बुधवार, 21 मार्च 2018

नज़र लगने के लक्षण और उतरने के तरीके

नजर लगना - वास्तिवकता या वहम

प्राचीन काल से कुछ रीति-रिवाज और परंपराएं हिंदू संस्कृति का एक हिस्सा रही है. इन परंपराओं में से एक है नजर लगना या बुरी नजर लगना. नजर लगना कोई बीमारी नहीं है लेकिन उसके दुषप्रभाव ऐसे होते है की व्यक्ति बीमार ही महसूस करता है या अपने जीवन में परेशानियों का सामना करता है.

नजर लगना - वास्तिवकता या वहम

नजर लगने से व्यक्ति को कई बाधाओं का सामना करना पड़ता है. कभी -कभी नजर लगने का अर्थ - एक दुष्ट आत्मा, भुत -प्रेत या पिशाच का साया आदि से भी माना जाता है. आमतौर पर यह माना जाता है कि नजर लगने के बाद व्यक्ति की अच्छी ऊर्जा और अच्छे विचार बुराई में बदल जाते है और उनका परिणाम मुसीबतें लाता है.

नजर लगने के लक्षण


नजर लगने या बुरी नजर के कुछ सामान्य लक्षण है जो की आसानी देखे जा सकते है.• अचानक उल्टी और डायरिया होना • नई मां का दूध सुख जाना • पशुओं या जानवर की अचानक मौत • रक्त के साथ कोई समस्या


नजर लगने के लक्षण

• अत्यधिक तनाव होना • बिना बात के धन सम्बन्धी नुकसान • अक्सर दूध का फट जाना • लगातार वजन घटना • ऑफिस ऑटोमेशन और मशीनरी में टूट-फुट

नजर लगने के लक्षण

• अत्यधिक बेहिसाब चोरी और घर में नुक्सान • पति और पत्नी में आपस में अक्सर झगड़े • सिर और गर्दन में दर्द की बढ़ती समस्या • आंखों का भारी रहना

नजर लगने के लक्षण

• एक तीव्र बेचैनी या आशंका की सब कुछ गलत हो रहा है • शादी के भागीदारों और प्रेमियों के बीच अविश्वास • पेट में दर्द, चक्कर आना और उल्टी की भावना • बच्चों का बार-बार रोना और भयानक पेट दर्द आदि

बुरी नजर के लक्षण (1)

बच्चा का बिना कारण लगातार रोना या पेट खराब या दर्द की समस्या जिसका कारण अज्ञात है.

बुरी नजर से बचने के उपाय (1)

2 लाल सूखी मिर्च, कुछ सेंधा नमक , सरसों के बीज लें और बच्चे के ऊपर से नीचे, आगे और पीछे करने के लिए बच्चे को दक्षिण की तरफ तीन बार और फिर विरोधी दक्षिण दिशा में तीन बार घुमाएं. अब एक गर्म थाली/तवां लें और गर्म थाली/तवें पर यह सब डाल दें. धुआं उठने के बाद कुछ ही देर में बुरी नजर उतर जाएगी और बच्चा कुछ ही समय में ठीक महसूस करने लगेगा.

बुरी नजर के लक्षण (2)

बिना कोई कारण सुस्त, चिड़चिड़ा, बीमारी और भूख की कमी होना.

बुरी नजर से बचने के उपाय (2)

थोड़ा सा सेंधा नमक ले लो और सिर के ऊपर दक्षिण दिशा में और विरोधी दक्षिण दिशा में रोटेशनल घुमाएं और एक गिलास पानी डाल दें. ये माना जाता है कि जैसे नमक को पानी के साथ घोला जा सकता है उसी तरह बुरी नजर का असर भी पानी में घुल जायेगा और वो भंग हो जाएगी.

बुरी नजर के लक्षण (3)

परिवार में एक लंबे समय से एक विशेष सदस्य का पुरानी बीमारी से ग्रस्त होना आदि

बुरी नजर से बचने के उपाय (3)

एक बोतल या डिब्बे में समुद्र/तालाब/झील का पानी ले लो और एक सफेद कपड़े का उपयोग कर पानी को मंगलवार, शुक्रवार और पूर्णिमा के दिन घर के हर कमरे में पानी को टपकाए. यह उपाय बुरी नजर और इसके परिणामस्वरूप बीमारी को खत्म कर देगा. इसका दूसरा उपाय आप घर में कच्चे नारियल के छिलकों को जलाकर कर सकते है.

बुरी नजर के लक्षण (4)

व्यापार में असफलता - लगातार कोशिश के बाद भी वयापार में सफलता नहीं मिल रही हो.

बुरी नजर से बचने के उपाय (4)

काम करने की जगह पर पानी में नींबू रखे. व्यवसाय प्रतियोगियों या पड़ोसियों की बुरी नज़रों से बचने के लिए, पानी से भरा एक गिलास ले और इसमें एक नींबू रखे. हर शनिवार को नींबू को हटाए और एक नया बदले. ऐसा करने से आप अपने व्यवसाय को बुरी नजर से बचा सकता है. ज्यादा अच्छे परिणामों के लिए नींबू और मिर्ची का धागा लटकाए.

बुरी नजर के लक्षण (5)

गर्भवती महिलाओं को नजर से बचाना

बुरी नजर से बचने के उपाय (5)

गर्भवती महिला जब भी घर से बाहर जा रही हो तो अपने साथ दो से तीन नीम के पेड़ के पत्ते लेकर जाए और घर लौटने के बाद नीम के पेड़ के पत्तों जला दे. किसी भी बुरी नजर का साया उतर जायेगा.

