सोमवार, 31 मई 2021

सावरकर वीर या बुजदिल..? तय करने से पहले पढ़ लीजिए...

सावरकर को लेकर भारत में दो तरह के मत हैं। 

एक मत के मुताबिक सावरकर देश के महान क्रांतिकारी और स्वतंत्रता सेनानी हैं। 

जबकि दूसरा मत है जो सावरकर को कायर और अंग्रेजों का एजेंट करार देता है। जिसको लेकर राजनीतिक और बौद्धिक गलियारों में हमेशा विवाद और बहस का वातावरण बना रहता है...

तो आइये समझते हैं कि सावरकर को लेकर इतना विवाद क्यों है..? क्यों एक क्रांतिकारी को उसके हक का सम्मान देने का विरोध होता है..?


क्या कालापानी के नर्क को नियति मान लेते सावरकर?

इधर सावरकर को भारत लाया गया, जहां कोर्ट से उन्हें 25-25 साल की दो अलग-अलग सजाएं सुनाई गईं। सजा काटने के लिए भारत से दूर अंडमान यानी 'काला पानी' भेज दिया गया। उन्हें सेल्युलर जेल में 13.5/7.5 फीट की घनी अंधेरी कोठरी में रखा गया। वहां जेल में सावरकर के जीवन का जिक्र करते हुए आशुतोष देशमुख लिखते हैं कि 'अंडमान में सरकारी अफसर बग्घी में चलते थे और सावरकर समेत तमाम कैदियों को इन बग्घियों को खींचना पड़ता था। जब कैदी बग्घियों को खींचने में लड़खड़ा जाते थे तो उन्हें चाबुक से पीटा जाता था। कैदियों को कोल्हू चलाकर तेल भी निकालना पड़ता था।

देशमुख आगे लिखते हैं कि 'टॉयलेट में भीड़ होने के कारण कभी-कभी कैदी को जेल के अपने कमरे के एक कोने में ही मल त्यागना पड़ता था। कभी-कभी कैदियों को खड़े-खड़े ही हथकड़ियां और बेड़ियां पहनने की सजा दी जाती थी। उस दशा में उन्हें खड़े-खड़े ही शौचालय का इस्तेमाल करना पड़ता था। उल्टी करने के दौरान भी उन्हें बैठने की इजाजत नहीं थी।'

सावरकर का माफीनामा एक रणनीति

काफी समय तक यातनाओं की दौर से गुजरते हुए सावरकर ने एक रणनीति बनाई। उन्होंने अंग्रेजों से माफी मांगने का मन बना लिया। इसके लिए उन्होंने अंग्रेज हुकूमत को 6 बार चिट्ठियां लिखी। कानून के मुताबिक कैदियों के अच्छे व्यवहार को देखते हुए, उन्हें कुछ शर्तों पर रिहा भी किया जाता है। इसका लाभ उस दौरान कई राजनीतिक कैदियों को मिला। सावरकर के भी तमाम अच्छे व्यवहार को देखते हुए, उन्हें 1924 में रिहा कर दिया गया... पर इसमें दो शर्ते लगाई गई, पहला- वो किसी राजनीतिक क्रियकलाप में शामिल नहीं होंगे। दूसरा- वो रत्नागिरि के जिला कलेक्टर की अनुमति लिए बिना, जिले से बाहर नहीं जाएंगे।

इस मामले पर इंदिरा गांधी सेंटर ऑफ आर्ट्स के प्रमुख राम बहादुर राय का कहना है कि सावरकर की कोशिश रहती थी कि भूमिगत रह करके उन्हें काम करने का जितना मौका मिले, उतना अच्छा है। उनके मुताबिक सावरकर इस पचड़े में नहीं पड़े की उनके माफ़ी मांगने पर लोग क्या कहेंगे..! उनकी सोच ये थी कि अगर वो जेल के बाहर रहेंगे तो वो जो करना चाहेंगे, वो कर सकेंगे।

सावरकर का हिंदू और हिंदुत्व

अंडमान से वापस आने के बाद सावरकर ने एक पुस्तक लिखी 'हिंदुत्व - हू इज़ हिंदू?' जिसमें उन्होंने पहली बार हिंदुत्व को एक राजनीतिक विचारधारा के तौर पर इस्तेमाल किया। किताब के मुताबिक इस देश का इंसान मूलत: हिंदू है। इस देश का नागरिक वही हो सकता है जिसकी पितृ भूमि, मातृ भूमि और पुण्य भूमि यही हो।

महात्मा गांधी की हत्या में शामिल होने के आरोप से भी हुए बरी

सावरकर की छवि को उस समय बहुत धक्का लगा, जब 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के आरोप में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें सिर्फ इसलिए गिरफ्तार कर लिया गया कि नाथूराम गोडसे और उनके विचारों में कई समानताएं थी और गोडसे भी पहले हिंदू महासभा से जुड़ा हुए थे, लेकिन 1949 में सावरकर को गांधी जी की हत्या में शामिल होने का आरोप बेबुनियाद साबित हुआ और उन्हें बाइज्जत बरी कर दिया गया।

