गुरुवार, 26 अक्तूबर 2023

प्रभु श्रीराम कार्तिक माह में दिवाली के दिन नहीं, चैत्र माह में लौटे थे अयोध्या...

आइए जानते हैं कि मैं किस आधार पर कह रहा हूं कि प्रभु श्री राम कार्तिक की अमावस्या को नहीं बल्कि चैत्र माह की शुक्ल पक्ष की षष्ठी को पहुंचे थे अयोध्या...

श्रीरामजी की खड़ाऊ ले जाते समय भरतजी ने कहा था कि 
चर्तुर्दशे ही संपूर्ण वर्षेदद्व निरघुतम।
नद्रक्ष्यामि यदि त्वां तु प्रवेक्ष्यामि हुताशन।।
 
अर्थात: हे रघुकुल श्रेष्ठ। जिस दिन चौदह वर्ष पूरे होंगे उस दिन यदि आपको अयोध्या में नहीं देखूंगा तो अग्नि में प्रवेश कर जाऊंगा। भरत के मुख से ऐसे प्रतिज्ञापूर्ण शब्द सुनकर रामजी ने भरत को आश्वस्त करते हुए कहा था - तथेति प्रतिज्ञाय - अर्थात ऐसा ही होगा।
 
इसी प्राकार महर्षि वशिष्ठजी ने महाराजा दशरथ से राम के राज्याभिषेक के संदर्भ में कहा था-
चैत्र:श्रीमानय मास:पुण्य पुष्पितकानन:।
यौव राज्याय रामस्य सर्व मेवोयकल्प्यताम्।।
 
अर्थात: जिसमें वन पुष्पित हो गए। ऐसी शोभा कांति से युक्त यह पवित्र चैत्र मास है। रामजी का राज्याभिषेक पुष्य नक्षत्र चैत्र शुक्ल पक्ष में करने का विचार निश्चित किया गया है। षष्ठी तिथि को पुष्य नक्षत्र था। रामजी लंका विजय के पश्चात अपने 14 वर्ष पूर्ण करके पंचमी तिथि को भारद्वाज ऋषि के आश्रम में उपस्थित हुए। वहां एक दिन ठहरे और अगले दिन उन्होंने अयोध्या के लिए प्रस्थान किया। उससे पहले उन्होंने अपने भाई भरत से पंचमी के दिन हनुमानजी के द्वारा कहलवाया-
 अविघ्न पुष्यो गेन श्वों राम दृष्टिमर्हसि।

अर्थात: हे भरत! कल पुष्य नक्षत्र में आप राम को यहां देखेंगे।

इस प्रकार राम जी चैत्र के माह में षष्ठी के दिन ही ठीक समय पर अयोध्या में पुन: लौटकर आएं।

वाल्मीकि रामायण के अनुसार सीताजी का हरण बसंत ऋतु में हुआ था। अपहरण के पश्चात रावण ने उन्हें बारह मास का समय देते हुए कहा कि हे सीते! यदि इस अवधि के भीतर तुमने मुझे स्वीकार नहीं किया तो मेरे याचक तुम्हारे टुकड़े-टुकड़े कर डालेंगे।
 
यह बाद हनुमानजी ने जब श्रीराम से कही तो उन्होंने भली प्रकार चिंतन करके सुग्रीव को आदेश दिया कि
 
उत्तरा फाल्गुनी हयघ श्वस्तु हस्तेन योक्ष्यते।
अभिप्रयास सुग्रिव सर्वानीक समावृता:।।
 
अर्थात आज उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र है। कल हस्त नक्षत्र से इसका योग होगा। हे सुग्रीव इस समय पर सेना लेकर लंका पर चढ़ाई कर दो। इस प्रकार फाल्गुन मास में श्री लंका पर चढ़ाई का आदेश श्री राम ने दिया। यह जानकर रावण ने भी अपने मंत्री से सलाह लेकर कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को युद्धारंभ करके अमावस्या के दिन सेना से युक्त होकर विजय के लिए निकला और चैत्र मास की अमावस्या को रावण मारा गया। तब रावण की अंत्येष्टि क्रिया तथा विभीषण के राजतिलक के पश्चात रामचंद्र यथाशीघ्र अयोध्या के लिए निकल पड़े। 
तब यह सिद्ध होता है कि रामजी चैत्र के माह में ही अयोध्या लौटे थे। इसी खुशी में लोगों ने अपने अपने घरों में दीप जलाकर उनका स्वागत किया।
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शुक्रवार, 8 सितंबर 2023

भगवान श्री कृष्ण के बारे में संपूर्ण जानकारी...

🔅 जन्म तिथि ● 3228 ईसा पूर्व

🔅 मास ● भाद्रपद 

🔅दिन ● अष्टमी

🔅नक्षत्र ● रोहिणी

🔅 दिन ● बुधवार

🔅समय ● 00:00 पूर्वाह्न

🔅 वंश ● चंद्रवंशी यदुवंशी क्षत्रिय राजपूत

🔅 कुल ● चंद्रवंशी क्षत्रिय राजपूत

🔅वर्तमान में श्री कृष्ण के वंशज ● जादौन, भाटी, जाड़ेजा, चुडासमा, सरवैया, रायजादा, सलारिया, छोकर, जाधव राजपूत ही श्रीकृष्ण के वास्तविक वंशज हैं ।

🔅 श्री कृष्ण ● 125 वर्ष, 08 महीने और 07 दिन जीवित रहे।

🔅 मृत्यु तिथि ● 3102 ईसा पूर्व।

🔅जब कृष्ण 89 वर्ष के थे ● मेगा युद्ध (कुरुक्षेत्र युद्ध) हुआ। 

🔅कुरुक्षेत्र युद्ध के 36 साल बाद ● उनकी मृत्यु हो गई। 

🔅कुरुक्षेत्र युद्ध ● मृगशिरा शुक्ल एकादशी, ईसा पूर्व 3139. यानी " 3139 ईसा पूर्व" को शुरू हुआ था और " 3139 ईसा पूर्व" को समाप्त हुआ था। 

🔅 "3139 ईसा पूर्व को दोपहर 3 बजे से शाम 5 बजे के बीच एक सूर्य ग्रहण था"; जयद्रथ की मृत्यु का कारण

🔅भीष्म की मृत्यु ● (उत्तरायण की पहली एकादशी) को 3138 ईसा पूर्व में हुई थी।

🔅 जैविक पिता ● महाराज वासुदेव

🔅 जैविक माता ● माता देवकी

🔅 दत्तक पिता ● नंद 

🔅 दत्तक माता ● यशोदा

🔅 बड़े भाई ● बलराम

🔅 बहन ● सुभद्रा

🔅जन्म स्थान ● मथुरा

🔅पत्नियाँ● रुक्मिणी, सत्यभामा, जाम्बवती, कालिंदी, मित्रविंदा, नग्नजिती, भद्रा, लक्ष्मणा

🔅 भगवान श्रीकृष्ण के 80 पुत्र ● 

किस रानी ने किस पुत्र को जन्म दिया। 
प्रद्युम्न, चारुदेष्ण, सुदेष्ण, चारुदेह, सुचारू, चरुगुप्त, भद्रचारू, चारुचंद्र, विचारू और चारू रुक्मिणी के पुत्र थे। साम्ब, सुमित्र, पुरुजित, शतजित, सहस्त्रजित, विजय, चित्रकेतु, वसुमान, द्रविड़ और क्रतु जाम्बवती के पुत्र थे। भानु, सुभानु, स्वरभानु, प्रभानु, भानुमान, चंद्रभानु, वृहद्भानु, अतिभानु, श्रीभानु और प्रतिभानु, सत्यभामा के पुत्र थे। श्रुत, कवि, वृष, वीर, सुबाहु, भद्र, शांति, दर्श, पूर्णमास और सोमक, कालिंदी के पुत्र थे। वहीं वृक, हर्ष, अनिल, गृध्र, वर्धन, अन्नाद, महांस, पावन, वह्नि और क्षुधि, मित्रविन्दा के पुत्र कहलाएं। जबकि प्रघोष, गात्रवान, सिंह, बल, प्रबल, ऊध्र्वग, महाशक्ति, सह, ओज और अपराजित, लक्ष्मणा की गर्भ से जन्मे थे। वीर, चन्द्र, अश्वसेन, चित्रगुप्त, वेगवान, वृष, आम, शंकु, वसु और कुंति, सत्या के पुत्र कहलाएं और संग्रामजित, वृहत्सेन, शूर, प्रहरण, अरिजित, जय, सुभद्र, वाम, आयु और सत्यक भद्रा के पुत्र थे।

🔅 बताया जाता है कि कृष्ण ने अपने जीवनकाल में केवल 4 लोगों का नरसंहार किया थी। 

⚘️(i) चानूरा ● पहलवान
⚘️(ii) कंस ● उसके मामा
⚘️(iii) शिशुपाल ● और
⚘️(iv) दंतवक्र ● उसके चचेरे भाई. 

