गुरुवार, 19 अगस्त 2021

अच्छी संगत का फल

#एक_प्रेरक_प्रसंग -

एक भंवरे की मित्रता एक गोबरी (गोबर में रहने वाले) कीड़े से थी। एक दिन कीड़े ने भंवरे से कहा - भाई तुम मेरे सबसे अच्छे मित्र हो, इसलिये मेरे यहाँ भोजन पर आओ...
भंवरा भोजन खाने पहुँचा। बाद में भंवरा सोच में पड़ गया... कि मैंने बुरे का संग किया इसलिये मुझे गोबर खाना पड़ा। 
अब भंवरे ने कीड़े को अपने यहां आने का निमंत्रण दिया कि तुम कल मेरे यहाँ आओ... अगले दिन कीड़ा भंवरे के यहाँ पहुँचा। भंवरे ने कीड़े को गुलाब के फूल में बिठा दिया। कीड़े ने परागरस पिया... 
मित्र का धन्यवाद कर ही रहा था कि पास के मंदिर का पुजारी आया और फूल तोड़ कर ले गया और बिहारी जी के चरणों में चढा दिया। कीड़े को ठाकुर जी के दर्शन हुये, चरणों में बैठने का सौभाग्य भी मिला। संध्या में पुजारी ने सारे फूल इक्कठा किये और गंगा जी में छोड़ दिए... कीड़ा अपने भाग्य पर हैरान था... इतने में भंवरा उड़ता हुआ कीड़े के पास आया, पूछा-मित्र! क्या हाल है..? कीड़े ने कहा - भाई! जन्म-जन्म के पापों से मुक्ति हो गयी। ये सब अच्छी संगत का फल है।

   संगत से गुण ऊपजे, संगत से गुण जाएं।
   लोहा लगा जहाज में,  पानी में उतराय...

कोई भी नहीं जानता कि हम इस जीवन के सफ़र में एक-दूसरे से क्यों मिलते है..!
सब के साथ रक्त संबंध नहीं हो सकते परन्तु ईश्वर हमें कुछ लोगों के साथ मिलाकर अद्भुत रिश्तों में बांध देता हैं, हमें उन रिश्तों को हमेशा संजोकर रखना चाहिए।

अच्छी संगत रखिए...
🙏🏻 जय श्री राम

बुधवार, 11 अगस्त 2021

मृत्यु के 14 प्रकार

रावण युद्ध चल रहा था, तब अंगद ने रावण से कहा - 
तू तो मरा हुआ है, मरे हुए को मारने से क्या फायदा ?

रावण बोला – मैं जीवित हूँ, मरा हुआ कैसे ?

अंगद बोले, सिर्फ साँस लेने वालों को जीवित नहीं कहते - साँस तो लुहार की धौंकनी भी लेती है।

तब अंगद ने मृत्यु के 14 प्रकार बताएं -
1. कामवश - जो व्यक्ति अत्यंत भोगी हो, कामवासना में लिप्त रहता हो, जो संसार के भोगों में उलझा हुआ हो, वह मृत समान है। जिसके मन की इच्छाएं कभी खत्म नहीं होतीं और जो प्राणी सिर्फ अपनी इच्छाओं के अधीन होकर ही जीता है, वह मृत समान है। वह अध्यात्म का सेवन नहीं करता है, सदैव वासना में लीन रहता है।

2. वाममार्गी - जो व्यक्ति पूरी दुनिया से उल्टा चले, जो संसार की हर बात के पीछे नकारात्मकता खोजता हो; नियमों, परंपराओं और लोक व्यवहार के खिलाफ चलता हो, वह वाम मार्गी कहलाता है। ऐसे काम करने वाले लोग मृत समान माने गए हैं।

3. कंजूस - अति कंजूस व्यक्ति भी मरा हुआ होता है। जो व्यक्ति धर्म कार्य करने में, आर्थिक रूप से किसी कल्याणकारी कार्य में हिस्सा लेने में हिचकता हो, दान करने से बचता हो, ऐसा आदमी भी मृतक समान ही है।