अदालत से बरी हो जाने के बावजूद गांधी जी की हत्या में शामिल होने का महज आरोप ने ही गोडसे के बाद उन्हें आजाद भारत का सबसे बड़ा विलेन बना दिया। आजादी के बाद बेहद एकांकी जीवन बिताते हुए 1966 में उनकी मृत्यू हो गई। इसके बाद सावरकर की विरासत को अंधकार डाल दिया गया।

गांधी और सावरकर की विचारधारा का संयोग

लेकिन फिर एक वक्त आया जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में उनके हक का सम्मान उन्हें देने की कवायद शुरू हुई। इसी के मद्देनजर कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियों के तमाम विरोध के बावजूद संसद में उनकी तस्वीर लगाई गई लेकिन संयोग देखिए, संसद के सेंट्रल हॉल में भी गांधी और सावरकर की तस्वीर ठीक एक दूसरे के सामने दीवार पर लगी है और जब आप  सावरकर को सम्मान देने पहुंचते हैं तो संयोगवश आपकी पीठ गांधी जी की तरफ मुड़ जाती है।

कुछ ऐसा ही समीकरण बना दिया गया है, दोनों महान स्वतंत्रता सेनानियों के मामले में... मसलन, आप सावरकर को सम्मान देते हैं तो आपको गांधी की विचारधारा की तरफ पीठ घुमानी पड़ जाती है और अगर आप गांधी को स्वीकारते हैं तो आपको सावरकर की विचारधारा को नकारना पड़ता है।


वीर सावरकर ने भारत की आजादी के लिए अपार कुर्बानियों दी... लेकिन इसके बावजूद उन्हें आजाद भारत में वो स्वीकार्यता नहीं मिल पाई, जिसके वो हकदार थे। उनकी तमाम कुर्बानियां कथित विचारधाराओं की भेंट चढ़ गई...

जानिए वीर सावरकर के बारे में 10 विशेष बातें...

1. विनायक दामोदर सावरकर दुनिया के अकेले स्वातंत्र्य-योद्धा थे जिन्हें 2-2 आजीवन कारावास  की सजा मिली, सजा को पूरा किया और फिर से वे राष्ट्र जीवन में सक्रिय हो गए।



2. वे विश्व के ऐसे पहले लेखक थे जिनकी कृति 1857 का प्रथम स्वतंत्रता को 2-2 देशों ने  प्रकाशन से पहले ही प्रतिबंधित कर दिया।



3. वे पहले स्नातक थे जिनकी स्नातक की उपाधि को स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के कारण  अंग्रेज सरकार ने वापस ले लिया।



4. वीर सावरकर पहले ऐसे भारतीय विद्यार्थी थे जिन्होंने इंग्लैंड के राजा के प्रति वफादारी की  शपथ लेने से मना कर दिया। फलस्वरूप उन्हें वकालत करने से रोक दिया गया।



5. वीर सावरकर पहले ऐसे भारतीय राजनीतिज्ञ थे जिन्होंने सर्वप्रथम विदेशी वस्त्रों की होली  जलाई।



6. वीर सावरकर ने राष्ट्रध्वज तिरंगे के बीच में धर्म चक्र लगाने का सुझाव सर्वप्रथम दिया था  जिसे राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने माना।



7. उन्होंने ही सबसे पहले पूर्ण स्वतंत्रता को भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का लक्ष्य घोषित किया।  वे ऐसे प्रथम राजनीतिक बंदी थे जिन्हें विदेशी (फ्रांस) भूमि पर बंदी बनाने के कारण हेग के  अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में मामला पहुंचा।



8. वे पहले क्रांतिकारी थे जिन्होंने राष्ट्र के सर्वांगीण विकास का चिंतन किया तथा बंदी जीवन  समाप्त होते ही जिन्होंने अस्पृश्यता आदि कुरीतियों के विरुद्ध आंदोलन शुरू किया।



9. दुनिया के वे ऐसे पहले कवि थे जिन्होंने अंडमान के एकांत कारावास में जेल की दीवारों पर  कील और कोयले से कविताएं लिखीं और फिर उन्हें याद किया। इस प्रकार याद की हुई 10  हजार पंक्तियों को उन्होंने जेल से छूटने के बाद पुन: लिखा। 



10. सावरकर द्वारा लिखित पुस्तक 'द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस-1857 एक सनसनीखेज  पुस्तक रही जिसने ब्रिटिश शासन को हिला डाला था। 

गुरुवार, 27 मई 2021

17 बूचड़खाने तोड़ने वाला हरफूल जाट जुलानी वाला

जन्म

वीर हरफूल का जन्म सन् 1892 में भिवानी जिले के लाहौर लोहारू तहसील के गांव बारवास में एक किसान परिवार में हुआ था।