मानसिक रूप से मज़बूत

वास्तव में ऊपर लिखें उपाय तो मन की शांति के लिए जरुरी है पर अगर आप मानसिक रूप से मज़बूत है, धार्मिक रूप से ईश्वर में अटूट विश्वास है तो फिर बुरी नज़र आपके ऊपर कोई असर नहीं डाल सकती. जैसा ही आपका विशवास ईश्वर से कम होना शुरू होगा, वैसे ही नकारात्मक शक्तियां आपके ऊपर अपना असर डालना शुरू कर देंगी.

शुक्रवार, 16 मार्च 2018

काल-गणना

काल-गणना में कल्पमन्वन्तरयुग आदि के पश्चात् संवत्सर का नाम आता है। युग भेद से सत युग में ब्रह्म-संवत, त्रेता में वामन-संवत, परशुराम-संवत (सहस्त्रार्जुन-वध से) तथा श्री राम-संवत (रावण-विजय से), द्वापर में युधिष्ठिर-संवत और कलि में विक्रम, विजय, नागार्जुन और कल्कि के संवत प्रचलित हुए या होंगे।

ज्योतिर्विदाभरण में कलियुग के 6 व्यक्तियों के नाम आए हैं, जिन्होंने संवत चलाये थे, यथा- युधिष्ठर, विक्रम, शालिवाहन, विजयाभिनन्दन, नागार्जुन, कल्कि क्रम से 3044, 135, 18000, 10000, 400000 एवं 821 वर्षों तक चलते रहे। प्राचीन देशों में संवत का लगातार प्रयोग नहीं था, केवल शासन-वर्ष ही प्रयुक्त होते थे।

संवत के प्रकार

अल्बरूनी ने पाँच संवतों के नाम दिए हैं... यथा - श्रीहर्ष, विक्रमादित्य, शक, वल्लभ एवं गुप्त संवत। प्राचीन काल में भी कलियुग के आरम्भ के विषय में विभिन्न मत रहे हैं। आधुनिक मत है कि कलियुग ई. पू. 3102 में आरम्भ हुआ। इस विषय में चार प्रमुख दृष्टिकोण हैं- युधिष्ठर ने जब राज्य सिंहासनारोहण किया; यह 36 वर्ष उपरान्त आरम्भ हुआ जबकि युधिष्ठर ने अर्जुन के पौत्र परीक्षित को राजा बनाया; पुराणों के अनुसार श्री कृष्ण के देहावसान के उपरान्त यह आरम्भ हुआ। वराहमिहिर के मत से युधिष्ठर-संवत का आरम्भ शक-संवत के 2426 वर्ष पहले हुआ अर्थात दूसरे मत के अनुसार, कलियुग के 653 वर्षों के उपरान्त प्रारम्भ हुआ। ऐहोल शिलालेख ने सम्भवतः दूसरे मत का अनुसरण किया है; क्योंकि उसमें शक-संवत 556 से पूर्व 3735 कलियुग संवत माना गया है। पश्चात्कालीन ज्योतिः जेशास्त्रीय ग्रन्थों के अनुसार कलियुग संवत के 3719 वर्षों के उपरान्त शक संवत का आरम्भ हुआ। कलियुग संवत के विषय में सबसे प्राचीन संकेत आर्यभट द्वारा दिया गया है। उन्होंने कहा है कि जब वे 23 वर्ष के थे, तब कलियुग के 3600 वर्ष व्यतीत हो चुके थे अर्थात वे 476 ई. में उत्पन्न हुए। एक चोल वृत्तान्तालेखन कलियुग संवत 4044 (943 ई.) का है। जहाँ बहुत-से शिलालेखों में उल्लिखित कलियुग संवत का विवेचन किया गया है। मध्यकाल के भारतीय ज्योतिषियों ने माना है कि कलियुग एवं कल्प के प्रारम्भ में सभी ग्रह, सूर्य एवं चन्द्र को मिलाकर चैत्र शुक्ल-प्रतिपदा को रविवार के सूर्योदय के समय एक साथ एकत्र थे। बर्गेस एवं डा. साहा जैसे आधुनिक लेखक इस कथन को केवल कल्पनात्मक मानते हैं। किन्तु प्राचीन सिद्धान्त लेखकों के कथन को केवल कल्पना मान लेना उचित नहीं है। यह सम्भव है कि सिद्धान्त लेखकों के समक्ष कोई अति प्राचीन परम्परा रही हो। प्रत्येक धार्मिक कृत्य के संकल्प में कृत्यकर्ता को काल के बड़े भागों एवं विभागों को श्वेतावाराह कल्प के आरम्भ से कहना पड़ता है, यथा वैवस्वत मन्वन्तर, कलियुग का प्रथम चरण, भारत में कृत्य करने की भौगोलिक स्थिति, सूर्य, बृहस्पति एवं अन्य ग्रहों वाली राशियों के नाम, वर्ष का नाम, मास, पक्ष, तिथि, नक्षत्र, योग एवं करण के नाम

देवल का कथन है कि यदि कृत्यकर्ता कृत्य के अवसर पर मासपक्षतिथि का उल्लेख नहीं करता तो वह कृत्य का फल नहीं प्राप्त करेगा। यह है भारतीयों के धार्मिक जीवन में संवतों, वर्षों एवं इनके भागों एवं विभागों की महत्ता... 