🔅श्रीकृष्ण का विभिन्न स्थानों पर जीवन काल कृष्ण ने अपना जीवन 3 प्रमुख भागों में बिताया ● 

⚘️ व्रज लीला ● 11 वर्ष 6 महीने (बृंदावन में एक बच्चे के रूप में)

⚘️ मथुरा लीला ● 10 वर्ष 6 महीने (अपने ⁰pमामा कंस को मारने के बाद एक किशोर के रूप में )

⚘️ द्वारका लीला ● 105 वर्ष 3 माह (द्वारका में राज्य स्थापित करने के बाद

🔅श्री कृष्ण के दादा दादी के नाम ●

⚘️श्री कृष्ण के दादा का नाम शूरसेन था I

⚘️श्री कृष्ण की दादी का नाम मारिषा था I

🔅 वासुदेव श्री कृष्ण के माता पिता के नाम ● 

⚘️ श्रीकृष्‍ण की माता का नाम देवकी और पिता का नाम वासुदेव था I

⚘️ परंतु श्रीकृष्‍ण का लालन-पालन माता यशोदा व पिता नंदबाबा ने किया था I

⚘️ श्रीकृष्‍ण की सौतेली मां रोहिणी (बलराम की मां) ‘नाग’ जनजाति की कन्या थीं।

🔅 योगेश्वर श्री कृष्ण की बुआ के नाम ● 

⚘️ श्रीकृष्‍ण की बुआ का नाम कुंती और सुतासुभा था। 

⚘️ श्रीकृष्‍ण की बुआ कुंती के पांच पांडव पुत्र थे, जिनके नाम :- युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन ये माता कुंती के पुत्र थे।

⚘️ नकुल और सहदेव की माता का नाम माद्री था और दूसरी बुआ सुतासुभा के एक पुत्र का नाम शिशुपाल था।

🔅 वासुदेव श्री कृष्ण के भाई बहनों के नाम

⚘️🔅 श्री कृष्ण के बड़े भाई का नाम बलराम और अन्य भाइयो के नाम नेमिनाथ और गद था।

⚘️🔅 वासुदेव श्री कृष्ण के बदले जेल में बदली गई यशोदा की पुत्री का नाम एकानंशा था, जो आज विंध्यवासिनी देवी के नाम से पूजी जातीं हैं।              
        
   
⚘️🔅भगवान कृष्ण की 3 बहनें भी थीं जिनका नाम ● 

⚘️ एकानंगा (यह यशोदा की पुत्री थीं), सुभद्रा और द्रौपदी (मानस भगिनी)।           

                                
⚘️ श्रीकृष्ण का द्रौपदी से अनूठा रिश्‍ता था। दौप्रदी को श्रीकृष्‍ण अपनी बहन के समान ही मानते थे। दोनों में भाई-बहन का प्रगाढ़ संबंध था।       
                                     
⚘️भगवान कृष्ण ने अपनी बहन सुभद्रा का विवाह अपनी बुआ कुंती के पुत्र अर्जुन से किया था।     

⚘️जैन परंपरा के मुताबिक भगवान श्री कॄष्ण के चचेरे भाई का नाम तीर्थंकर नेमिनाथ था, जो हिंदू परंपरा में घोर अंगिरस के नाम से आगे चलकर प्रसिद्ध हुये थे।

🌹🔅श्री कृष्ण के पुत्र का नाम ●

⚘️योगेश्वर श्रीकृष्ण के पुत्र का नाम साम्ब था।

⚘️श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब की पत्नी का नाम लक्ष्मणा था।

⚘️श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब की पत्नी लक्ष्मणा दुर्योधन की पुत्री थी।

🌹🔅योगेश्वर श्री कृष्ण की पत्नियों के नाम ● 

⚘️श्री कृष्ण ने 16000 राजकुमारियों को
असम के राजा नरकासुर की कारागार से मुक्त कराया था।  
                                                                                  
⚘️श्रीकृष्ण की 8 पत्नियां थीं, जिनके नाम :- रुक्मणि, जाम्बवन्ती, सत्यभामा, कालिन्दी, मित्रबिन्दा, सत्या, भद्रा और लक्ष्मणा था।

🔅. श्री कृष्ण के सखा व सखीयो नाम
भगवान श्रीकृष्ण की प्रेमिका राधा सहित राधा की अष्ट सखियां भी थीं।

⚘️ उन अष्टसखियों के नाम इस प्रकार हैं। 1. ललिता 2. विशाखा 3. चित्रा 4. इंदुलेखा 5. चंपकलता 6. रंगदेवी 7. तुंगविद्या और 8. सुदेवी।

⚘️ब्रह्मवैवर्त पुराण के मताअनुसार भगवान श्रीकृष्ण की सखियों के नाम इस प्रकार से थे। 1. चन्द्रावली, 2. श्यामा, 3. शैव्या, 4. पद्या, 5. राधा, 6. ललिता, 7. विशाखा तथा 8. भद्रा।
भगवान श्रीकृष्ण के कई बाल सखा थे। जिनके नाम इस प्रकार से थे :- सुदामा, श्रीदामा, मणिभद्र, सुभद्र, भद्र, सुबाहु, सुबल, मकरन्‍द, सदानन्द, मधुमंगल, भोज, तोककृष्ण, वरूथप, मधुकंड, विशाल, रसाल, चन्द्रहास, बकुल, शारद और बुद्धिप्रकाश आदि...
उद्धव और अर्जुन बाल सखा नहीं थे, वे बाद में सखा बने थे। परन्तु बलराम उनके बड़े भाई भी थे और उनके सखा भी थे।

🔅वासुदेव श्री कृष्ण के शरीर के बारे में जानकारी ● 

⚘️हाथों में बांसुरी, सिर पर मोर मुकुट, तन पर पीले वस्‍त्र और गले में बैजयंती माला धारण करने वाले योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण का रूप बड़ा ही मनोरम नजर आता है। 
भगवान श्री कृष्ण को प्रा:य लोग काला या सांवला मानते हैं परन्तु भगवान श्री कृष्ण की त्वचा का रंग मेघश्यामल थी, काला या सांवला नहीं..!

⚘️श्री कृष्ण भगवान के शरीर से एक बहुत ही मादक गंध निकलती थी, जिसको वे युद्ध काल में छुपाने का हर समय प्रयास करते रहते थे जिससे उनकी और कोई भी आकर्षित ना हो।
जब भगवान श्री कृष्ण के परम धाम जाने का समय हुआ, तब ना तो उनका एक भी बाल सफ़ेद था और ना ही उनके शरीर और उनके चहरे पर पर किसी प्रकार की बुढ़ापे को दर्शाने वाली कोई झुर्री थीं। 
भगवान श्रीकृष्ण के बाल बड़े ही घुंघराले थे और उनकी आंखें बड़ी ही मनमोहक थी।

🔅 श्री कृष्ण की शिक्षा के बारे में 

योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण के गुरु सांदीपनी थे, जिनका आश्रम अवंतिका (उज्जैन) में था।

⚘️इसके अलावा भगवान श्रीकृष्ण के गुरु गर्ग ऋषि, घोर अंगिरस, नेमिनाथ, वेदव्यास आदि भी बताये जाते हैं।

⚘️भगवान श्रीकृष्ण ने अपने भांजे अभिमन्यु को गर्भ में शिक्षा दी थी।

🌹🔅 श्री कृष्ण के अस्त्र शस्त्रों के नाम ●                                                   

⚘️देवकीनंदन भगवान श्रीकृष्ण के शंख का नाम पांचजन्य था, जिसका रंग गुलाबी था।
योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण के पास जो रथ था, उसका नाम जैत्र था।

⚘️भगवान श्री के रथ को चलाने वाले सारथी का नाम दारुक (बाहुक) था।
श्री कृष्ण के रथ में जो घोड़े (अश्वों) थे, उनके नाम प्रकार थे :- 1. शैव्य, 2. सुग्रीव, 3, मेघपुष्प और 4. बलाहक

🔅योगेश्वर श्री कृष्ण की युद्ध कला के बारे में जानकारी 

⚘️भगवान श्री कृष्ण की सेना नारायणी सेना के नाम से जनि जाती थी।

⚘️श्री कृष्ण ने 16 वर्ष की आयु में चाणूर और मुष्टिक जैसे मल्लों के मलयुद्ध करके उनका वध किया था। 

