रविवार, 31 मई 2020

सेक्स क्या हैं..?

सेक्स शब्द सुनते ही बहुतों के चेहरे पर मुस्कान आ जाती हैं, मन के अधकचरे उमंग हिलोरे मारते हैं किंतु सामने चुप्पी ही रहती हैं, लोग इस मुद्दे पर खुलकर सामने नहीं आते, आना भी नहीं चाहिए क्योंकि कुछ चीज़ पर्दे में रहे तो ही उचित हैैं।

किन्तु सेक्स हैं क्या..?
क्या यह उतना ही गन्दा हैं जितना हम समझते हैं..? 
गन्दा नहीं हैं तो लगता क्यों हैं..? 
सेक्स शब्द अंग्रेजो की देन हैं, जो पिशाच मानसिकता के होते हैं और वासना के मद में सन्न रहते हैं।
हमारे यहां तो "ऋतुदान" होता हैं, वैदिक परंपरा के अनुसार...

ऋतुदान कुछ ऐसा है जैसे कृषि, समय आने पर किसान जमीन में बीज बोता हैं। तय समय पर अंकुर फुट जाते हैं और एक फसल तैयार होती हैं।
पूरी प्रक्रिया में कहीं कुछ गन्दा लगा..?

ऐसे ही सन्तान की इच्छा होने पर ऋतुदान किया जाता हैं, जिसके बाद संतान का जन्म होता हैं।
यह भी तो कृषि ही तो है... स्त्री का गर्भ धरती, वीर्य वह बीज और फसल तैयार होती हैं।
इसमे गन्दा क्या हैं..? मनुष्य को सन्तान चाहिए क्योंकि वंश आगे बढ़ाना हैं, कृषि पेट भरने के लिए करते हैं।
जीवन में दोनों जरूरी हैं।
यह भी यज्ञ हैं, उसकी तरह पवित्र किन्तु आधुनिक लोगों ने इस यज्ञ को सेक्स का नाम दे दिया।

यह अलग विषय कि इसे पर्दे में रखा गया जो कि जरूरी भी हैं क्योंकि समय आने पर ही ऋतुदान उत्तम होता हैं।
ऐसे रोज़-रोज़, दिन-रात इसमें ही लगे रहते हैं... हमसे अच्छे तो पशु हैं क्योंकि वह आज भी वेदोक्त नियम पर चलते हैं।
हम में तो पशुता भी नहीं बची हैं..! आज देखो तो पोर्न के नाम पर लाखों युवा का भविष्य बर्बाद किया जा रहा हैं, पीढ़ियों को नपुंसक बनाया जा रहा हैं। यह सब असमय सेक्स का ही परिणाम हैं।
हमारी वैदिक परंपरा तो ब्रह्मचर्य रखने को कहती हैं और समय आने पर ऋतुदान
कितनी उत्तम सभ्यता हैं, गर्व होता है इसपर...
🙏🏻 सत्य सनातन धर्म की जय

शुक्रवार, 29 मई 2020

स्वस्तिक चिन्ह और उसका महत्व...

किसी भी शुभ कार्य को आरंभ करने से पहले हिन्दू धर्म में स्वास्तिक का चिन्ह बनाकर उसकी पूजा करने का महत्व है। मान्यता है कि ऐसा करने से कार्य सफल होता है। स्वास्तिक के चिन्ह को मंगल प्रतीक भी माना जाता है। स्वास्तिक शब्द को ‘सु’ और ‘अस्ति’ का मिश्रण योग माना जाता है। यहां ‘सु’ का अर्थ है शुभ और ‘अस्ति’ से तात्पर्य है होना। अर्थात स्वास्तिक का मौलिक अर्थ है ‘शुभ हो’, ‘कल्याण हो।

शुभ कार्य

यही कारण है कि किसी भी शुभ कार्य के दौरान स्वास्तिक को पूजना अति आवश्यक माना गया है। लेकिन असल में स्वस्तिक का यह चिन्ह क्या दर्शाता है, इसके पीछे ढेरों तथ्य हैं। स्वास्तिक में चार प्रकार की रेखाएं होती हैं, जिनका आकार एक समान होता है।

चार रेखाएं

मान्यता है कि यह रेखाएं चार दिशाओं - पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण की ओर इशारा करती हैं। लेकिन हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यह रेखाएं चार वेदों - ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद और सामवेद का प्रतीक हैं। कुछ यह भी मानते हैं कि यह चार रेखाएं सृष्टि के रचनाकार भगवान ब्रह्मा के चार सिरों को दर्शाती है।

चार देवों का प्रतीक

इसके अलावा इन चार रेखाओं की चार पुरुषार्थ, चार आश्रम, चार लोक और चार देवों यानी कि भगवान ब्रह्मा, विष्णु, महेश (भगवान शिव) और गणेश से तुलना की गई है। स्वास्तिक की चार रेखाओं को जोड़ने के बाद मध्य में बने बिंदु को भी विभिन्न मान्यताओं द्वारा परिभाषित किया जाता है।

मध्य स्थान

मान्यता है कि यदि स्वास्तिक की चार रेखाओं को भगवान ब्रह्मा के चार सिरों के समान माना गया है, तो फलस्वरूप मध्य में मौजूद बिंदु भगवान विष्णु की नाभि है, जिसमें से भगवान ब्रह्मा प्रकट होते हैं। इसके अलावा यह मध्य भाग संसार के एक धुर से शुरू होने की ओर भी इशारा करता है।

सूर्य भगवान का चिन्ह

स्वास्तिक की चार रेखाएं एक घड़ी की दिशा में चलती हैं, जो संसार के सही दिशा में चलने का प्रतीक है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यदि स्वास्तिक के आसपास एक गोलाकार रेखा खींच दी जाए, तो यह सूर्य भगवान का चिन्ह माना जाता है। वह सूर्य देव जो समस्त संसार को अपनी ऊर्जा से रोशनी प्रदान करते हैं।

बौद्ध धर्म में स्वास्तिक

हिन्दू धर्म के अलावा स्वास्तिक का और भी कई धर्मों में महत्व है। बौद्ध धर्म में स्वास्तिक को अच्छे भाग्य का प्रतीक माना गया है। यह भगवान बुद्ध के पग चिन्हों को दिखाता है, इसलिए इसे इतना पवित्र माना जाता है। यही नहीं, स्वास्तिक भगवान बुद्ध के हृदय, हथेली और पैरों में भी अंकित है।

जैन धर्म में स्वास्तिक

वैसे तो हिन्दू धर्म में ही स्वास्तिक के प्रयोग को सबसे उच्च माना गया है लेकिन हिन्दू धर्म से भी ऊपर यदि स्वास्तिक ने कहीं मान्यता हासिल की है तो वह है जैन धर्म। हिन्दू धर्म से कहीं ज्यादा महत्व स्वास्तिक का जैन धर्म में है। जैन धर्म में यह सातवं जिन का प्रतीक है, जिसे सब तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के नाम से भी जानते हैं। श्वेताम्बर जैनी स्वास्तिक को अष्ट मंगल का मुख्य प्रतीक मानते हैं।

हड़प्पा सभ्यता में स्वास्तिक

सिंधु घाटी की खुदाई के दौरान स्वास्तिक प्रतीक चिन्ह मिला। ऐसा माना जाता है हड़प्पा सभ्यता के लोग भी सूर्य पूजा को महत्व देते थे। हड़प्पा सभ्यता के लोगों का व्यापारिक संबंध ईरान से भी था। जेंद अवेस्ता में भी सूर्य उपासना का महत्व दर्शाया गया है। प्राचीन फारस में स्वास्तिक की पूजा का चलन सूर्योपासना से जोड़ा गया था, जो एक काबिल-ए-गौर तथ्य है।

लाल रंग ही क्यों

यह सभी तथ्य हमें बताते हैं कि केवल भारत में ही नहीं बल्कि विश्व के कोने-कोने में स्वास्तिक चिन्ह ने अपनी जगह बनाई है। फिर चाहे वह सकारात्मक दृष्टि से हो या नकारात्मक रूप से। परन्तु भारत में स्वास्तिक चिन्ह को सम्मान दिया जाता है और इसका विभिन्न रूप से इस्तेमाल किया जाता है। यह जानना बेहद रोचक होगा कि केवल लाल रंग से ही स्वास्तिक क्यों बनाया जाता है?

