मंगलवार, 29 जून 2021

लव जिहाद और प्रेम विवाह में अंतर...

कई सेकुलर हिंदू मुझे कहते हैं कि एक तरफ तो तुम लव जिहाद #लव_जिहाद चिल्लाते हो और दूसरी तरफ मुस्लिम लड़की से विवाह करना चाहते हो, ऐसा दोगलापन क्यों..?
जिन्होंने प्रत्यक्ष पूछा, उन्हें तो मैं जवाब दे चुका हूं। अब जिनके मन में सवाल है लेकिन पूछने का हौसला नहीं पाएं, उन्हें बताना चाहता हूं...

हमारी इच्छा और उनकी साजिश में फर्क है...

हिंदू कभी भी अपनी पहचान छुपा कर मुस्लिम लड़की से दोस्ती नहीं करता, जबकि मुस्लिम साजिश के तहत अपना नाम, अपनी पहचान, अपना धर्म, अपनी आय, अपना व्यापार, हर चीज झूठ बोलकर... हिंदू लड़कियों को अपने जाल में फंसाता है।

जब हम(हिंदू) मुस्लिम लड़की से शादी करते हैं तो उसे दुनिया की सारी खुशियां देने का पूरा प्रयास करते हैं, जबकि मुस्लिम हिंदुओं की लड़की से विवाह के बाद उसे हर यातना देने के बाद छोड़ देता है।

मैं ऐसी मुस्लिम कन्या से विवाह करना चाहता हूं जो सनातन धर्म से प्रभावित हो, शाकाहारी हो, virgin हो, पूर्वज तो उनके हिंदू मिलेंगे ही... मुझे पूरा विश्वास है अगर ऐसी किसी मुस्लिम लड़की से मेरा विवाह होता है तो वह अपनी सारी जिंदगी मुस्लिम लड़कियों को हिंदू घरों में शादी करने के लिए प्रेरित करेगी। इसके विपरीत जो हिंदू लड़की लव जिहाद का शिकार हो जाती है, उसके पास सारी उम्र रोने के सिवा कुछ नहीं होता..!

✍🏻 कमल सिंघल ⛳

बुधवार, 23 जून 2021

हिंदू साम्राज्य दिवस

हम यदि छत्रपति शिवाजी महाराज के कालखंड पर दृष्टिपात करें तो पाएंगे कि आज की समस्यागत परिस्थिति और उस काल की परिस्थिथिति में तुलनात्मक रूप से अधिक विभेद नहीं था..! आत्मविस्मृत समाज, विघटित समाज, सांस्कृतिक विभेद चहुँओर दिखाई दे रहा था।

शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक के समय तक इस राष्ट्र की सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण कर हिन्दू राष्ट्र की बहुआयामी उन्नति करने के जो प्रयास चले थे, वे बार-बार विफल हो रहे थे। इनके संरक्षण के लिए अनेकों राज्यों के शासकों का संघर्ष जारी था।
साथ ही संत समाज द्वारा भी समाज में एकता लाने के प्रयास किए जा रहे थे। जन समूहों को एकत्रित एवं संगठित करने और उनकी श्रद्धा को बनाये रखने के लिए अनेक प्रकार के प्रयोग चल रहे थे। कुछ तात्कालिक तौर पर सफल भी हुए और कुछ पूर्ण विफल हुए... किन्तु जो सफलता समाज को चाहिये थी, वह कहीं नहीं दिख रही थी..!
इन सारे प्रयोगों एवं प्रयासों की अंतिम परिणति शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक है। यह विजय केवल शिवाजी महाराज की विजय नहीं थी..! अपितु हिंदू राष्ट्र के लिये संघर्ष करने वालों की, शत्रुओं पर विजय थी।
शिवाजी के प्रयत्नों से तात्कालिक हिंदू समाज के मन में विश्वास के भाव का निर्माण हुआ। समाज को आभास हुआ कि पुनः इस राष्ट्र को सांस्कृतिक रूप से सम्पन्न बनाते हुए, सर्वांगीण उन्नति के पथ पर अग्रसर कर सकते हैं।
कवि भूषण जो कि औरंगजेब के दरबार में कविता का पाठ करते थे। शिवाजी की कृति पताका को देखते हुए औरंगजेब के दरबार को छोड़कर, शिवाजी के दरबार में गायन को उपस्थित हुए।
शिवाजी महाराज औरंगजेब के दरबार से छूट कर निकल आए और पुनः संघर्ष के पश्चात अपना सिंहासन प्राप्त किया, जिसका परिणाम यह हुआ कि देश भर में अनेकों राजा आपसी कलह भूल कर एकजुट होने लगे। राजस्थान के सभी राजपूत शासकों ने अपने आपसी कलह छोड़ कर दुर्गादास राठौर के नेतृत्व में अपना दल निर्मित किया।
शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक के पश्चात कुछ ही वर्षों में ऐसी परिस्थिति उत्पन्न की कि सारे विदेशी आक्रांताओं को राजस्थान छोड़ना पड़ा। इसलिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में इस दिन को शिवाजी साम्राज्य दिवस नहीं, बल्कि हिंदू साम्राज्य दिवस कहा जाता है। डॉक्टर साहब कहा करते थे कि हमारा आदर्श तो तत्व है, भगवा ध्वज है लेकिन कई बार सामान्य व्यक्ति को निर्गुण निराकार समझ में नहीं आता..!
उस को सगुण साकार स्वरूप चाहिये और व्यक्ति के रूप में सगुण आदर्श के नाते छत्रपति शिवाजी महाराज के जीवन का प्रत्येक अंश हमारे लिये दिग्दर्शक है। उस चरित्र की, उस नीति की, उस कुशलता की, उस उद्देश्य के पवित्रता की आज आवश्यकता है। इसीलिए संघ ने इस ‌ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी को शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक के दिन को हिंदू साम्राज्य दिवस के रूप में आयोजित करने का निश्चय किया था।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में स्वयंसेवक शिवाजी महाराज के कृतत्व, उनके गुण, उनके चरित्र के द्वारा मिलने वाले दिग्दर्शन को आत्मसात कर, समाज जीवन के लिये अनुकरणीय बनें, यही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का ध्येय है।


✊🏻 जय भवानी ⛳ जय शिवाजी 🙏🏻 भारत माता की जय 🇮🇳

बुधवार, 9 जून 2021

कुत्ता पालने वाले इन बातों को ध्यान में रखकर ही कुत्ता पालें..!

पशुओं में कुत्ता मनुष्य का सबसे अच्छा मित्र, वफ़ादार एवं स्वामिभक्त माना जाता है। यह चोरों से घर की रखवाली करता है। संदिग्ध लोगों एवं खतरनाक वस्तुओं, अचानक होने वाली घटनाओं से सचेत करता है। अतः सभी कुत्ते के प्रति सकारात्मक भाव ही रखते हैं।

आवारा कुत्ते को भोजन देने का फल शास्त्रों ने बहुत ही अधिक बताया है। पालतू कुत्तों के पालन से भी बारह वर्षों तक सब प्रकार की प्रगति एवं ऐश्वर्य देखने को मिलता है पर बारहवें वर्ष के पश्चात् घर में कलह- अशान्ति, अदालती-मुकदमा तथा बीसवें वर्ष में ‘सर्वस्व’ से भी हाथ धोना पड़ सकता है, इसलिए घर में कुत्ता पालने का काम न करें।

महाभारत में महाप्रस्थानिक पर्व के अन्तिम अध्याय - इन्द्र और धर्मराज युधिष्ठिर संवाद में इस विषय का उल्लेख है।

जब युधिष्टिर ने पूछा कि यह कुत्ता मेरे साथ यहाँ तक चलकर आया है तो मैं इस कुत्ते को अपने साथ स्वर्ग क्यों नहीं ले जा सकता?