⚘️वासुदेव भगवान श्री कृष्ण ने कई अभियान और युद्धों का संचालन किया था, परंतु इसमें तीन युद्ध सर्वाधिक भयंकर थे। जिनमे मुख्यत: 1. महाभारत, 2. जरासंध और कालयवन के विरुद्ध 3. नरकासुर के विरुद्ध किया गया युद्ध
भगवान श्री कृष्ण ने मथुरा में दुष्ट रजक के सिर को अपनी हथेली के प्रहार से काट कर वध किया था।

⚘️श्री कृष्ण के जीवन का सबसे भयंकर द्वंद्व युद्ध सुभुद्रा की प्रतिज्ञा के कारण अर्जुन के साथ हुआ था। इस युद्ध में श्री कृष्ण ने सुदर्शन चक्र और अर्जुन ने पाशुपतास्त्र निकाल लिए थे।
ये दोनों शस्त्र सबसे विनाशक शस्त्र मने जाते हैं। युद्ध के भयंकर परिणाम को देखते हुये देवताओं के हस्तक्षेप करने पर दोनों शांत हुए और युद्ध विराम के बाद सुलह हुई।

उज्जैन के संदीपनी आश्रम में मात्र कुछ महीनों में ही भगवान श्री कृष्ण ने अपनी औपचारिक शिक्षा पूरी कर ली थी। संदीपनी आश्रम में उन्होंने 16 विद्याये और 64 कलाओं के बारे में सीखा।

🔅वासुदेव भगवान श्री कृष्ण का श्रीमद्भगवत गीता उपदेस ●

⚘️ सबसे पहले श्रीमद्भगवत गीता का ज्ञान भगवान श्रीकृष्ण सूर्य को दिया था। उसके बाद महाभारत युद्ध आरम्भ होने के ठीक पहले अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवत गीता का उपदेश दिया था, जो कालांतर बाद के श्रीमद्भगवत गीता नाम से प्रसिद्ध हुआ।
भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवत गीता में कर्म को प्रधान बताया... 
आएये जानते है भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवत गीता में क्या कहा...

🔅श्रीमद्भगवत गीता में 18 अध्याय और 700 श्लोक हैं ●

⚘️भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता में ज्ञान योग, बुद्धि योग, कर्म योग, भक्ति योग आदि का उपदेश दिया था


⚘️श्रीमद्भगवत गीता में श्रीकृष्ण ने धेर्य, संतोष, शांति, मोक्ष, और सिद्धि को प्राप्त करने के बारे में उपदेश दिया।

⚘️तुम केवल एक आत्मा हो, तुम अपने आत्मीय स्वजन और बंधु बांधों के मोह का त्याग कर दो। तुम प्रेम से मुझ में अपना मन लगाकर कर्म करते हुये पृथ्वी पर निर्भय होकर विचरण करो।

⚘️इस संसार में जो कुछ मन से सोचा, वाणी से कहा, नेत्रों से देखा और श्रवण आदि इंद्रियों से अनुभव किया जाता है, वह सब नाशवान माया मात्र मिथ्या है।

⚘️यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् II :- अर्थार्थ– जब जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तब तब मैं अपने स्वरूप की रचना करता हूँ


⚘️परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ :- अर्थार्थ — साधुओं की रक्षा के लिए, दुष्कर्मियों का विनाश करने के लिए, और धर्म की स्थापना के लिए मैं हर युग में मानव के रूप में अवतार लेता हूँ।

⚘️कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥ :- अर्थार्थ — भविष्य की चिंता किए बिना जो कर्म आप कर रहे हो, उसे पूरी दृढ़ता से करते रहना चाहिए। फल की चिंता मत करो। आपके जैसे कर्म होंगे, वैसा फल आपको निश्चित मिलेगा।
भगवान श्री कृष्ण ने श्रीमद्भगवत गीता के अलावा अनुगीता, उद्धव गीता के रूप में भी गीता का ज्ञान दिया था।

🔅भगवान् श्री कृष्ण ने 2 नगरों की स्थापना की थी...

⚘️द्वारिका (जिसका पहले नाम कुशावती था ) और दूसरी पांडव पुत्रों के द्वारा इंद्रप्रस्थ ( जिसका पहले नाम खांडवप्रस्थ) था।

⚘️वासुदेव भगवान श्री कृष्ण अपने अंतिम वर्षों को छोड़कर कभी भी 6 महीने से ज्यादा द्वारिका में नहीं रहें।

⚘️पौराणिक मान्यताओं अनुसार प्रभु श्री राम ने त्रेता युग में बाली को छुपकर तीर मारा था और श्री राम ने द्वापरयुग में कृष्णावतार रूप मे उसी बाली को जरा नामक बहेलिया बनाया और अपने लिए वैसी ही मृत्यु चुनी, जैसी प्रभु श्री राम ने बाली को दी थी।
            🙏🏻 जय श्री राम ⛳
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गुरुवार, 17 अगस्त 2023

खाना, भोजन और आहार में अंतर...

खाना इस्लामिक शब्द 'खान' से बना है।

'खाना' खाते खल सभी, संत करें 'आहार'
सज्जन 'भोजन' को करें, भाषा क्रिया प्रकार...

अर्थात: खाना 'दुष्ट' लोग खाते हैं, भोजन 'सज्जन' लोग करते हैं और आहार 'संत' लोग करते हैं।

1. 'खाना' खाया जाता है, 'भोजन' किया जाता है, 'आहार' लिया जाता हैं।
2. 'खाना' काँटे-चाकू से खाया जाता है, 'भोजन' एक हाथ से किया जाता है, 'आहार' दोनों हाथ से लिया जाता हैं।
3. दूसरों का पेट काटकर अपना पेट भरने को 'खाना' कहा जाता है, जीवन जीने के लिए 'भोजन' है तथा त्याग, तपस्या, संयम और साधना के लिए पेट भरना 'आहार' है‌ं। 
तो आज से हम 'सज्जन लोग' 'भोजन' करेंगे और करवाएँगे...

🙏🏻 जय सनातन ⛳ जय श्री राम 🪔

गुरुवार, 8 जून 2023

उबंटू

उबंटू एक पारंपरिक अफ्रीकी अवधारणा है। यह एक ऐसा शब्द है; जिसमें मानवता का भाव है, जो सद्भाव और सामासिकता के गुण से भरा हुआ हैं। यह एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि पूरे समाज की चिंता करता हैं। आप पूछेगें वो कैसे..? आइये जानते हैं...
एक मानव विज्ञानी, उबंटू जनजाति की आदतों और रीति-रिवाजों का अध्ययन, इस समाज के लोगों के साथ रहकर कर रहे थे। जब उनका अध्ययन समाप्त हो गया तो वो एअरपोर्ट जाने के लिये टैक्सी का इन्तजार कर रहे थे। अपनी स्टडी के दौरान वो वहां के बच्चों के साथ घुल मिल गये थे।

जाते-जाते उस मानव विज्ञानी ने उस जनजाति के बच्चों के साथ एक खेल खेलने का प्लान बनाया।

चूँकि वह बाहर से आये थे इसलिए वह शहर से बहुत सारा कैंडी और मिठाई लेकर आये थे। उन सबको उन्होंने एक सुंदर रिबन लगी टोकरी में डाल दिया और पास ही एक पेड़ के नीचे रख दिया और बच्चों को एक लाइन दिखाते हुए कहा कि आप लोग इस लाइन के पास खड़े रहो, जैसे ही मैं कहूँगा – जाओ... तब आप लोगों को जाना है और जो सबसे पहले जायेगा, उसे पूरी टोकरी की कैंडी मिल जायेगी...

जब उन्होंने कहा, “जाओ” बच्चों के कार्यकलाप देख, वह मानव विज्ञानी दंग रह गए। सभी बच्चों ने एक-दूसरे का हाथ पकड़ लिया और एक समूह के रूप में टोकरी की तरफ दौड़ पड़े... सबने कैंडी लिया और एक-दूसरे के साथ मिल बांटकर मजे के साथ खाने लगे।

मानव विज्ञानी बहुत हैरान था। उसने उन बच्चों से पूछा – ‘आप लोग सब एक ही साथ क्यों गए..? जबकि शर्त के अनुसार जो पहले जाता, उसे पूरी टोकरी मिल जाती... 
एक छोटी बच्ची ने सरलतापूर्वक कहा: "हममें से कोई एक कैसे खुश हो सकता हैं..! जबकि अन्य सभी दुखी हो"

मानव विज्ञानी चुपचाप और स्तब्ध था। वह वहां उनके बीच कई महीने से रहता चला आ रहा था लेकिन उनके वास्तविक परम्परा और संस्कार का पता उसे आज चला था, वो भी बच्चों के द्वारा... वास्तव में उसे उनकी असली सार का पता चल गया था।
"उबंटू" एक नैतिक अवधारणा, एक दर्शन और जीवन का एक तरीका हैं, जो हमारे पश्चिमी पूंजीवादी समाज में फैल रही संकीर्णता और व्यक्तिवाद का विरोध करता है। उबंटू की भावना है- "सामूहिक कल्याण की कीमत पर, व्यक्तिगत लाभ नहीं उठाना" 
"उबंटू" यानी "मैं हूँ, क्योंकि हम हैं।" 

आइये हम सब भी उबंटू बोले और इसे जिए...🧑🏻‍🤝‍🧑🏻⛳

मंगलवार, 30 मई 2023

मंदिर की पैड़ी पर कुछ देर क्यों बैठा जाता हैं..?