लाल रंग का सर्वाधिक महत्व

भारतीय संस्कृति में लाल रंग का सर्वाधिक महत्व है और मांगलिक कार्यों में इसका प्रयोग सिन्दूर, रोली या कुमकुम के रूप में किया जाता है। लाल रंग शौर्य एवं विजय का प्रतीक है। लाल रंग प्रेम, रोमांच व साहस को भी दर्शाता है। धार्मिक महत्व के अलावा वैज्ञानिक दृष्टि से भी लाल रंग को सही माना जाता है।

शारीरिक व मानसिक स्तर

लाल रंग व्यक्ति के शारीरिक व मानसिक स्तर को शीघ्र प्रभावित करता है। यह रंग शक्तिशाली व मौलिक है। हमारे सौर मण्डल में मौजूद ग्रहों में से एक मंगल ग्रह का रंग भी लाल है। यह एक ऐसा ग्रह है जिसे साहस, पराक्रम, बल व शक्ति के लिए जाना जाता है। यह कुछ कारण हैं जो स्वास्तिक बनाते समय केवल लाल रंग के उपयोग की ही सलाह देते हैं।

शुक्रवार, 22 मई 2020

स्त्रियों के सोलह श्रृंगार और उनका महत्व...



दिब्य बसन भूषन पहिराए। जे नित नूतन अमल सुहाए॥
कह रिषिबधू सरस मृदु बानी। नारिधर्म कछु ब्याज बखानी॥

श्री राम चरित मानस के अनुसार माता अनसूया ने माता जानकी को ऐसे दिव्य वस्त्र और आभूषण पहनाए, जो नित्य-नए निर्मल और सुहावने बने रहते हैं और फिर माता अनसूया ने अपने मधुर और कोमल वाणी से स्त्रियों के गुण धर्म का बखान किया।। 

हिन्दू धर्म में महिलाओं के लिए 16 श्रृंगार का विशेष महत्व है। विवाह के बाद स्त्री इन सभी चीजों को अनिवार्य रूप से धारण करती है। हर एक चीज का अलग महत्व है। हर स्त्री चाहती थी की वे सज धज कर सुन्दर लगे यह उनके रूप को ओर भी अधिक सौन्दर्यवान बना देता है।

यहां इन सोलह श्रृंगार के बार मे विस्तृत वर्णन किया गया है।

पहला श्रृंगार:👉 बिंदी
संस्कृत भाषा के बिंदु शब्द से बिंदी की उत्पत्ति हुई है। भवों के बीच रंग या कुमकुम से लगाई जाने वाली भगवान शिव के तीसरे नेत्र का प्रतीक मानी जाती है। सुहागिन स्त्रियां कुमकुम या सिंदूर से अपने ललाट पर लाल बिंदी लगाना जरूरी समझती हैं। इसे परिवार की समृद्धि का प्रतीक माना जाता है।

धार्मिक मान्यता
बिंदी को त्रिनेत्र का प्रतीक माना गया है. दो नेत्रों को सूर्य व चंद्रमा माना गया है, जो वर्तमान व भूतकाल देखते हैं तथा बिंदी त्रिनेत्र के प्रतीक के रूप में भविष्य में आनेवाले संकेतों की ओर इशारा करती है।

वैज्ञानिक मान्यता
विज्ञान के अनुसार, बिंदी लगाने से महिला का आज्ञा चक्र सक्रिय हो जाता है. यह महिला को आध्यात्मिक बने रहने में तथा आध्यात्मिक ऊर्जा को बनाए रखने में सहायक होता है. बिंदी आज्ञा चक्र को संतुलित कर दुल्हन को ऊर्जावान बनाए रखने में सहायक होती है।

दूसरा श्रृंगार: सिंदूर
उत्तर भारत में लगभग सभी प्रांतों में सिंदूर को स्त्रियों का सुहाग चिन्ह माना जाता है और विवाह के अवसर पर पति अपनी पत्नी के मांग में सिंदूर भर कर जीवन भर उसका साथ निभाने का वचन देता है।

धार्मिक मान्यता
मान्यताओं के अनुसार, सौभाग्यवती महिला अपने पति की लंबी उम्र के लिए मांग में सिंदूर भरती है. लाल सिंदूर महिला के सहस्रचक्र को सक्रिय रखता है. यह महिला के मस्तिष्क को एकाग्र कर उसे सही सूझबूझ देता है।

वैज्ञानिक मान्यता
वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार, सिंदूर महिलाओं के रक्तचाप को नियंत्रित करता है. सिंदूर महिला के शारीरिक तापमान को नियंत्रित कर उसे ठंडक देता है और शांत रखता है।

तीसरा श्रृंगार: काजल
काजल आँखों का श्रृंगार है. इससे आँखों की सुन्दरता तो बढ़ती ही है, काजल दुल्हन और उसके परिवार को लोगों की बुरी नजर से भी बचाता है।

धार्मिक मान्यता
मान्यताओं के अनुसार, काजल लगाने से स्त्री पर किसी की बुरी नज़र का कुप्रभाव नहीं पड़ता. काजल से आंखों से संबंधित कई रोगों से बचाव होता है. काजल से भरी आंखें स्त्री के हृदय के प्यार व कोमलता को दर्शाती हैं।

वैज्ञानिक मान्यता
वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार, काजल आंखों को ठंडक देता है. आंखों में काजल लगाने से नुक़सानदायक सूर्य की किरणों व धूल-मिट्टी से आंखों का बचाव होता है।

चौथा श्रृंगार: मेंहदी
मेहंदी के बिना सुहागन का श्रृंगार अधूरा माना जाता है। शादी के वक्त दुल्हन और शादी में शामिल होने वाली परिवार की सुहागिन स्त्रियां अपने पैरों और हाथों में मेहंदी रचाती है। ऐसा माना जाता है कि नववधू के हाथों में मेहंदी जितनी गाढ़ी रचती है, उसका पति उसे उतना ही ज्यादा प्यार करता है।

धार्मिक मान्यता
मानयताओं के अनुसार, मेहंदी का गहरा रंग पति-पत्नी के बीच के गहरे प्रेम से संबंध रखता है. मेहंदी का रंग जितना लाल और गहरा होता है, पति-पत्नी के बीच प्रेम उतना ही गहरा होता है।

वैज्ञानिक मान्यता
वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार मेहंदी दुल्हन को तनाव से दूर रहने में सहायता करती है. मेहंदी की ठंडक और ख़ुशबू दुल्हन को ख़ुश व ऊर्जावान बनाए रखती है।

पांचवां श्रृंगारः शादी का जोड़ा
उत्तर भारत में आम तौर से शादी के वक्त दुल्हन को जरी के काम से सुसज्जित शादी का लाल जोड़ा (घाघरा, चोली और ओढ़नी) पहनाया जाता है। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में फेरों के वक्त दुल्हन को पीले और लाल रंग की साड़ी पहनाई जाती है। इसी तरह महाराष्ट्र में हरा रंग शुभ माना जाता है और वहां शादी के वक्त दुल्हन हरे रंग की साड़ी मराठी शैली में बांधती हैं।

धार्मिक मान्यता
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, लाल रंग शुभ, मंगल व सौभाग्य का प्रतीक है, इसीलिए शुभ कार्यों में लाल रंग का सिंदूर, कुमकुम, शादी का जोड़ा आदि का प्रयोग किया जाता है।

वैज्ञानिक मान्यता
विज्ञान के अनुसार, लाल रंग शक्तिशाली व प्रभावशाली है, इसके उपयोग से एकाग्रता बनी रहती है. लाल रंग आपकी भावनाओं को नियंत्रित कर आपको स्थिरता देता है।

छठा श्रृंगार: गजरा

दुल्हन के जूड़े में जब तक सुगंधित फूलों का गजरा न लगा हो तब तक उसका श्रृंगार फीका सा लगता है।दक्षिण भारत में तो सुहागिन स्त्रियां प्रतिदिन अपने बालों में हरसिंगार के फूलों का गजरा लगाती है।