तब इन्द्र ने कहा- “हे राजन! कुत्ता पालने वाले के लिए स्वर्ग में स्थान नहीं है, ऐसे व्यक्तियों का स्वर्ग में प्रवेश वर्जित है।”

कुत्ते को पालने वाले घर में किये गये यज्ञ और पुण्य कर्म के फल का क्रोधवश कालनेमि नामक राक्षस हरण कर लेते हैं।

यहाँ तक कि उस घर के व्यक्तियों द्वारा दान, पुण्य, स्वाध्याय, हवन और कुआँ-बावड़ी इत्यादि बनवाने से जो भी पुण्य फल प्राप्त होता है वह सब घर में कुत्ते की दृष्टि पड़ने मात्र से निष्फल हो जाता है। इसलिए कुत्ते का घर में पालना निषिद्ध और वर्जित है।

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार भी कुत्ता राहु ग्रह का प्रतीक है। अभिप्राय यह है कि कुत्ते को घर में रखना राहु को अपने पास रखने के समकक्ष है। राहु एक दुष्ट ग्रह है जो भक्तिभाव से दूर करता है।

इस बात में कोई सन्देह नहीं है कि कुत्ते को संरक्षण देना चाहिए। अगर आप सामर्थ्यवान हैं तो रोज़ अपनी सामर्थ्य के अनुसार कुत्तों को भोजन दे सकते हैं। घर में बनने वाली अन्तिम एक रोटी पर कुत्ते का अधिकार है। इस पशु को भूलकर भी प्रताड़ित नहीं करना चाहिए।

लेकिन इसकी सेवा दूर से ही करनी चाहिए, इससे अवधूत भगवान दत्तात्रेय और भैरव बाबा प्रसन्न होते हैं।

यदि कुत्ते पालते ही हैं तो कुत्तों के लिए घर के बाहर बाड़ा बनवायें, घर के अन्दर कदापि नहीं..!

शास्त्रों का मत है कि अतिथि घर में, गाय आँगन में और कुत्ता, कौआ, चींटी घर के बाहर ही फलदायी होते हैं।

कुत्ता पालने वाले को निम्न बातें ध्यान में रखना अनिवार्य हैं:
 
1. जिसके घर में कुत्ता होता है उसके यहाँ देवता हविष्य (भोजन) ग्रहण नहीं करते।

2. यदि कुत्ता घर में हो और किसी का देहान्त हो जाये तो देवताओं तक पहुँचने वाली वस्तुएँ देवता स्वीकार नहीं करते। अत: यह मुक्ति में बाधक हो सकता है।

3. कुत्ते के छू जाने पर द्विजों के यज्ञोपवीत खण्डित हो जाते हैं। अत: धर्मानुसार कुत्ता पालने वालों के यहाँ ब्राह्मणों को भोजन नहीं करना चाहिए।

4. कुत्ते के सूँघने मात्र से प्रायश्चित्त का विधान है, कुत्ता यदि हमें सूँघ ले तो हम अपवित्र हो जाते हैं।

5. कुत्ता किसी भी वर्ण के यहाँ पालने का विधान नहीं है। कुत्ता केवल प्रतिलोमाज वर्णसंकरों (अत्यन्त नीच जाति जो कुत्ते का मांस तक खाती है) के यहाँ ही पालने योग्य है।

6. और तो और, अन्य वर्ण यदि कुत्ता पालते हैं तो वे भी उसी नीचता को प्राप्त हो जाते हैं।

7. कुत्ते की दृष्टि जिस भोजन पर पड़ जाती है वह भोजन खाने योग्य नहीं रह जाता। यही कारण है कि जहाँ कुत्ता पला हो वहाँ जाना ही नहीं चाहिए।

विगत दो-तीन दशकों में बूढ़े माता-पिता, दिल व घर से निकलकर वृद्धाश्रम में पहुँच गये और गौएँ शहर से बाहर निकलकर बाहरी गौशालाओं में शिफ्ट कर दी गयी हैं। यहाँ तक कि घर के शिशु (बच्चे) नौकरों के भरोसे हो गये, जबकि कुत्ते घर के बाहर से भीतर सोफे और बिस्तर से होते हुए गोद तक में पहुँच गये। आधुनिक महिलाएँ तो उन्हें अपनी कारों में गोद में लिए रहती हैं। 

इस सांस्कृतिक व सामाजिक पतन के फलस्वरूप लोगों को मानसिक अशान्ति एवं अनेकों प्रकार की नयी-नयी बीमारियों ने घेर लिया है।