अतः प्रत्येक भारतीय (हिन्दू) के लिए पंचांग अनिवार्य है।

शास्त्रों में इस प्रकार भूत एवं वर्तमान काल के संवतों का वर्णन तो है ही, भविष्य में प्रचलित होने वाले संवतों का वर्णन भी है। इन संवतों के अतिरिक्त अनेक राजाओं तथा सम्प्रदायाचार्यों के नाम पर संवत चलाये गये हैं। भारतीय संवतों के अतिरिक्त विश्व में और भी धर्मों के संवत हैं। तुलना के लिये उनमें से प्रधान-प्रधान की तालिका दी जा रही है- वर्ष ईस्वी सन् 2018 को मानक मानते हुए निम्न गणना की गयी है। 

भारतीय-संवत

क्र0सं0 - नाम - वर्तमान वर्ष

1. कल्पाब्द - 1,97,29,49,119

2. सृष्टि-संवत - 1,95,58,85,119

3. वामन-संवत - 1,96,08,89,119

4. श्रीराम-संवत - 1,25,69,119

5. श्रीकृष्ण संवत - 5,244

6. युधिष्ठिर संवत - 5,119

7. बौद्ध संवत - 2,593

8. महावीर (जैन) संवत - 2,545

9. श्रीशंकराचार्य संवत - 2,298

10. विक्रम संवत - 2,075

11. शालिवाहन संवत - 1,940

12. कलचुरी संवत - 1,770

13. वलभी संवत - 1,698

14. फ़सली संवत - 1,429

15. बँगला संवत - 1,425

16. हर्षाब्द संवत - 1,411

विदेशीय-संवत

क्र0सं0 - नाम - वर्तमान वर्ष

1. चीनी सन - 9,60,02,316

2. खताई सन् - 8,88,38,389

3. पारसी सन् - 1,89,986

4. मिस्त्री सन् - 27,672

5. तुर्की सन् - 7,625

6. आदम सन् - 7,370

7. ईरानी सन् - 6,023

8. यहूदी सन् - 5,778

9. इब्राहीम सन् - 4,458

10. मूसा सन् - 3,722

11. यूनानी सन् - 3,591

12. रोमन सन् - 2,769

13. ब्रह्मा सन् - 2,4559

14. मलयकेतु सन् - 2,330

15. पार्थियन सन् - 2,265

16. ईस्वी सन् - 2,018

17. जावा सन - 1,944

18. हिजरी सन - 1,388

यह तुलना इस बात को तो स्पष्ट ही कर देती है कि भारतीय संवत अत्यन्त प्राचीन हैं। साथ ही ये गणित की दृष्टि से अत्यन्त सुगम और सर्वथा ठीक हिसाब रखकर निश्चित किये गये हैं। नवीन संवत चलाने की शास्त्रीय विधि यह है कि जिस नरेश को अपना संवत चलाना हो, उसे संवत चलाने के दिन से पूर्व कम-से-कम अपने पूरे राज्य में जितने भी लोग किसी के ऋणी हों, उनका ऋण अपनी ओर से चुका देना चाहिये। कहना नहीं होगा कि भारत के बाहर इस नियम का कहीं पालन नहीं हुआ। भारत में भी महापुरुषों के संवत उनके अनुयायियों ने श्रद्धावश ही चलाये; लेकिन भारत का सर्वमान्य संवत विक्रम संवत है और महाराज विक्रमादित्य ने देश के सम्पूर्ण ऋण को, चाहे वह जिस व्यक्ति का रहा हो, स्वयं देकर इसे चलाया है। इस संवत के महीनों के नाम विदेशी संवतों की भाँति देवता, मनुष्य या संख्यावाचक कृत्रिम नाम नहीं हैं। यही बात तिथि तथा अंश (दिनांक) के सम्बन्ध में भी हैं वे भी सूर्य-चन्द्र की गति पर आश्रित हैं। सारांश यह कि यह संवत अपने अंग-उपांगों के साथ पूर्णत: वैज्ञानिक सत्यपर स्थित है।

उज्जयिनी-सम्राट् महाराज विक्रम के इस वैज्ञानिक संवत के साथ विश्व में प्रचलित ईस्वी सन् पर भी ध्यान देना चाहिये। ईस्वी सन् का मूल रोमन-संवत है। पहले यूनान में ओलिम्पियद संवत था, जिसमें 360 दिन का वर्ष माना जाता था। रोम नगर की प्रतिष्ठा के दिन से वही रोमन संवत कहलाने लगा। ईस्वी सन् की गणना ईसा मसीह के जन्म से तीन वर्ष बाद से की जाती है। रोमन सम्राट जूलियस सीजर ने 360 दिन के बदले 365.25 दिन के वर्ष को प्रचलित किया। छठी शताब्दी में डायोनिसियस ने इस सन् में फिर संशोधन किया; किंतु फिर भी प्रतिवर्ष 27 पल, 55 विपल का अन्तर पड़ता ही रहा। सन् 1739 में यह अन्तर बढ़ते-बढ़ते 11 दिन का हो गया; तब पोप ग्रेगरी ने आज्ञा निकाली कि 'इस वर्ष 2 सितंबर के पश्चात् 3 सितंबर को 14 सितंबर कहा जाय और जो ईस्वी सन् 4 की संख्या से विभाजित हो सके, उसका फ़रवरी मास 29 दिन का हो। वर्ष का प्रारम्भ 25 मार्च के स्थान पर 1 जनवरी से माना जाय।' इस आज्ञा को इटलीडेनमार्कहॉलैंड ने उसी वर्ष स्वीकार कर लिया। जर्मनी और स्विटज़रलैंड ने सन् 1759 में, इंग्लैंड ने सन् 1809 में, प्रशिया ने सन् 1835 में, आयरलैंड ने सन् 1839 में और रूस ने सन् 1859 में इसे स्वीकार किया। इतना संशोधन होने पर भी इस ईस्वी सन् में सूर्य की गति के अनुसार प्रतिवर्ष एक पल का अन्तर पड़ता है। सामान्य दृष्टि से यह बहुत थोड़ा अन्तर है, पर गणित के लिये यह एक बड़ी भूल है। 3600 वर्षों के बाद यही अन्तर एक दिन का हो जायगा और 36,000 वर्षों के बाद दस दिन का और इस प्रकार यह अन्तर चालू रहा तो किसी दिन जून का महीना वर्तमान अक्टूबर के शीतल समय में पड़ने लगेगा।