बड़े बुजुर्ग कहते हैं कि जब भी किसी मंदिर में दर्शन के लिए जाएं तो दर्शन करने के बाद बाहर आकर मंदिर की पैड़ी या ऑटले पर थोड़ी देर बैठना चाहिए। 
क्या आप जानते हैं, इस परंपरा के पीछे क्या कारण हैं..?
आजकल तो लोग मंदिर की पैड़ी पर बैठकर अपने घर की, व्यापार की, राजनीति की चर्चा करते हैं परंतु यह प्राचीन परंपरा एक विशेष उद्देश्य के लिए बनाई गई हैं। वास्तव में मंदिर की पैड़ी पर बैठ करके हमें एक श्लोक बोलना चाहिए, यह श्लोक आजकल के लोग भूल गए हैं। 
आप इस श्लोक को जाने और आने वाली पीढ़ी को भी इसे बताएं... यह श्लोक इस प्रकार हैं :-

अनायासेन मरणम् ,बिना देन्येन जीवनम्।
देहान्त तव सानिध्यम्, देहि मे परमेश्वरम् ।।

इस श्लोक का अर्थ है-

🔱 अनायासेन मरणम्... अर्थात बिना तकलीफ के हमारी मृत्यु हो, हम बीमार होकर बिस्तर पर पड़े-पड़े कष्ट उठाकर मृत्यु को प्राप्त ना हो। चलते-फिरते ही हमारे प्राण निकले।

🔱 बिना देन्येन जीवनम्... अर्थात परवशता का जीवन ना हो, मतलब हमें कभी किसी के सहारे ना पड़े रहना पड़े। जैसे कि लकवा हो जाने पर व्यक्ति दूसरे पर आश्रित हो जाता है वैसे परवश या बेबस ना हो। ठाकुर जी की कृपा से बिना भीख के ही जीवन बसर हो सकें।

🔱 देहांते तव सानिध्यम... अर्थात जब भी मृत्यु हो तब आपके (भगवान के) सम्मुख हो, जैसे भीष्म पितामह की मृत्यु के समय स्वयं ठाकुर जी उनके सम्मुख जाकर खड़े हो गए थे। आपके (ईश्वर के) दर्शन करते हुए प्राण निकले।

🔱 देहि में परमेशवरम्... हे परमेश्वर! ऐसा वरदान हमें देना...

यह प्रार्थना करें गाड़ी, लाडी, लड़का, लड़की, पति, पत्नी, घर, धन यह नहीं मांगना हैं..! यह तो भगवान आपकी पात्रता के हिसाब से स्वयं ही आपको देते हैं। 
इसीलिए दर्शन करने के बाद बैठकर यह प्रार्थना अवश्य करनी चाहिए।
यह प्रार्थना है, याचना नहीं हैं..! याचना सांसारिक पदार्थों के लिए होती है जैसे कि घर, व्यापार, नौकरी, पुत्र, पुत्री, सांसारिक सुख, धन या अन्य बातों के लिए जो मांग की जाती हैं, वह याचना हैं, भीख हैं।

हम प्रार्थना करते हैं। प्रार्थना का विशेष अर्थ होता है अर्थात विशिष्ट, श्रेष्ठ... अर्थना अर्थात निवेदन... ठाकुर जी से प्रार्थना करें और प्रार्थना क्या करना हैं..! यह श्लोक बोलना हैं।

सब_से_जरूरी_बात

जब हम मंदिर में दर्शन करने जाते हैं तो खुली आंखों से भगवान को देखना चाहिए, निहारना चाहिए, उनके दर्शन करना चाहिए। कुछ लोग वहां आंखें बंद करके खड़े रहते हैं। आंखें बंद क्यों करना..? हम तो दर्शन करने आए हैं।

भगवान के स्वरूप का, श्री चरणों का, मुखारविंद का, श्रंगार का, संपूर्णानंद लें। आंखों में भर लें, स्वरूप को... दर्शन करें और दर्शन के बाद जब बाहर आकर बैठे तब नेत्र बंद करके जो दर्शन किए हैं, उस स्वरूप का ध्यान करें। मंदिर में नेत्र नहीं बंद करना..!

बाहर आने के बाद पैड़ी पर बैठकर जब ठाकुर जी का ध्यान करें, तब नेत्र बंद करें और अगर ठाकुर जी का स्वरूप ध्यान में नहीं आए तो दोबारा मंदिर में जाएं और भगवान का दर्शन करें। नेत्रों को बंद करने के पश्चात उपरोक्त श्लोक का पाठ करें।

यहीं शास्त्र हैं, यहीं बड़े बुजुर्गो का कहना हैं।

✊🏻 जय सनातन 🙇🏻 जय श्री राम 🚩

बुधवार, 24 मई 2023

हार्ट अटैक

हमारे देश भारत में 3000 साल पहले एक बहुत बड़े ऋषि हुये थे, उनका नाम था महाऋषि वागवट जी
उन्होंने एक पुस्तक लिखी थी, जिसका नाम है अष्टांग हृदयम और इस पुस्तक में उन्होंने बीमारियों को ठीक करने के लिए 7000 सूत्र लिखें थे, यहां उनमें से ही एक सूत्र है।
वागवट जी लिखते हैं कि कभी भी हृदय को घात हो रहा है, मतलब दिल की नलियों मे blockage होना शुरू हो रहा हैं,
तो इसका मतलब है कि रक्त में अम्लता बढ़ी हुई हैं।

अम्लता (acidity) दो तरह की होती हैं, एक होती है पेट की अम्लता और एक होती है रक्त (blood) की अम्लता 

आपके पेट में अम्लता जब बढ़ती है तो आप कहेंगे पेट में जलन-सी हो रही हैं, खट्टी-खट्टी डकार आ रही हैं, मुंह से पानी निकल रहा हैं।
और अगर ये अम्लता (acidity) और बढ़ जाये...
तो Hyperacidity होगी।
और यही पेट की अम्लता बढ़ते-बढ़ते जब रक्त में आती है तो रक्त अम्लता (blood acidity) होती हैं।
और जब blood में acidity बढ़ती है तो ये अम्लीय रक्त (blood) दिल की नलियों में से निकल नहीं पाती और नलियों में Blockage कर देता हैं, तभी Heart Attack होता है।  इसके बिना heart attack नहीं होता और ये आयुर्वेद का सबसे बढ़ा सच है,  जिसको कोई डाक्टर आपको बताता नहीं 
क्योंकि इसका इलाज बहुत सरल हैं।

उपचार क्या है..?
वागवट जी लिखते हैं कि जब रक्त (blood) में अम्लता (acidity) बढ़ गई है तो आप ऐसी चीजों का उपयोग करो जो क्षारीय हैं।
आप जानते हैं दो तरह की चीजें होती हैं, अम्लीय और क्षारीय

अब अम्ल(Acidic) और क्षार(Alkaline) को मिला दो तो क्या होता हैं..?

Neutral होता है सब जानते हैं।

तो वागवट जी लिखते हैं कि रक्त की अम्लता बढ़ी हुई है तो क्षारीय (alkaline) चीजें खाओ...
तो रक्त की अम्लता(acidity) neutral हो जाएगी।
और रक्त में अम्लता neutral हो गई तो heart attack की जिंदगी में कभी संभावना ही नहीं... ये है सारी कहानी

अब आप पूछेंगे कि ऐसी कौन-सी चीजें हैं जो क्षारीय हैं..?  और हम खायें।
आपके रसोई घर में ऐसी बहुत-सी चीजें है जो क्षारीय हैं, जिन्हें आप खायें तो कभी heart attack न आएं। 
और अगर आ गया है तो दुबारा न आएं।

यह हम सब जानते हैं कि सबसे ज्यादा क्षारीय चीज क्या हैं और सब घर में आसानी से उपलब्ध रहती हैं, तो वह है लौकी 
जिसे घिया(Bottle gourd) भी कहते हैं।
जिसे आप सब्जी के रूप में खाते हैं, इससे ज्यादा कोई क्षारीय चीज ही नहीं हैं..!
तो आप रोज लौकी का रस निकाल-निकाल कर पियो या कच्ची लौकी खाओ...
 
