चे को चूना खिलाने से अच्छे हो जायेंगे। 

बहनों को अपने मासिक धर्म के समय अगर कुछ भी तकलीफ होती हो तो उसका सबसे अच्छी दवा है चूना
मेनोपौज़ की सभी समस्याओं के लिए गेहूँ के दाने के बराबर चूना हर दिन खाना दाल में, लस्सी में... नहीं तो पानी में घोल के पीना चाहिए। इससे ओस्टीओपोरोसिस होने की संभावना भी नहीं रहती..!

जब कोई माँ गर्भावस्था में है तो चूना रोज खाना चाहिए, क्योंकि गर्भवती माँ को सबसे ज्यादा केल्शियम की जरुरत होती है और चूना केल्शियम का सबसे बड़ा भंडार है। गर्भवती माँ को चूना खिलाना चाहिए, अनार के रस में... अनार का रस एक कप और चूना गेहूँ के दाने के बराबर चूना मिलाके रोज पिलाइए... नौ महीने तक लगातार दीजिये तो चार फायदे होंगे - पहला फायदा होगा के माँ को बच्चे के जन्म के समय कोई तकलीफ नहीं होगी और नॉर्मल डीलिवरी होगी। दूसरा बच्चा जो पैदा होगा वो बहुत हृष्ट-पुष्ट और तंदुरुस्त होगा। तीसरा फ़ायदा वो बच्चा जिन्दगी में जल्दी बीमार नहीं पड़ता जिसकी माँ ने चूना खाया और चौथा सबसे बड़ा लाभ हैं, वो बच्चा बहुत होशियार होता है। बहुत Intelligent और Brilliant होता है। उसका IQ बहुत अच्छा होता हैं। 

चूना घुटने का दर्द ठीक करता है, कमर का दर्द ठीक करता है, कंधे का दर्द ठीक करता है, एक खतरनाक बीमारी है Spondylitis वो चुने से ठीक होता है। कई बार हमारे रीढ़ की हड्डी में जो मनके होते हैं, उसमें दूरी बढ़ जाती है(Gap आ जाता है) जिसे ये चूना ही ठीक करता है। रीढ़ की हड्डी की सब बीमारिया चूने से ठीक होती है। 

अगर हड्डी टूट जाये तो टूटी हुई हड्डी को जोड़ने की ताकत सबसे ज्यादा चूने में है। इसके लिए चूने का सेवन सुबह खाली पेट करें। 

अगर मुंह में ठंडा-गरम पानी लगता है तो चूना खाने से बिलकुल ठीक हो जाता है, मुंह में अगर छाले हो गए है तो चूने का पानी पिने से तुरन्त ठीक हो जाता है। 

शरीर में जब खून कम हो जाये तो चूना जरुर लेना चाहिए। एनीमिया है, खून की कमी है उसकी सबसे अच्छी दवा हैं ये चूना गन्ने के रस में या संतरे के रस में... नहीं तो सबसे अच्छा हैं, अनार के रस में डाल कर चूना लें। अनार के रस में चूना पिने से खून बहुत बढ़त है... बहुत जल्दी खून बनता है - एक कप अनार का रस गेहूँ के दाने के बराबर चूना सुबह खाली पेट लें। 

भारत के जो लोग चूने से पान खाते है, बहुत होशियार है और वे महर्षि वाग्भट के अनुयायी है, पर पान बिना तम्बाखू, सुपारी और कत्थे के लें... तम्बाखू ज़हर है और चूना अमृत है। कत्था केंसर करता है, पान में सौंठ, इलायची, लौंग, केसर, सौंफ, गुलकंद, चूना, कसा हुआ नारियल आदि डाल के खाएं। 
अगर घुटने में घिसाव आ गया हो और डॉक्टर कहे के घुटना बदल दो तो भी जरुरत नहीं चूना खाते रहिये और हरसिंगार (पारिजातक या प्राजक्ता) के पत्ते का काढ़ा पीजिये... घुटने बहुत अच्छे काम करेंगे। 

चूना खाइए पर चूना लगाइए मत..!
ये चूना लगाने के लिए नहीं हैं, खाने के लिए हैं।

बुधवार, 15 सितंबर 2021

कान छिदवाने के फायदे...

हिंदू धर्म में 16 संस्कारों में से एक #कर्ण_वेध संस्कार का उल्लेख मिलता है। इसे उपनयन संस्कार से पहले किया जाता है। विशेष मुहूर्त में कान छिदवाने के बाद उसमें सोने का तार पहना जाता है। कान पके नहीं इसके लिए हल्दी को नारियल के तेल में मिलकर तब तक लगाएं तब तक की छेद अच्छे से फ्री ना हो जाए। दोनों ही कान छिदवाना चाहिए। आओ जानते हैं कान छिदवाने के फायदे...

1. कान छिदवाने से राहु और केतु के बुरे प्रभाव का असर खत्म होता है। जीवन में आने वाले आकस्मिक संकटों का कारण राहु और केतु ही होते हैं।
2. इसे मंदा केतु जब ठीक हो जाता है तो संतान पक्ष से भी व्यक्ति को कई कठिनाई नहीं होती है। धर्म के अनुसार इससे संतान स्वस्थ, निरोगी रोग और व्याधि मुक्त रहती है।
3. केतु और चंद्र की पटती नहीं है, यदि आपने कान में चांदी पहन रखी है तो यह नुकसान दायक होगी।
4. कानों में सोना पहनने से गुरु का साथ मिल जाता है, यह जंगल में भी मंगल कर देता है। यह भी कहा जाता है कि इससे बुरी शक्तियों का प्रभाव दूर होता है और व्यक्ति दीर्घायु होता है।
5. मंदा केतु पैर, कान, रीढ़, घुटने, लिंग, किडनी और जोड़ के रोग पैदा कर सकता है। इसे मन में मतिभ्रम और हमेशा किसी अनहोनी की आशंका बनी रहती है। इससे व्यक्ति के भीतर अपराधी प्रवृत्ति भी जन्म ले सकती है। ऐसे में कान छिदवाने से से यह सभी समस्या दूर हो जाती है।
6. कान छिदवाने से मेधा शक्ति बेहतर होती है तभी तो पुराने समय में गुरुकुल जाने से पहले कान छिदवाने की परंपरा थी।
7. मान्यता अनुसार कान छिदवाने से व्यक्ति के रूप में निखार आता है।


विज्ञान के अनुसार लाभ :
1- कहते हैं कि कान छिदवाने से सुनने की क्षमता बढ़ जाती है।
2- कान छिदवाने से आंखों की रोशनी तेज होती है।
3- कान छिदने से तनाव भी कम होता है।
4- कान छिदने से लकवा जैसी गंभीर बीमारी होने का खतरा काफी हद तक कम हो जाता है।
5- पुरुषों के द्वारा कान छिदवाने से उनमें होने वाली हर्निया की बीमारी खत्म हो जाती है।
6- यह भी कहा जाता है कि पुरुषों के अंडकोष और वीर्य के संरक्षण में भी कर्णभेद का लाभ मिलता है।
7. इससे मस्तिष्क में रक्त का संचार समुचित प्रकार से होता है। इससे दिमाग तेज चलता है।

रविवार, 12 सितंबर 2021

राजनीतिक तौर पर सजग रहने का संस्कृतिक महत्व...