बारवास गांव के इन्द्रायण पाने में उनके पिता चौधरी चतरू राम सिंह रहते थे। उनके दादा का नाम चौधरी किताराम सिंह था। 1899 में हरफूल के पिताजी की प्लेग के कारण मृत्यु हो गयी। इसी बीच उनका परिवार जुलानी(जींद) गांव में आ गया।यहीं के नाम से उन्हें हरफूल जाट जुलानी वाला कहा जाता है।

हरफूल की माता जी को उनके देवर रत्ना का लत्ता उढा दिया गया।
हरफूल अपने मामा के यहां तोशाम के पास संडवा(भिवानी) गांव में चले गये।
जब वे वापिस आये तो उनके चाचा के लड़कों ने उसे प्रोपर्टी में हिस्सा देने से मना कर दिया, जिस पर बहुत झगड़ा हुआ।हरफूल को झूठी गवाही देकर पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और हरफूल पर थानेदार ने बहुत अत्याचार किये।
उनकी माता ने हरफूल का पक्ष लिया मगर उनकी एक न चली, बाद में उनकी देखभाल भी बन्द हो गयी।

सेना में 10 साल

उसके बाद हरफूल सेना में भर्ती हो गए। उन्होंने 10 साल सेना में काम किया। उन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध में भी भाग लिया। उस दौरान ब्रिटिश आर्मी के किसी अफसर के बच्चों व औरत को घेर लिया। तब हरफूल ने बड़ी वीरता दिखलाई व बच्चों की रक्षा की... अकेले ही दुश्मनों को मार भगाया।

फिर हरफूल ने सेना छोड़ दी। जब सेना छोड़ी तो उस अफसर ने उन्हें गिफ्ट मांगने को कहा गया तो उन्होंने फोल्डिंग गन मांगी। फिर वह बंदूक अफसर ने उन्हें दी।

थानेदार व अपने परिवार से बदला-

उसके बाद हरफूल ने सबसे पहले आते ही टोहाना के उस थानेदार को ठोक दिया जिसने उसे झूठा पकड़ा व टॉर्चर किया था। फिर उसने अपने परिवार से जमीन में हिस्सा मांगा तो चौधरी कुरड़ाराम जी के अलावा किसी ने सपोर्ट न किया और भला बुरा कहा... वे उनकी माता की मृत्यु के भी जिम्मेदार थे तो बाकियो को हरफूल ने ठोक दिया।
फिर हरफूल बागी हो गया... और उसने अपना बाद का जीवन गौरक्षा व गरीबों की सहायता में बिताया।

और यहीं से शुरू हुआ हरफूल सिंह का गौरक्षक हरफूल जाट जलाने वाला बनाने का सफर...

पहला हत्था तोड़ने का किस्सा - 23 July 1930

टोहाना
में मुस्लिम राँघड़ो का एक गाय काटने का एक कसाईखाना था। वहां की 52 गांवों की खाप ने इसका कई बार विरोध किया। कई बार हमला भी किया जिसमें खाप के कई नौजवान शहीद हुए व कुछ कसाई भी मारे गए, लेकिन सफलता हासिल नहीं हुई। क्योंकि ब्रिटिश सरकार मुस्लिमों के साथ थी और खाप के पास हथियार भी नहीं थे।
तब खाप ने वीर हरफूल को बुलाया व अपनी समस्या सुनाई।हिन्दू वीर हरफूल भी गौहत्या की बात सुनकर लाल-पीले हो गए और फिर खाप के लिए हथियारों का प्रबंध किया। हरफूल ने युक्ति बनाकर दिमाग से काम लिया। उन्होंने एक औरत का रूप धरकर कसाईखाने के मुस्लिम सैनिको और कसाईयों का ध्यान बांट दिया। फिर नौजवान अंदर घुस गए, उसके बाद हरफूल ने ऐसी तबाही मचाई के बड़े-बड़े कसाई उनके नाम से ही कांपने लगे। उन्होंने कसाईयों पर कोई रहम नहीं खाया।सैंकड़ो मुस्लिम राँघड़ो को मौत के घाट उतार दिया और गायों को मुक्त करवाया। अंग्रेजों के समय बूचड़खाने तोड़ने की यह प्रथम घटना थी।

इस महान साहसिक कार्य के लिए खाप ने उन्हें सवा शेर की उपाधि दी व पगड़ी भेंट की...