वागवट जी कहते हैं रक्त की अम्लता कम करने की सबसे ज्यादा ताकत लौकी में ही है तो आप लौकी के रस का सेवन करें।
कितना सेवन करें..?
रोज 200 से 300 मिलीग्राम पियो...
कब पिये..?
सुबह खाली पेट, शौच (toilet) जाने के बाद पी सकते हैं या नाश्ते के आधे घंटे के बाद भी पी सकते हैं।

इस लौकी के रस को आप और ज्यादा क्षारीय बना सकते हैं, इसमें 7 से 10 पत्ते तुलसी के लो। तुलसी बहुत क्षारीय हैं, इसके साथ आप पुदीने के 7 से 10 पत्ते भी मिला सकते हैंं। पुदीना भी बहुत क्षारीय हैं, इसके साथ आप काला नमक या सेंधा नमक जरूर डालें। ये भी बहुत क्षारीय है लेकिन याद रखें... नमक काला या सेंधा ही डालें वो दूसरा आयोडीन युक्त नमक कभी न डालें। ये आओडीन युक्त नमक अम्लीय हैं।
तो आप इस लौकी के जूस का सेवन जरूर करें, 2 से 3 महीने की अवधि में आपकी सारी heart की blockage को ठीक कर देगा। 21 वें दिन ही आपको बहुत ज्यादा असर दिखना शुरू हो जाायेगा।
कोई आपरेशन की आपको जरूरत नहीं पड़ेगी..!
घर में ही हमारे भारत के आयुर्वेद से इसका इलाज हो जाएंगा 
और आपका अनमोल शरीर और लाखों रुपए आपरेशन के बच जाएँगे।

🙏🏻 जय सनातन ⛳ जय आर्युवेद 🌿

बुधवार, 10 मई 2023

नाग जाति की उत्पत्ति और उनकी कन्याओं के बारे में रोचक जानकारी...

भारत में पाई जाने वाली नाग जातियों और नाग के बारे में बहुत ज्यादा विरोधाभास नहीं है। भारत में आज भी नाग, सपेरा या कालबेलियों की जाति निवास करती है। यह भी सभी कश्यप ऋषि की संतानें हैं। नाग और सर्प में भेद है। पुराणों के अनुसार प्राचीनकाल में नागों पर आधारित नाग प्रजाति के मानव कश्मीर में निवास करते थे। बाद में ये सभी नागकुल के लोग झारखंड और छत्तीसगढ़ में आकर बस गए थे, जो उस काल में दंडकारण्य कहलाता था। सपेरा जाति का कालबेलिया नृत्य आज भी लोकप्रिय है।
नागों के अष्टकुल :
कश्यप ऋषि की पत्नी कद्रू से उन्हें 8 पुत्र मिले जिनके नाम क्रमश: इस प्रकार हैं- 1.अनंत (शेष), 2.वासुकि, 3.तक्षक, 4.कर्कोटक, 5.पद्म, 6.महापद्म, 7.शंख और 8.कुलिक। इन्हें ही नागों का प्रमुख अष्टकुल कहा जाता है। कुछ पुराणों के अनुसार नागों के अष्टकुल क्रमश: इस प्रकार हैं:- वासुकी, तक्षक, कुलक, कर्कोटक, पद्म, शंख, चूड़, महापद्म और धनंजय। कुछ पुराणों अनुसार नागों के प्रमुख पांच कुल थे- अनंत, वासुकी, तक्षक, कर्कोटक और पिंगला। शेषनाग ने भगवान विष्णु तो उनके छोटे भाई वासुकी ने शिवजी का सेवक बनना स्वीकार किया था।
 
 
उल्लेखनीय है कि नाग और सर्प में भेद है। सभी नाग कद्रू के पुत्र थे जबकि सर्प क्रोधवशा के... कश्यप की क्रोधवशा नामक रानी ने सांप या सर्प, बिच्छु आदि विषैले जन्तु पैदा किए...
 
 
भारत में उपरोक्त आठों के कुल का ही क्रमश: विस्तार हुआ जिनमें निम्न नागवंशी रहे हैं- नल, कवर्धा, फणि-नाग, भोगिन, सदाचंद्र, धनधर्मा, भूतनंदि, शिशुनंदि या यशनंदि तनक, तुश्त, ऐरावत, धृतराष्ट्र, अहि, मणिभद्र, अलापत्र, कम्बल, अंशतर, धनंजय, कालिया, सौंफू, दौद्धिया, काली, तखतू, धूमल, फाहल, काना, गुलिका, सरकोटा इत्यादी नाम के नाग वंश हैं।
 
अग्निपुराण में 80 प्रकार के नाग कुलों का वर्णन है, जिसमें वासुकी, तक्षक, पद्म, महापद्म प्रसिद्ध हैं। नागों का पृथक नागलोक पुराणों में बताया गया है। अनादिकाल से ही नागों का अस्तित्व देवी-देवताओं के साथ वर्णित है। जैन, बौद्ध देवताओं के सिर पर भी शेष छत्र होता है। असम, नागालैंड, मणिपुर, केरल और आंध्रप्रदेश में नागा जातियों का वर्चस्व रहा है। अथर्ववेद में कुछ नागों के नामों का उल्लेख मिलता है। ये नाग हैं श्वित्र, स्वज, पृदाक, कल्माष, ग्रीव और तिरिचराजी नागों में चित कोबरा (पृश्चि), काला फणियर (करैत), घास के रंग का (उपतृण्य), पीला (ब्रम), असिता रंगरहित (अलीक), दासी, दुहित, असति, तगात, अमोक और तवस्तु आदि...
 
नागकन्या :
कुंती पुत्र अर्जुन ने पाताल लोक की एक नागकन्या से विवाह किया था जिसका नाम उलूपी था, वह विधवा थी। अर्जुन से विवाह करने के पहले उलूपी का विवाह एक बाग से हुआ था, जिसको गरूड़ ने खा लिया था। अर्जुन और नागकन्या उलूपी के पुत्र थे, अरावन जिनका दक्षिण भारत में मंदिर है और हिजड़े लोग उनको अपना पति मानते हैं। भीम के पुत्र घटोत्कच का विवाह भी एक नागकन्या से ही हुआ था, जिसका नाम अहिलवती था और जिसका पुत्र वीर योद्धा बर्बरीक था।
महाराज अग्रसेन की अर्धांगिनी माधवी भी नागराज महीधर की पुत्री थीं। उनके विवाह के पूर्व जब अग्रसेन जी नागलोक गए थे और उन्होंने नागराज महीधर से राजकुमारी माधवी का हाथ मांगा। नागराज महीधर शैव थे और वैष्णवों से काफी बैर रखते थे। उन्हें शिव और विष्णु के एकात्म का ज्ञान नहीं था कि दोनों ही परमब्रह्म हैं। नागराज महीधर ने अग्रसेन कहा - "हे अग्रसेन ! आप वैष्णव हैं और हम शैव है। हमारा आपका मेल कैसे हो सकता है, क्योंकि आप विष्णु के उपासक हैं और विष्णु के वाहन गरुड़ से हमारा बैर है।"

तब महाराज अग्रसेन ने उन्हें भगवान वृषकेतु (शिव), जगतपालक नारायण और जगतपिता ब्रह्मा के अभेद के विषय में विस्तार से समझाया और उनसे ये भी कहा कि आप तो दोनों संस्कृतियों के सम्मलित स्वरूप के प्रतीक हो है नागेंद्र! अतः कृप्या अपनी भेद दृष्टि का परित्याग कीजिये। उनकी बातों से संतुष्ट होकर नागराज महीधर का शिव और विष्णु से अभेद दूर हुआ और उन्होंने प्रसन्नता पूर्वक अपनी पुत्री माधवी का विवाह महाराज अग्रसेन से कर दिया और उन्होंने उसी समय दोनों संस्कृति के मिलन स्वरूप अपने उत्तम तल का नाम महाराज अग्रसेन के नाम पर "अग्रतल" रख दिया जिसे वर्तमान में 'अगरतला' के नाम से जानते हैं तो त्रिपुरा राज्य की राजधानी है। 

महाराज अग्रसेन और महारानी माधवी के 18 पुत्र हुए उन पुत्रों का विवाह भी नागराज वासुकि की कन्यायों से हुआ। महाराज अग्रसेन और उन्हीं के 18 पुत्रों की संतान ही 18 गोत्रीय अग्रवाल हैं और चूंकि महारानी माधवी नागकुल की थीं और 18 राजपुत्रों की पत्नियां भी नागकुल की थी, इसलिए अग्रवाल नागों से मातृपक्ष का रिश्ता मानते हैं और उन्हें मामा कहते हैं। 
 