धार्मिक मान्यता
मान्यताओं के अनुसार, गजरा दुल्हन को धैर्य व ताज़गी देता है. शादी के समय दुल्हन के मन में कई तरह के विचार आते हैं, गजरा उन्हीं विचारों से उसे दूर रखता है और ताज़गी देता है।

वैज्ञानिक मान्यता
विज्ञान के अनुसार, चमेली के फूलों की महक हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करती है. चमेली की ख़ुशबू तनाव को दूर करने में सबसे ज़्यादा सहायक होती है।

सातवां श्रृंगार: मांग टीका
मांग के बीचों-बीच पहना जाने वाला यह स्वर्ण आभूषण सिंदूर के साथ मिलकर वधू की सुंदरता में चार चांद लगा देता है। ऐसी मान्यता है कि नववधू को मांग टीका सिर के ठीक बीचों-बीच इसलिए पहनाया जाता है कि वह शादी के बाद हमेशा अपने जीवन में सही और सीधे रास्ते पर चले और वह बिना किसी पक्षपात के सही निर्णय ले सके।

धार्मिक मान्यता
मान्यताओं के अनुसार, मांगटीका महिला के यश व सौभाग्य का प्रतीक है. मांगटीका यह दर्शाता है कि महिला को अपने से जुड़े लोगों का हमेशा आदर करना है।

वैज्ञानिक मान्यता
वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार मांगटीका महिलाओं के शारीरिक तापमान को नियंत्रित करता है, जिससे उनकी सूझबूझ व निर्णय लेने की क्षमता बढ़ती है।

आठवां श्रृंगारः नथ
विवाह के अवसर पर पवित्र अग्नि में चारों ओर सात फेरे लेने के बाद देवी पार्वती के सम्मान में नववधू को नथ पहनाई जाती है। ऐसी मान्यता है कि सुहागिन स्त्री के नथ पहनने से पति के स्वास्थ्य और धन-धान्य में वृद्धि होती है। उत्तर भारतीय स्त्रियां आमतौर पर नाक के बायीं ओर ही आभूषण पहनती है, जबकि दक्षिण भारत में नाक के दोनों ओर नाक के बीच के हिस्से में भी छोटी-सी नोज रिंग पहनी जाती है, जिसे बुलाक कहा जाता है। नथ आकार में काफी बड़ी होती है इसे हमेशा पहने रहना असुविधाजनक होता है, इसलिए सुहागन स्त्रियां इसे शादी-व्याह और तीज-त्यौहार जैसे खास अवसरों पर ही पहनती हैं, लेकिन सुहागिन स्त्रियों के लिए नाक में आभूषण पहनना अनिर्वाय माना जाता है। इसलिए आम तौर पर स्त्रियां नाक में छोटी नोजपिन पहनती हैं, जो देखने में लौंग की आकार का होता है। इसलिए इसे लौंग भी कहा जाता है।

धार्मिक मान्यता
हिंदू धर्म में जिस महिला का पति मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, उसकी नथ को उतार दिया जाता है। इसके अलावा हिंदू धर्म के अनुसार नथ को माता पार्वती को सम्मान देने के लिये भी पहना जाता है।

वैज्ञानिक मान्यता
जिस प्रकार शरीर के अलग-अलग हिस्सों को दबाने से एक्यूप्रेशर का लाभ मिलता है, ठीक उसी प्रकार नाक छिदवाने से एक्यूपंक्चर का लाभ मिलता है। इसके प्रभाव से श्वास संबंधी रोगों से लड़ने की शक्ति बढ़ती है। कफ, सर्दी-जुकाम आदि रोगों में भी इससे लाभ मिलते हैं। आयुर्वेद के अनुसार नाक के एक प्रमुख हिस्से पर छेद करने से स्त्रियों को मासिक धर्म से जुड़ी कई परेशानियों में राहत मिल सकती है। आमतौर पर लड़कियां सोने या चांदी से बनी नथ पहनती हैं। ये धातुएं लगातार हमारे शरीर के संपर्क में रहती हैं तो इनके गुण हमें प्राप्त होते हैं। आयुर्वेद में स्वर्ण भस्म और रजत भस्म बहुत सी बीमारियों में दवा का काम करती है।

नौवां श्रृंगारः कर्णफूल
कान में पहने जाने वाला यह आभूषण कई तरह की सुंदर आकृतियों में होता है, जिसे चेन के सहारे जुड़े में बांधा जाता है। विवाह के बाद स्त्रियों का कानों में कणर्फूल (ईयरिंग्स) पहनना जरूरी समझा जाता है। इसके पीछे ऐसी मान्यता है कि विवाह के बाद बहू को दूसरों की, खासतौर से पति और ससुराल वालों की बुराई करने और सुनने से दूर रहना चाहिए।

धार्मिक मान्यता
मान्यताओं के अनुसार, कर्णफूल यानी ईयररिंग्स महिला के स्वास्थ्य से सीधा संबंध रखते हैं. ये महिला के चेहरे की ख़ूबसूरती को निखारते हैं. इसके बिना महिला का शृंगार अधूरा रहता है।

वैज्ञानिक मान्यता
वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार हमारे कर्णपाली (ईयरलोब) पर बहुत से एक्यूपंक्चर व एक्यूप्रेशर पॉइंट्स होते हैं, जिन पर सही दबाव दिया जाए, तो माहवारी के दिनों में होनेवाले दर्द से राहत मिलती है. ईयररिंग्स उन्हीं प्रेशर पॉइंट्स पर दबाव डालते हैं. साथ ही ये किडनी और मूत्राशय (ब्लैडर) को भी स्वस्थ बनाए रखते हैं।

दसवां श्रृंगार: हार या मंगल सूत्र
गले में पहना जाने वाला सोने या मोतियों का हार पति के प्रति सुहागन स्त्री के वचनवद्धता का प्रतीक माना जाता है। हार पहनने के पीछे स्वास्थ्यगत कारण हैं। गले और इसके आस-पास के क्षेत्रों में कुछ दबाव बिंदु ऐसे होते हैं जिनसे शरीर के कई हिस्सों को लाभ पहुंचता है। इसी हार को सौंदर्य का रूप दे दिया गया है और श्रृंगार का अभिन्न अंग बना दिया है। दक्षिण और पश्चिम भारत के कुछ प्रांतों में वर द्वारा वधू के गले में मंगल सूत्र पहनाने की रस्म की वही अहमियत है।

धार्मिक मान्यता
ऐसी मान्यता है कि मंगलसूत्र सकारात्मक ऊर्जा को अपनी ओर आकर्षित कर महिला के दिमाग़ और मन को शांत रखता है. मंगलसूत्र जितना लंबा होगा और हृदय के पास होगा वह उतना ही फ़ायदेमंद होगा. मंगलसूत्र के काले मोती महिला की प्रतिरक्षा प्रणाली को भी मज़बूत करते हैं।

वैज्ञानिक मान्यता
वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार, मंगलसूत्र सोने से निर्मित होता है और सोना शरीर में बल व ओज बढ़ानेवाली धातु है, इसलिए मंगलसूत्र शारीरिक ऊर्जा का क्षय होने से रोकता है।

ग्यारहवां श्रृंगारः बाजूबंद
कड़े के सामान आकृति वाला यह आभूषण सोने या चांदी का होता है। यह बाहों में पूरी तरह कसा जाता है। इसलिए इसे बाजूबंद कहा जाता है। पहले सुहागिन स्त्रियों को हमेशा बाजूबंद पहने रहना अनिवार्य माना
जाता था और यह सांप की आकृति में होता था। ऐसी मान्यता है कि स्त्रियों को बाजूबंद पहनने से परिवार के धन की रक्षा होती और बुराई पर अच्छाई की जीत होती
है।

धार्मिक मान्यता
मान्यताओं के अनुसार, बाजूबंद महिलाओं के शरीर में ताक़त बनाए रखने व पूरे शरीर में उसका संचार करने में सहायक होता है।

वैज्ञानिक मान्यता
वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार, बाजूबंद बाजू पर सही मात्रा में दबाव डालकर रक्तसंचार बढ़ाने में सहायता करता है।

