बुधवार, 15 सितंबर 2021

कान छिदवाने के फायदे...

हिंदू धर्म में 16 संस्कारों में से एक #कर्ण_वेध संस्कार का उल्लेख मिलता है। इसे उपनयन संस्कार से पहले किया जाता है। विशेष मुहूर्त में कान छिदवाने के बाद उसमें सोने का तार पहना जाता है। कान पके नहीं इसके लिए हल्दी को नारियल के तेल में मिलकर तब तक लगाएं तब तक की छेद अच्छे से फ्री ना हो जाए। दोनों ही कान छिदवाना चाहिए। आओ जानते हैं कान छिदवाने के फायदे...

1. कान छिदवाने से राहु और केतु के बुरे प्रभाव का असर खत्म होता है। जीवन में आने वाले आकस्मिक संकटों का कारण राहु और केतु ही होते हैं।
2. इसे मंदा केतु जब ठीक हो जाता है तो संतान पक्ष से भी व्यक्ति को कई कठिनाई नहीं होती है। धर्म के अनुसार इससे संतान स्वस्थ, निरोगी रोग और व्याधि मुक्त रहती है।
3. केतु और चंद्र की पटती नहीं है, यदि आपने कान में चांदी पहन रखी है तो यह नुकसान दायक होगी।
4. कानों में सोना पहनने से गुरु का साथ मिल जाता है, यह जंगल में भी मंगल कर देता है। यह भी कहा जाता है कि इससे बुरी शक्तियों का प्रभाव दूर होता है और व्यक्ति दीर्घायु होता है।
5. मंदा केतु पैर, कान, रीढ़, घुटने, लिंग, किडनी और जोड़ के रोग पैदा कर सकता है। इसे मन में मतिभ्रम और हमेशा किसी अनहोनी की आशंका बनी रहती है। इससे व्यक्ति के भीतर अपराधी प्रवृत्ति भी जन्म ले सकती है। ऐसे में कान छिदवाने से से यह सभी समस्या दूर हो जाती है।
6. कान छिदवाने से मेधा शक्ति बेहतर होती है तभी तो पुराने समय में गुरुकुल जाने से पहले कान छिदवाने की परंपरा थी।
7. मान्यता अनुसार कान छिदवाने से व्यक्ति के रूप में निखार आता है।


विज्ञान के अनुसार लाभ :
1- कहते हैं कि कान छिदवाने से सुनने की क्षमता बढ़ जाती है।
2- कान छिदवाने से आंखों की रोशनी तेज होती है।
3- कान छिदने से तनाव भी कम होता है।
4- कान छिदने से लकवा जैसी गंभीर बीमारी होने का खतरा काफी हद तक कम हो जाता है।
5- पुरुषों के द्वारा कान छिदवाने से उनमें होने वाली हर्निया की बीमारी खत्म हो जाती है।
6- यह भी कहा जाता है कि पुरुषों के अंडकोष और वीर्य के संरक्षण में भी कर्णभेद का लाभ मिलता है।
7. इससे मस्तिष्क में रक्त का संचार समुचित प्रकार से होता है। इससे दिमाग तेज चलता है।

रविवार, 12 सितंबर 2021

राजनीतिक तौर पर सजग रहने का संस्कृतिक महत्व...

गणेश जी पेशवाओं के ईष्ट देवता थे। पेशवाई के दौरान मराठा साम्राज्य में गणेश पूजा का शाही महत्व था। अंग्रेजों के उदय के साथ गणेश पूजा पारिवारिक उत्सव बन कर रह गया लेकिन लोकमान्य तिलक ने शिवाजी जयंती और गणेश चतुर्थी को फिर से समाज के बीच में स्थापित कर दिया।

क्या शिवाजी जयंती देश की राजनीतिक एकता में बाधक होगी..?
ऐसे सवालों के साथ तिलक के ऊपर संपादकीय लिखे गए।

महाराष्ट्र के बाहर शिवाजी महाराज की स्वीकार्यता होगी..! 
इस पर संदेह जताया गया।

आज सौ साल के बाद देखिए...
गणेश चतुर्थी महाराष्ट्र के बाहर निकल एक आखिल भारतीय त्योहार बन चुका है। हिन्दू जनमानस में शिवाजी महाराज का क्या दर्जा है, लिखने की जरूरत नहीं...