4. अति दरिद्र - गरीबी सबसे बड़ा श्राप है। जो व्यक्ति धन, आत्म-विश्वास, सम्मान और साहस से हीन हो, वह भी मृत ही है। अत्यंत दरिद्र भी मरा हुआ है। गरीब आदमी को दुत्कारना नहीं चाहिए, क्योंकि वह पहले ही मरा हुआ होता है। दरिद्र-नारायण मानकर उनकी मदद करनी चाहिए।

5. विमूढ़ - अत्यंत मूढ़ यानी मूर्ख व्यक्ति भी मरा हुआ ही होता है। जिसके पास बुद्धि-विवेक न हो, जो खुद निर्णय न ले सके यानि हर काम को समझने या निर्णय लेने में किसी अन्य पर आश्रित हो, ऐसा व्यक्ति भी जीवित होते हुए भी मृतक समान ही है, मूढ़ अध्यात्म को नहीं समझता।

6. अजसि - जिस व्यक्ति को संसार में बदनामी मिली हुई है, वह भी मरा हुआ है। जो घर-परिवार, कुटुंब-समाज, नगर-राष्ट्र, किसी भी ईकाई में सम्मान नहीं पाता, वह व्यक्ति भी मृत समान ही होता है।

7. सदा रोगवश - जो व्यक्ति निरंतर रोगी रहता है, वह भी मरा हुआ है। स्वस्थ शरीर के अभाव में मन विचलित रहता है। नकारात्मकता हावी हो जाती है। व्यक्ति मृत्यु की कामना में लग जाता है। जीवित होते हुए भी रोगी व्यक्ति जीवन के आनंद से वंचित रह जाता है।

8. अति बूढ़ा - अत्यंत वृद्ध व्यक्ति भी मृत समान होता है, क्योंकि वह अन्य लोगों पर आश्रित हो जाता है। शरीर और बुद्धि, दोनों अक्षम हो जाते हैं। ऐसे में कई बार वह स्वयं और उसके परिजन ही उसकी मृत्यु की कामना करने लगते हैं, ताकि उसे इन कष्टों से मुक्ति मिल सके।

9. सतत क्रोधी - 24 घंटे क्रोध में रहने वाला व्यक्ति भी मृतक समान ही है। ऐसा व्यक्ति हर छोटी-बड़ी बात पर क्रोध करता है। क्रोध के कारण मन और बुद्धि दोनों ही उसके नियंत्रण से बाहर होते हैं। जिस व्यक्ति का अपने मन और बुद्धि पर नियंत्रण न हो, वह जीवित होकर भी जीवित नहीं माना जाता। पूर्व जन्म के संस्कार लेकर यह जीव क्रोधी होता है। क्रोधी अनेक जीवों का घात करता है और नरकगामी होता है।

10. अघ खानी - जो व्यक्ति पाप कर्मों से अर्जित धन से अपना और परिवार का पालन-पोषण करता है, वह व्यक्ति भी मृत समान ही है। उसके साथ रहने वाले लोग भी उसी के समान हो जाते हैं। हमेशा मेहनत और ईमानदारी से कमाई करके ही धन प्राप्त करना चाहिए। पाप की कमाई पाप में ही जाती है और पाप की कमाई से नीच गोत्र, निगोद की प्राप्ति होती है।

11. तनु पोषक - ऐसा व्यक्ति जो पूरी तरह से आत्म संतुष्टि और खुद के स्वार्थों के लिए ही जीता है, संसार के किसी अन्य प्राणी के लिए उसके मन में कोई संवेदना न हो, ऐसा व्यक्ति भी मृतक समान ही है। जो लोग खाने-पीने में, वाहनों में स्थान के लिए, हर बात में सिर्फ यही सोचते हैं कि सारी चीजें पहले हमें ही मिल जाएं, बाकी किसी अन्य को मिलें न मिलें, वे मृत समान होते हैं। ऐसे लोग समाज और राष्ट्र के लिए अनुपयोगी होते हैं। शरीर को अपना मानकर उसमें रत रहना मूर्खता है, क्योंकि यह शरीर विनाशी है, नष्ट होने वाला है।

12. निंदक - अकारण निंदा करने वाला व्यक्ति भी मरा हुआ होता है। जिसे दूसरों में सिर्फ कमियाँ ही नजर आती हैं, जो व्यक्ति किसी के अच्छे काम की भी आलोचना करने से नहीं चूकता है, ऐसा व्यक्ति जो किसी के पास भी बैठे, तो सिर्फ किसी न किसी की बुराई ही करे, वह व्यक्ति भी मृत समान होता है। परनिंदा करने से नीच गोत्र का बंध होता है।