नागलोक :
सात पाताल है- 1. अतल, 2. वितल, 3. सुतल, 4. रसातल, 5. तलातल, 6. महातल और 7. पाताल।....इनमें से महातल में कश्यप की पत्नी कद्रू से उत्पन्न हुए अनेक सिरों वाले सर्पों का 'क्रोधवश' नामक एक समुदाय रहता है। उनमें कहुक, तक्षक, कालिया और सुषेण आदि प्रधान नाग रहते हैं। उनके बड़े-बड़े फन हैं। वासुकी नाग भी पाताल लोक के नागलोक में रहता है।

 
पौराणिक कथाओं के अनुसार पाताल लोक में कहीं एक जगह नागलोक था, जहां मानव आकृति में नाग रहते थे। कहते हैं कि 7 तरह के पाताल में से एक महातल में ही नागलोक बसा था, जहां कश्यप की पत्नी कद्रू और क्रोधवशा से उत्पन्न हुए अनेक सिरों वाले नाग और सर्पों का एक समुदाय रहता था। उनमें कहुक, तक्षक, कालिया और सुषेण आदि प्रधान नाग थे। 
 
 
नाक कुल की भूमि :
यह सभी नाग को पूजने वाले नागकुल थे इसीलिए उन्होंने नागों की प्रजातियों पर अपने कुल का नाम रखा। जैसे तक्षक नाग के नाम पर एक व्यक्ति जिसने अपना 'तक्षक' कुल चलाया। उक्त व्यक्ति का नाम भी तक्षक था जिसने राजा परीक्षित की हत्या कर दी थी। बाद में परीक्षित के पुत्र जन्मजेय ने तक्षक से बदला लिया था।
 
 
'नागा आदिवासी' का संबंध भी नागों से ही माना गया है। छत्तीसगढ़ के बस्तर में भी नल और नाग वंश तथा कवर्धा के फणि-नाग वंशियों का उल्लेख मिलता है। पुराणों में मध्यप्रदेश के विदिशा पर शासन करने वाले नाग वंशीय राजाओं में शेष, भोगिन, सदाचंद्र, धनधर्मा, भूतनंदि, शिशुनंदि या यशनंदि आदि का उल्लेख मिलता है।
 
 
पुराणों अनुसार एक समय ऐसा था जबकि नागा समुदाय पूरे भारत (पाक-बांग्लादेश सहित) के शासक थे। उस दौरान उन्होंने भारत के बाहर भी कई स्थानों पर अपनी विजय पताकाएं फहराई थीं। तक्षक, तनक और तुश्त नागाओं के राजवंशों की लम्बी परंपरा रही है। इन नाग वंशियों में ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि सभी समुदाय और प्रांत के लोग थे।
 
 
नाग और नाग जाति :
जिस तरह सूर्यवंशी, चंद्रवंशी और अग्निवंशी माने गए हैं उसी तरह नागवंशियों की भी प्राचीन परंपरा रही है। महाभारत काल में पूरे भारत वर्ष में नागा जातियों के समूह फैले हुए थे। विशेष तौर पर कैलाश पर्वत से सटे हुए इलाकों से असम, मणिपुर, नागालैंड तक इनका प्रभुत्व था। ये लोग सर्प पूजक होने के कारण नागवंशी कहलाए। कुछ विद्वान मानते हैं कि शक या नाग जाति हिमालय के उस पार की थी। अब तक तिब्बती भी अपनी भाषा को 'नागभाषा' कहते हैं। 
 
 
एक सिद्धांत अनुसार ये मूलत: कश्मीर के थे। कश्मीर का 'अनंतनाग' इलाका इनका गढ़ माना जाता था। कांगड़ा, कुल्लू व कश्मीर सहित अन्य पहाड़ी इलाकों में नाग ब्राह्मणों की एक जाति आज भी मौजूद है। नाग वंशावलियों में 'शेष नाग' को नागों का प्रथम राजा माना जाता है। शेष नाग को ही 'अनंत' नाम से भी जाना जाता है। इसी तरह आगे चलकर शेष के बाद वासुकी हुए फिर तक्षक और पिंगला। वासुकी का कैलाश पर्वत के पास ही राज्य था और मान्यता है कि तक्षक ने ही तक्षकशिला (तक्षशिला) बसाकर अपने नाम से 'तक्षक' कुल चलाया था। उक्त तीनों की गाथाएं पुराणों में पाई जाती हैं।
 
 
शहर और गांव :
नागवंशियों ने भारत के कई हिस्सों पर राज किया था। इसी कारण भारत के कई शहर और गांव 'नाग' शब्द पर आधारित हैं। मान्यता है कि महाराष्ट्र का नागपुर शहर सर्वप्रथम नागवंशियों ने ही बसाया था। वहां की नदी का नाम नाग नदी भी नागवंशियों के कारण ही पड़ा। नागपुर के पास ही प्राचीन नागरधन नामक एक महत्वपूर्ण प्रागैतिहासिक नगर है। महार जाति के आधार पर ही महाराष्ट्र से महाराष्ट्र हो गया। महार जाति भी नागवंशियों की ही एक जाति थी। इसके अलावा हिंदीभाषी राज्यों में 'नागदाह' नामक कई शहर और गांव मिल जाएंगे। उक्त स्थान से भी नागों के संबंध में कई किंवदंतियां जुड़ी हुई हैं। नगा या नागालैंड को क्यों नहीं नागों या नागवंशियों की भूमि माना जा सकता है।
 
नाग से संबंधित कई बातें आज भारतीय संस्कृति, धर्म और परम्परा का हिस्सा बन गई हैं, जैसे नाग देवता, नागलोक, नागराजा-नागरानी, नाग मंदिर, नागवंश, नाग कथा, नाग पूजा, नागोत्सव, नाग नृत्य-नाटय, नाग मंत्र, नाग व्रत और अब नाग कॉमिक्स...

शनिवार, 6 मई 2023

जन-गण-मन की कहानी...

सन् 1911 तक भारत की राजधानी बंगाल हुआ करता था। सन् 1905 में जब बंगाल विभाजन को लेकर अंग्रेजो के खिलाफ बंग-भंग आन्दोलन के विरोध में बंगाल के लोग उठ खड़े हुए तो अंग्रेजो ने अपने आपको बचाने के लिए के कलकत्ता से हटाकर राजधानी को दिल्ली ले गए और 1911 में दिल्ली को राजधानी घोषित कर दिया। पूरे भारत में उस समय लोग विद्रोह से भरे हुए थे तो अंग्रेजो ने अपने इंग्लॅण्ड के राजा को भारत आमंत्रित किया ताकि लोग शांत हो जाये। 

इंग्लैंड का राजा जोर्ज पंचम 1911 में भारत में आया।
रविंद्रनाथ टैगोर पर दबाव बनाया गया कि तुम्हे एक गीत जोर्ज पंचम के स्वागत में लिखना ही होगा।

उस समय टैगोर का परिवार अंग्रेजों के काफी नजदीक हुआ करता था, उनके परिवार के बहुत से लोग ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए काम किया करते थे, उनके बड़े भाई अवनींद्र नाथ टैगोर बहुत दिनों तक ईस्ट इंडिया कंपनी के कलकत्ता डिविजन के निदेशक (Director) रहें। उनके परिवार का बहुत पैसा ईस्ट इंडिया कंपनी में लगा हुआ था और खुद रविन्द्र नाथ टैगोर की बहुत सहानुभूति थी अंग्रेजों के लिए...

रविंद्रनाथ टैगोर ने मन से या बेमन से जो गीत लिखा, उसके बोल है "जन गण मन अधिनायक जय हे भारत भाग्य विधाता" इस गीत के सारे के सारे शब्दों में अंग्रेजी राजा जोर्ज पंचम का गुणगान है, जिसका अर्थ समझने पर पता लगेगा कि ये तो हकीक़त में ही अंग्रेजो की खुशामद में लिखा गया था।

इस राष्ट्रगान का अर्थ कुछ इस तरह से होता है "भारत के नागरिक, भारत की जनता अपने मन से आपको भारत का भाग्य विधाता समझती है और मानती हैं। हे अधिनायक (Superhero) तुम्ही भारत के भाग्य विधाता हो। तुम्हारी जय हो ! जय हो ! जय हो ! तुम्हारे भारत आने से सभी प्रान्त पंजाब, सिंध, गुजरात, मराठा मतलब महारास्त्र, द्रविड़मतलब दक्षिण भारत, उत्कल मतलब उड़ीसा, बंगाल आदि और जितनी भी नदिया जैसे यमुना और गंगा ये सभी हर्षित है, खुश है, प्रसन्न हैं। तुम्हारा नाम लेकर ही हम जागते है और तुम्हारे नाम का आशीर्वाद चाहते है। तुम्हारी ही हम गाथा गाते है। हे भारत के भाग्य विधाता (जोर्ज पंचम) तुम्हारी जय हो, जय हो, जय हो। "