गणेश जी पेशवाओं के ईष्ट देवता थे। पेशवाई के दौरान मराठा साम्राज्य में गणेश पूजा का शाही महत्व था। अंग्रेजों के उदय के साथ गणेश पूजा पारिवारिक उत्सव बन कर रह गया लेकिन लोकमान्य तिलक ने शिवाजी जयंती और गणेश चतुर्थी को फिर से समाज के बीच में स्थापित कर दिया।

क्या शिवाजी जयंती देश की राजनीतिक एकता में बाधक होगी..?
ऐसे सवालों के साथ तिलक के ऊपर संपादकीय लिखे गए।

महाराष्ट्र के बाहर शिवाजी महाराज की स्वीकार्यता होगी..! 
इस पर संदेह जताया गया।

आज सौ साल के बाद देखिए...
गणेश चतुर्थी महाराष्ट्र के बाहर निकल एक आखिल भारतीय त्योहार बन चुका है। हिन्दू जनमानस में शिवाजी महाराज का क्या दर्जा है, लिखने की जरूरत नहीं...

ऐसा होता है जब आप अपनी संस्कृति पर टिके रहते हैं, उसे लेकर आगे बढ़ते हैं... धीरे-धीरे वो समाज की मुख्यधारा बन जाती है।

वहीं दूसरी तरफ बंगाल को देखिए... एक ऐसा राज्य जिसे अंग्रेजों ने सीधे मुगलों से जीता, जहां राम नाम को राजनीतिक तौर पर बाहरी बताया गया और जिस दूर्गा पूजा को बंगाल की संस्कृति माना गया, वो दूर्गा पूजा आधी बंग भूमि (बांग्लादेश) से भी समाप्त हो गई।

गणेश चतुर्थी और दूर्गा पूजा हमें बताते हैं, राजनीतिक तौर पर सजग रहने का क्या संस्कृतिक महत्व होता है।

बुधवार, 8 सितंबर 2021

समोसे की दुकान

एक बड़ी कंपनी के गेट के सामने एक प्रसिद्ध समोसे की दुकान थी।
लंच टाइम मे अक्सर कंपनी के कर्मचारी वहां आकर समोसे खाया करते थे।
एक दिन कंपनी का एक मॅनेजर समोसे खाते-खाते समोसे वाले से मजाक के मूड में आ गए।
मॅनेजर साहब ने समोसेवाले से कहा, "यार गोपाल, तुम्हारी दुकान तुमने बहुत अच्छे से मेंटेन की हैं, लेकीन क्या तुम्हें नहीं लगता के तुम अपना समय और टॅलेंट समोसे बेचकर बर्बाद कर रहे हो..?
सोचो... अगर तुम मेरी तरह इस कंपनी में काम कर रहे होते तो आज कहा होते... हो सकता है, शायद तुम भी आज मेरी तरह मॅनेजर होते..!
इस बात पर समोसेवाले गोपाल ने बड़ा सोचा और बोला, "सर ये मेरा काम आपके काम से कही बेहतर है... 10 साल पहले जब मैं टोकरी में समोसे बेचता था, तभी आपकी जॉब लगी थी। तब मैं महीने में लगभग हजार रुपये कमाता था और आपकी पगार थी 10 हजार...
इन 10 सालों में हम दोनों ने खूब मेहनत की...
आप सुपरवाइजर से मॅनेजर बन गये...
और मैं टोकरी से इस प्रसिद्ध दुकान तक पहुंच गया...
आज आप महीना 40,000₹ कमाते हैं
और मैं महीना 20,000₹
लेकीन इस बात के लिए मैं मेरे काम को आपके काम से बेहतर नहीं कह रहा हूँ..!
ये तो मैं बच्चो के कारण कह रहा हूँ...
जरा सोचिए सर मैंने तो बहुत कम कमाई पर धंदा शुरू किया था, मगर मेरे बेटे को यह सब नहीं झेलना पडेगा... मेरी दुकान मेरे बेटे को मिलेगी। मैने जिंदगी मे जो मेहनत की हैं, उसका लाभ मेरे बच्चे उठाएंगे...
जबकी आपकी जिंदगी भर की मेहनत का लाभ, आपके मालिक के बच्चे उठाएंगे...
अब आपके बेटे को आप डिरेक्टली अपनी पोस्ट पर तो नहीं बिठा सकते ना..!
उसे भी आपकी ही तरह जीरो से शुरूआत करनी पड़ेगी... और अपने कार्यकाल के अंत मे वही पहुंच पाएंगा जहां अभी आप हो...
जबकी मेरा बेटा बिजनेस को यहां से और आगे ले जाएंगा..
और अपने कार्यकाल में हम सबसे बहुत आगे निकल जायेगा..
अब आप ही बताइये... किसका समय और टॅलेंट बर्बाद हो रहा है..?
मॅनेजर साहब ने समोसेवाले को 2 समोसे के 20 रुपये दिये और बिना कुछ बोले वहा से खिसक लिए...


सोमवार, 6 सितंबर 2021

#मरणोपरांत_परमवीरचक्र_विजेता_अब्दुल_हमीद_भी_फर्जी_निकला...

#कॉंग्रेस_की_घटिया_करतूत का एक और #काला_पन्ना...🧐

पूरा पढ़िये आंखे खोल देने वाला सच...😳

1965 के युद्ध का झूठा इतिहास...

ध्यान से और लगन से पढें...
मुस्लिम सैनिकों की गहरी साजिश का खुलासा...

हमें इतिहास में पढ़या गया कि अब्दुल हमीद ने पैटन टैंक उड़ाए थे, जबकि ये सरासर झूठ है और कांग्रेस का हिन्दुओं से एक और विश्वासघात हैं।

हरियाणा निवासी भारतीय फौज के बहादुर सिपाही "चंद्रभान साहू" ने पैटन टैंक  को उड़ाया था, ना कि किसी अब्दुल हमीद ने...
परमवीर चक्र भी उसी हिंदू सैनिक #चंद्रभानसाहू ने जीता था, ना कि किसी अब्दुल हमीद ने..!