13. परमात्म विमुख - जो व्यक्ति ईश्वर यानि परमात्मा का विरोधी है, वह भी मृत समान है। जो व्यक्ति यह सोच लेता है कि कोई परमतत्व है ही नहीं; हम जो करते हैं, वही होता है, संसार हम ही चला रहे हैं, जो परमशक्ति में आस्था नहीं रखता, ऐसा व्यक्ति भी मृत माना जाता है।

14. श्रुति संत विरोधी - जो संत, ग्रंथ, पुराणों का विरोधी है, वह भी मृत समान है। श्रुत और संत, समाज में अनाचार पर नियंत्रण (ब्रेक) का काम करते हैं। अगर गाड़ी में ब्रेक न हो, तो कहीं भी गिरकर एक्सीडेंट हो सकता है। वैसे ही समाज को संतों की जरूरत होती है, वरना समाज में अनाचार पर कोई नियंत्रण नहीं रह जाएगा।

अतः मनुष्य को उपरोक्त चौदह दुर्गुणों से यथासंभव दूर रहकर स्वयं को मृतक समान जीवित रहन से बचाना चाहिए।

🙏🏻 जय श्री सीता राम ⛳

शनिवार, 7 अगस्त 2021

प्रश्न :- गुरु बनाना क्यों जरूरी है, भक्ति तो घर पर भी कर सकते हैं..?

उत्तर :- प्रश्न ही गलत है...

प्रश्न पर विचार करें... गुरु बनाना 
अब सोचे... आप क्या गुरु को बनायेंगे, गुरु आपको बनायेगा। आपकी बनाई चीज आपसे छोटी ही होगी, याद रखें। तो किसी को गुरु बनाने की बात छोड़े... क्योंकि अध्यात्म कि ये राह कोई सांसारिक पाने खोने का मार्ग नहीं है , संसार की शिक्षा पाने के लिए आप किसी को शिक्षक चुन सकते हो, क्योंकी वहां दुकानें लगी हैं, एजुकेशन की...

यहां तो ये सवाल खड़ा करें कि मैं कैसे खुद को इतना योग्य बनाऊं की कोई गुरु मुझे चुन लें। मैं कैसे इतना पात्र बनूं की किसी जागृत गुरु का शिष्य होने योग्य हो पाऊं।

याद रखें जब शिष्य तैयार होता हैं तो गुरु खुद आता है। रामकृष्ण तैयार थे, तब उनके गुरु तोतापुरी आए गए... मार्ग दिखाकर फिर अपनी राह निकाल लिए... 
जब विवेकानन्द तैयार थे तो परमहंस ने उनको चुन लिया।

रज्जब शादी करने घोड़ी पे चढ़ा था कि दादू का गांव में आगमन हुआ और आवाज दी... अरे रज्जब तूने गजब किया, आया था हरि भजन को और पड़त नरक की ठौर...
बात ख़तम हो गई। वहीं रज्जब गुरु शरणागति को उपलब्ध हुआ।

और प्रश्न का दूसरा हिस्सा भी गलत है, भक्ति कि नहीं जाती, हो जाती हैं। जैसे मीरा को हो गई... फिर जब सांसारिक लोग ऐसे मस्तो की मस्ती देखते हैं, तो लालच आते है कि अरे सब कुछ पाया, ऐसी मस्ती नहीं मिली..! तो क्या पता भक्ति करने से मिल जाएं।
लेकिन जब संसारी आकर्षित होकर आता है तो उन्हीं के लिए कई और लालची लोग धर्मगुरु बनकर खड़े हो जाते हैं और फिर शुरू होता हैं... मांग और आपूर्ति का बाजार, धर्म का बाजार... इसलिए इन सबसे बचें। 

भक्ति करने कराने की बात नहीं, भक्ति तो घट जाती हैं। जब संसार में दौड़ कर समझ पक जाएं कि यहां कुछ हाथ आता नहीं, माटी का पलंग ही आखिरी मंजिल है। तब भक्ति, वैराग्य या ध्यान की ओर सही कदम बढ़ेंगे और जब शुरुआत सही होगी तो उसी राह पे वो परमात्मा खुद किसी ना किसी गुरु रूप में मार्ग दिखाने आए ही जायेंगे।

🙏🏻 ॐ शांति ⛳

क्या जीवन में एक ही गुरु बनाना चाहिए..?