ऐसा होता है जब आप अपनी संस्कृति पर टिके रहते हैं, उसे लेकर आगे बढ़ते हैं... धीरे-धीरे वो समाज की मुख्यधारा बन जाती है।

वहीं दूसरी तरफ बंगाल को देखिए... एक ऐसा राज्य जिसे अंग्रेजों ने सीधे मुगलों से जीता, जहां राम नाम को राजनीतिक तौर पर बाहरी बताया गया और जिस दूर्गा पूजा को बंगाल की संस्कृति माना गया, वो दूर्गा पूजा आधी बंग भूमि (बांग्लादेश) से भी समाप्त हो गई।

गणेश चतुर्थी और दूर्गा पूजा हमें बताते हैं, राजनीतिक तौर पर सजग रहने का क्या संस्कृतिक महत्व होता है।

बुधवार, 8 सितंबर 2021

समोसे की दुकान

एक बड़ी कंपनी के गेट के सामने एक प्रसिद्ध समोसे की दुकान थी।
लंच टाइम मे अक्सर कंपनी के कर्मचारी वहां आकर समोसे खाया करते थे।
एक दिन कंपनी का एक मॅनेजर समोसे खाते-खाते समोसे वाले से मजाक के मूड में आ गए।
मॅनेजर साहब ने समोसेवाले से कहा, "यार गोपाल, तुम्हारी दुकान तुमने बहुत अच्छे से मेंटेन की हैं, लेकीन क्या तुम्हें नहीं लगता के तुम अपना समय और टॅलेंट समोसे बेचकर बर्बाद कर रहे हो..?
सोचो... अगर तुम मेरी तरह इस कंपनी में काम कर रहे होते तो आज कहा होते... हो सकता है, शायद तुम भी आज मेरी तरह मॅनेजर होते..!
इस बात पर समोसेवाले गोपाल ने बड़ा सोचा और बोला, "सर ये मेरा काम आपके काम से कही बेहतर है... 10 साल पहले जब मैं टोकरी में समोसे बेचता था, तभी आपकी जॉब लगी थी। तब मैं महीने में लगभग हजार रुपये कमाता था और आपकी पगार थी 10 हजार...
इन 10 सालों में हम दोनों ने खूब मेहनत की...
आप सुपरवाइजर से मॅनेजर बन गये...
और मैं टोकरी से इस प्रसिद्ध दुकान तक पहुंच गया...
आज आप महीना 40,000₹ कमाते हैं
और मैं महीना 20,000₹
लेकीन इस बात के लिए मैं मेरे काम को आपके काम से बेहतर नहीं कह रहा हूँ..!
ये तो मैं बच्चो के कारण कह रहा हूँ...
जरा सोचिए सर मैंने तो बहुत कम कमाई पर धंदा शुरू किया था, मगर मेरे बेटे को यह सब नहीं झेलना पडेगा... मेरी दुकान मेरे बेटे को मिलेगी। मैने जिंदगी मे जो मेहनत की हैं, उसका लाभ मेरे बच्चे उठाएंगे...
जबकी आपकी जिंदगी भर की मेहनत का लाभ, आपके मालिक के बच्चे उठाएंगे...
अब आपके बेटे को आप डिरेक्टली अपनी पोस्ट पर तो नहीं बिठा सकते ना..!
उसे भी आपकी ही तरह जीरो से शुरूआत करनी पड़ेगी... और अपने कार्यकाल के अंत मे वही पहुंच पाएंगा जहां अभी आप हो...
जबकी मेरा बेटा बिजनेस को यहां से और आगे ले जाएंगा..
और अपने कार्यकाल में हम सबसे बहुत आगे निकल जायेगा..
अब आप ही बताइये... किसका समय और टॅलेंट बर्बाद हो रहा है..?
मॅनेजर साहब ने समोसेवाले को 2 समोसे के 20 रुपये दिये और बिना कुछ बोले वहा से खिसक लिए...