बात सन् 1965 के भारत-पाक युद्ध की है...
जब अमेरिका द्वारा प्राप्त अत्याधुनिक पैटन टैंकों के बूते, पाकिस्तान अपनी जीत को पक्का मान रहा था और भारतीय सेना इन टैंकों से निपटने के लिये चिंतित थी...
भारतीय सेना के सामने, भारतीय सेना ने ही एक मुसिबत खड़ी कर दी। 
युद्ध के वक़्त भारतीय सेना की मुस्लिम बटालियन के अधिकांश मुस्लिम सैनिकों द्वारा पाकिस्तान के खेमे में चले जाने व बाकी मुस्लिम सैनिकों द्वारा उसके समर्थन में हथियार डाले जाने से भारतीय खेमे में आत्मविश्वास की बेहद कमी व घोर निराशा थी...

उस घोर निराशा व बेहद चिंताजनक स्थिति के वक़्त आशा की किरण व पूरे युध्द का महानायक बनकर आया था, भारतीय सेना का एक बीस वर्षीय नौजवान सैनिक चंद्रभान साहू...
(पूरा पता-- चंद्रभान साहू सुपुत्र श्री मौजीराम साहू, गांव रानीला, जिला भिवानी, वर्तमान जिला चरखी दादरी, हरियाणा)

रानीला गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि सैनिक चंद्रभान साहू का शव बेहद क्षत-विक्षत व टुकड़ों में था। शव के साथ आये सैनिक व अधिकारी अश्रुपूर्ण आंखों से उसकी अमर शौर्यगाथा सुना रहे थे कि किस तरह एक के बाद एक उसने अकेले पांच पैटन टैंक नष्ट कर दिये थे। इसमें बुरी तरह घायल हो चुके थे और उन्हें जबरन एक तरफ लिटा दिया गया था कि आप पहले ही बहुत बड़ा कार्य कर चुके हैं, अब आपको ट्रक आते ही अन्य घायलों के साथ अस्पताल भेजा जायेगा। लेकिन सैनिक चंद्रभान साहू ये कहते हुए उठ खड़े हुए कि मैं एक तरफ लेटकर युद्ध का तमाशा नहीं देख सकता, घर पर माता-पिता की बुढ़ापे में सेवा के लिये और भाई हैं... मैं अन्तिम सांस तक लडूंगा और दुश्मन को अधिकतम हानि पहुँचाऊँगा।
कोई हथियार न दिये जाने पर साक्षात महाकाल का रूप धारण कर सबके मना करते-करते भी अभूतपूर्व वीरता व साहस दिखाते हुए एंटी टैंक माइन लेकर पास से गुजरते टैंक के नीचे लेटकर छठा टैंक ध्वस्त कर युद्ध में प्राणों का सर्वोच्च बलिदान कर दिया।
उनके इस सर्वोच्च व अदभुत बलिदान ने भारतीय सेना में अपूर्व जोश व आक्रोश भर दिया था व उसके बाद हर जगह पैटन टैंकों की कब्र खोद दी गई। ग्रामीणों ने नई पीढ़ी को प्रेरणा देने के लिये दशकों तक उसका फोटो व शौर्यगाथा रानीला गांव के बड़े स्कूल में टांग कर रखी और आज भी स्कूल में उनका नाम लिखा हुआ बताते हैं।
बार्डर फिल्म में जो घायल अवस्था में सुनील शेट्टी वाला एंटी-टैंक माइन लेकर टैंक के नीचे लेटकर टैंक उड़ाने का दृश्य है, वो सैनिक चंद्रभान साहू ने वास्तव में किया था। ऐसे रोम-रोम से राष्ट्रभक्त महायोद्धा सिर्फ भारतभूमि पर जन्म ले सकते हैं।
मुस्लिम रेजिमेंट द्वारा पाकिस्तान का समर्थन करने से मुस्लिमों की हो रही भयानक किरकिरी को रोकने व मुस्लिमों की छवि ठीक रखने के लिये इंदिरा गाँधी की कांग्रेस सरकार ने परमवीर चंद्रभान साहू की अनुपम वीरगाथा को पूरे युद्ध के एकमात्र मुस्लिम मृतक अब्दुल हमीद के नाम से अखबारों में छपवा दिया व रेडियो पर चलवा दिया और अब्दुल हमीद को परमवीर चक्र दे दिया व इसका असली अधिकारी सैनिक चंद्रभान साहू गुमनामी के अंधेरे में खो गया...

ऐसे ही अनेक काम कांग्रेस ने पिछले 75 सालों में हर क्षेत्र में किये, जिनका खुलासा होना बाकी है...
पता नहीं धूर्त कांग्रेस के राष्ट्र से जुड़े कितने रहस्य अभी उजागर होने बाकी है.. 

🙏🏻 जय हिन्द 🇮🇳 जय हिन्द की सेना ⛳

शनिवार, 4 सितंबर 2021

तो आज उर्दू हमारी राजभाषा होती...

हिंदी पखवाड़ा चल रहा है... ऐसे में एक शख्स को याद करना बेहद जरूरी है, जो नहीं होते तो आज उर्दू हमारी राजभाषा होती। वो थे - भारतेंदु हरिश्चंद्र ⛳

1192 में दिल्ली के सम्राट पृथ्वीराज तृतीय की पराजय के बाद से ही उत्तर में हिन्दी की स्थिति ज्यादा मजबूत नही रह गयी थी उसकी जगह फारसी ले चुकी थी। सिर्फ राजपूताना शेष था जो अब भी हिन्दी मे कार्य कर रहा था मगर धीरे धीरे वह मुगलो के हाथ मे आ गया और आधिकारिक स्तर पर हिन्दी अब बस एक समय की बात होकर रह गयी।

1757 में मुगलो की सत्ता उजड़ गयी और मराठो का प्रादुर्भाव हुआ, मराठो की राजभाषा संस्कृत तथा मराठी थी और फारसी को वे स्वीकारना नही चाहते थे। अंततः पुनः देवनागरी लिपि में हिंदुस्थानी लिखी जाने लगी, हिंदुस्थानी में हिंदी और उर्दू दोनों शब्दों का मेल था।

मगर देवनागरी का प्रयोग उस समय बहुत कठिन बात थी, इसलिए सिर्फ मराठा राजाओ और पेशवाओ को पत्र लिखते समय ही इसका प्रयोग होता था बाकी उर्दू और फारसी चलती रही। 1818 में मराठा साम्राज्य गिर गया और अंग्रेजो का शासन आया तो अंग्रेजी चरम पर पहुँच गयी।

हिन्दी पहले ही उर्दू से जूझ रही थी अब अंग्रेजी भी सिर पर खड़ी हो गयी। अंततः 9 सितंबर 1850 को वाराणसी के एक धनाढ्य अग्रवाल परिवार में भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म हुआ। 15 वर्ष के होने तक उन्होंने हिन्दी व्याकरण के सभी शब्दो को खोज लिया।