जोर्ज पंचम भारत आया 1911 में और उसके स्वागत में ये गीत गाया गया। जब वो इंग्लैंड चला गया तो उसने उस जन-गण-मन का अंग्रेजी में अनुवाद करवाया... क्योंकि जब भारत में उसका इस गीत से स्वागत हुआ था, तब उसके समझ में नहीं आया था कि ये गीत क्यों गाया गया और इसका अर्थ क्या है। जब अंग्रेजी अनुवाद उसने सुना तो वह बोला कि इतना सम्मान और इतनी खुशामद तो मेरी आज तक इंग्लॅण्ड में भी किसी ने नहीं की..! वह बहुत खुश हुआ। उसने आदेश दिया कि जिसने भी ये गीत उसके लिए लिखा हैं, उसे इंग्लैंड बुलाया जाये, रविन्द्र नाथ टैगोर इंग्लैंड गए। जोर्ज पंचम उस समय नोबल पुरस्कार समिति का अध्यक्ष भी था।

उसने रविन्द्र नाथ टैगोर को नोबल पुरस्कार से सम्मानित करने का फैसला किया तो रविन्द्र नाथ टैगोर ने इस नोबल पुरस्कार को लेने से मना कर दिया, क्योंकि गाँधी जी ने बहुत बुरी तरह से रविन्द्रनाथ टेगोर को उनके इस गीत के लिए खूब डांटा था। टैगोर ने कहा कि आप मुझे नोबल पुरस्कार देना ही चाहते हैं तो मैंने एक गीतांजलि नामक रचना लिखी हैं, उस पर मुझे दे दो लेकिन इस गीत के नाम पर मत दो और यही प्रचारित किया जाये क़ि मुझे जो नोबेल पुरस्कार दिया गया है वो गीतांजलि नामक रचना के ऊपर दिया गया है। जोर्ज पंचम मान गया और रविन्द्र नाथ टैगोर को सन 1913 में गीतांजलि नामक रचना के ऊपर नोबल पुरस्कार दिया गया।

रविन्द्र नाथ टैगोर की ये सहानुभूति ख़त्म हुई 1919 में, जब जलिया वाला कांड हुआ और गाँधी जी ने लगभग गाली की भाषा में उनको पत्र लिखा और कहा क़ि अभी भी तुम्हारी आँखों से अंग्रेजियत का पर्दा नहीं उतरेगा तो कब उतरेगा,तुम अंग्रेजों के इतने चाटुकार कैसे हो गए, तुम इनके इतने समर्थक कैसे हो गए..? फिर गाँधी जी स्वयं रविन्द्र नाथ टैगोर से मिलने गए और बहुत जोर से डाटा कि अभी तक तुम अंग्रेजो की अंध भक्ति में डूबे हुए हो..? तब जाकर रविंद्रनाथ टैगोर की नींद खुली। इस काण्ड का टैगोर ने विरोध किया और नोबल पुरस्कार अंग्रेजी हुकूमत को लौटा दिया। सन् 1919 से पहले जितना कुछ भी रविन्द्र नाथ टैगोर ने लिखा वो अंग्रेजी सरकार के पक्ष में था और 1919 के बाद उनके लेख कुछ-कुछ अंग्रेजो के खिलाफ होने लगे थे।

रविन्द्र नाथ टेगोर के बहनोई, सुरेन्द्र नाथ बनर्जी लन्दन में रहते थे और ICS ऑफिसर थे। अपने बहनोई को उन्होंने एक पत्र लिखा था (ये 1919 के बाद की घटना है) इसमें उन्होंने लिखा है कि ये गीत 'जन गण मन' अंग्रेजो के द्वारा मुझ पर दबाव डलवाकर लिखवाया गया है। इसके शब्दों का अर्थ अच्छा नहीं है। इस गीत को नहीं गाया जाये तो अच्छा है, लेकिन अंत में उन्होंने लिख दिया कि इस चिठ्ठी को किसी को नहीं दिखाए क्योंकि मैं इसे सिर्फ आप तक सीमित रखना चाहता हूँ। लेकिन जब कभी मेरी म्रत्यु हो जाये तो सबको बता दें। 7 अगस्त 1941 को रबिन्द्र नाथ टैगोर की मृत्यु के बाद इस पत्र को सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने ये पत्र सार्वजनिक किया और सारे देश को ये कहा क़ि ये जन-गण-मन गीत न गाया जाये।

1941 तक कांग्रेस पार्टी थोड़ी उभर चुकी थी, लेकिन वह दो खेमो में बट गई। जिसमें एक खेमे के समर्थक बाल गंगाधर तिलक थे और दुसरे खेमे में मोती लाल नेहरु थे। मतभेद था, सरकार बनाने को लेकर... मोती लाल नेहरु चाहते थे कि स्वतंत्र भारत की सरकार अंग्रेजो के साथ कोई संयोजक सरकार (Coalition Government) बने। जबकि गंगाधर तिलक कहते थे कि अंग्रेजो के साथ मिलकर सरकार बनाना तो भारत के लोगों को धोखा देना है। इस मतभेद के कारण लोकमान्य तिलक कांग्रेस से निकल गए और उन्होंने गरम दल बनाया। कोंग्रेस के दो हिस्से हो गए, एक नरम दल और एक गरम दल

गरम दल के नेता थे, लोकमान्य तिलक जैसे क्रन्तिकारीवे हर जगह वन्दे मातरम् गाया करते थे और नरम दल के नेता थे, मोती लाल नेहरु (यहाँ मैं स्पष्ट कर दूँ कि गांधीजी उस समय तक कांग्रेस की आजीवन सदस्यता से इस्तीफा दे चुके थे, वो किसी तरफ नहीं थे लेकिन गाँधी जी दोनों पक्ष के लिए आदरणीय थे क्योंकि गाँधी जी देश के लोगों के आदरणीय थे) लेकिन नरम दल वाले ज्यादातर अंग्रेजो के साथ रहते थे। उनके साथ रहना, उनको सुनना, उनकी बैठकों में शामिल होना... हर समय अंग्रेजो से समझौते में रहते थे। वन्देमातरम् से अंग्रेजो को बहुत चिढ़ होती थी। नरम दल वाले गरम दल को चिढ़ने के लिए 1911 में लिखा गया गीत "जन गण मन" गाया करते थे और गरम दल वाले "वन्दे मातरम् "

नरम दल वाले अंग्रेजों के समर्थक थे और अंग्रेजों को ये गीत पसंद नहीं था तो अंग्रेजों के कहने पर नरम दल वालों ने उस समय एक हवा उड़ा दी कि मुसलमानों को वन्दे मातरम् नहीं गाना चाहिए क्यों कि इसमें बुतपरस्ती (मूर्ति पूजा) हैं और आप जानते है कि मुसलमान मूर्ति पूजा के कट्टर विरोधी है। उस समय मुस्लिम लीग भी बन गई थी जिसके प्रमुख मोहम्मद अली जिन्ना थे। उन्होंने भी इसका विरोध करना शुरू कर दिया क्योंकि जिन्ना भी देखने भर को (उस समय तक) भारतीय थे,,, मन, कर्म और वचन से अंग्रेज ही थे। उन्होंने भी अंग्रेजों के इशारे पर ये कहना शुरू किया और मुसलमानों को वन्दे मातरम् गाने से मना कर दिया।

 जब भारत सन 1947 में स्वतंत्र हो गया तो जवाहर लाल नेहरु ने इसमें राजनीति कर डाली। संविधान सभा की बहस चली, संविधान सभा के 319 में से 318 सांसद ऐसे थे जिन्होंने बंकिम बाबु द्वारा लिखित वन्देमातरम् को राष्ट्रगान स्वीकार करने पर सहमति जताई। बस एक सांसद ने इस प्रस्ताव को नहीं माना और उस एक सांसद का नाम था पंडित जवाहर लाल नेहरु, उनका तर्क था कि वन्दे मातरम् गीत से मुसलमानों के दिल को चोट पहुचती हैं इसलिए इसे नहीं गाना चाहिए (दरअसल इस गीत से मुसलमानों को नहीं, अंग्रेजों के दिल को चोट पहुंचती थी) अब इस झगड़े का फैसला कौन करें..! तो वे पहुचे गाँधी जी के पास, गाँधी जी ने कहा कि जन-गण-मन के पक्ष में तो मैं भी नहीं हूँ और तुम (नेहरु) वन्देमातरम् के पक्ष में नहीं हो तो कोई तीसरा गीत तैयार किया जाये... तो महात्मा गाँधी ने तीसरा विकल्प झंडा गान के रूप में दिया "विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊँचा रहे हमारा" लेकिन नेहरु जी उस पर भी तैयार नहीं हुए, नेहरु जी का तर्क था कि झंडा गान ओर्केस्ट्रा पर नहीं बज सकता और जन-गण-मन ओर्केस्ट्रा पर बज सकता है। 