उसके बाद तो हरफूल ने ऐसी कोई जगह नहीं छोड़ी जहां उन्हें पता चला कि कसाईखाना हैं, वहीं जाकर धावा बोल देते थे।
उन्होंने जींद, नरवाना, गौहाना, रोहतक आदि में 17 गौहत्थे तोड़े। उनका नाम पूरे उत्तर भारत में फैल गया। कसाई उनके नाम से ही थर्राने लगे। उनके आने की खबर सुनकर ही कसाई सब छोड़कर भाग जाते थे। मुसलमान और अंग्रेजों का बूचड़खाने का धंधा चौपट हो गया।
इसलिए अंग्रेज पुलिस उनके पीछे लग गयी। मगर हरफूल कभी हाथ न आये। कोई अंग्रेजों को उनका पता बताने को तैयार नहीं हुआ।

गरीबों का मसीहा-

वीर हरफूल उस समय चलती फिरती कोर्ट के नाम से भी मशहूर थे। जहाँ भी गरीब या औरत के साथ अन्याय होता था, वो वहीं उसे न्याय दिलाने पहुंच जाते थे। उनके न्याय के भी बहुत से किस्से प्रचलित हैं।

हरफूल की गिरफ्तारी व बलिदान


अंग्रेजों ने हरफूल के ऊपर इनाम रख दिया और उन्हें पकड़ने की कवायद शुरू कर दी।

इसलिए हरफूल अपनी एक ब्राह्मण धर्म_बहन के पास झुंझनु(रजस्थान) के पंचेरी कलां पहुंच गए। इस ब्राह्मण बहन की शादी भी हरफूल ने ही करवाई थी।
यहां का एक ठाकुर भी उनका दोस्त था। वह इनाम के लालच में आ गया व उसने अंग्रेजों के हाथों अपना जमीर बेचकर दोस्त व धर्म से गद्दारी की...

अंग्रेजों ने हरफूल को सोते हुए गिरफ्तार कर लिया। कुछ दिन जींद जेल में रखा लेकिन उन्हें छुड़वाने के लिये हिन्दुओं ने जेल में सुरंग बनाकर सेंध लगाने की कोशिश की और विद्रोह कर दिया, इसलिये अंग्रेजों ने उन्हें फिरोजपुर जेल में चुपके से ट्रांसफर कर दिया।

बाद में 27 जुलाई 1936 को चुपके से पंजाब की फिरोजपुर जेल में अंग्रेजों ने उन्हें रात को फांसी दे दी। उन्होंने विद्रोह के डर से इस बात को लोगो के सामने स्पष्ट नहीं किया व उनके पार्थिव शरीर को भी हिन्दुओ को नहीं दिया गया। उनके शरीर को सतलुज नदी में बहा दिया गया।

इस तरह देश के सबसे बड़े गौरक्षक, उत्तर भारत के रॉबिनहुड कहे जाने वाले कट्टर हिंदू वीर हरफूल सिंह ने अपना सर्वस्व गौमाता की सेवा में कुर्बान कर दिया।

मगर कितने शर्म की बात है कि बहुत कम लोग आज उनके बारे में जानते हैं। कई गौरक्षक संगठन भी उनको याद नहीं करते..! गौशालाओं में भी गौमाता के इस लाल की मूर्तियां नहीं है।

ऐसे महान गौरक्षक को मैं कमल सिंघल नमन करता हूँ।🙇🏻

🙏🏻 जय गौमाता ✊🏻 जय गौरक्षक ⛳

बुधवार, 26 मई 2021

कहीं आप भी तो नहीं मान रहे, गौतम बुद्ध और भगवान बुद्ध को एक

आधुनिक मान्यतानुसार गौतम बुद्ध को ही बुद्धावतार माना जाता है परन्तु पुराणों के विस्तृत अध्ययन से ज्ञात होता है कि भगवान बुद्ध, गौतम बुद्ध से भिन्न हैं। जैसे स्कन्ध १ अध्याय ६ के श्लोक २४ में -

ततः कलौ सम्प्रवृत्ते सम्मोहाय सुरद्विषाम्। बुद्धोनाम्नाजनसुतः कीकटेषु भविष्यति॥

अर्थात्, कलयुग में देवद्वेषियों को मोहित करने नारायण कीकट प्रदेश (वर्तमान नाम 'गया' बिहार, भारत) में अजन के पुत्र के रूप में प्रकट होंगे। जबकि बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार गौतम बुद्ध का जन्म वर्तमान नेपाल के लुम्बिनी में राजा शुद्धोदन के घर हुआ था। 

हिंदू धर्म के बुद्ध का जन्म आश्विन शुक्लपक्ष दशमी गुरूवार को हुआ था, जबकि गौतम बुद्ध का जन्म वैशाख शुक्ल पुर्णिमा को हुआ था।

भगवान बुद्ध (नीचे, मध्य में) भगवान विष्णु के दस अवतारों में से 9वें अवतार थे। यह लघुचित्र (मिनिएचर) जयपुर से प्राप्त हुआ है।