भारतेंदु हरिश्चंद्र ने हिन्दी के प्रचार के लिये पानी की तरह पैसा बहाया, हिन्दू राजाओ से अपील भी की कि वे अपने राजकार्य हिन्दी मे करे। इस बीच उन्होंने दो नाटक लिखे "अंधेर नगरी" और "भारत की दुर्दशा", ये वे लेख थे जिन्होंने हिन्दी की क्रांति में मुख्य भूमिका निभाई।

एक बार काशी नरेश ने भारतेंदु से कहा, ‘बबुआ! घर को देखकर काम करो।’ इस पर उनका उत्तर था,‘हुजूर! इस धन ने मेरे पूर्वजों को खाया है, अब मैं इसे खाऊंगा।’

इन लेखों के माध्यम से उन्होंने हिन्दू धर्म मे लोगो की आस्था पुनः जगा दी और आखिरकार 1885 में उनकी मृत्यु हो गयी। वे जब स्वर्ग सिधारे उनके पास कोई विशेष संपत्ति नही रह गयी थी हिन्दी के उत्थान में उन्होंने अपना सबकुछ न्यौछावर कर दिया था। भारतेंदु उन्हें उपाधि मिली थी, जिसका अर्थ था भारत का चंद्रमा।

भारतेंदु हरिश्चंद्र के बाद तो मानो हिन्दी कवियों का मेला लग गया, मैथिलीशरण गुप्त और माखनलाल चतुर्वेदी ने हिन्दी को पूरे भारत मे पहचान दिला दी। 1911 में बॉलीवुड की प्रथम फ़िल्म हरिश्चंद्र आयी, दादा साहेब फाल्के ने इसकी डबिंग पूर्ण हिन्दी में करके सूर्यवंश कालीन भारत जगा दिया। आज का बॉलीवुड जो भी हो तब के बॉलीवुड ने हिन्दी प्रचार में चार चाँद लगा दिए थे।

अंततः 1947 तक वीर सावरकर, महात्मा गांधी, गुरु गोलवलकर, पंडित नेहरू और सुभाषचंद्र बोस जैसे दिग्गज नेता अपने अपने कार्यक्षेत्र में हिन्दी ला चुके थे। ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्त होते ही सारे राजकार्य हिन्दी मे आरंभ हो गए, हालांकि अब फिर से इसके साथ छेड़छाड़ जारी है उर्दू शब्दो को फिर से इसमें मिलाकर एक प्रयास जारी है कि हिन्दी को कभी प्राचीन भाषा का दर्जा ना मिले।

जिस बॉलीवुड ने हिन्दी को खड़ा करने में मुख्य भूमिका निभाई उस पर अंडरवर्ल्ड का साया पड़ने लगा, अब तो ये बात फैलाई जाने लगी कि भारत के पास अपनी कोई भाषा नही थी मुगलो ने आकर पढ़ना लिखना सीखाया। बहरहाल चुनौतियां हर युग मे है, हमारा युग भारतेंदु हरिश्चंद्र जितना बुरा भी नही है। जब जब हिन्दी पर संकट मंडराएगा भारतेंदु अवश्य जन्म लेंगे।

आप बस ये ध्यान रखे कि कोई नागरिक ये ना कहे कि उर्दू भारत की मूल भाषा है या फिर हिन्दी पुरानी है तो उसमे उर्दू शब्द क्यो है? हिन्दी मे जबरदस्ती परिवर्तन किये गए है इसलिए उसका स्वरूप बिगड़ा, पृथ्वीराज के काल तक शुद्ध हिन्दी ही हमारी राष्ट्रभाषा थी।


लेखक - परख सक्सेना

गुरुवार, 19 अगस्त 2021

अच्छी संगत का फल

#एक_प्रेरक_प्रसंग -

एक भंवरे की मित्रता एक गोबरी (गोबर में रहने वाले) कीड़े से थी। एक दिन कीड़े ने भंवरे से कहा - भाई तुम मेरे सबसे अच्छे मित्र हो, इसलिये मेरे यहाँ भोजन पर आओ...
भंवरा भोजन खाने पहुँचा। बाद में भंवरा सोच में पड़ गया... कि मैंने बुरे का संग किया इसलिये मुझे गोबर खाना पड़ा। 
अब भंवरे ने कीड़े को अपने यहां आने का निमंत्रण दिया कि तुम कल मेरे यहाँ आओ... अगले दिन कीड़ा भंवरे के यहाँ पहुँचा। भंवरे ने कीड़े को गुलाब के फूल में बिठा दिया। कीड़े ने परागरस पिया... 
मित्र का धन्यवाद कर ही रहा था कि पास के मंदिर का पुजारी आया और फूल तोड़ कर ले गया और बिहारी जी के चरणों में चढा दिया। कीड़े को ठाकुर जी के दर्शन हुये, चरणों में बैठने का सौभाग्य भी मिला। संध्या में पुजारी ने सारे फूल इक्कठा किये और गंगा जी में छोड़ दिए... कीड़ा अपने भाग्य पर हैरान था... इतने में भंवरा उड़ता हुआ कीड़े के पास आया, पूछा-मित्र! क्या हाल है..? कीड़े ने कहा - भाई! जन्म-जन्म के पापों से मुक्ति हो गयी। ये सब अच्छी संगत का फल है।

   संगत से गुण ऊपजे, संगत से गुण जाएं।
   लोहा लगा जहाज में,  पानी में उतराय...

कोई भी नहीं जानता कि हम इस जीवन के सफ़र में एक-दूसरे से क्यों मिलते है..!
सब के साथ रक्त संबंध नहीं हो सकते परन्तु ईश्वर हमें कुछ लोगों के साथ मिलाकर अद्भुत रिश्तों में बांध देता हैं, हमें उन रिश्तों को हमेशा संजोकर रखना चाहिए।

अच्छी संगत रखिए...
🙏🏻 जय श्री राम

बुधवार, 11 अगस्त 2021

मृत्यु के 14 प्रकार

रावण युद्ध चल रहा था, तब अंगद ने रावण से कहा - 
तू तो मरा हुआ है, मरे हुए को मारने से क्या फायदा ?

रावण बोला – मैं जीवित हूँ, मरा हुआ कैसे ?