उस समय बात नहीं बनी तो नेहरु जी ने इस मुद्दे को गाँधी जी की मृत्यु तक टाले रखा और उनकी मृत्यु के बाद नेहरु जी ने जन-गण-मन को राष्ट्र गान घोषित कर दिया और जबरदस्ती भारतीयों पर इसे थोप दिया गया जबकि इसके जो बोल है, उनका अर्थ कुछ और ही कहानी प्रस्तुत करते है और दूसरा पक्ष नाराज न हो इसलिए वन्दे मातरम् को राष्ट्रगीत बना दिया गया लेकिन कभी गया नहीं गया। नेहरु जी कोई ऐसा काम नहीं करना चाहते थे जिससे कि अंग्रेजों के दिल को चोट पहुंचे। मुसलमानों के वो इतने हिमायती कैसे हो सकते थे जिस आदमी ने पाकिस्तान बनवा दिया जब कि इस देश के मुसलमान पाकिस्तान नहीं चाहते थे। जन-गण-मन को इस लिए महत्व दिया गया क्योंकि वो अंग्रेजों की भक्ति में गाया गया गीत था और वन्देमातरम् इसलिए पीछे रह गया क्योंकि इस गीत से अंगेजों को दर्द होता था।

बीबीसी ने एक सर्वे किया था... उसने पूरे संसार में जितने भी भारत के लोग रहते थे, उनसे पुछा कि आपको दोनों में से कौन-सा गीत ज्यादा पसंद है तो 99% लोगों ने कहा वन्देमातरम् 
बीबीसी के इस सर्वे से एक बात और साफ़ हुई कि दुनिया के सबसे लोकप्रिय गीतों में दुसरे नंबर पर वन्देमातरम् है। कई देश है जिनके लोगों को इसके बोल समझ में नहीं आते है लेकिन वो कहते है कि इसमें जो लय हैं, उससे एक जज्बा पैदा होता है।

तो ये इतिहास है वन्दे मातरम्  और जन गण मन का... 
अब ये आप को तय करना है कि आपको क्या गाना हैं।

इतने लम्बे लेख को अपने धैर्यपूर्वक पढ़ा इसके लिए आपका धन्यवाद् यदि आपको यह जानकारी महत्वपूर्ण लगी हो तो इस सच्चाई से अन्य भारतीयों को भी अवगत करवाएं। आप अगर और भारतीय भाषाएँ जानते हो तो इसे उस भाषा में अनुवादित कीजिये, अंग्रेजी छोड़ कर...

✊🏻जय हिंद...🇮🇳

बुधवार, 12 अप्रैल 2023

क्या है रक्षासूत्र(मौली) जानिए पूरी जानकारी...

मौली बांधना वैदिक परंपरा का हिस्सा हैं। यज्ञ के दौरान इसे बांधे जाने की परंपरा तो पहले से ही रही है, लेकिन इसको संकल्प सूत्र के साथ ही रक्षा-सूत्र के रूप में तब से बांधा जाने लगा, जबसे असुरों के दानवीर राजा बलि की अमरता के लिए भगवान वामन ने उनकी कलाई पर रक्षा-सूत्र बांधा था। इसे रक्षाबंधन का भी प्रतीक माना जाता है, जबकि देवी लक्ष्मी ने राजा बलि के हाथों में अपने पति की रक्षा के लिए यह बंधन बांधा था। मौली को हर हिन्दू बांधता है। इसे मूलत: रक्षा सूत्र कहते हैं।
मौली बांधने का मंत्र :
‘येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल:।
तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल।।’
मौली का अर्थ : 'मौली' का शाब्दिक अर्थ है 'सबसे ऊपर' मौली का तात्पर्य सिर से भी है। शंकर भगवान के सिर पर चन्द्रमा विराजमान है इसीलिए उन्हें चंद्रमौली भी कहा जाता है।  मौली के भी प्रकार हैं। 

कैसी होती है मौली..? :
मौली कच्चे धागे या सूत से बनाई जाती है जिसमें मूलतः 3 रंग के धागे होते हैं लाल, पीला और हरा, लेकिन कभी -कभी यह 5 धागों की भी बनती है जिसमें नीला और सफेद भी होता है। 3 और 5 का मतलब कभी त्रिदेव तो कभी पंचदेव का प्रतीक...
 
कब बांधी जाती है मौली :
*पर्व-त्योहार के अलावा किसी अन्य दिन कलावा बांधने के लिए मंगलवार और शनिवार का दिन शुभ माना जाता है।
हर मंगलवार और शनिवार को पुरानी मौली को उतारकर नई मौली बांधना उचित माना गया है। 
*उतारी हुई पुरानी मौली को पीपल के वृक्ष के पास रख दें या किसी बहते हुए जल में बहा दें।
*प्रतिवर्ष की संक्रांति के दिन, यज्ञ की शुरुआत में, कोई इच्छित कार्य के प्रारंभ में, मांगलिक कार्य, विवाह आदि हिन्दू संस्कारों के दौरान मौली बांधी जाती है।

सनातन परंपरा में मौली शुभता का प्रतीक है, मौली बांधने से टल जाती है कई बाधाएं... मौली बांधना जिसे रक्षा सूत्र भी कहते है, हर धार्मिक कार्य या पूजा के आरम्भ में तिलक के साथ यह अनिवार्य माना जाता है। मौली को कलाई में बांधने के कारण इसे कलावा भी कहते हैं। इसका वैदिक नाम उप मणिबंध भी है।


मोली बांधने के नियम :

- शास्त्रों के अनुसार पुरुषों एवं अविवाहित कन्याओं को दाएं हाथ में कलावा बांधना चाहिए और विवाहित स्त्रियों के लिए बाएं हाथ में कलावा बांधने का नियम है। 
- जिस हाथ में कलावा बंधवा रहे हों, उसकी मुट्ठी बंधी होनी चाहिए और दूसरा हाथ सिर पर होना चाहिए।
- मौली 3, 5 या 7 बार ही लपेटना चाहिए। एक बात का विशेष ध्यान रखें, कभी भी अपनी लंबाई से लंबी मौली ना बांधे।
- नई मौली को बांधने से पहले पुरानी मौली खोल देनी चाहिए।
- पूजा करते समय नवीन वस्त्रों के न धारण किए होने पर मोली हाथ में धारण अवश्य करना चाहिए। 

शुभता का प्रतीक है मौली 

व्यापार और घर में भी वस्तुओं पर मौली का प्रयोग नए वाहन, नए सामान, व्यापार में कलम, बही-खाते, तिजोर, पूजन साम्रग्री आदि पर मौली बांधना शुभता और लाभ का प्रतीक माना जाता है।

संकटों से रक्षा करती है मौली 

मौली को कलाई में बांधने पर कलावा या उप मणिबंध करते हैं। हाथ के मूल में 3 रेखाएं होती हैं जिनको मणिबंध कहते हैं। भाग्य व जीवन रेखा का उद्गम स्थल भी मणिबंध ही है। इन तीनों रेखाओं में दैहिक, दैविक व भौतिक जैसे त्रिविध तापों को देने व मुक्त करने की शक्ति रहती है।

इन मणिबंधों के नाम शिव, विष्णु व ब्रह्मा हैं। इसी तरह शक्ति, लक्ष्मी व सरस्वती का भी यहां साक्षात वास रहता है। जब हम कलावा का मंत्र रक्षा हेतु पढ़कर कलाई में बांधते हैं तो यह तीन धागों का सूत्र त्रिदेवों व त्रिशक्तियों को समर्पित हो जाता है जिससे रक्षा-सूत्र धारण करने वाले प्राणी की सब प्रकार से रक्षा होती है।

मौली(कलावा) बांधने के सिर्फ धार्मिक हीं नहीं बल्कि वैज्ञानिक महत्व भी हैं।

- मोली बांधने से शरीर में वात, पित्त और कफ का संतुलन बना रहता है और शरीर स्वस्थ रहता है।
- डायबीटिज, ब्लड प्रेशर, लकवा और हार्ट अटैक जैसे रोगों में मौली बांधना लाभकारी होता है।
- इसके साथ ही यदि किसी यजमान के मौली बंधी हुई है और वो किसी अनुष्ठान में पूजन कर रहा हो तो सूतक का दोष लगने पर भी यह रक्षा सूत्र उस अनुष्ठान से बाधा टल जाती है।

मनोवैज्ञानिक लाभ : मौली बांधने से उसके पवित्र और शक्तिशाली बंधन होने का अहसास होता रहता है और इससे मन में शांति और पवित्रता बनी रहती है। व्यक्ति के मन और मस्तिष्क में बुरे विचार नहीं आते और वह गलत रास्तों पर नहीं भटकता है। कई मौकों पर इससे व्यक्ति गलत कार्य करने से बच जाता है।