गुरुवार, 15 मार्च 2018

शाहजहां... मुमताज और ताजमहल का सच

शाहजहां के हरम में 8000 रखैलें थीं, जो उसे उसके पिता जहांगीर से विरासत में मिली थी। उसने बाप की सम्पत्ति को और बढ़ाया। उसने हरम की महिलाओं की व्यापक छंटाई की तथा बुढ़ियों को भगा कर और अन्य हिन्दू परिवारों से औरतें लाकर हरम को बढ़ाता ही रहा।''
(अकबर दी ग्रेट मुगल : वी स्मिथ, पृष्ठ ३५९)
कहते हैं कि उन्हीं भगायी गयी महिलाओं से दिल्ली का रेडलाइट एरिया जी.बी. रोड गुलजार हुआ था और वहाँ इस धंधे की शुरूआत हुई थी।
जबरन अगवा की हुई हिन्दू महिलाओं की यौन-गुलामी और यौन व्यापार को शाहजहां बढ़ावा देता था और अक्सर अपने मंत्रियों और सम्बन्धियों को पुरस्कार स्वरूप अनेकों हिन्दू महिलाओं को उपहार में दिया करता था।
यह नर पशु, यौनाचार के प्रति इतना आकर्षित और उत्साही था कि हिन्दू महिलाओं का मीना बाजार लगाया करता था, यहाँ तक कि अपने महल में भी...
सुप्रसिद्ध यूरोपीय यात्री फ्रांकोइस बर्नियर ने इस विषय में टिप्पणी की थी कि ''महल में बार-बार लगने वाले मीना बाजार (जहां अगवा कर लाई हुई सैकड़ों हिन्दू महिलाओं का क्रय-विक्रय हुआ करता था) राज्य द्वारा बड़ी संख्या में नाचने वाली लड़कियों की व्यवस्था और नपुसंक बनाये गये सैकड़ों लड़कों की हरमों में उपस्थिती, शाहजहाँ की अनंत वासना के समाधान के लिए ही थी।
(टेरविल्स इन दी मुगल ऐम्पायर- फ्रान्कोइस बर्नियर :पुनः लिखित वी. स्मिथ, औक्स फोर्ड १९३४)
शाहजहां को प्रेम की मिसाल के रूप पेश किया जाता रहा है और किया भी क्यों न जाएं..! 8000 औरतों को अपने हरम में रखने वाला अगर किसी एक में ज्यादा रुचि दिखाए तो वो उसका प्यार ही कहा जायेगा।
आप यह जानकर हैरान हो जायेंगे कि मुमताज का नाम मुमताज था ही नहीं बल्कि उसका असली नाम "अर्जुमंद-बानो-बेगम" था।
और तो और जिस शाहजहाँ और मुमताज के प्यार की इतनी डींगे हांकी जाती है वो शाहजहाँ की ना तो पहली पत्नी थी, ना ही आखिरी...
मुमताज शाहजहाँ की सात बीबियों में चौथी थी। इसका मतलब है कि शाहजहाँ ने मुमताज से पहले 3 शादियाँ कर रखी थी और मुमताज से शादी करने के बाद भी उसका मन नहीं भरा तथा उसके बाद भी उस ने 3‌ शादियाँ और की...

यहाँ तक कि मुमताज के मरने के एक हफ्ते के अन्दर ही उसकी बहन फरजाना से शादी कर ली थी। जिसे उसने रखैल बना कर रखा हुआ था जिससे शादी करने से पहले ही शाहजहाँ को एक बेटा भी था।
अगर शाहजहाँ को मुमताज से इतना ही प्यार था तो मुमताज से शादी के बाद भी शाहजहाँ ने 3 और शादियाँ क्यों की..?
अब आप यह भी जान लो कि शाहजहाँ की सातों बीबियों में सबसे सुन्दर मुमताज नहीं बल्कि इशरत बानो थी जो कि उसकी पहली पत्नी थी।
उस से भी घिनौना तथ्य यह है कि शाहजहाँ से शादी करते समय मुमताज कोई कुंवारी लड़की नहीं थी बल्कि वो शादीशुदा थी और उसका पति शाहजहाँ की सेना में
सूबेदार था जिसका नाम "शेर अफगान खान" था।
शाहजहाँ ने शेर अफगान खान की हत्या कर मुमताज से शादी की थी।
गौर करने लायक बात यह भी है कि 38 वर्षीय मुमताज की मौत कोई बीमारी या एक्सीडेंट से नहीं बल्कि चौदहवें बच्चे को जन्म देने के दौरान अत्यधिक कमजोरी के कारण हुई थी। यानी शाहजहाँ ने उसे बच्चे पैदा करने की मशीन ही नहीं बल्कि फैक्ट्री बनाकर मार डाला था...
शाहजहाँ कामुकता के लिए इतना कुख्यात था कि कई इतिहासकारों ने उसे उसकी अपनी सगी बेटी जहाँआरा के साथ स्वयं सम्भोग करने का दोषी कहा है।
शाहजहाँ और मुमताज महल की बड़ी बेटी जहाँआरा बिल्कुल अपनी माँ की तरह लगती थी।
इसीलिए मुमताज की मृत्यु के बाद उसकी याद में लम्पट शाहजहाँ ने अपनी ही बेटी जहाँआरा को फंसाकर भोगना शुरू कर दिया था।
जहाँआरा को शाहजहाँ इतना प्यार करता था कि उसने उसका निकाह तक होने न दिया।
बाप-बेटी के इस प्यार को देखकर जब महल में चर्चा शुरू हुई तो मुल्ला-मौलवियों की एक बैठक बुलाई गयी और उन्होंने इस पाप को जायज ठहराने के लिए एक हदीस का उद्धरण दिया और कहा कि - "माली को अपने द्वारा लगाये पेड़
का फल खाने का हक़ है"।
(Francois Bernier wrote, " Shah Jahan used to have regular sex with his eldest daughter Jahan Ara.
To defend himself, Shah Jahan used to say that, it was the privilege of a planter to taste the fruit of the tree he had planted.")
इतना ही नहीं जहाँआरा के किसी भी आशिक को वह उसके पास फटकने नहीं देता था।
कहा जाता है की एकबार जहाँआरा जब अपने एक आशिक के साथ इश्क लड़ा रही थी तो शाहजहाँ आ गया जिससे डरकर वह हरम के तंदूर में छिप गया, शाहजहाँ ने
तंदूर में आग लगवा दी और उसे जिन्दा जला दिया।
दरअसल अकबर ने यह नियम बना दिया था कि मुगलिया खानदान की बेटियों की शादी नहीं होगी। 