अंगद बोले, सिर्फ साँस लेने वालों को जीवित नहीं कहते - साँस तो लुहार की धौंकनी भी लेती है।

तब अंगद ने मृत्यु के 14 प्रकार बताएं -
1. कामवश - जो व्यक्ति अत्यंत भोगी हो, कामवासना में लिप्त रहता हो, जो संसार के भोगों में उलझा हुआ हो, वह मृत समान है। जिसके मन की इच्छाएं कभी खत्म नहीं होतीं और जो प्राणी सिर्फ अपनी इच्छाओं के अधीन होकर ही जीता है, वह मृत समान है। वह अध्यात्म का सेवन नहीं करता है, सदैव वासना में लीन रहता है।

2. वाममार्गी - जो व्यक्ति पूरी दुनिया से उल्टा चले, जो संसार की हर बात के पीछे नकारात्मकता खोजता हो; नियमों, परंपराओं और लोक व्यवहार के खिलाफ चलता हो, वह वाम मार्गी कहलाता है। ऐसे काम करने वाले लोग मृत समान माने गए हैं।

3. कंजूस - अति कंजूस व्यक्ति भी मरा हुआ होता है। जो व्यक्ति धर्म कार्य करने में, आर्थिक रूप से किसी कल्याणकारी कार्य में हिस्सा लेने में हिचकता हो, दान करने से बचता हो, ऐसा आदमी भी मृतक समान ही है।

4. अति दरिद्र - गरीबी सबसे बड़ा श्राप है। जो व्यक्ति धन, आत्म-विश्वास, सम्मान और साहस से हीन हो, वह भी मृत ही है। अत्यंत दरिद्र भी मरा हुआ है। गरीब आदमी को दुत्कारना नहीं चाहिए, क्योंकि वह पहले ही मरा हुआ होता है। दरिद्र-नारायण मानकर उनकी मदद करनी चाहिए।

5. विमूढ़ - अत्यंत मूढ़ यानी मूर्ख व्यक्ति भी मरा हुआ ही होता है। जिसके पास बुद्धि-विवेक न हो, जो खुद निर्णय न ले सके यानि हर काम को समझने या निर्णय लेने में किसी अन्य पर आश्रित हो, ऐसा व्यक्ति भी जीवित होते हुए भी मृतक समान ही है, मूढ़ अध्यात्म को नहीं समझता।

6. अजसि - जिस व्यक्ति को संसार में बदनामी मिली हुई है, वह भी मरा हुआ है। जो घर-परिवार, कुटुंब-समाज, नगर-राष्ट्र, किसी भी ईकाई में सम्मान नहीं पाता, वह व्यक्ति भी मृत समान ही होता है।

7. सदा रोगवश - जो व्यक्ति निरंतर रोगी रहता है, वह भी मरा हुआ है। स्वस्थ शरीर के अभाव में मन विचलित रहता है। नकारात्मकता हावी हो जाती है। व्यक्ति मृत्यु की कामना में लग जाता है। जीवित होते हुए भी रोगी व्यक्ति जीवन के आनंद से वंचित रह जाता है।

8. अति बूढ़ा - अत्यंत वृद्ध व्यक्ति भी मृत समान होता है, क्योंकि वह अन्य लोगों पर आश्रित हो जाता है। शरीर और बुद्धि, दोनों अक्षम हो जाते हैं। ऐसे में कई बार वह स्वयं और उसके परिजन ही उसकी मृत्यु की कामना करने लगते हैं, ताकि उसे इन कष्टों से मुक्ति मिल सके।

9. सतत क्रोधी - 24 घंटे क्रोध में रहने वाला व्यक्ति भी मृतक समान ही है। ऐसा व्यक्ति हर छोटी-बड़ी बात पर क्रोध करता है। क्रोध के कारण मन और बुद्धि दोनों ही उसके नियंत्रण से बाहर होते हैं। जिस व्यक्ति का अपने मन और बुद्धि पर नियंत्रण न हो, वह जीवित होकर भी जीवित नहीं माना जाता। पूर्व जन्म के संस्कार लेकर यह जीव क्रोधी होता है। क्रोधी अनेक जीवों का घात करता है और नरकगामी होता है।

10. अघ खानी - जो व्यक्ति पाप कर्मों से अर्जित धन से अपना और परिवार का पालन-पोषण करता है, वह व्यक्ति भी मृत समान ही है। उसके साथ रहने वाले लोग भी उसी के समान हो जाते हैं। हमेशा मेहनत और ईमानदारी से कमाई करके ही धन प्राप्त करना चाहिए। पाप की कमाई पाप में ही जाती है और पाप की कमाई से नीच गोत्र, निगोद की प्राप्ति होती है।

11. तनु पोषक - ऐसा व्यक्ति जो पूरी तरह से आत्म संतुष्टि और खुद के स्वार्थों के लिए ही जीता है, संसार के किसी अन्य प्राणी के लिए उसके मन में कोई संवेदना न हो, ऐसा व्यक्ति भी मृतक समान ही है। जो लोग खाने-पीने में, वाहनों में स्थान के लिए, हर बात में सिर्फ यही सोचते हैं कि सारी चीजें पहले हमें ही मिल जाएं, बाकी किसी अन्य को मिलें न मिलें, वे मृत समान होते हैं। ऐसे लोग समाज और राष्ट्र के लिए अनुपयोगी होते हैं। शरीर को अपना मानकर उसमें रत रहना मूर्खता है, क्योंकि यह शरीर विनाशी है, नष्ट होने वाला है।

12. निंदक - अकारण निंदा करने वाला व्यक्ति भी मरा हुआ होता है। जिसे दूसरों में सिर्फ कमियाँ ही नजर आती हैं, जो व्यक्ति किसी के अच्छे काम की भी आलोचना करने से नहीं चूकता है, ऐसा व्यक्ति जो किसी के पास भी बैठे, तो सिर्फ किसी न किसी की बुराई ही करे, वह व्यक्ति भी मृत समान होता है। परनिंदा करने से नीच गोत्र का बंध होता है।

13. परमात्म विमुख - जो व्यक्ति ईश्वर यानि परमात्मा का विरोधी है, वह भी मृत समान है। जो व्यक्ति यह सोच लेता है कि कोई परमतत्व है ही नहीं; हम जो करते हैं, वही होता है, संसार हम ही चला रहे हैं, जो परमशक्ति में आस्था नहीं रखता, ऐसा व्यक्ति भी मृत माना जाता है।

14. श्रुति संत विरोधी - जो संत, ग्रंथ, पुराणों का विरोधी है, वह भी मृत समान है। श्रुत और संत, समाज में अनाचार पर नियंत्रण (ब्रेक) का काम करते हैं। अगर गाड़ी में ब्रेक न हो, तो कहीं भी गिरकर एक्सीडेंट हो सकता है। वैसे ही समाज को संतों की जरूरत होती है, वरना समाज में अनाचार पर कोई नियंत्रण नहीं रह जाएगा।

अतः मनुष्य को उपरोक्त चौदह दुर्गुणों से यथासंभव दूर रहकर स्वयं को मृतक समान जीवित रहन से बचाना चाहिए।

🙏🏻 जय श्री सीता राम ⛳

शनिवार, 7 अगस्त 2021

प्रश्न :- गुरु बनाना क्यों जरूरी है, भक्ति तो घर पर भी कर सकते हैं..?