भगवान बुद्ध का उल्लेख सभी प्रमुख पुराणों तथा सभी महत्वपूर्ण हिन्दू ग्रन्थों में हुआ है। इन ग्रन्थों में मुख्यतः बुद्ध की दो भूमिकाओं का वर्णन है- युगीय धर्म की स्थापना के लिये नास्तिक (अवैदिक) मत का प्रचार तथा पशु-बलि की निन्दा। नीचे उन कुछ पुराणों में बुद्ध के उल्लेख का सन्दर्भ दिया गया है-

हरिवंश पर्व (1.41)

विष्णु पुराण (3.18)

भागवत पुराण (1.3.24, 2.7.37, 11.4.23) [7]

गरुड़ पुराण (1.1, 2.30.37, 3.15.26) [8]

अग्निपुराण (16)

नारदीय पुराण (2.72)

लिंगपुराण (2.71)

पद्म पुराण (3.252)[9]


गौतम बुद्ध 👇🏻


भगवान बुद्ध👇🏻


गौतम बुद्ध और भगवान बुद्ध एक नहीं हैं। भगवान के प्रमुख दस अवतारों में भगवान बुद्ध, नौवें अवतार हैं। आप भगवान क्षीरोदशायी विष्णु के अवतार हैं। 

विचारणीय बात यह है कि शुद्धोदन व माया के पुत्र, शाक्यसिंह बुद्ध और भगवान बुद्ध एक नहीं हैं। श्री शाक्यसिंह बहुत ही ज्ञानी व्यक्ति थे, कठिन तपस्या के बाद जब उन्हें तत्त्वानुभूति हुई तो वे बुद्ध कहलाएं। जबकि भगवान बुद्ध विष्णु के अवतार हैं। 1807 में रामपुर से छपी, अमरकोश में श्रीमान एच टी कोलब्रुक ने इसको प्रमाणित किया है।

श्रीललित विस्तार ग्रंथ के 21 वें अध्याय के 178 पृष्ठ पर बताया गया है कि संयोगवश गौतम बुद्ध जी ने उसी स्थान पर तपस्या की जिस स्थान पर भगवान बुद्ध ने तपस्या की थी, इसी कारण लोगों ने दोनों को एक ही मान लिया।

जर्मन के वरिष्ट स्कालर श्रीमैक्स मुलर जी के अनुसार शाक्यसिंह बुद्ध अर्थात गौतम बुद्ध, कपिला वस्तु के लुम्बिनी के वनों में 477BC में पैदा हुए थे। गौतम बुद्ध के पिता का नाम शुद्धोदन तथा माता का नाम श्रीमती मायादेवी है, जबकि भगवान बुद्ध की माता का नाम अंजना था और पिता का नाम हेमसदन था व उनकी प्रकट स्थली ''गया'' है।

एक और बात श्रीमद् भागवत महापुराण (1.3.24) तथा श्रीनरसिंह पुराण (36/29) के अनुसार भगवान बुद्ध आज से लगभग 5000 साल पहले इस धरातल पर आए जबकि Max Muller के अनुसार गौतम बुद्ध 2491 साल पहले आएं। कहने का तात्पर्य यह है कि गौतम बुद्ध और भगवान बुद्ध एक नहीं हैं।

गुरुवार, 20 मई 2021

सांप सीढ़ी



13वीं शताब्दी के कवि संत ज्ञानदेव ने मोक्ष पाटम नामक एक बच्चों का खेल बनाया। अंग्रेजों ने बाद में इसे सांप और सीढ़ी का नाम दिया और मूल मोक्ष पाटम के बजाय पूरे ज्ञान को पतला कर दिया। 
मूल एक सौ वर्ग गेम बोर्ड में, 12 वां वर्ग विश्वास था, 51 वां वर्ग विश्वसनीयता था, 57 वां वर्ग उदारता, 76 वां वर्ग ज्ञान था, और 78 वां वर्ग तप था।  ये वे वर्ग थे जहाँ सीढ़ी पाई जाती थी और कोई भी तेज़ी से आगे बढ़ सकता था।

41 वां वर्ग अवज्ञा के लिए था, घमंड के लिए 44 वां वर्ग, अशिष्टता के लिए 49 वाँ वर्ग, चोरी के लिए 52 वाँ वर्ग, झूठ बोलने के लिए 58 वाँ वर्ग, नशे के लिए 62 वाँ वर्ग, ऋण के लिए 69 वाँ वर्ग, क्रोध के लिए 84 वाँ वर्ग लालच के लिए 92 वाँ वर्ग, अभिमान के लिए 95 वाँ वर्ग, हत्या के लिए 73 वाँ वर्ग और वासना के लिए 99 वाँ वर्ग।

ये वे वर्ग थे जहाँ साँप के मुँह खुलने का इंतज़ार किया जाता था। 100वें वर्ग ने निर्वाण या मोक्ष का प्रतिनिधित्व किया।

शुक्रवार, 7 मई 2021

बुद्ध धर्म 2 प्रकार का है; पहला भारत के बाहर और दूसरा भारत के अंदर...