इसलिए कुत्ते को घर में पालना निषिद्ध और वर्जित है।

मेरा यह लेख शास्त्रमत से चलनेवाले धर्मावलंबियों के लिए है आधुनिक विचारधारा के लोग इससे सहमत या असहमत होने के लिए बाध्य नहीं है।

अतः वे अनावश्यक कॉमेंट्स करके अपनी ऊर्जा व्यर्थ न करें।

आचार्य जितेन्द्र शास्त्री ⛳
📲 8871790411 🙏🏻

शनिवार, 5 जून 2021

विश्व पर्यावरण दिवस (WORLD ENVIRONMENT DAY) भारतीय संस्कृति के परिपेक्ष में...

आज पूरा विश्व अपने-अपने तरीके से पर्यावरण दिवस मना रहा है। भारतीय सनातन संस्कृति में पर्यावरण का सदा से ही विशेष महत्त्व रहा है। पर्यावरण का शाब्दिक अर्थ है; परि + आवरण अर्थात हमारे चारों ओर जो आवरण स्थित है।

भारतीय संस्कृति में परिभाषित है कि यह प्रकृति तथा हमारा शरीर पंच तत्त्वों (पंच महाभूतों) से बना है :- धरती, आकाश, जल, वायु तथा अग्नि। इन पाँच तत्त्वों के संतुलन से जीवन चलायमान है। मृत्यु के पश्चात यह स्थूल शरीर इन्हीं पंच तत्त्वों में विलीन हो जाता है। इनमें से किसी भी तत्त्व के संतुलन के बिगड़ने से जीवन पर संकट मंडराने लगता है।

पर्यावरण की महत्ता को बनाए रखने के लिए हमारे पूर्वजों ने इसे धर्म से जोड़ दिया। 

हिंदू धर्म अर्थात जीवन जीने की पद्धति

हमारी संस्कृति में सभी तत्त्वों के लिए एक देवता अथवा देवी को स्थान दिया गया है, जैसे कि वायु देव, अग्नि देव, भू देवी इत्यादि। पर्यावरण के सभी घटकों को पूजनीय बना दिया गया ताकि उनके प्रति सम्मान बना रहे तथा उनका क्षय कम से कम हो। दैनिक क्रियाकलापों को पर्यावरण संरक्षण से जोड़कर, हमारे पूर्वजों ने पर्यावरण संरक्षण को न केवल हमारे रक्त अपितु हमारी आनुवांशिकी प्रणाली में स्थापित कर दिया।

कहा गया है कि जल ही जीवन है।

जल के प्रमुख स्रोतों जैसे नदियों को माता की उपाधि दी गयी है। किसी भी और सभ्यता में नदियों को इतना सम्मान नहीं दिया गया है।

स्थानीय प्रदेशों में आज भी नदियों की पूजा तथा आरती का प्रचलन है। माता सीता ने भी वनगमन के समय गंगा तथा यमुना नदियों की पूजा कर अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया था।

राजस्थान की संस्कृति में कुआँ पूजन सभी शुभ अवसरों का एक अनिवार्य अंग है।

गंगा माँ की सौगन्ध का महत्त्व, लोगों की अपने परिजनों की सौगन्ध से भी अधिक है।

पुरातन काल में जल संरक्षण प्रत्येक घर के लिए आवश्यक था। बड़े स्तर पर बावड़ियों, सरोवरों का निर्माण किया जाता था। बाँध बनाए जाते थे।

इसी प्रकार पर्यावरण के अन्य घटकों जैसे कि भूमि, पर्वत, वृक्षों को पूजनीय घोषित किया गया है। किसी भी अन्य सभ्यता में इतने बड़े स्तर पर वृक्षों, पर्वतों की पूजा का उल्लेख नहीं मिलता है।

भगवान श्री कृष्ण ने भी गोवर्धन पूजा के द्वारा पर्वतों, वन प्रदेशों के सम्मान का संदेश दिया था। वन प्रदेशों को विभिन्न प्रकार की जीवन रक्षक वनस्पतियों तथा औषधियों का दाता बताकर उनके संरक्षण का संदेश दिया गया है।