उत्तर :- प्रश्न ही गलत है...

प्रश्न पर विचार करें... गुरु बनाना 
अब सोचे... आप क्या गुरु को बनायेंगे, गुरु आपको बनायेगा। आपकी बनाई चीज आपसे छोटी ही होगी, याद रखें। तो किसी को गुरु बनाने की बात छोड़े... क्योंकि अध्यात्म कि ये राह कोई सांसारिक पाने खोने का मार्ग नहीं है , संसार की शिक्षा पाने के लिए आप किसी को शिक्षक चुन सकते हो, क्योंकी वहां दुकानें लगी हैं, एजुकेशन की...

यहां तो ये सवाल खड़ा करें कि मैं कैसे खुद को इतना योग्य बनाऊं की कोई गुरु मुझे चुन लें। मैं कैसे इतना पात्र बनूं की किसी जागृत गुरु का शिष्य होने योग्य हो पाऊं।

याद रखें जब शिष्य तैयार होता हैं तो गुरु खुद आता है। रामकृष्ण तैयार थे, तब उनके गुरु तोतापुरी आए गए... मार्ग दिखाकर फिर अपनी राह निकाल लिए... 
जब विवेकानन्द तैयार थे तो परमहंस ने उनको चुन लिया।

रज्जब शादी करने घोड़ी पे चढ़ा था कि दादू का गांव में आगमन हुआ और आवाज दी... अरे रज्जब तूने गजब किया, आया था हरि भजन को और पड़त नरक की ठौर...
बात ख़तम हो गई। वहीं रज्जब गुरु शरणागति को उपलब्ध हुआ।

और प्रश्न का दूसरा हिस्सा भी गलत है, भक्ति कि नहीं जाती, हो जाती हैं। जैसे मीरा को हो गई... फिर जब सांसारिक लोग ऐसे मस्तो की मस्ती देखते हैं, तो लालच आते है कि अरे सब कुछ पाया, ऐसी मस्ती नहीं मिली..! तो क्या पता भक्ति करने से मिल जाएं।
लेकिन जब संसारी आकर्षित होकर आता है तो उन्हीं के लिए कई और लालची लोग धर्मगुरु बनकर खड़े हो जाते हैं और फिर शुरू होता हैं... मांग और आपूर्ति का बाजार, धर्म का बाजार... इसलिए इन सबसे बचें। 

भक्ति करने कराने की बात नहीं, भक्ति तो घट जाती हैं। जब संसार में दौड़ कर समझ पक जाएं कि यहां कुछ हाथ आता नहीं, माटी का पलंग ही आखिरी मंजिल है। तब भक्ति, वैराग्य या ध्यान की ओर सही कदम बढ़ेंगे और जब शुरुआत सही होगी तो उसी राह पे वो परमात्मा खुद किसी ना किसी गुरु रूप में मार्ग दिखाने आए ही जायेंगे।

🙏🏻 ॐ शांति ⛳

क्या जीवन में एक ही गुरु बनाना चाहिए..?

एक ही क्यों..? यदि ऐसी बन्दिश आप अपने पर लगाते हो तो आप तो पशुओं से भी अधम रह जाओगे। एक प्रेरक प्रसंग आपके समक्ष रख रहा हूँ।

एक बार एक महात्माजी अपने कुछ शिष्यों के सँग खेतों में से कहीं जा रहे थे। तभी उनकी नजर ऊपर आसमान में उड़ते कव्वों के एक झुण्ड पर पड़ी। उनमें से एक कौए की चोंच में एक चिड़िया थी तथा बाकी सब कौए उस कौए को चोंच मार रहे थे।अचानक उस कौए की चोंच से चिड़िया छूट गयी । अन्य कव्वों में से एक आगे बढ़ा और उस चिड़िया को लपक लिया।अब बाकी कव्वों ने उस कव्वे को चोंच मारनी शुरू कर दी ।इस बीच पहला कव्वा आहत होकर नीचे गिर पड़ा। महात्माजी उस कव्वे के पास गए और हाथ जोड़कर नमन करते हुए बोले," है कागराज! आज से आप मेरे गुरु हैं" और अपने शिष्यों से उसका उपचार करने का आदेश दिया। शिष्य आश्चर्यचकित थे कि इतने ज्ञानी गुरुजी ने एक निर्ज्ञानी कव्वे को गुरु बना लिया। कव्वे के उपचार करते हुए उन्होंने अपनी जिज्ञासा प्रकट की तो गुरुजी बोले," शिष्यों! आज इस कौए ने मुझे सिखाया है कि यदि किसी एक वस्तु के लिए एक से अधिक लोग झगड़ रहे हों तो उस वस्तु को छोड़ देना ही अच्छा है। अन्यथा आप जीवन खो दोगे और जिस उद्देश्य के लिए जीवन पाया है उसे पूर्ण न कर सकोगे। अतः जो भी हमें ज्ञान दे वह हमारा गुरु है और उसका हमें सम्मान करना चाहिए।"

इसलिए एक ही गुरु बनाकर सन्तुष्ट मत होईये। ज्ञान प्राप्ति की कोई सीमा नहीं है और मनुष्य शरीर में कोई पूर्णज्ञानी नहीं है। इसलिए जितने आपके गुरु होंगे उतने ही आप अधिक ज्ञानवान होंगे।

गुरु

अंधकार रूपी मायाजाल से प्रकाश रूपी परमार्थ पर व्यक्ति को लगाने वाले शक्ति का नाम ही गुरु है। गुरु का हर व्यक्ति के जीवन में बहुत बड़ी ही महत्व है। चाहे वो लोग सांसारिक हो चाहे सन्यासी गुरु सबको बनाना चाहिए। गुरु का महत्व इसी बात से लगाया जा सकता है कि जितने भी अवतार हुए भगवान के उन्होंने भी गुरु धारण किया है। गुरु के बिना जीवन उसी प्रकार है, जैसे पानी बिना घड़ा। भगवान शिव ने माता पार्वती से गुरु के महत्व को विस्तार से समझाया है। हर सत्कर्म में भागीदार होने से पहले दीक्षित होना जरुरी हैं। चाहे आप ईश्वर को ही क्यों न गुरु मान रहे हों।