इतिहासकार इसके लिए कई कारण बताते हैं... इसका परिणाम यह होता था कि मुग़ल खानदान की लड़कियां अपने जिस्मानी भूख मिटाने के लिए अवैध तरीके से दरबारी, नौकर के साथ-साथ, रिश्तेदार यहाँ तक की सगे सम्बन्धियों का भी सहारा लेती थी।
जहाँआरा अपने लम्पट बाप के लिए लड़कियाँ भी फंसाकर लाती थी। जहाँआरा की मदद से शाहजहाँ ने मुमताज के भाई शाइस्ता खान की बीबी से कई बार बलात्कार किया था।
शाहजहाँ के राजज्योतिष की 13 वर्षीय ब्राह्मण लड़की को जहाँआरा ने अपने महल में बुलाकर धोखे से नशा करा, बाप के हवाले कर दिया था जिससे शाहजहाँ ने 58वें वर्ष में उस 13 वर्ष की ब्राह्मण कन्या से निकाह किया था। बाद में इसी ब्राहम्ण कन्या ने शाहजहाँ के कैद होने के बाद औरंगजेब से बचने और एक बार फिर से हवस की सामग्री बनने से खुद को बचाने के लिए अपने ही हाथों अपने चेहरे पर तेजाब डाल लिया था।
शाहजहाँ शेखी मारा करता था कि 'वह तिमूर (तैमूरलंग)
का वंशज है जो भारत में तलवार और अग्नि लाया था।
उस उजबेकिस्तान के जंगली जानवर तैमूर से और उसकी हिन्दुओं के रक्तपात की उपलब्धि से इतना प्रभावित था कि ''उसने अपना नाम तैमूर द्वितीय रख लिया''
(दी लीगेसी ऑफ मुस्लिम रूल इन इण्डिया- डॉ. के.एस. लाल, १९९२ पृष्ठ- १३२).
बहुत प्रारम्भिक अवस्था से ही शाहजहाँ ने काफिरों (हिन्दुओं) के प्रति युद्ध के लिए साहस व रुचि दिखाई थी।
अलग-अलग इतिहासकारों ने लिखा था कि, ''शहजादे के रूप में ही शाहजहाँ ने फतेहपुर सीकरी पर अधिकार कर
लिया था और आगरा शहर में हिन्दुओं का भीषण नरसंहार किया था।
भारत यात्रा पर आये देला वैले, इटली के एक धनी व्यक्ति के अुनसार -
शाहजहाँ की सेना ने भयानक बर्बरता का परिचय कराया था। हिन्दू नागरिकों को घोर यातनाओं द्वारा अपने संचित धन को दे देने के लिए विवश किया गया और अनेकों उच्च कुल की कुलीन हिन्दू महिलाओं का शील भंग किया गया।''
(कीन्स हैण्ड बुक फौर विजिटर्स टू आगरा एण्ड इट्स नेबरहुड, पृष्ठ २५)
हमारे वामपंथी इतिहासकारों ने शाहजहाँ को एक महान निर्माता के रूप में चित्रित किया है। किन्तु इस मुजाहिद ने अनेकों कला के प्रतीक सुन्दर हिन्दू मन्दिरों और अनेकों हिन्दू भवन निर्माण कला के केन्द्रों का बड़ी लगन और जोश से विध्वंस किया था।
अब्दुल हमीद ने अपने इतिहास अभिलेख 'बादशाहनामा' में लिखा था-
'महामहिम शहंशाह महोदय की सूचना में लाया गया कि हिन्दुओं के एक प्रमुख केन्द्र, बनारस में उनके अब्बा हुजूर के शासनकाल में अनेकों मन्दिरों के पुनः निर्माण का काम प्रारम्भ हुआ था और काफिर हिन्दू अब उन्हें पूर्ण कर देने के निकट आ पहुँचे हैं।
इस्लाम पंथ के रक्षक, शहंशाह ने आदेश दिया कि बनारस में और उनके सारे राज्य में अन्यत्र सभी स्थानों पर जिन मन्दिरों का निर्माण कार्य आरम्भ है,उन सभी का विध्वंस कर दिया जाए।
इलाहाबाद प्रदेश से सूचना प्राप्त हो गई कि जिला बनारस के छिहत्तर मन्दिरों का ध्वंस कर दिया गया था।''
(बादशाहनामा : अब्दुल हमीद लाहौरी, अनुवाद एलियट और डाउसन, खण्ड VII, पृष्ठ ३६)
हिन्दू मंदिरों को अपवित्र करने और उन्हें ध्वस्त करने की प्रथा ने शाहजहाँ के काल में एक व्यवस्थित विकराल रूप धारण कर लिया था।
(मध्यकालीन भारत - हरीश्चंद्र वर्मा - पेज-१४१)
''कश्मीर से लौटते समय १६३२ में शाहजहाँ को बताया गया कि अनेकों मुस्लिम बनायी गयी महिलायें फिर से हिन्दू हो गईं हैं और उन्होंने हिन्दू परिवारों में शादी कर ली है।
शहंशाह के आदेश पर इन सभी हिन्दुओं को बन्दी बना लिया गया। प्रथम उन सभी पर इतना आर्थिक दण्ड थोपा गया कि उनमें से कोई भुगतान नहीं कर सका।
तब इस्लाम स्वीकार कर लेने और मृत्यु में से एक को चुन लेने का विकल्प दिया गया। जिन्होनें धर्मान्तरण स्वीकार नहीं किया, उन सभी पुरूषों का सर काट दिया गया। लगभग चार हजार पाँच सौं महिलाओं को बलात् मुसलमान बना लिया गया और उन्हें सिपहसालारों, अफसरों और शहंशाह के नजदीकी लोगों और रिश्तेदारों के हरम में भेज दिया गया।''
(हिस्ट्री एण्ड कल्चर ऑफ दी इण्डियन पीपुल : आर.सी. मजूमदार, भारतीय विद्या भवन, पृष्ठ ३१२)
१६५७ में शाहजहाँ बीमार पड़ा और उसी के बेटे औरंगजेब ने उसे उसकी रखैल जहाँआरा के साथ
आगरा के किले में बंद कर दिया । परन्तु औरंगजेब मे एक आदर्श बेटे का भी फर्ज निभाया और अपने बाप की कामुकता को समझते हुए उसे अपने साथ ४० रखैलें (शाही वेश्याएँ) रखने की इजाजत दे दी। और दिल्ली आकर उसने बाप के हजारों रखैलों में से कुछ गिनी चुनी औरतों को अपने हरम में डालकर बाकी सभी को उसने किले से बाहर निकाल दिया।
उन हजारों महिलाओं को भी दिल्ली के उसी हिस्से में पनाह मिली जिसे आज दिल्ली का रेड लाईट एरिया जीबी रोड कहा जाता है। जो उसके अब्बा शाहजहाँ की मेहरबानी से ही बसा और गुलजार हुआ था ।
शाहजहाँ की मृत्यु आगरे के किले में ही २२ जनवरी १६६६ ईस्वी में ७४ साल की उम्र में द हिस्ट्री चैन शाहजहाँ की मृत्यु आगरे के किले में ही २२ जनवरी १६६६ ईस्वी में ७४ साल की उम्र में द हिस्ट्री चैनल के अनुसार अत्यधिक कमोत्तेजक दवाएँ खा लेने का कारण हुई थी। यानी जिन्दगी के आखिरी वक्त तक वो अय्याशी ही करता रहा था।
अब आप खुद ही सोचें कि क्यों ऐसे बदचलन और दुश्चरित्र इंसान को प्यार की निशानी समझा कर महान बताया जाता हैं..!
क्या ऐसा बदचलन इंसान कभी किसी से प्यार कर सकता है..?
क्या ऐसे वहशी और क्रूर व्यक्ति की अय्याशी की कसमें खाकर लोग अपने प्यार को बे-इज्जत नहीं करते..!
दरअसल ताजमहल और प्यार की कहानी इसीलिए गढ़ी गयी है कि लोगों को गुमराह किया जा सके और लोगों खास कर हिन्दुओं से छुपायी जा सके कि ताजमहल कोई प्यार की निशानी नहीं बल्कि महाराज जय सिंह द्वारा बनवाया गया भगवान् शिव का मंदिर तेजो महालय हैं।
और जिसे प्रमाणित करने के लिए डा० सुब्रहमण्यम स्वामी आज भी सुप्रीम कोर्ट में सत्य की लड़ाई लड़ रहे हैं।
असलियत में मुगल इस देश में धर्मान्तरण, लूट-खसोट और अय्याशी ही करते रहें, परन्तु नेहरू के आदेश पर हमारे इतिहासकारों नें इन्हें जबरदस्ती महान बताया और ये सब हुआ... झूठी धर्मनिरपेक्षता के नाम पर...