बारहवां श्रृंगार: कंगन और चूड़ियां
सोने का कंगन अठारहवीं सदी के प्रारंभिक वर्षों से ही सुहाग का प्रतीक माना जाता रहा है। हिंदू परिवारों में सदियों से यह परंपरा चली आ रही है कि सास अपनी बड़ी बहू को मुंह दिखाई रस्म में सुख और सौभाग्यवती बने रहने का आशीर्वाद के साथ वही कंगन देती थी, जो पहली बार ससुराल आने पर उसे उसकी सास ने उसे दिये थे। इस तरह खानदान की पुरानी धरोहर को सास द्वारा बहू को सौंपने की परंपरा का निर्वाह पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है। पंजाब में स्त्रियां कंगननुमा डिजाइन का एक विशेष पारंपरिक आभूषण पहनती है, जिसे लहसुन की पहुंची कहा जाता है। सोने से बनी इस पहुंची में लहसुन की कलियां और जौ के दानों जैसे आकृतियां बनी होती है। हिंदू धर्म में मगरमच्छ,हांथी, सांप, मोर जैसी जीवों का विशेष स्थान दिया गया है। उत्तर भारत में ज्यादातर स्त्रियां ऐसे पशुओं के मुखाकृति वाले खुले मुंह के कड़े पहनती हैं, जिनके दोनों सिरे एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। पारंपरिक रूप से ऐसा माना जात है कि सुहागिन स्त्रियों की कलाइयां चूड़ियों से भरी हानी चाहिए। यहां तक की सुहागन स्त्रियां चूड़ियां बदलते समय भी अपनी कलाई में साड़ी का पल्लू कलाई में लपेट लेती हैं ताकि उनकी कलाई एक पल को भी सूनी न रहे। ये चूड़ियां आमतौर पर कांच, लाख और हांथी दांत से बनी होती है। इन चूड़ियों के रंगों का भी विशेष महत्व है।नवविवाहिता के हाथों में सजी लाल रंग की चूड़ियां इस बात का प्रतीक होती हैं कि विवाह के बाद वह पूरी तरह खुश और संतुष्ट है। हरा रंग शादी के बाद उसके परिवार के समृद्धि का प्रतीक है। होली के अवसर पर पीली या बंसती रंग की चूड़ियां पहनी जाती है, तो सावन में तीज के मौके पर हरी और धानी चूड़ियां पहनने का रीवाज सदियों से चला आ रहा है। विभिन्न राज्यों में विवाह के मौके पर अलग-अलग रंगों की चूड़ियां पहनने की प्रथा है।

धार्मिक मान्यता
मान्यताओं के अनुसार, चूड़ियां पति-पत्नी के भाग्य और संपन्नता की प्रतीक हैं. यह भी मान्यता है कि महिलाओं को पति की लंबी उम्र व अच्छे स्वास्थ्य के लिए हमेशा चूड़ी पहनने की सलाह दी जाती है. चूड़ियों का सीधा संबंध चंद्रमा से भी माना जाता है।

वैज्ञानिक मान्यता
वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार, चूड़ियों से उत्पन्न होनेवाली ध्वनि महिलाओं की हड्डियों को मज़बूत करने में सहायक होती है. महिलाओं के रक्त के परिसंचरण में भी चूड़ियां सहायक होती हैं।

तेरहवां श्रृंगार: अंगूठी

शादी के पहले मंगनी या सगाई के रस्म में वर-वधू द्वारा एक-दूसरे को अंगूठी को सदियों से पति-पत्नी के आपसी प्यार और विश्वास का प्रतीक माना जाता रहा है। हमारे प्राचीन धर्म ग्रंथ रामायण में भी इस बात का उल्लेख मिलता है। सीता का हरण करके रावण ने जब सीता को अशोक वाटिका में कैद कर रखा था तब भगवान श्रीराम ने हनुमानजी के माध्यम से सीता जी को अपना संदेश भेजा था। तब स्मृति चिन्ह के रूप में उन्होंनें अपनी अंगूठी हनुमान जी को दी थी।

धार्मिक मान्यता
मान्यताओं के अनुसार, अंगूठी पति-पत्नी के प्रेम की प्रतीक होती है, इसे पहनने से पति-पत्नी के हृदय में एक-दूसरे के लिए सदैव प्रेम बना रहता है।

वैज्ञानिक मान्यता
वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार, अनामिका उंगली की नसें सीधे हृदय व दिमाग़ से जुड़ी होती हैं, इन पर प्रेशर पड़ने से दिल व दिमाग़ स्वस्थ रहता है।

चौदहवां श्रृंगार: कमरबंद
कमरबंद कमर में पहना जाने वाला आभूषण है, जिसे स्त्रियां विवाह के बाद पहनती हैं, इससे उनकी छरहरी काया और भी आकर्षक दिखाई पड़ती है। सोने या
चांदी से बने इस आभूषण के साथ बारीक घुंघरुओं वाली आकर्षक की रिंग लगी होती है, जिसमें नववधू चाबियों का गुच्छा अपनी कमर में लटकाकर रखती है। कमरबंद इस बात का प्रतीक है कि सुहागन अब अपने
घर की स्वामिनी है।

धार्मिक मान्यता
मान्यताओं के अनुसार, महिला के लिए कमरबंद बहुत आवश्यक है. चांदी का कमरबंद महिलाओं के लिए शुभ माना जाता है।

वैज्ञानिक मान्यता
वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार, चांदी का कमरबंद पहनने से महिलाओं को माहवारी तथा गर्भावस्था में होनेवाले सभी तरह के दर्द से राहत मिलती है. चांदी का कमरबंद पहनने से महिलाओं में मोटापा भी नहीं बढ़ता।

पंद्रहवाँ श्रृंगारः बिछुवा
पैरों के अंगूठे में रिंग की तरह पहने जाने वाले इस आभूषण को अरसी या अंगूठा कह जाता है। पारंपरिक रूप से पहने जाने वाले इस आभूषण में छोटा सा शीशा लगा होता है, पुराने जमाने में संयुक्त परिवारों में नववधू सबके सामने पति के सामने देखने में भी सरमाती थी। इसलिए वह नजरें झुकाकर चुपचाप आसपास खड़े पति की सूरत को इसी शीशे में निहारा करती थी पैरों के अंगूठे और छोटी अंगुली को छोड़कर बीच की तीन अंगुलियों में चांदी का विछुआ पहना जाता है। शादी में फेरों के वक्त लड़की जब सिलबट्टे पर पेर रखती है, तो उसकी भाभी उसके पैरों में बिछुआ पहनाती है। यह रस्म इस बात का प्रतीक है कि दुल्हन शादी के बाद आने वाली सभी समस्याओं का हिम्मत के साथ मुकाबला करेगी।

धार्मिक मान्यता
महिलाओं के लिए पैरों की उंगलियों में बिछिया पहनना शुभ व आवश्यक माना गया है. ऐसी मान्यता है कि बिछिया पहनने से महिलाओं का स्वास्थ्य अच्छा रहता है और घर में संपन्नता बनी रहती है।

वैज्ञानिक मान्यता
वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार, महिलाओं के पैरों की उंगलियों की नसें उनके गर्भाशय से जुड़ी होती हैं, बिछिया पहनने से उन्हें गर्भावस्था व गर्भाशय से जुड़ी समस्याओं से राहत मिलती है. बिछिया पहनने से महिलाओं का ब्लड प्रेशर भी नियंत्रित रहता है।

सोलहवां श्रृंगार: पायल
पैरों में पहने जाने वाले इस आभूषण की सुमधुर ध्वनि से घर के हर सदस्य को नववधू की आहट का संकेत मिलता है। पुराने जमाने में पायल की झंकार से घर के
बुजुर्ग पुरुष सदस्यों को मालूम हो जाता था कि बहू आ रही है और वे उसके रास्ते से हट जाते थे। पायल के संबंध में एक और रोचक बात यह है कि पहले छोटी उम्र में ही लड़िकियों की शादी होती थी। और कई बार जब नववधू को माता-पिता की याद आती थी तो वह चुपके से अपने मायके भाग जाती थी। इसलिए नववधू के पैरों में ढेर सारी घुंघरुओं वाली पाजेब पहनाई जाती थी ताकि जब वह घर से भागने लगे तो उसकी आहट से मालूम हो जाए कि वह कहां जा रही है पैरों में पहने जाने वाले आभूषण हमेशा सिर्फ चांदी से ही बने होते
हैं। हिंदू धर्म में सोना को पवित्र धातु का स्थान प्राप्त है, जिससे बने मुकुट देवी-देवता धारण करते हैं और ऐसी मान्यता है कि पैरों में सोना पहनने से धन की देवी-लक्ष्मी का अपमान होता हैं।

धार्मिक मान्यता
मान्यताओं के अनुसार, महिला के पैरों में पायल संपन्नता की प्रतीक होती है. घर की बहू को घर की लक्ष्मी माना गया है, इसी कारण घर में संपन्नता बनाए रखने के लिए महिला को पायल पहनाई जाती है।

वैज्ञानिक मान्यता
वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार, चांदी की पायल महिला को जोड़ों व हड्डियों के दर्द से राहत देती है. साथ ही पायल के घुंघरू से उत्पन्न होनेवाली ध्वनि से नकारात्मक ऊर्जा घर से दूर रहती है।

गुरुवार, 21 मई 2020

मैं हिन्दू क्यों हूँ..?