गुरु को इसलिए मिली है ईश्वर की उपाधि

पं. शैलेंद्र शास्त्री ने बताया कि गुरु की रचना क्यों प्रभु ने की इसके पीछे भी बड़ा कारण है। सभी इंसान के कर्म इतने अच्छे नही है जो प्रभु प्रत्यक्ष सबके साथ रहे और उनका मार्गदर्शन करें। यही देखकर प्रभु से गुरु के रूप में अपने आप को प्रकट किया इसलिए गुरु और प्रभु में कोई भेद नही किया जाता। भगवान गुरु रूप में पृथ्वी पर विराजमान हैं। जो गुरु का सच्चा सेवक होता है फिर उसे किसी बात का डर नही होता। 

गुरु बनाते समय इन बातों का रखें ध्यान

जब भी किसी को गुरु बनाते है तो वो अपने अपने पंथ सम्प्रदाय अनुसार मन्त्र दीक्षा देता हैं। वो मंत्र कोई साधरण मंत्र नही होता उस मंत्र में पूरी गुरु परम्परा के सभी सिद्ध महात्मो की शक्ति समाई रहती है। ये मन्त्र किसी को भी बताया नही जाता। इसको बड़े गुप्त तरीके से गुरु अपने शिष्य के कान में फूंकता है ताकि अपने चारों और विद्यमान अदृश्य शक्तियां भी उसे सुन ना पाए। ये मंत्र हमें गुरु से अदृश्य रूप से जोड़े रखता है। गुरु मंत्र का जाप कभी भी बोलकर नही करना चाहिए।

शुक्रवार, 6 अगस्त 2021

संजीवनी बूटी

हनुमान पंजा बूटी
संजीवनी एक वनस्पति का नाम है जिसका उपयोग चिकित्सा कार्य के लिये किया जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम सेलाजिनेला ब्राहपटेर्सिस है और इसकी उत्पत्ति लगभग तीस अरब वर्ष पहले कार्बोनिफेरस युग से मानी जाती हैं।
लखनऊ स्थित वनस्पति अनुसंधान संस्थान में संजीवनी बूटी के जीन की पहचान पर कार्य कर रहे पाँच वनस्पति वैज्ञानिको में से एक डॉ॰ पी.एन. खरे के अनुसार संजीवनी का सम्बंध पौधों के टेरीडोफिया समूह से है, जो पृथ्वी पर पैदा होने वाले संवहनी पौधे थे। उन्होंने बताया कि नमी नहीं मिलने पर संजीवनी मुरझाकर पपड़ी जैसी हो जाती है लेकिन इसके बावजूद यह जीवित रहती है और बाद में थोड़ी सी ही नमी मिलने पर यह फिर से खिल जाती है। यह पत्थरों तथा शुष्क सतह पर भी उग सकती है। इसके इसी गुण के कारण वैज्ञानिक इस बात की गहराई से जाँच कर रहे है कि आखिर संजीवनी में ऐसा कौन सा जीन पाया जाता है जो इसे अन्य पौधों से अलग बनाता और इसे विशेष दर्जा प्रदान करता है। हालाँकि वैज्ञानिकों का कहना है कि इसकी असली पहचान भी काफी कठिन है क्योंकि जंगलों में इसके समान ही अनेक ऐसे पौधे और वनस्पतियाँ उगती है, जिनसे आसानी से धोखा खाया जा सकता है। मगर कहा जाता है कि चार इंच के आकार वाली संजीवनी लम्बाई में बढ़ने के अपेक्षा सतह पर फैलती है।

रामायण में इस औषधीय पौधे का उल्लेख मिलता है। भारत में इसकी 6 जातियां पाई जाती हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार संजीवनी बूटी की सेलाजिनेला प्रजाति की ही थी। विंध्याचल पर्वत श्रृंखला अपनी जड़ी बूटियों के खजाने के लिए विश्व विख्यात है। संजीवनी बूटी की सेलाजिनेला प्रजाति मिर्ज़ापुर के पहाड़ों में भी पाई जाती है।
सिलेजिनेला ब्रायोप्टेरिस कई महीनों तक एकदम सूखी या 'मृत' पड़ी रहती है और एक बारिश आते ही 'पुनर्जीवित' हो उठती है। डॉ. एन. के. शाह, डॉ. शर्मिष्ठा बनर्जी ने इस पर कुछ प्रयोग किए हैं और पाया है कि इसमें कुछ ऐसे अणु पाए जाते हैं, जो ऑक्सीकारक क्षति व पराबैंगनी क्षति से चूहों और कीटों की कोशिकाओं की रक्षा करते हैं तथा उनकी मरम्मत में मदद करते हैं।

मिर्ज़ापुर की स्थानीय भाषा में इसे संजीवनी बूटी के अलावा हनुमान पंजा भी कहते हैं।

शुक्रवार, 30 जुलाई 2021

डायर नहीं..! ओडवायर को मारा था, उधम सिंह जी ने...

31 जुलाई उधम सिंह जी के शहादत दिवस पर विशेष...
लोगों में आम धारणा है कि उधम सिंह ने जनरल डायर को मारकर जलियाँवाला बाग हत्याकांड का बदला लिया था, लेकिन भारत के इस सपूत ने डायर को नहीं बल्कि माइकल ओडवायर को मारा था, जो अमृतसर में बैसाखी के दिन हुए नरसंहार के समय पंजाब प्रांत का गवर्नर था।

ओडवायर के आदेश पर ही जनरल डायर ने जलियाँवाला बाग में सभा कर रहे निर्दोष लोगों पर अंधाधुँध गोलियाँ बरसवाई थी। उधम सिंह इस घटना के लिए ओडवायर को जिम्मेदार मानते थे।

26 दिसंबर 1899 को पंजाब के संगरूर जिले के सुनाम गाँव में जन्मे उधम सिंह ने जलियाँवाला बाग में हुए नरसंहार का बदला लेने की प्रतिज्ञा की थी। जिसे उन्होंने अपने सैकड़ों देशवासियों की सामूहिक हत्या के 21 साल बाद खुद अंग्रेजों के घर में जाकर पूरा किया।

उधम सिंह अनाथ थे। सन 1901 में उधम सिंह की माता और 1907 में उनके पिता का निधन हो गया। इस घटना के चलते उन्हें अपने बड़े भाई के साथ अमृतसर के एक अनाथालय में शरण लेनी पड़ी। उधम सिंह का बचपन का नाम शेर सिंह और उनके भाई का नाम मुक्ता सिंह था, जिन्हें अनाथालय में क्रमश: उधम सिंह और साधु सिंह के रूप में नए नाम मिले।

अनाथालय में उधम सिंह की जिन्दगी चल ही रही थी कि 1917 में उनके बड़े भाई का भी देहांत हो गया और वह दुनिया में एकदम अकेले रह गए। 1919 में उन्होंने अनाथालय छोड़ दिया और क्रांतिकारियों के साथ मिलकर आजादी की लड़ाई में शामिल हो गए।