जागो हिन्दुओं जागो...⛳

बुधवार, 14 मार्च 2018

पत्नी होना आसान नहीं होता, अपनी इच्छाओं को मारकर घर के हर सदस्य को खुश रखना पड़ता है... इसलिए ध्यान रखें...

जब वह  Restaurant में  मेन्यू कार्ड से कोई  dish पसंद कर रही हो... तो उसे पसंद करने दें...
घर में हर रोज, हर बार का खाना बनाने के लिये वह अपना काफी समय सिर्फ इसलिये देती हैं कि  क्या बनाना है, कितना बनाना है और किसके लिये बनाना है।

जब वह बाहर जाने के समय तैयार होने के लिये time ले रही हो... तो लेने दें।
उसने अपना time आपके press किये कपड़ों को जगह पर संभाल कर रखने में, socks और रूमाल संवार कर रखने में दिया है।
वह अपने बच्चे को संवारने के लिये भी बहुत मेहनत करती हैं... ताकि वह अड़ोस पड़ोस के सब बच्चों से अच्छा दिख सके।

जब वह अपना मनपसंद , पर हमारी नजर में बेसिरपैर का TV serial देखती हैं... तो देखने दें।
उसका उस serial  में तो ध्यान आधा ही रहता  है, बाकी का ध्यान तो दिमाग में चल रही घड़ी पर रहता है, आपके  आते ही वह अपना मनपसंद  serial  अधूरा छोड़ कर kitchen की तरफ चल देती है।

जब वह breakfast  बनाने में time लगा रही हो तो उसे लगाने दें... क्योंकि वह सबसे बढ़िया और कुरकुरे toast सबको दे रही है और ज्यादा सिंके व जले toast  खुद के लिये अलग कर रख रही है।

जब वह चाय का कप हाथ में ले कर खिड़की के बाहर शून्य में निहार रही हो तो उसे निहारने दें।
ये उसकी जिंदगी है, उसने अपने जिंदगी  के अनमोल व अनगिनत घंटे आपको दिये हैं।
अब यदि वह अपने जिंदगी के कुछ पल खुद के लिये लेना चाहती हैं तो लेने दें।

उसका जीवन दूसरों के लिये  भागादौड़ी में ही बीत रहा है।
कृपया उसे और ज्यादा तेज भागने के लिये मजबूर न करें।

सोमवार, 12 मार्च 2018

सूफीवाद

कुछ  लोग सोचते हैं की सूफि बड़े शांतिप्रिय होते हैं, असल में सूफीवाद धर्मान्तरण की बुनियाद है !