अगर आपको भारत के बाहर के बौद्ध धर्म का उदय समझना है तो आपको इस्कॉन को समझना होगा। इस्कॉन श्रीकृष्ण भक्ति के प्रचार की संस्था है। इस्कॉन के सदस्य सिर्फ श्रीकृष्ण को ही ईश्वर मानते हैं और वे किसी अन्य हिन्दू देवी-देवता की पूजा नहीं करते। वे शिव, दुर्गा, गणेश, काली, हनुमान को नहीं पूजते। इसका अर्थ ये नहीं निकलना चाहिए कि वे बाकी हिन्दू देवी-देवताओं के विरोध में हैं। प्राथमिक तौर पर उनके इष्टदेव श्रीकृष्ण ही हैं। इस्कॉन 5 दशकों पहले बना और इसके दुनियाँ में सैकड़ों मंदिर और हजारों यूरोपीय ईसाई अब श्रीकृष्ण भक्त, यानी हिन्दू हैं। यही इस्कॉन अगर 2000 साल बना होता तो शायद आज सारे यूरोपीय लोग हिन्दू यानी श्रीकृष्ण भक्त होते, जो सिर्फ श्रीकृष्ण को ही मानते... किसी दूसरे हिन्दू देवी-देवता को नहीं..! और सिर्फ श्रीकृष्ण को मानने वाली आध्यात्मिक विचारधारा को शायद आज कृष्णाइज़्म कहते...
अशोक ने बुद्ध धर्म का प्रचार इस्कॉन की तर्ज़ पर ही किया था। बुद्ध को अपना इष्टदेव माना इसका अर्थ ये नहीं की अशोक बाकी हिन्दू देवी-देवताओं के खिलाफ था। इस प्रचार के बाद कई हिन्दू देशों श्रीलंका, बर्मा, थाईलैंड, कंबोडिया ने बुद्ध को अपना इष्टदेव मान लिया और सिर्फ बुद्ध को मानने की प्रैक्टिस ही बुद्ध धर्म के रूप में अब हमारे सामने है। बुद्ध ने कोई बुद्ध धर्म शुरू नहीं किया। बुद्ध, खुद बौद्ध नहीं थे। बुद्ध धर्म की सारी किताबें बुद्ध के निर्वाण के बाद लिखी गईं। बौद्ध का जन्म हिन्दू क्षत्रिय परिवार में हुआ और बाद में ब्राह्मण बने। उन्होंने ब्राह्मणों की तरह भिक्षा ले कर जीवन यापन किया और अहिंसा की शिक्षाएं दी। 
बुद्ध कोई नाम नहीं है, एक पदवी है जिसका अर्थ है ज्ञान से परिपूर्ण। बुद्ध से पहले भी 27 बुद्ध हुए हैं और वे सभी बुद्ध ब्राह्मण या क्षत्रिय थे। अगर आप इंडोनेशिया की सैकड़ों साल पुरानी बुद्ध की मूर्तियां देखें तो पाएंगे कि बुद्ध हर मूर्ति में ब्राह्मणों की तरह जनेऊ पहने हैं और माथे पर तिलक लगाएं हैं। इसे आप google भी कर सकतें हैं। बुद्ध ने कुछ ब्राह्मणों की तरह भिक्षा ग्रहण करके लोगों को शिक्षाएं दीं। ये सबूत है कि बुद्ध आजीवन सनातनी रहे।
अब आतें हैं दूसरे बिंदु, भारत के अंदर के बुद्ध धर्म पर। भारत में बुद्ध को आज से 50 साल पहले तक महात्मा बुद्ध कहा जाता था क्योंकि हिंदुओं के लिए वे एक संत या महात्मा जैसे थे। भारत में इसीलिए कभी बौद्ध धर्म के नाम जैसी चीज नहीं रही। बुद्ध धर्म भारत मे राजनैतिक आंदोलनों ने शुरू किया जैसे कि अम्बेडकर का आडम्बर भरा दलित आंदोलन...
भारत के अंदर तथाकथित बौद्ध, वास्तव में बौद्ध नहीं हैं। इसका सबूत है कि जब-जब बुद्ध का अपमान हुआ, तब-तब इन्होंने रत्ती भर भी विरोध भी नहीं किया... चाहे मुसलमानों द्वारा लखनऊ में बुद्ध की मूर्तियाँ तोड़ी जाएं या बामियान में 2000 साल पुरानी बुद्ध की मूर्ति तोड़ी जाएं या इंडियन मुजाहिदीन द्वारा बोध गया में हमला हो। ये तथाकथित बौद्ध एक ऐसी विचारधारा के लोग हैं जो बुद्ध धर्म को एक छद्मावरण के तौर इस्तेमाल कर रहे हैं ताकि हिन्दू धर्म पर हमला करतें रहें। एक समय काँचा इलैया अपने को बौद्ध विद्वान कहता था, बुद्ध के बहाने हिन्दू धर्म पर हमला करता था..! आज वह बेनकाब है, उसका असली नाम काँचा इलैया शेफर्ड है। कमल हसन की बेटी श्रुति हसन ने कुछ समय पहले बुद्ध धर्म अपनाने की घोषणा की जबकि उसके पिता कमल हसन ने एक वीडियो में जीसस की शिक्षाओं का प्रचार करने की बात खुद कही...
ठीक इसी तरह तिब्बत या नेपाल बॉर्डर के बौद्धों को छोड़ दें तो भारत में जितने लोग कहतें हैं कि वे बौद्ध हैं, वो वास्तव में क्रिप्टो- क्रिस्चियन हैं।
@Bhanu pratap singh