सोमवार, 6 सितंबर 2021

#मरणोपरांत_परमवीरचक्र_विजेता_अब्दुल_हमीद_भी_फर्जी_निकला...

#कॉंग्रेस_की_घटिया_करतूत का एक और #काला_पन्ना...🧐

पूरा पढ़िये आंखे खोल देने वाला सच...😳

1965 के युद्ध का झूठा इतिहास...

ध्यान से और लगन से पढें...
मुस्लिम सैनिकों की गहरी साजिश का खुलासा...

हमें इतिहास में पढ़या गया कि अब्दुल हमीद ने पैटन टैंक उड़ाए थे, जबकि ये सरासर झूठ है और कांग्रेस का हिन्दुओं से एक और विश्वासघात हैं।

हरियाणा निवासी भारतीय फौज के बहादुर सिपाही "चंद्रभान साहू" ने पैटन टैंक  को उड़ाया था, ना कि किसी अब्दुल हमीद ने...
परमवीर चक्र भी उसी हिंदू सैनिक #चंद्रभानसाहू ने जीता था, ना कि किसी अब्दुल हमीद ने..!

बात सन् 1965 के भारत-पाक युद्ध की है...
जब अमेरिका द्वारा प्राप्त अत्याधुनिक पैटन टैंकों के बूते, पाकिस्तान अपनी जीत को पक्का मान रहा था और भारतीय सेना इन टैंकों से निपटने के लिये चिंतित थी...
भारतीय सेना के सामने, भारतीय सेना ने ही एक मुसिबत खड़ी कर दी। 
युद्ध के वक़्त भारतीय सेना की मुस्लिम बटालियन के अधिकांश मुस्लिम सैनिकों द्वारा पाकिस्तान के खेमे में चले जाने व बाकी मुस्लिम सैनिकों द्वारा उसके समर्थन में हथियार डाले जाने से भारतीय खेमे में आत्मविश्वास की बेहद कमी व घोर निराशा थी...

उस घोर निराशा व बेहद चिंताजनक स्थिति के वक़्त आशा की किरण व पूरे युध्द का महानायक बनकर आया था, भारतीय सेना का एक बीस वर्षीय नौजवान सैनिक चंद्रभान साहू...
(पूरा पता-- चंद्रभान साहू सुपुत्र श्री मौजीराम साहू, गांव रानीला, जिला भिवानी, वर्तमान जिला चरखी दादरी, हरियाणा)