एक ही क्यों..? यदि ऐसी बन्दिश आप अपने पर लगाते हो तो आप तो पशुओं से भी अधम रह जाओगे। एक प्रेरक प्रसंग आपके समक्ष रख रहा हूँ।

एक बार एक महात्माजी अपने कुछ शिष्यों के सँग खेतों में से कहीं जा रहे थे। तभी उनकी नजर ऊपर आसमान में उड़ते कव्वों के एक झुण्ड पर पड़ी। उनमें से एक कौए की चोंच में एक चिड़िया थी तथा बाकी सब कौए उस कौए को चोंच मार रहे थे।अचानक उस कौए की चोंच से चिड़िया छूट गयी । अन्य कव्वों में से एक आगे बढ़ा और उस चिड़िया को लपक लिया।अब बाकी कव्वों ने उस कव्वे को चोंच मारनी शुरू कर दी ।इस बीच पहला कव्वा आहत होकर नीचे गिर पड़ा। महात्माजी उस कव्वे के पास गए और हाथ जोड़कर नमन करते हुए बोले," है कागराज! आज से आप मेरे गुरु हैं" और अपने शिष्यों से उसका उपचार करने का आदेश दिया। शिष्य आश्चर्यचकित थे कि इतने ज्ञानी गुरुजी ने एक निर्ज्ञानी कव्वे को गुरु बना लिया। कव्वे के उपचार करते हुए उन्होंने अपनी जिज्ञासा प्रकट की तो गुरुजी बोले," शिष्यों! आज इस कौए ने मुझे सिखाया है कि यदि किसी एक वस्तु के लिए एक से अधिक लोग झगड़ रहे हों तो उस वस्तु को छोड़ देना ही अच्छा है। अन्यथा आप जीवन खो दोगे और जिस उद्देश्य के लिए जीवन पाया है उसे पूर्ण न कर सकोगे। अतः जो भी हमें ज्ञान दे वह हमारा गुरु है और उसका हमें सम्मान करना चाहिए।"

इसलिए एक ही गुरु बनाकर सन्तुष्ट मत होईये। ज्ञान प्राप्ति की कोई सीमा नहीं है और मनुष्य शरीर में कोई पूर्णज्ञानी नहीं है। इसलिए जितने आपके गुरु होंगे उतने ही आप अधिक ज्ञानवान होंगे।

गुरु

अंधकार रूपी मायाजाल से प्रकाश रूपी परमार्थ पर व्यक्ति को लगाने वाले शक्ति का नाम ही गुरु है। गुरु का हर व्यक्ति के जीवन में बहुत बड़ी ही महत्व है। चाहे वो लोग सांसारिक हो चाहे सन्यासी गुरु सबको बनाना चाहिए। गुरु का महत्व इसी बात से लगाया जा सकता है कि जितने भी अवतार हुए भगवान के उन्होंने भी गुरु धारण किया है। गुरु के बिना जीवन उसी प्रकार है, जैसे पानी बिना घड़ा। भगवान शिव ने माता पार्वती से गुरु के महत्व को विस्तार से समझाया है। हर सत्कर्म में भागीदार होने से पहले दीक्षित होना जरुरी हैं। चाहे आप ईश्वर को ही क्यों न गुरु मान रहे हों।


गुरु को इसलिए मिली है ईश्वर की उपाधि

पं. शैलेंद्र शास्त्री ने बताया कि गुरु की रचना क्यों प्रभु ने की इसके पीछे भी बड़ा कारण है। सभी इंसान के कर्म इतने अच्छे नही है जो प्रभु प्रत्यक्ष सबके साथ रहे और उनका मार्गदर्शन करें। यही देखकर प्रभु से गुरु के रूप में अपने आप को प्रकट किया इसलिए गुरु और प्रभु में कोई भेद नही किया जाता। भगवान गुरु रूप में पृथ्वी पर विराजमान हैं। जो गुरु का सच्चा सेवक होता है फिर उसे किसी बात का डर नही होता। 