डॉ. सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू की गिरफ्तारी तथा रोलट एक्ट के विरोध में अमृतसर के जलियाँवाला बाग में लोगों ने ते
13 अप्रैल 1919 को बैसाखी के दिन एक सभा रखी जिसमें उधम सिंह लोगों को पानी पिलाने का काम कर रहे थे।

इस सभा से तिलमिलाए पंजाब के तत्कालीन गवर्नर माइकल ओडवायर ने ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड डायर को आदेश दिया कि वह भारतीयों को सबक सिखा दें। इस पर जनरल डायर ने 90 सैनिकों को लेकर जलियाँवाला बाग को घेर लिया और मशीनगनों से अंधाधुंध गोलीबारी कर दी जिसमें सैकड़ों भारतीय मारे गए।

जान बचाने के लिए बहुत से लोगों ने पार्क में मौजूद कुएँ में छलाँग लगा दी। बाग में लगी पट्टिका पर लिखा है कि 120 शव तो सिर्फ कुएँ से ही मिले।

आधिकारिक रूप से मरने वालों की संख्या 379 बताई गई जबकि पंडित मदन मोहन मालवीय के अनुसार कम से कम 1300 लोग मारे गए थे। स्वामी श्रद्धानंद के अनुसार मरने वालों की संख्या 1500 से अधिक थी, जबकि अमृतसर के तत्कालीन सिविल सर्जन डॉक्टर स्मिथ के अनुसार मरने वालों की संख्या 1800 से अधिक थी।

राजनीतिक कारणों से जलियाँवाला बाग में मारे गए लोगों की सही संख्या कभी सामने नहीं आ पाई। इस घटना से वीर उधम सिंह तिलमिला गए और उन्होंने जलियाँवाला बाग की मिट्टी हाथ में लेकर माइकल ओडवायर को सबक सिखाने की प्रतिज्ञा ले ली।

उधम सिंह अपने काम को अंजाम देने के उद्देश्य से 1934 में लंदन पहुँचे। वहाँ उन्होंने एक कार और एक रिवाल्वर खरीदी तथा उचित समय का इंतजार करने लगे। भारत के इस योद्धा को जिस मौके का इंतजार था, वह उन्हें 13 मार्च 1940 को उस समय मिला जब माइकल ओडवायर लंदन के काक्सटन हाल में एक सभा में शामिल होने के लिए गया।

उधम सिंह ने एक मोटी किताब के पन्नों को रिवाल्वर के आकार में काटा और उनमें रिवाल्वर छिपाकर हाल के भीतर घुसने में कामयाब हो गए। सभा के अंत में मोर्चा संभालकर उन्होंने ओडवायर को निशाना बनाकर गोलियाँ दागनी शुरू कर दीं।

ओडवायर को दो गोलियाँ लगीं और वह वहीं ढेर हो गया। अदालत में उधम सिंह से पूछा गया कि जब उनके पास और भी गोलियाँ बचीं थीं, तो उन्होंने उस महिला को गोली क्यों नहीं मारी जिसने उन्हें पकड़ा था। इस पर उधम सिंह ने जवाब दिया हाँ ऐसा कर मैं भाग सकता था, लेकिन भारतीय संस्कृति में महिलाओं पर हमला करना पाप है। 31 जुलाई 1940 को पेंटविले जेल में उधम सिंह को फाँसी पर चढ़ा दिया गया जिसे उन्होंने हॅँसते-हँसते स्वीकार कर लिया।

उधम सिंह ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर दुनिया को संदेश दिया कि अत्याचारियों को भारतीय वीर कभी बख्शा नहीं करते...
31 जुलाई 1974 को ब्रिटेन ने उधम सिंह के अवशेष भारत को सौंप दिए। ओडवायर को जहाँ उधम सिंह ने गोली से उड़ा दिया, वहीं जनरल डायर कई तरह की बीमारियों से घिर कर तड़प-तड़प कर बुरी मौत मारा गया।

किसकी मर्जी से..?

क्या औकात है तुम्हारी..?
सिवा अपने जीवन में विषाद कुंठा और असफलता का विष घोलने के अतिरिक्त...!

तुम माँ के पेट में थे... नौ महीने तक, कोई दुकान तो चलाते नहीं थे..! फिर भी जिए...
हाथ-पैर भी न थे कि भोजन कर लो, फिर भी जिए।
श्वास लेने का भी उपाय न था, फिर भी जिए।

नौ महीने माँ के पेट में तुम थे, कैसे जिए...?
तुम्हारी मर्जी क्या थी..?
किसकी मर्जी से जिए..?

फिर माँ के गर्भ से जन्म हुआ... जन्मते ही, जन्म के पहले ही माँ के स्तनों में दूध भर आया। किसकी मर्जी से..?
अभी दूध को पीनेवाला आने ही वाला है कि दूध तैयार है।
किसकी मर्जी से..?

गर्भ से बाहर होते ही तुमने कभी इसके पहले साँस नहीं ली थी, माँ के पेट में तो माँ की साँस से ही काम चलता था...
लेकिन जैसे ही तुम्हें माँ से बाहर होने का अवसर आया...
तत्क्षण तुमने साँस ली, किसने सिखाया..?
पहले कभी साँस ली नहीं थी,
किसी पाठशाला में गए नहीं थे,
किसने सिखाया कैसे साँस लो..?
किसकी मर्जी से..?

फिर कौन पचाता है तुम्हारे दूध को.. जो तुम पीते हो,
और तुम्हारे भोजन को..?
कौन उसे हड्डी-मांस में बदलता है..?

किसने तुम्हें जीवन की सारी प्रक्रियाएँ दी हैं..?
कौन जब तुम थक जाते हो, तुम्हें सुला देता है..?
और कौन जब तुम्हारी नींद पूरी हो जाती है, तुम्हें उठा देता है..?

कौन चलाता है, इन सूर्य-चंद्रमा को..?
कौन इन वृक्षों को हरा रखता है..?
कौन खिलाता है फूल...
अनंत-अनंत रंगों के और गंधों के..?

इतने विराट का आयोजन, जिस स्रोत से चल रहा है...
क्या एक तुम्हारी छोटी-सी जिंदगी, उसके सहारे न चल सकेगी..?

थोड़ा सोचो... थोड़ा ध्यान करो...

अगर इस विराट के आयोजन को तुम चलते हुए देख रहे हो,
कहीं तो कोई व्यवधान नहीं है..!
सब सुंदर चल रहा है, सुंदरतम चल रहा है;
सब बेझिझक चल रहा है।
इसलिए सीताराम-सीताराम सीताराम कहिए... 
जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिए...

कर्म करो, फल की इच्छा मत करो...