रानीला गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि सैनिक चंद्रभान साहू का शव बेहद क्षत-विक्षत व टुकड़ों में था। शव के साथ आये सैनिक व अधिकारी अश्रुपूर्ण आंखों से उसकी अमर शौर्यगाथा सुना रहे थे कि किस तरह एक के बाद एक उसने अकेले पांच पैटन टैंक नष्ट कर दिये थे। इसमें बुरी तरह घायल हो चुके थे और उन्हें जबरन एक तरफ लिटा दिया गया था कि आप पहले ही बहुत बड़ा कार्य कर चुके हैं, अब आपको ट्रक आते ही अन्य घायलों के साथ अस्पताल भेजा जायेगा। लेकिन सैनिक चंद्रभान साहू ये कहते हुए उठ खड़े हुए कि मैं एक तरफ लेटकर युद्ध का तमाशा नहीं देख सकता, घर पर माता-पिता की बुढ़ापे में सेवा के लिये और भाई हैं... मैं अन्तिम सांस तक लडूंगा और दुश्मन को अधिकतम हानि पहुँचाऊँगा।
कोई हथियार न दिये जाने पर साक्षात महाकाल का रूप धारण कर सबके मना करते-करते भी अभूतपूर्व वीरता व साहस दिखाते हुए एंटी टैंक माइन लेकर पास से गुजरते टैंक के नीचे लेटकर छठा टैंक ध्वस्त कर युद्ध में प्राणों का सर्वोच्च बलिदान कर दिया।
उनके इस सर्वोच्च व अदभुत बलिदान ने भारतीय सेना में अपूर्व जोश व आक्रोश भर दिया था व उसके बाद हर जगह पैटन टैंकों की कब्र खोद दी गई। ग्रामीणों ने नई पीढ़ी को प्रेरणा देने के लिये दशकों तक उसका फोटो व शौर्यगाथा रानीला गांव के बड़े स्कूल में टांग कर रखी और आज भी स्कूल में उनका नाम लिखा हुआ बताते हैं।
बार्डर फिल्म में जो घायल अवस्था में सुनील शेट्टी वाला एंटी-टैंक माइन लेकर टैंक के नीचे लेटकर टैंक उड़ाने का दृश्य है, वो सैनिक चंद्रभान साहू ने वास्तव में किया था। ऐसे रोम-रोम से राष्ट्रभक्त महायोद्धा सिर्फ भारतभूमि पर जन्म ले सकते हैं।
मुस्लिम रेजिमेंट द्वारा पाकिस्तान का समर्थन करने से मुस्लिमों की हो रही भयानक किरकिरी को रोकने व मुस्लिमों की छवि ठीक रखने के लिये इंदिरा गाँधी की कांग्रेस सरकार ने परमवीर चंद्रभान साहू की अनुपम वीरगाथा को पूरे युद्ध के एकमात्र मुस्लिम मृतक अब्दुल हमीद के नाम से अखबारों में छपवा दिया व रेडियो पर चलवा दिया और अब्दुल हमीद को परमवीर चक्र दे दिया व इसका असली अधिकारी सैनिक चंद्रभान साहू गुमनामी के अंधेरे में खो गया...

ऐसे ही अनेक काम कांग्रेस ने पिछले 75 सालों में हर क्षेत्र में किये, जिनका खुलासा होना बाकी है...
पता नहीं धूर्त कांग्रेस के राष्ट्र से जुड़े कितने रहस्य अभी उजागर होने बाकी है.. 

🙏🏻 जय हिन्द 🇮🇳 जय हिन्द की सेना ⛳

शनिवार, 4 सितंबर 2021

तो आज उर्दू हमारी राजभाषा होती...

हिंदी पखवाड़ा चल रहा है... ऐसे में एक शख्स को याद करना बेहद जरूरी है, जो नहीं होते तो आज उर्दू हमारी राजभाषा होती। वो थे - भारतेंदु हरिश्चंद्र ⛳

1192 में दिल्ली के सम्राट पृथ्वीराज तृतीय की पराजय के बाद से ही उत्तर में हिन्दी की स्थिति ज्यादा मजबूत नही रह गयी थी उसकी जगह फारसी ले चुकी थी। सिर्फ राजपूताना शेष था जो अब भी हिन्दी मे कार्य कर रहा था मगर धीरे धीरे वह मुगलो के हाथ मे आ गया और आधिकारिक स्तर पर हिन्दी अब बस एक समय की बात होकर रह गयी।

1757 में मुगलो की सत्ता उजड़ गयी और मराठो का प्रादुर्भाव हुआ, मराठो की राजभाषा संस्कृत तथा मराठी थी और फारसी को वे स्वीकारना नही चाहते थे। अंततः पुनः देवनागरी लिपि में हिंदुस्थानी लिखी जाने लगी, हिंदुस्थानी में हिंदी और उर्दू दोनों शब्दों का मेल था।

मगर देवनागरी का प्रयोग उस समय बहुत कठिन बात थी, इसलिए सिर्फ मराठा राजाओ और पेशवाओ को पत्र लिखते समय ही इसका प्रयोग होता था बाकी उर्दू और फारसी चलती रही। 1818 में मराठा साम्राज्य गिर गया और अंग्रेजो का शासन आया तो अंग्रेजी चरम पर पहुँच गयी।