मैं हिन्दू इसलिए नहीं हूँ कि मैंने एक हिन्दू परिवार में जन्म लिया हैं। जैसा की हमारा राष्ट्र भारत एक लोकतान्त्रिक देश हैं। यहाँ सभी को अपना धर्म मानने का अधिकार हैं। कोई भी अपना धर्म परिवर्तन कर सकता हैं। इसके बावजूद मैं एक हिन्दू हूँ या हिन्दू धर्म के प्रति मेरा बहुत लगाव हैं... इसका कारण मैं आप लोगों के सामने बताना चाहूंगा...

१. हिन्दू धर्म दुनिया का सबसे प्राचीन धर्म हैं।

२. हिन्दू धर्म एक मात्र धर्म हैं जिसने वसुधैव कुटुम्बकम का नारा दिया और बताया की सारे लोग एक हैं, चाहे वे ईश्वर की पूजा जिस भी रूप में कर रहे हो

३. हिन्दू धर्म दुनिया का एक मात्र धर्म है जिसमे धर्मावलम्बी बनाने का प्रावधान नहीं हैं। सनातन धर्म का मानना है कि दुनिया में केवल दो तरह के लोग रहते हैं... आस्तिक और नास्तिक जो ईश्वर की सत्ता पर विश्वास करते हैं, चाहे वो उनकी जिस रूप में भी पूजा करते हों, वो हिन्दू हैं।

४. हिन्दू धर्म कभी भी नहीं सिखाता कि हमारे कौम को मानने वालों के आलावा सभी काफ़िर हैंअगर कोई हमारी कौम को कबूल ना करें, तो उसका गला काट दो

५. वेद दुनिया की सबसे प्राचीन पुस्तके हैं जो हिन्दू धर्म से सम्बंधित हैं, इससे पता चलता है की जब लोग जंगलों में रहते थे... तब भी हमारे यहाँ वेदों के मंत्र गूंजा करते थे।

६. हिन्दू धर्म एक मात्र धर्म है जो हर चीज़ में ईश्वर की उपस्थिति मानता हैं, इसलिए हम हर कंकड़ को शिव, नदिओं को माता और पहाड़ों को पिता के समान पूजते हैं।

७. हिन्दू धर्म कभी नहीं सिखाता की दूसरों के धर्मस्थान तोड़कर, अपना धर्मस्थान बनाने पर जन्नत नसीब होती है।

८. हिन्दू धर्म कभी नहीं सिखाता की अपने धर्म को छोड़कर दूसरे धर्मवालों से कर ( टैक्स ) लेना हमारा अधिकार है।

९. सारी दुनिया का शासन चाहे वो लोकतान्त्रिक हो, राजशाही हो या वामपंथी हो... वो हिन्दू धर्म के हिसाब से ही चलता है। जैसे जल के देवता- वरुण, धन के देवता-कुबेर, न्याय के देवता-धर्मराज उसी तरह हमारे यहाँ अलग-अलग मंत्रालय होते हैं।

इसलिए गर्व से कहो - हम हिन्दू हैं। 🙏⛳

शुक्रवार, 15 मई 2020

100 जानकारी जिसका ज्ञान सबको होना चाहिए...