शनिवार, 1 मई 2021

श्री गुरु तेग बहादुर जी की वाणी में समायी है 'राम' नाम की महिमा...

भशहीद शिरोमणि श्री गुरु तेग बहादुर जी के भक्ति साहित्य में राम नाम की महिमा पूर्ण रूप से उल्लेखनीय हैै। श्री गुरु ग्रंथ साहिब में गुरुदेव जी की जो वाणी संकलित हैं, उन्हीं के आधार पर विचार करना भी तर्कसंगत है। इससे भावात्मक एकता के प्रचार में काफी बल मिलेगा। सृष्टि रचना तथा उसकी अस्थिरता की ओर संकेत करते हुए गुरुदेव जी कहते हैं -
साधो रचना राम बनाई ।
इकि बिनसै इक असथिरु
मानै अचरजु लखिओ न जाई ॥
(राग गउड़ी : पृष्ठ-219 श्री गुरु ग्रंथ साहिब)
अत: इस संसार को मिथ्या समझकर राम की शरण में ही रहना श्रेयस्कर है।
जन 'नानक' जग जानी मिथ्या, रही राम सरनाई ॥
मुक्ति तब तक संभव नहीं जब तक प्राणी में राम का वास नहीं होता...
नानक मुकति ताहि तुम मानहु जिह घटि रामु समावै ॥ (पृष्ठ-220 श्री गु. ग्रं. सा.)
अत: इसके लिए आवश्यक है और वेद-पुराण आदि भी इसके साक्षी हैं कि एकमात्र रास्ता है प्राणी राम की शरण में जाकर विश्राम करे तथा राम नाम का सुमिरन करे‌...
साधो राम सरनि बिसरामा ।
बेद पुरान पड़े को इह गुन सिमरे हरि को नामा ॥
आगे गुरु तेग बहादुर जी कहते हैं-
कहु नानक सोई नर सुखिआ राम नाम गुन गावै।
प्राणी अंधकार में है और अज्ञानतावश दुख बहुत पाता है, उसे राम भजन की सुध नहीं रहती...
दुआरहि दुआरि सुआन जिउ डोलत नह सुध राम भजन की।।
अत: आवश्यक इस बात की है कि सभी कार्यों के साथ-साथ नित्य प्रति राम नाम का भजन भी करना चाहिए।
कहु नानक भज राम नाम नित जाते हो उद्धार ।।
मानव देह दुर्लभ है। अत: जिसने जन्म दिया है, जीवन दिया है, उससे प्रीति करना जरूरी है, उसके सुकार्यों के गीत गाये जायें, यही जरूरी है।
रे मन राम सिंओ कर प्रीति ।
सखनी गोविन्द गुण सुनो और गावहो रसना गीत।।
(पृष्ठ-631 श्री गुरु ग्रंथ साहिब)
इस क्षणिक संसार से समय नहीं है, समय की गति बहुत तेज है। समय बीतता जा रहा है। इसमें चूकना भारी भूल होगी।
कहै 'नानक' राम भज लै जात अवसर बीति ।।
इतना ही नहीं, इस नश्वर संसार में सब कुछ मिथ्या है, बस केवल राम भजन ही सही है।
अवर सगल मिथिआ ए जानउ भजनु रामु को सही ॥
(पृष्ठ-631 श्री गुरु ग्रंथ साहिब)
राम भक्ति नहीं करने पर मन पीछे पश्चाताप करता है। निंदा करने में ही सारा जीवन बीत गया, यह कुमति नहीं तो क्या है?
मन रे कउनु कुमति तै लीनी ॥ 
पर दारा निंदिआ रस रचिओ राम भगति नहि कीनी ॥
(पृष्ठ-632 श्री गुरु ग्रंथ साहिब)
राम की महिमा अवर्णनीय है. सही बात यह है कि 'राम' शब्द के सुमिरन मात्र से ही संसारिक बंधनों से छुटकारा मिल जाता है।
महिमा नाम कहा लउ बरनउ राम कहत बंधन तिह तूटा ॥
खैर, अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है। सवेरे का भूला हुआ आदमी अगर शाम को घर लौट जाता है, तो उसे भूला नहीं कहा जायेगा।
अजहू समझि कछु बिगरिओ नाहिनि भजि ले नामु मुरारि ॥
कहु नानक निज मतु साधन कउ भाखिओ तोहि पुकारि ॥
