आज पूरा विश्व अपने-अपने तरीके से पर्यावरण दिवस मना रहा है। भारतीय सनातन संस्कृति में पर्यावरण का सदा से ही विशेष महत्त्व रहा है। पर्यावरण का शाब्दिक अर्थ है; परि + आवरण अर्थात हमारे चारों ओर जो आवरण स्थित है।
भारतीय संस्कृति में परिभाषित है कि यह प्रकृति तथा हमारा शरीर पंच तत्त्वों (पंच महाभूतों) से बना है :- धरती, आकाश, जल, वायु तथा अग्नि। इन पाँच तत्त्वों के संतुलन से जीवन चलायमान है। मृत्यु के पश्चात यह स्थूल शरीर इन्हीं पंच तत्त्वों में विलीन हो जाता है। इनमें से किसी भी तत्त्व के संतुलन के बिगड़ने से जीवन पर संकट मंडराने लगता है।
पर्यावरण की महत्ता को बनाए रखने के लिए हमारे पूर्वजों ने इसे धर्म से जोड़ दिया।
हिंदू धर्म अर्थात जीवन जीने की पद्धति
हमारी संस्कृति में सभी तत्त्वों के लिए एक देवता अथवा देवी को स्थान दिया गया है, जैसे कि वायु देव, अग्नि देव, भू देवी इत्यादि। पर्यावरण के सभी घटकों को पूजनीय बना दिया गया ताकि उनके प्रति सम्मान बना रहे तथा उनका क्षय कम से कम हो। दैनिक क्रियाकलापों को पर्यावरण संरक्षण से जोड़कर, हमारे पूर्वजों ने पर्यावरण संरक्षण को न केवल हमारे रक्त अपितु हमारी आनुवांशिकी प्रणाली में स्थापित कर दिया।
कहा गया है कि जल ही जीवन है।
जल के प्रमुख स्रोतों जैसे नदियों को माता की उपाधि दी गयी है। किसी भी और सभ्यता में नदियों को इतना सम्मान नहीं दिया गया है।
स्थानीय प्रदेशों में आज भी नदियों की पूजा तथा आरती का प्रचलन है। माता सीता ने भी वनगमन के समय गंगा तथा यमुना नदियों की पूजा कर अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया था।
राजस्थान की संस्कृति में कुआँ पूजन सभी शुभ अवसरों का एक अनिवार्य अंग है।
गंगा माँ की सौगन्ध का महत्त्व, लोगों की अपने परिजनों की सौगन्ध से भी अधिक है।
पुरातन काल में जल संरक्षण प्रत्येक घर के लिए आवश्यक था। बड़े स्तर पर बावड़ियों, सरोवरों का निर्माण किया जाता था। बाँध बनाए जाते थे।
इसी प्रकार पर्यावरण के अन्य घटकों जैसे कि भूमि, पर्वत, वृक्षों को पूजनीय घोषित किया गया है। किसी भी अन्य सभ्यता में इतने बड़े स्तर पर वृक्षों, पर्वतों की पूजा का उल्लेख नहीं मिलता है।
भगवान श्री कृष्ण ने भी गोवर्धन पूजा के द्वारा पर्वतों, वन प्रदेशों के सम्मान का संदेश दिया था। वन प्रदेशों को विभिन्न प्रकार की जीवन रक्षक वनस्पतियों तथा औषधियों का दाता बताकर उनके संरक्षण का संदेश दिया गया है।
वन महोत्सव हमारी जीवन शैली का एक अभिन्न अंग रहा है।
मात्र भारतीय सनातन संस्कृति का अनुकरण करने वाले लोग आज भी वृक्षों की पूजा करते हैं।
वायुमण्डल को शुद्ध तथा स्वच्छ रखने के लिए यज्ञ आदि का प्रावधान किया गया है।