1. योग, भोग और रोग ये तीन अवस्थाएं है।
2. *लकवा* - सोडियम की कमी के कारण होता है ।
3. *हाई वी पी में* -  स्नान व सोने से पूर्व एक गिलास जल का सेवन करें तथा स्नान करते समय थोड़ा सा नमक पानी मे डालकर स्नान करे ।
4. *लो बी पी* - सेंधा नमक डालकर पानी पीयें ।
5. *कूबड़ निकलना*- फास्फोरस की कमी ।
6. *कफ* - फास्फोरस की कमी से कफ बिगड़ता है , फास्फोरस की पूर्ति हेतु आर्सेनिक की उपस्थिति जरुरी है । गुड व शहद खाएं 
7. *दमा, अस्थमा* - सल्फर की कमी ।
8. *सिजेरियन आपरेशन* - आयरन , कैल्शियम की कमी ।
9. *सभी क्षारीय वस्तुएं दिन डूबने के बाद खायें* ।
10. *अम्लीय वस्तुएं व फल दिन डूबने से पहले खायें* ।
11. *जम्भाई*- शरीर में आक्सीजन की कमी ।
12. *जुकाम* - जो प्रातः काल जूस पीते हैं वो उस में काला नमक व अदरक डालकर पियें ।
13. *ताम्बे का पानी* - प्रातः खड़े होकर नंगे पाँव पानी ना पियें ।
14.  *किडनी* - भूलकर भी खड़े होकर गिलास का पानी ना पिये ।
15. *गिलास* एक रेखीय होता है तथा इसका सर्फेसटेन्स अधिक होता है । गिलास अंग्रेजो ( पुर्तगाल) की सभ्यता से आयी है अतः लोटे का पानी पियें,  लोटे का कम  सर्फेसटेन्स होता है ।
16. *अस्थमा , मधुमेह , कैंसर* से गहरे रंग की वनस्पतियाँ बचाती हैं ।
17. *वास्तु* के अनुसार जिस घर में जितना खुला स्थान होगा उस घर के लोगों का दिमाग व हृदय भी उतना ही खुला होगा ।
18. *परम्परायें* वहीँ विकसित होगीं जहाँ जलवायु के अनुसार व्यवस्थायें विकसित होगीं ।
19. *पथरी* - अर्जुन की छाल से पथरी की समस्यायें ना के बराबर है । 
20. *RO* का पानी कभी ना पियें यह गुणवत्ता को स्थिर नहीं रखता । कुएँ का पानी पियें । बारिस का पानी सबसे अच्छा , पानी की सफाई के लिए *सहिजन* की फली सबसे बेहतर हैं।
21. *सोकर उठते समय* हमेशा दायीं करवट से उठें या जिधर का *स्वर* चल रहा हो उधर करवट लेकर उठें ।
22. *पेट के बल सोने से* हर्निया, प्रोस्टेट, एपेंडिक्स की समस्या आती है । 
23.  *भोजन* के लिए पूर्व दिशा , *पढाई* के लिए उत्तर दिशा बेहतर है ।
24.  *HDL* बढ़ने से मोटापा कम होगा LDL व VLDL कम होगा ।
25. *गैस की समस्या* होने पर भोजन में अजवाइन मिलाना शुरू कर दें ।
26.  *चीनी* के अन्दर सल्फर होता जो कि पटाखों में प्रयोग होता है , यह शरीर में जाने के बाद बाहर नहीं निकलता है। चीनी खाने से *पित्त* बढ़ता है । 
27.  *शुक्रोज* हजम नहीं होता है *फ्रेक्टोज* हजम होता है और भगवान् की हर मीठी चीज में फ्रेक्टोज है ।
28. *वात* के असर में नींद कम आती है ।
29.  *कफ* के प्रभाव में व्यक्ति प्रेम अधिक करता है ।
30. *कफ* के असर में पढाई कम होती है ।
31. *पित्त* के असर में पढाई अधिक होती है ।
33.  *आँखों के रोग* - कैट्रेक्टस, मोतियाविन्द, ग्लूकोमा , आँखों का लाल होना आदि ज्यादातर रोग कफ के कारण होता है ।
34. *शाम को वात*-नाशक चीजें खानी चाहिए ।
35.  *प्रातः 4 बजे जाग जाना चाहिए* ।
36. *सोते समय* रक्त दवाव सामान्य या सामान्य से कम होता है ।
37. *व्यायाम* - *वात रोगियों* के लिए मालिश के बाद व्यायाम , *पित्त वालों* को व्यायाम के बाद मालिश करनी चाहिए । *कफ के लोगों* को स्नान के बाद मालिश करनी चाहिए ।
38. *भारत की जलवायु* वात प्रकृति की है , दौड़ की बजाय सूर्य नमस्कार करना चाहिए ।
39. *जो माताएं* घरेलू कार्य करती हैं उनके लिए व्यायाम जरुरी नहीं ।
40. *निद्रा* से *पित्त* शांत होता है , मालिश से *वायु* शांति होती है , उल्टी से *कफ* शांत होता है तथा *उपवास* ( लंघन ) से बुखार शांत होता है ।
41.  *भारी वस्तुयें* शरीर का रक्तदाब बढाती है , क्योंकि उनका गुरुत्व अधिक होता है ।
42. *दुनियां के महान* वैज्ञानिक का स्कूली शिक्षा का सफ़र अच्छा नहीं रहा, चाहे वह 8 वीं फेल न्यूटन हों या 9 वीं फेल आइस्टीन हों , 
43. *माँस खाने वालों* के शरीर से अम्ल-स्राव करने वाली ग्रंथियाँ प्रभावित होती हैं ।
44. *तेल हमेशा* गाढ़ा खाना चाहिएं सिर्फ लकडी वाली घाणी का , दूध हमेशा पतला पीना चाहिए ।
45. *छिलके वाली दाल-सब्जियों से कोलेस्ट्रोल हमेशा घटता है ।* 
46. *कोलेस्ट्रोल की बढ़ी* हुई स्थिति में इन्सुलिन खून में नहीं जा पाता है । ब्लड शुगर का सम्बन्ध ग्लूकोस के साथ नहीं अपितु कोलेस्ट्रोल के साथ है ।
47. *मिर्गी दौरे* में अमोनिया या चूने की गंध सूँघानी चाहिए । 
48. *सिरदर्द* में एक चुटकी नौसादर व अदरक का रस रोगी को सुंघायें ।
49. *भोजन के पहले* मीठा खाने से बाद में खट्टा खाने से शुगर नहीं होता है । 
50. *भोजन* के आधे घंटे पहले सलाद खाएं उसके बाद भोजन करें । 
51. *अवसाद* में आयरन , कैल्शियम , फास्फोरस की कमी हो जाती है । फास्फोरस गुड और अमरुद में अधिक है 
52.  *पीले केले* में आयरन कम और कैल्शियम अधिक होता है । हरे केले में कैल्शियम थोडा कम लेकिन फास्फोरस ज्यादा होता है तथा लाल केले में कैल्शियम कम आयरन ज्यादा होता है । हर हरी चीज में भरपूर फास्फोरस होती है, वही हरी चीज पकने के बाद पीली हो जाती है जिसमे कैल्शियम अधिक होता है ।
53.  *छोटे केले* में बड़े केले से ज्यादा कैल्शियम होता है ।
54. *रसौली* की गलाने वाली सारी दवाएँ चूने से बनती हैं ।
55.  हेपेटाइट्स A से E तक के लिए चूना बेहतर है ।
56. *एंटी टिटनेस* के लिए हाईपेरियम 200 की दो-दो बूंद 10-10 मिनट पर तीन बार दे ।
57. *ऐसी चोट* जिसमे खून जम गया हो उसके लिए नैट्रमसल्फ दो-दो बूंद 10-10 मिनट पर तीन बार दें । बच्चो को एक बूंद पानी में डालकर दें । 
58. *मोटे लोगों में कैल्शियम* की कमी होती है अतः त्रिफला दें । त्रिकूट ( सोंठ+कालीमिर्च+ मघा पीपली ) भी दे सकते हैं ।
59. *अस्थमा में नारियल दें ।* नारियल फल होते हुए भी क्षारीय है ।दालचीनी + गुड + नारियल दें ।
60. *चूना* बालों को मजबूत करता है तथा आँखों की रोशनी बढाता है । 
61.  *दूध* का सर्फेसटेंसेज कम होने से त्वचा का कचरा बाहर निकाल देता है ।
62.  *गाय की घी सबसे अधिक पित्तनाशक फिर कफ व वायुनाशक है ।* 
63.  *जिस भोजन* में सूर्य का प्रकाश व हवा का स्पर्श ना हो उसे नहीं खाना चाहिए 
64.  *गौ-मूत्र अर्क आँखों में ना डालें ।*
65.  *गाय के दूध* में घी मिलाकर देने से कफ की संभावना कम होती है लेकिन चीनी मिलाकर देने से कफ बढ़ता है ।
66.  *मासिक के दौरान* वायु बढ़ जाता है , 3-4 दिन स्त्रियों को उल्टा सोना चाहिए इससे  गर्भाशय फैलने का खतरा नहीं रहता है । दर्द की स्थति में गर्म पानी में देशी घी दो चम्मच डालकर पियें ।
67. *रात* में आलू खाने से वजन बढ़ता है ।
68. *भोजन के* बाद बज्रासन में बैठने से *वात* नियंत्रित होता है ।
69. *भोजन* के बाद कंघी करें कंघी करते समय आपके बालों में कंघी के दांत चुभने चाहिए । बाल जल्द सफ़ेद नहीं होगा ।
70. *अजवाईन* अपान वायु को बढ़ा देता है जिससे पेट की समस्यायें कम होती है 
71. *अगर पेट* में मल बंध गया है तो अदरक का रस या सोंठ का प्रयोग करें 
72. *कब्ज* होने की अवस्था में सुबह पानी पीकर कुछ देर एडियों के बल चलना चाहिए । 
73. *रास्ता चलने*, श्रम कार्य के बाद थकने पर या धातु गर्म होने पर दायीं करवट लेटना चाहिए । 
74. *जो दिन मे दायीं करवट लेता है तथा रात्रि में बायीं करवट लेता है उसे थकान व शारीरिक पीड़ा कम होती है ।* 
75.  *बिना कैल्शियम* की उपस्थिति के कोई भी विटामिन व पोषक तत्व पूर्ण कार्य नहीं करते है ।
76. *स्वस्थ्य व्यक्ति* सिर्फ 5 मिनट शौच में लगाता है ।
77. *भोजन* करते समय डकार आपके भोजन को पूर्ण और हाजमे को संतुष्टि का संकेत है ।
78. *सुबह के नाश्ते* में फल , *दोपहर को दही* व *रात्रि को दूध* का सेवन करना चाहिए । 
79. *रात्रि* को कभी भी अधिक प्रोटीन वाली वस्तुयें नहीं खानी चाहिए । जैसे - दाल , पनीर , राजमा , लोबिया आदि । 
80.  *शौच और भोजन* के समय मुंह बंद रखें , भोजन के समय टी वी ना देखें । 
81. *मासिक चक्र* के दौरान स्त्री को ठंडे पानी से स्नान , व आग से दूर रहना चाहिए । 
82. *जो बीमारी जितनी देर से आती है , वह उतनी देर से जाती भी है ।*
83. *जो बीमारी अंदर से आती है , उसका समाधान भी अंदर से ही होना चाहिए ।*
84. *एलोपैथी* ने एक ही चीज दी है , दर्द से राहत । आज एलोपैथी की दवाओं के कारण ही लोगों की किडनी , लीवर , आतें , हृदय ख़राब हो रहे हैं । एलोपैथी एक बिमारी खत्म करती है तो दस बिमारी देकर भी जाती है । 
85. *खाने* की वस्तु में कभी भी ऊपर से नमक नहीं डालना चाहिए , ब्लड-प्रेशर बढ़ता है । 
86 .  *रंगों द्वारा* चिकित्सा करने के लिए इंद्रधनुष को समझ लें , पहले जामुनी , फिर नीला ..... अंत में लाल रंग । 
87 . *छोटे* बच्चों को सबसे अधिक सोना चाहिए , क्योंकि उनमें वह कफ प्रवृति होती है , स्त्री को भी पुरुष से अधिक विश्राम करना चाहिए 
88. *जो सूर्य निकलने* के बाद उठते हैं , उन्हें पेट की भयंकर बीमारियां होती है , क्योंकि बड़ी आँत मल को चूसने लगती है । 
89.  *बिना शरीर की गंदगी* निकाले स्वास्थ्य शरीर की कल्पना निरर्थक है , मल-मूत्र से 5% , कार्बन डाई ऑक्साइड छोड़ने से 22 %, तथा पसीना निकलने लगभग 70 % शरीर से विजातीय तत्व निकलते हैं । 
90. *चिंता , क्रोध , ईर्ष्या करने से गलत हार्मोन्स का निर्माण होता है जिससे कब्ज , बबासीर , अजीर्ण , अपच , रक्तचाप , थायरायड की समस्या उतपन्न होती है ।* 
91.  *गर्मियों में बेल , गुलकंद , तरबूजा , खरबूजा व सर्दियों में सफ़ेद मूसली , सोंठ का प्रयोग करें ।*
92. *प्रसव* के बाद माँ का पीला दूध बच्चे की प्रतिरोधक क्षमता को 10 गुना बढ़ा देता है । बच्चो को टीके लगाने की आवश्यकता नहीं होती  है ।
93. *रात को सोते समय* सर्दियों में देशी मधु लगाकर सोयें त्वचा में निखार आएगा 
94. *दुनिया में कोई चीज व्यर्थ नहीं , हमें उपयोग करना आना चाहिए*।
95. *जो अपने दुखों* को दूर करके दूसरों के भी दुःखों को दूर करता है , वही मोक्ष का अधिकारी है । 
96. *सोने से* आधे घंटे पूर्व जल का सेवन करने से वायु नियंत्रित होती है , लकवा , हार्ट-अटैक का खतरा कम होता है । 
97. *स्नान से पूर्व और भोजन के बाद पेशाब जाने से रक्तचाप नियंत्रित होता है*। 
98 . *तेज धूप* में चलने के बाद , शारीरिक श्रम करने के बाद , शौच से आने के तुरंत बाद जल का सेवन निषिद्ध है 
99. *त्रिफला अमृत है* जिससे *वात, पित्त , कफ* तीनो शांत होते हैं । इसके अतिरिक्त भोजन के बाद पान व चूना ।  
100. इस विश्व की सबसे मँहगी *दवा। लार* है , जो प्रकृति ने तुम्हें अनमोल दी है ,इसे ना थूके ।