(पृष्ठ-633 श्री गुरु ग्रंथ साहिब)
सचमुच में राम की महिमा को न जानना, माया के हाथ बिकना है।
साधो इहु जगु भरम भुलाना ।
राम नाम का सिमरनु छोडिआ माइआ हाथि बिकाना ॥
(पृष्ठ-684 श्री गुरु ग्रंथ साहिब)
सही बात तो यह है कि राम रूप रटन की प्राप्ति प्राणी के अंदर से हो सकती है, क्योंकि ज्ञान की आंख से देखना है।
रट नाम राम बिन मिथ्या मानो, सगरो इह संसारा ।।
(पृष्ठ-703 श्री गुरु ग्रंथ साहिब)
दूसरी तरफ वे कहते हैं, बाह्य आडंबर तीर्थ स्थान सब बेकार है, जब तक राम की शरणागति प्राप्त न की जाये।
कहा भयो तीरथ व्रत कीण, राम शरणु नहीं आवे ॥
(पृष्ठ-831 श्री गुरु ग्रंथ साहिब)
सच्चाई तो यह है कि राम भजन बिना मानव जीवन व्यर्थ है।
जा मै भजनु राम को नाही ।
तिह नर जनमु अकारथु खोइआ यह राखहु मन माही ॥
(पृष्ठ-902 श्री गुरु ग्रंथ साहिब)
कुमति से सुमति की ओर लानेवाला केवल राम नाम ही है।
जाते दुरमति सगल बिनासै राम भगति मनु भीजै ॥
इसलिए हमें राम नाम में तल्लीन रहना चाहिए।
राम नाम नर निसि वासर में, निमख एक उरधारै ॥ (पृष्ठ-902 श्री गुरु ग्रंथ साहिब)
राम नाम सुखदाता है... शबरी, गनिका, पंचाली आदि की कहानियां साक्षी हैं। राम नाम के अलावा संकट में कोई सहायक नहीं है।
इतना ही नहीं... श्री गुरु ग्रंथ साहेब में श्री गुरु तेग बहादुर जी महाराज राम नाम की महिमा का पूर्ण रूप से स्वीकार करते हैं।
रामु सिमरि रामु सिमरि इहै तेरै काजि है।
माइआ को संगु तिआगु प्रभ जू की सरनि लागु॥
रामु भजु रामु भजु जनमु सिरातु है॥
(पृष्ठ-1352 श्री गुरु ग्रंथ साहिब)
इस तरह हम देखते हैं कि श्री गुरु तेग बहादुर जी महाराज के भक्ति साहित्य में राम नाम की महिमा का पूर्ण रूप से वर्णन हुआ है, जिसके भजन से ही प्राणी का कल्याण संभव हैै‌।
मध्य युग के कवि सेनापति ने अपने काव्य में गुरु तेगबहादुर जी के विराट व्यक्तित्व को सृष्टि के संरक्षक के रूप में स्मरण किया है।
प्रकट भयो गुरु तेगबहादुर ।
सकल सृष्टि पै ढापी चादर ।।
करम धरम जिनि पति राखी ।
अटल करी कलजुग मै साखी ।।
सकल सृष्टि जाका जस भयो ।
जिह ते सरब धर्म वचियो ।।
तीन लोक मै जै जै भई ।
सतिगुरु पैज राखि इम लई ।।
गुरु पंथ - संगत का दास
साधो राम सरनि बिसरामा
साधो राम सरनि बिसरामा ॥
बेद पुरान पड़े को इह गुन सिमरे हरि को नामा ॥1॥रहाउ॥
लोभ मोह माइआ ममता फुनि अउ बिखिअन की सेवा ॥
हरख सोग परसै जिह नाहनि सो मूरति है देवा ॥1॥
सुरग नरक अंम्रित बिखु ए सभ तिउ कंचन अरु पैसा ॥
उसतति निंदा ए सम जा कै लोभु मोहु फुनि तैसा ॥2॥
दुखु सुखु ए बाधे जिह नाहनि तिह तुम जानउ गिआनी ॥
नानक मुकति ताहि तुम मानउ इह बिधि को जो प्रानी ॥3॥7॥220॥
रे मन राम सिउ करि प्रीति
रे मन राम सिउ करि प्रीति ॥
स्रवन गोबिंद गुनु सुनउ अरु गाउ रसना गीति ॥1॥रहाउ॥
करि साध संगति सिमरु माधो होहि पतित पुनीत ॥
कालु बिआलु जिउ परिओ डोलै मुखु पसारे मीत ॥1॥
आजु कालि फुनि तोहि ग्रसि है समझि राखउ चीति ॥
कहै नानकु रामु भजि लै जातु अउसरु बीत ॥2॥1॥631।