इनसे हानिकारक जीवाणुओं तथा विषाणुओं का विनाश होता है तथा वातावरण शुद्ध होता है। ऋग्वेद के अनुसार सभी यज्ञों के अभिन्न अंग अर्थात शान्ति पाठ में पर्यावरण के सभी घटकों की अनिवार्य पूजा का प्रावधान हैं। शान्ति पाठ “ॐ द्यौ शान्ति, अन्तरिक्ष: शान्ति, पृथ्वी शान्ति, वनस्पतय: शान्ति, औषधय: शान्ति ....” को ध्यान से पढ़ने पर ज्ञात होता है कि किस प्रकार पर्यावरण के सभी कारकों को पूज्य बताया गया है।
पर्यावरण संतुलन के बिगड़ने के परिणाम आज हमारे सामने हैं। नदियाँ सूख रही हैं, जल के अन्य स्रोत समाप्त हो रहे हैं। वायु प्रदूषण से नए नए रोग सामने आ रहे हैं। भुखमरी की समस्या का सामना करना पड़ रहा है। संक्षेप में कहें तो जीवन दूभर हो गया है।
यदि हम इसी गति से पर्यावरण का ह्रास करते रहे तो पृथ्वी पर बहुत शीघ्र जीवन समाप्त हो जाएगा। जीवन, पृथ्वी पर हमारा अधिकार नहीं है; अपितु यह तो हमने अपनी संततियों से उधार लिया है। यदि हम अपनी संततियों के लिए जीवित रहने योग्य वातवरण नहीं छोड़ेंगे तो भविष्य हमें कभी क्षमा नहीं करेगा।
सन्देश: पर्यावरण संरक्षण को धार्मिक अनुष्ठानों, दैनिक क्रिया कलापों, शुभ अवसरों की रीतियों का अभिन्न अंग बनाकर सनातन वैदिक संस्कृति ने हमें सदा ही पर्यावरण के लिए सजग रहने की प्रेरणा दी है।
आज आवश्यकता है...
हमें वैज्ञानिक आधार को जानकार पुनः अपनी अमूल्य सांस्कृतिक विरासत से जुड़ने की;
पूर्णत: विज्ञान पर आधारित महान सभ्यता की धरोहर को अपनाने की।
हमारे पूर्वजों ने युगों-युगों से ज्ञान संचित कर जिस ज्ञान को हमारे हृदय, हमारी आनुवांशिकी प्रणाली में स्थापित किया है, आवश्यकता है कि हम एक बार पुन: उसका अवलोकन करें, उसे पुनः आत्मसात करें।
हमारे सांस्कृतिक मूल्यों में, जीवन के विभिन्न कर्म-काण्डों तथा दैनिक रीतियों में पर्यावरण संरक्षण स्वत: निहित है। आडंबरों को छोड़, महान ऋषि-मुनियों द्वारा परिभाषित वैज्ञानिक रीति से अपनी संस्कृति का पालन करने से हम पर्यावरण संरक्षण के वृहद लक्ष्य को प्राप्त करेंगे।
हम प्रकृति के संतुलन का विशेष ध्यान रखें। वे सभी साधन अपनाएं जिनसे संतुलन पुनः स्थापित हो, पर्यावरण के सभी घटकों का संरक्षण हो। अपने निजी हितों को त्याग कर समस्त जगत के कल्याण के लिए कार्य करें। जल संरक्षण, वायु शोधन, भूमि संरक्षण के सभी संभव साधनों को अपनी दिनचर्या का भाग बनाएँ। जितना हो सके प्रकृति के निकट जाएँ। जीवनयापन के सभी साधन यथासंभव प्राकृतिक हों, यह सुनिश्चित करें।
उन सभी कारणों का त्याग करें जिनसे प्रकृति का संतुलन बिगड़ता है तथा पर्यावरण का ह्रास होता है। कृत्रिम वस्तुओं का उपयोग कम से कम करें। पर्यावरण के संतुलन बिगड़ने से जो समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं जैसे कि भुखमरी, जल की अनुपलब्धता, नए नए विषाणु, जीवाणु इत्यादि; उन्हें दूर करें। पर्यावरण के संरक्षण में किए जा रहे कार्यों के लिए सरकार तथा अन्य संगठनों को अपना यथासंभव योगदान दें।
अन्त में यही प्रार्थना है कि पर्यावरण संरक्षण के साधनों को अपनाते हुए हम सभी “सर्वे भवन्तु सुखिन:,
सर्वे सन्तु निरामय:” की ओर अग्रसर हों।
प्रेरणा : श्रुति