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🙏 🙏

रविवार, 10 मई 2020

आज की आधुनिक माँ...

कृपया पूरा लेख अवश्य पढ़े 
बात सच्ची है इसलिये कड़वी भी है । 
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माँ जो एक पवित्र भावना है, संवेदना है, कोमल
अहसास है।
तपती दोपहरी में मीठे पानी का झरना है, इक खुशबू है माँ जो कभी मिटती नहीं।
देह मिट भी जाये तो अपने बच्चों की देह में रूह बन कर सिमट जाती है।
उनके लब पर दुआ तो कभी मन में अहसास बन कर ढल जाती है।
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आज मैं उस माँ की बात नहीं कर रही जो बेसन की रोटी पर खट्टी चटनी जैसी लगती थी।
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आज उस माँ की बात भी नहीं जिसका बेटा परदेश में रोता था तो देश में उसका प्यार भीग जाया करता था।
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मैं मेक्सिम गोर्की की माँ की बात भी नहीं कर रही और ना जीजा बाई की जिसने एक बालक को शिवा जी बना दिया।
आज बात है, आज के दौर की, आज की नारी की, आज की माँ की, आधुनिक भारतीय नारी की।
वो अब खुद गीले में सोकर अपने बच्चे को सूखे में सुलाने की भूल नहीं करती, वो अब अपने बच्चे को खुद से दूर झूले में सुलाती है। 
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नींद में खलल नहीं पड़े इसलिए बच्चे के मुहँ में दूध की बोतल चिपका दी जाती है।
ये आधुनिक माताएं अपने शौक के लिए, पैसों के लिए अपनी कोख भी किराए पर देने में नहीं चूकती।
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अपने स्वार्थों के लिए ये कोख में ही अपनी बेटी का गला घोट डालने में ज़रा संकोच नहीं करती।
अपने अवसर, अपने करियर की खातिर ये बच्चों को "आया" के हवाले कर चल देती है। 
बच्चों से पीछा छुड़ाने के लिए उन्हें बहुत छोटी उमर में ही प्ले स्कूल में छोड़ देती है।
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गए वो दिन जब माँ दो तीन बर्ष की उमर तक के बच्चों को घर में ही पढ़ाया करती थी।
संस्कारों, जीवन मूल्यों के पाठ अब अधिकतर घरों में नहीं पढाये जाते।
बच्चों को अब रातों को कोई कहानियाँ नहीं सुनाई जाती और ना कोई लोरी।
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अपने काम अपने शौक और अपने फायदे को देखने वाली इन माँओं के पास अपने बच्चों के लिए कोई समय नहीं।
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ऐसा नहीं है की उन्हें अपने बच्चों की चिंता नहीं है, दिन में एक दो बार फोन करके वो "आया" से अपने बच्चों का हाल जरुर पूछ लेती हैं।
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बच्चे भी अब माँ से ज्यादा अपनी दूध की बोतल और आया को प्यार करते हैं।
थोड़े बड़े होकर वीडियों गेम और फिर नेट और मोबाईल उनके साथी बन जाते है।
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जितनी दूर माँ हो रही है बच्चों से, उतने ही दूर बच्चे भी हो रहे हैं माँ से।
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यही वजह है की जितने झूलाघर रोज खुल रहे हैं उनसे कहीं ज्यादा वृद्धाश्रम (ओल्ड एज होम) बनाये जा रहे हैं।
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आधुनिक जीवन शैली और पुरुषों की नक़ल करने के चक्कर में महिलाओं ने खुद को अपने स्त्रियोंचित गुणों से दूर कर लिया है। महिलाओं में पुरुषों की तरह शराब और सिगरेट पीने का चलन भी अब आम बात है।
चिंता ये है की जो युवतियां अपनी राते "पब" में शराब और सिगरेट के धुएं में बिताती हैं, क्या कल ये युवतियां एक अच्छी पत्नी या इक अच्छी माँ बन सकेगी.?
क्या फिर कोई मुनव्वर राना ये कह पायेगे कि “मैं जब तक घर नहीं जाता मेरी माँ सजदे में रहती है"
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ये कैसी महिलाए हैं? ये कैसी भविष्य की माँएँ हैं?
जिनके दिल में किसी के लिए प्रेम नहीं, वात्सल्य नहीं, ये सिर्फ खुद से प्रेम करती हैं। 
खुद के सुखों की खातिर अपना घर परिवार बच्चे सब कुछ इक झटके में तोड़ देती हैं, छोड़ देती है।
{रोज बिखरते परिवार इसका उदाहरण है}
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अक्सर मैंने देखा है, शादी पार्टी या कोई होटल या रेस्टोरेंट में आजकल महिलायें कभी भी अपने बच्चों को गोद में नहीं उठाती।
इनके पति बच्चों को देखते हैं, या फिर आया को साथ रखती हैं।
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बच्चे रोये या बिलखते रहे इन्हें परवाह नहीं, इनकी साड़ी या मेकअप खराब नहीं होना चाहिए।
अपने बच्चों को अपनी गोद में रखने में इन्हें अब शर्म आती है।
आजकल पिताओं को मैंने बच्चों की ज्यादा परवाह करते देखा है।
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यदि वास्तव में माँ की कहानियों और लोरियों में ताकत होती , पकड़ होती तो युवा पीढ़ी इस कदर भटकती नहीं।
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कहीं न कहीं कोई कमी जरुर है जिसे बच्चे बाहर जाकर पूरी कर रहे है, दोस्तों में, नशे में वो सुकून तलाश रहे है जो उन्हें घर में ही मिलना चाहिए था।
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माँओं को सोचना होगा की क्यों बेटे-बेटियाँ उनसे दूर हो रहे हैं?
क्या बेटे के दुःख से उनका आँचल अब भी भीगता है या उन्होंने अपने बच्चों की उगंली छोड़ दी है?
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बेटे के परदेश में रोने पर भी उसका प्यार क्यों
भीगता?
यदि माँ की पकड़ ढीली हो गयी तो क्या कोई बेटा परदेश में ये बात महसूस कर सकेगा:-
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“मैं रोया परदेश में, भीगा माँ का प्यार,
दुःख ने दुःख से बात की, बिन चिठ्ठी बिन तार।।।।
।।।।
उन माताओं को आज के दिन की सुभकामनाये जो आधुनिक माँ के गुणों से दूर है ।। 🙏🙏

✍️ https://www.facebook.com/akansha.aggarwal.73700

गुरुवार, 7 मई 2020

महात्मा #बुद्ध जन्म से #क्षत्रिय और #कर्म से ब्राह्मण थे... फिर #दलितों से उनका क्या सम्बन्ध..?