हिन्दी पहले ही उर्दू से जूझ रही थी अब अंग्रेजी भी सिर पर खड़ी हो गयी। अंततः 9 सितंबर 1850 को वाराणसी के एक धनाढ्य अग्रवाल परिवार में भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म हुआ। 15 वर्ष के होने तक उन्होंने हिन्दी व्याकरण के सभी शब्दो को खोज लिया।

भारतेंदु हरिश्चंद्र ने हिन्दी के प्रचार के लिये पानी की तरह पैसा बहाया, हिन्दू राजाओ से अपील भी की कि वे अपने राजकार्य हिन्दी मे करे। इस बीच उन्होंने दो नाटक लिखे "अंधेर नगरी" और "भारत की दुर्दशा", ये वे लेख थे जिन्होंने हिन्दी की क्रांति में मुख्य भूमिका निभाई।

एक बार काशी नरेश ने भारतेंदु से कहा, ‘बबुआ! घर को देखकर काम करो।’ इस पर उनका उत्तर था,‘हुजूर! इस धन ने मेरे पूर्वजों को खाया है, अब मैं इसे खाऊंगा।’

इन लेखों के माध्यम से उन्होंने हिन्दू धर्म मे लोगो की आस्था पुनः जगा दी और आखिरकार 1885 में उनकी मृत्यु हो गयी। वे जब स्वर्ग सिधारे उनके पास कोई विशेष संपत्ति नही रह गयी थी हिन्दी के उत्थान में उन्होंने अपना सबकुछ न्यौछावर कर दिया था। भारतेंदु उन्हें उपाधि मिली थी, जिसका अर्थ था भारत का चंद्रमा।

भारतेंदु हरिश्चंद्र के बाद तो मानो हिन्दी कवियों का मेला लग गया, मैथिलीशरण गुप्त और माखनलाल चतुर्वेदी ने हिन्दी को पूरे भारत मे पहचान दिला दी। 1911 में बॉलीवुड की प्रथम फ़िल्म हरिश्चंद्र आयी, दादा साहेब फाल्के ने इसकी डबिंग पूर्ण हिन्दी में करके सूर्यवंश कालीन भारत जगा दिया। आज का बॉलीवुड जो भी हो तब के बॉलीवुड ने हिन्दी प्रचार में चार चाँद लगा दिए थे।

अंततः 1947 तक वीर सावरकर, महात्मा गांधी, गुरु गोलवलकर, पंडित नेहरू और सुभाषचंद्र बोस जैसे दिग्गज नेता अपने अपने कार्यक्षेत्र में हिन्दी ला चुके थे। ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्त होते ही सारे राजकार्य हिन्दी मे आरंभ हो गए, हालांकि अब फिर से इसके साथ छेड़छाड़ जारी है उर्दू शब्दो को फिर से इसमें मिलाकर एक प्रयास जारी है कि हिन्दी को कभी प्राचीन भाषा का दर्जा ना मिले।

जिस बॉलीवुड ने हिन्दी को खड़ा करने में मुख्य भूमिका निभाई उस पर अंडरवर्ल्ड का साया पड़ने लगा, अब तो ये बात फैलाई जाने लगी कि भारत के पास अपनी कोई भाषा नही थी मुगलो ने आकर पढ़ना लिखना सीखाया। बहरहाल चुनौतियां हर युग मे है, हमारा युग भारतेंदु हरिश्चंद्र जितना बुरा भी नही है। जब जब हिन्दी पर संकट मंडराएगा भारतेंदु अवश्य जन्म लेंगे।

आप बस ये ध्यान रखे कि कोई नागरिक ये ना कहे कि उर्दू भारत की मूल भाषा है या फिर हिन्दी पुरानी है तो उसमे उर्दू शब्द क्यो है? हिन्दी मे जबरदस्ती परिवर्तन किये गए है इसलिए उसका स्वरूप बिगड़ा, पृथ्वीराज के काल तक शुद्ध हिन्दी ही हमारी राष्ट्रभाषा थी।


लेखक - परख सक्सेना