किसी भी दैनिक अख़बार को उठा कर देखिये आपको पढ़ने को मिलेगा की आज हिंदी फिल्मों का कोई प्रसिद्द अभिनेता या अभिनेत्री अजमेर में गरीब नवाज़ अथवा निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर चादर चढ़ा कर अपनी फिल्म के हिट होने की मन्नत मांगने के लिए गया।

भारतीय समाज में भी एक विशेष आदत हैं, वह हैं अँधा अनुसरण करने की।

क्रिकेट स्टार, फिल्म अभिनेता, बड़े उद्योगपति जो कुछ भी करे भी उसका अँधा अनुसरण करना चाहिए चाहे बुद्धि उसकी अनुमति दे चाहे न दे.अज्ञानवश लोग दरगाहों पर जाने को हिन्दू मुस्लिम एकता और आपसी भाईचारे का प्रतिक मान लेते हैं , लेकिन उनको पता नहीं कि सूफीवाद भी कट्टर सुन्नी इस्लाम एक ऐसा संप्रदाय है ,जो बिना युद्ध और जिहाद के हिन्दुओं को मुसलमान बनाने में लगा रहता है ।

भारत -पाक में सूफियों के चार फिरके हैं , पूरे भारत में इनकी दरगाहें फैली हुई हैं ,जहां अपनी मन्नत पूरी कराने के लालच में हिन्दू भी जाते हैं
1-चिश्तिया ( چشتی‎ )
2-कादिरिया ( القادريه,)
3-सुहरावर्दिया سهروردية‎)
4-नक्शबंदी ( نقشبندية‎ )

इन सभी का उद्देश्य हिन्दुओं का धर्म परिवर्तन कराना और दुनिया में " निज़ामे मुस्तफा -نظام مصطفى‎ " स्थापित करना है . जिस समय भारत की आजादी का आंदोलन चल रहा था सूफी " तबलीगी जमात - تبلیغی جماعت" बनाकर गुप्त रूप से हिन्दुओं का धर्म परवर्तन कराकर मुस्लिम जनसंख्या बढ़ने का षडयंत्र चला रहे थे .

दिल्ली के एक कोने में निजामुद्दीन औलिया की दरगाह हैं। 1947से पहले इस दरगाह के हाकिम का नाम था ख्वाजा हसन निजामी था।(1878-1955)

आज के मुस्लिम लेखक निज़ामी की प्रशंसा उनके उर्दू साहित्य को देन अथवा बहादुर शाह ज़फर द्वारा 1857 के संघर्ष पर लिखी गई पुस्तक को पुन: प्रकाशित करने के लिए करते हैं। परन्तु निज़ामी के जीवन का एक और पहलु था। वह गुप्त जिहादी था धार्मिक मतान्धता के विष से ग्रसित निज़ामी ने हिन्दुओं को मुसलमान बनाने के लिए 1920 के दशक में एक पुस्तक लिखी थी जिसका नाम था दाइये इस्लाम-دايءاسلام " इस पुस्तक को इतने गुप्त तरीके से छापा गया था की इसका प्रथम संस्करण का प्रकाशित हुआ और कब समाप्त हुआ इसका मालूम ही नहीं चला। इसके द्वितीय संस्करण की प्रतियाँ अफ्रीका तक पहुँच गई थी। इस पुस्तक में उस समय के 21 करोड़ हिन्दुओं में से 1 करोड़ हिन्दुओं को इस्लाम में दीक्षित करने का लक्ष्य रखा गया था।

एक आर्य सज्जन को उसकी यह प्रति अफ्रीका में प्राप्त हुई जिसे उन्होंने स्वामी श्रद्धानंद जी को भेज दिया। स्वामी ने इस पुस्तक को पढ़ कर उसके प्रतिउत्तर में पुस्तक लिखी जिसका नाम था "खतरे का घंटा"। इस पुस्तक के कुछ सन्दर्भों के दर्शन करने मात्र से ही लेखक की मानसिकता का बोध हमें आसानी से मिल जायेगा की किस हद तक जाकर हिन्दुओं को मुस्लमान बनाने के लिए मुस्लिम समाज के हर सदस्य को प्रोत्साहित किया गया था जिससे न केवल धार्मिक द्वेष के फैलने की आशंका थी अपितु दंगे तक भड़कने के पूरे असार थे। आइये इस पुस्तक के कुछ अंशों का अवलोकन करते हैं।

1- फकीरों के कर्तव्य - जीवित पीरों की दुआ से बे औलादों के औलाद होना या बच्चों का जीवित रहना या बिमारियों का दूर होना या दौलत की वृद्धि या मन की मुरादों का पूरा होना, बददुआओं का भय आदि से हिन्दू लोग फकीरों के पास जाते हैं बड़ी श्रद्धा रखते हैं। मुस्लमान फकीरों को ऐसे छोटे छोटे वाक्य याद कराये जावे,जिन्हें वे हिन्दुओं के यहाँ भीख मांगते समय बोले और जिनके सुनने से हिन्दुओं पर इस्लाम की अच्छाई और हिन्दुओं की बुराई प्रगट हो।

2- गाँव और कस्बों में ऐसा जुलुस निकालना जिनसे हिन्दू लोगों में उनका प्रभाव पड़े और फिर उस प्रभाव द्वारा मुसलमान बनाने का कार्य किया जावे।