गुरु बनाते समय इन बातों का रखें ध्यान

जब भी किसी को गुरु बनाते है तो वो अपने अपने पंथ सम्प्रदाय अनुसार मन्त्र दीक्षा देता हैं। वो मंत्र कोई साधरण मंत्र नही होता उस मंत्र में पूरी गुरु परम्परा के सभी सिद्ध महात्मो की शक्ति समाई रहती है। ये मन्त्र किसी को भी बताया नही जाता। इसको बड़े गुप्त तरीके से गुरु अपने शिष्य के कान में फूंकता है ताकि अपने चारों और विद्यमान अदृश्य शक्तियां भी उसे सुन ना पाए। ये मंत्र हमें गुरु से अदृश्य रूप से जोड़े रखता है। गुरु मंत्र का जाप कभी भी बोलकर नही करना चाहिए।

शुक्रवार, 6 अगस्त 2021

संजीवनी बूटी

हनुमान पंजा बूटी
संजीवनी एक वनस्पति का नाम है जिसका उपयोग चिकित्सा कार्य के लिये किया जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम सेलाजिनेला ब्राहपटेर्सिस है और इसकी उत्पत्ति लगभग तीस अरब वर्ष पहले कार्बोनिफेरस युग से मानी जाती हैं।
लखनऊ स्थित वनस्पति अनुसंधान संस्थान में संजीवनी बूटी के जीन की पहचान पर कार्य कर रहे पाँच वनस्पति वैज्ञानिको में से एक डॉ॰ पी.एन. खरे के अनुसार संजीवनी का सम्बंध पौधों के टेरीडोफिया समूह से है, जो पृथ्वी पर पैदा होने वाले संवहनी पौधे थे। उन्होंने बताया कि नमी नहीं मिलने पर संजीवनी मुरझाकर पपड़ी जैसी हो जाती है लेकिन इसके बावजूद यह जीवित रहती है और बाद में थोड़ी सी ही नमी मिलने पर यह फिर से खिल जाती है। यह पत्थरों तथा शुष्क सतह पर भी उग सकती है। इसके इसी गुण के कारण वैज्ञानिक इस बात की गहराई से जाँच कर रहे है कि आखिर संजीवनी में ऐसा कौन सा जीन पाया जाता है जो इसे अन्य पौधों से अलग बनाता और इसे विशेष दर्जा प्रदान करता है। हालाँकि वैज्ञानिकों का कहना है कि इसकी असली पहचान भी काफी कठिन है क्योंकि जंगलों में इसके समान ही अनेक ऐसे पौधे और वनस्पतियाँ उगती है, जिनसे आसानी से धोखा खाया जा सकता है। मगर कहा जाता है कि चार इंच के आकार वाली संजीवनी लम्बाई में बढ़ने के अपेक्षा सतह पर फैलती है।

रामायण में इस औषधीय पौधे का उल्लेख मिलता है। भारत में इसकी 6 जातियां पाई जाती हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार संजीवनी बूटी की सेलाजिनेला प्रजाति की ही थी। विंध्याचल पर्वत श्रृंखला अपनी जड़ी बूटियों के खजाने के लिए विश्व विख्यात है। संजीवनी बूटी की सेलाजिनेला प्रजाति मिर्ज़ापुर के पहाड़ों में भी पाई जाती है।
सिलेजिनेला ब्रायोप्टेरिस कई महीनों तक एकदम सूखी या 'मृत' पड़ी रहती है और एक बारिश आते ही 'पुनर्जीवित' हो उठती है। डॉ. एन. के. शाह, डॉ. शर्मिष्ठा बनर्जी ने इस पर कुछ प्रयोग किए हैं और पाया है कि इसमें कुछ ऐसे अणु पाए जाते हैं, जो ऑक्सीकारक क्षति व पराबैंगनी क्षति से चूहों और कीटों की कोशिकाओं की रक्षा करते हैं तथा उनकी मरम्मत में मदद करते हैं।

मिर्ज़ापुर की स्थानीय भाषा में इसे संजीवनी बूटी के अलावा हनुमान पंजा भी कहते हैं।