इस लेख का उद्धेश्य किसी वर्ग विशेष की भावनायें आहत करना नहीं बल्कि भगवान बुद्ध के नाम से जातिवाद की गन्दी राजनीति करने वालों की वास्तविकता से आम जन को अवगत कराना हैं...
प्राचीन भारत में कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था थी, जिसका वर्तमान जन्म आधारित जाति व्यवस्था से कोई सम्बन्ध नहीं और भगवान बुद्ध ने अपने व्यवहारिक जीवन में वैदिक वर्ण व्यवस्था का ही पालन किया, किसी अन्य व्यवस्था का नहीं...

बुद्ध का जन्म ईसा से ५६३ वर्ष पूर्व लुम्बिनी (वर्तमान नेपाल) के शाक्य क्षत्रिय राजपरिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम राजा शुद्धोधन और माता का नाम महामाया था। इनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था और सोलह वर्ष की अवस्था में इनका विवाह क्षत्रिय राजपरिवार की राजकुमारी यशोधरा से हुआ था। (सम्पूर्ण जीवनी के लिए भगवान बुद्ध का जीवन चरित्र पढ़ें...)  

बुद्ध के नाम से दुकान चलाने वाले छद्म बौद्ध स्वयं को मूल निवासी बताते हैं और आर्यों को विदेशी... ये बुद्धिहिन् आर्यों को विदेशी बताने से पहले ये भूल जाते हैं कि भगवान बुद्ध भी एक आर्य थेे, दलित नहीं...

भगवान बुद्ध स्वयं को आर्य कहते थे, दलित नहीं... भगवान बुद्ध को आर्य शब्द से अत्यधिक प्रेम था। उनके चार आर्य सत्य, आर्य अष्टांगिक मार्ग और आर्य श्रावक तो बहुत ही प्रसिद्ध हैं।

आर्यों की व्याख्या करते हुए भगवान बुद्ध कहते हैं कि –
न तेन अरियो होति येन पाणानि हिंसति...
अहिंसा सब्ब पाणानि अरियोति पवुच्चति ||  
(धम्मपद धम्मठवग्गो २७०:५ )
अर्थात प्राणियों की हिंसा करने से कोई आर्य नहीं कहलाता, समस्त प्राणियों की अहिंसा से ही मनुष्य आर्य कहलाता हैं।

भगवान बुद्ध ने सन्यास से पूर्व सदैव क्षात्र धर्म का पालन किया तथा सन्यास लेने के पश्चात् अपने कर्म एवं योग्यतानुसार ब्राह्मण वर्ण को धारण किया। भगवान बुद्ध के सम्पूर्ण जीवन में ऐसा कोई प्रसंग नहीं मिलता, जिससे यह सिद्ध हो कि उन्होंने दलितवाद को धारण किया और ब्राह्मणवाद को गालियाँ दी... जबकि इसके विपरीत ऐसे कई प्रमाण हैं जिससे यह सिद्ध होता है कि वह सन्यास के बाद स्वयं को ब्राह्मण कहते थे, जिसमें से एक प्रसंग मैं नीचे प्रस्तुत कर रहा हूँ - 
सुंदरिक भारद्वाज सुत्त में कथा हैं कि सुंदरिक भारद्वाज जब यज्ञ समाप्त कर चुका तो वह किसी श्रेष्ठ ब्राह्मण को यज्ञ शेष देना चाहता था। उसने सन्यासी गौतम बुद्ध को देखा और जब उसने उनकी जाति पूछी तो बुद्ध ने कहा जाति मत पूछ मैं ब्राह्मण हूँ और वे उपदेश करते हुए बोले – 
“यदंतगु वेदगु यन्न काले, 
यस्साहुतिल ले तस्स इज्झेति ब्रूमि”  
( सुत्तनिपात ४५८ )
 अर्थात "वेद को जानने वाला जिसकी आहुति को प्राप्त करें, उसका यज्ञ सफल होता हैं" ऐसा मैं कहता हूँ। 
तब सुंदरिक भारद्वाज ने कहा -
“अद्धा हि तस्स हुतं इज्झे यं तादिसं वेद्गुम अद्द्साम” 
( सुत्तनिपात ४५९ ) अर्थात सचमुच मेरा यज्ञ सफल हो गया, जिसे आप जैसे वेदज्ञ ब्राह्मण के दर्शन हो गये।

भगवान बुद्ध जन्म आधारित जाति व्यवस्था के विरुद्ध थे, वे कर्म आधारित वैदिक वर्ण व्यवस्था को मानते थे। इस सम्बन्ध में उन्होंने वसल सुत्त (वृषल सूत्र) में कहा है –
न जच्चा वसलो होति न जच्चा होति ब्राह्मणो
कम्मना वसलो होति कम्मना होति ब्राह्मणो ||
अर्थात जन्म से कोई चाण्डाल (शूद्र) नहीं होता और जन्म से कोई ब्राह्मण भी नहीं होता। कर्म से ही चाण्डाल और कर्म से ही ब्राह्मण होता हैं।
भगवान बुद्ध ने ब्राह्मण के सन्दर्भ में जो व्याख्या की हैं, वह वैदिक शास्त्रों के अनुसार ही की हैं। उससे भिन्न नहीं... भगवान बुद्ध ब्राह्मण किसे मानते थे, इसका वर्णन धम्मपद के ब्राह्मण वग्ग में इस प्रकार है – पाली भाषा में...
न जटाहि न गोत्तेहि न जच्चा होति ब्राह्मणो | 
यम्ही सच्चं च धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो ||

श्लोक– न जटाभिर्न गोत्रेर्न जात्या भवति ब्राह्मणः 
यस्मिन सत्यं च धर्मश्च स शुचिः स च ब्राह्मणः || 

अर्थ - न जटा से, न गोत्र से, न जन्म से ब्राह्मण होता है जिसमें सत्य और धर्म है, वही पवित्र है और वही ब्राह्मण है।

पाली भाषा में – अकक्कसं विन्जापनिम गिरं सच्चं उदीरये | काय नाभिसजे किंच तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ||
अर्थ – जो इस प्रकार की अकर्कश, आदरयुक्त तथा सच्ची वाणी को बोले कि जिससे कुछ भी पीड़ा न हो उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।

पाली भाषा में – यस्सालया न विज्जन्ति अन्नाय अकथकथी | अमतोगधं अनुप्पत्तं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ||
अर्थ – जिसको आलस्य नहीं है, जो भली प्रकार जानकर अकथ पद का कहने वाला है, जिसने अमृत (परमेश्वर) को प्राप्त कर लिया है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।

भगवान बुद्ध के उपदेशों का अध्ययन करने से यह ज्ञात होता है कि उन्होंने अपने जीवन में कभी भी दलितपन को धारण नहीं किया और न ही किसी को दलित बनने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने ब्राह्मणत्व को धारण किया तथा अन्यों को भी ब्राह्मण बनने के लिए प्रेरित किया। अतः यदि आप भगवान बुद्ध का अनुयायी बनना चाहते हैं तो आपको दलितपन त्याग कर, ब्राह्मणत्व को धारण करना होगा तथा स्वार्थी राजनीतिज्ञों द्वारा फैलाये गये जातिवाद के जाल से निकलकर, भगवान बुद्ध की तरह वैदिक वर्ण व्यवस्था को अपनाना होगा। भगवान बुद्ध के उपदेश किसी जाति विशेष के लिए नहीं है बल्कि उनके उपदेश सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण के लिए हैं।🙏🏻⛳