3-गाने बजाने वालों को ऐसे ऐसे गाने याद कराना और ऐसे ऐसे नये नये गाने तैयार करना जिनसे मुसलमानों में बराबरी के बर्ताव के बातें और मुसलमानों की करामाते प्रगट हो।

4- गिरोह के साथ नमाज ऐसी जगह पढ़ना जहाँ उनको दूसरे धर्म के लोग अच्छी तरह देख सके और उनकी शक्ति देख कर इस्लाम से आकर्षित हो जाएँ।

5-. ईसाईयों और आर्यों के केन्द्रों या उनके लीडरों के यहाँ से उनके खानसामों, बहरों, कहारों चिट्ठीरसारो, कम्पाउन्डरों,भीख मांगने वाले फकीरों, झाड़ू देने वाले स्त्री या पुरुषों, धोबियों, नाइयों, मजदूरों, सिलावतों और खिदमतगारों आदि के द्वारा ख़बरें और भेद मुसलमानों को प्राप्त करनी चाहिए।

6- सज्जादा नशीन अर्थात दरगाह में काम करने वाले लोगों को मुस्लमान बनाने का कार्य करे।

7- ताबीज और गंडे देने वाले जो हिन्दू उनके पास आते हैं उनको इस्लाम की खूबियाँ बतावे और मुस्लमान बनने की दावत दे।

8-. देहाती स्कूलों के मुस्लिम अध्यापक अपने से पढने वालों को और उनके माता पिता को इस्लाम की खूबियाँ बतावे और मुस्लमान बनने की दावत दे।

9- नवाब रामपुर, टोंक, हैदराबाद , भोपाल, बहावलपुर और जूनागढ आदि को , उनके ओहदेदारों , जमींदारों , नम्बरदार, जैलदार आदि को अपने यहाँ पर काम करने वालो को और उनके बच्चों को इस्लाम की खूबियाँ बतावे और मुस्लमान बनने की दावत दे।

10. माली, किसान,बागबान आदि को आलिम लोग इस्लाम के मसले सिखाएँ क्यूंकि साधारण और गरीब लोगों में दीन की सेवा करने का जोश अधिक रहता हैं।

11- दस्तगार जैसे सोने,चांदी,लकड़ी, मिटटी, कपड़े आदि का काम करने वालों को अलीम इस्लाम के मसलों से आगाह करे जिससे वे औरों को इस्लाम ग्रहण करने के लिए प्रोत्साहित करे।

12- फेरी करने वाले घरों में जाकर इस्लाम के खूबियों बताये , दूकानदार दुकान पर बैठे बैठे सामान खरीदने वाले ग्राहक को इस्लाम की खूबियाँ बताये।

13- पटवारी, पोस्ट मास्टर, देहात में पुलिस ऑफिसर, डॉक्टर , मिल कारखानों में बड़े औहदों पर काम करने वाले मुस्लमान इस्लाम का बड़ा काम अपने नीचे काम करने वाले लोगों में इस्लाम का प्रचार कर कर हैं सकते हैं।

14 राजनैतिक लीडर, संपादक , कवि , लेखक आदि को इस्लाम की रक्षा एह वृद्धि का काम अपने हाथ में लेना चाहिये।

15-. स्वांग करने वाले, मुजरा करने वाले, रण्डियों को , गाने वाले कव्वालों को, भीख मांगने वालो को सभी भी इस्लाम की खूबियों को गाना चाहिये।

यहाँ पर सारांश में निज़ामी की पुस्तक के कुछ अंशों को लिखा गया हैं। पाठकों को भली प्रकार से निज़ामी के विचारों के दर्शन हो गये होंगे।

1947 के पहले यह सब कार्य जोरो पर था , हिन्दू समाज के विरोध करने पर दंगे भड़क जाते थे, अपनी राजनितिक एकता , कांग्रेस की नीतियों और अंग्रेजों द्वारा प्रोत्साहन देने से दिनों दिन हिन्दुओं की जनसँख्या कम होती गई जिसका अंत पाकिस्तान के रूप में निकला।

अब पाठक यह सोचे की आज भी यही सब गतिविधियाँ सुचारू रूप से चालू हैं केवल मात्र स्वरुप बदल गया हैं। हिंदी फिल्मों के अभिनेता,क्रिकेटर आदि ने कव्वालों , गायकों आदि का स्थान ले लिया हैं और वे जब भी निजामुद्दीन की दरगाह पर माथा टेकते हैं तो मीडिया में यह खबर ब्रेकिंग न्यूज़ बन जाती हैं। उनको देखकर हिन्दू समाज भी भेड़चाल चलते हुए उनके पीछे पीछे उनका अनुसरण करने लगता हैं।

देश भर में हिन्दू समाज द्वारा साईं संध्या को आयोजित किया जाता हैं जिसमे अपने आपको सूफी गायक कहने वाला कव्वाल हमसर हयात निज़ामी बड़ी शान से बुलाया जाता हैं। बहुत कम लोग यह जानते हैं की कव्वाल हमसर हयात निज़ामी के दादा ख्वाजा हसन निज़ामी के कव्वाल थे और अपने हाकिम के लिए ठीक वैसा ही प्रचार इस्लाम का करते थे जैसा निज़ामी की किताब में लिखा हैं।

कहते हैं की समझदार को ईशारा ही काफी होता हैं यहाँ तो सप्रमाण निजामुद्दीन की दरगाह के हाकिम ख्वाजा हसन निजामी और उनकी पुस्तक दाइये इस्लाम पर प्रकाश डाला गया हैं।

ताकि हिन्दू भविष्य में किसी औलिया पीर या साईँ की कब्रों पर जाकर लाशों की पूजा करने की वैसी भूल नहीं करें, जिस से देश का विभाजन हुआ था, जिसका फल हिन्दू आज भी भोग रहे है, बताइए अभी नहीं तो हिन्दू समाज कब इतिहास और अपनी गलतियों से सीखेगा?