वन महोत्सव हमारी जीवन शैली का एक अभिन्न अंग रहा है।

मात्र भारतीय सनातन संस्कृति का अनुकरण करने वाले लोग आज भी वृक्षों की पूजा करते हैं।

वायुमण्डल को शुद्ध तथा स्वच्छ रखने के लिए यज्ञ आदि का प्रावधान किया गया है।

इनसे हानिकारक जीवाणुओं तथा विषाणुओं का विनाश होता है तथा वातावरण शुद्ध होता है। ऋग्वेद के अनुसार सभी यज्ञों के अभिन्न अंग अर्थात शान्ति पाठ में पर्यावरण के सभी घटकों की अनिवार्य पूजा का प्रावधान हैं। शान्ति पाठ “ॐ द्यौ शान्ति, अन्तरिक्ष: शान्ति, पृथ्वी शान्ति, वनस्पतय: शान्ति, औषधय: शान्ति ....” को ध्यान से पढ़ने पर ज्ञात होता है कि किस प्रकार पर्यावरण के सभी कारकों को पूज्य बताया गया है।

पर्यावरण संतुलन के बिगड़ने के परिणाम आज हमारे सामने हैं। नदियाँ सूख रही हैं, जल के अन्य स्रोत समाप्त हो रहे हैं। वायु प्रदूषण से नए नए रोग सामने आ रहे हैं। भुखमरी की समस्या का सामना करना पड़ रहा है। संक्षेप में कहें तो जीवन दूभर हो गया है।

यदि हम इसी गति से पर्यावरण का ह्रास करते रहे तो पृथ्वी पर बहुत शीघ्र जीवन समाप्त हो जाएगा। जीवन, पृथ्वी पर हमारा अधिकार नहीं है; अपितु यह तो हमने अपनी संततियों से उधार लिया है। यदि हम अपनी संततियों के लिए जीवित रहने योग्य वातवरण नहीं छोड़ेंगे तो भविष्य हमें कभी क्षमा नहीं करेगा।

सन्देश: पर्यावरण संरक्षण को धार्मिक अनुष्ठानों, दैनिक क्रिया कलापों, शुभ अवसरों की रीतियों का अभिन्न अंग बनाकर सनातन वैदिक संस्कृति ने हमें सदा ही पर्यावरण के लिए सजग रहने की प्रेरणा दी है।

आज आवश्यकता है...

हमें वैज्ञानिक आधार को जानकार पुनः अपनी अमूल्य सांस्कृतिक विरासत से जुड़ने की;

पूर्णत: विज्ञान पर आधारित महान सभ्यता की धरोहर को अपनाने की।

हमारे पूर्वजों ने युगों-युगों से ज्ञान संचित कर जिस ज्ञान को हमारे हृदय, हमारी आनुवांशिकी प्रणाली में स्थापित किया है, आवश्यकता है कि हम एक बार पुन: उसका अवलोकन करें, उसे पुनः आत्मसात करें।

हमारे सांस्कृतिक मूल्यों में, जीवन के विभिन्न कर्म-काण्डों तथा दैनिक रीतियों में पर्यावरण संरक्षण स्वत: निहित है। आडंबरों को छोड़, महान ऋषि-मुनियों द्वारा परिभाषित वैज्ञानिक रीति से अपनी संस्कृति का पालन करने से हम पर्यावरण संरक्षण के वृहद लक्ष्य को प्राप्त करेंगे।

हम प्रकृति के संतुलन का विशेष ध्यान रखें। वे सभी साधन अपनाएं जिनसे संतुलन पुनः स्थापित हो, पर्यावरण के सभी घटकों का संरक्षण हो। अपने निजी हितों को त्याग कर समस्त जगत के कल्याण के लिए कार्य करें। जल संरक्षण, वायु शोधन, भूमि संरक्षण के सभी संभव साधनों को अपनी दिनचर्या का भाग बनाएँ। जितना हो सके प्रकृति के निकट जाएँ। जीवनयापन के सभी साधन यथासंभव प्राकृतिक हों, यह सुनिश्चित करें।

उन सभी कारणों का त्याग करें जिनसे प्रकृति का संतुलन बिगड़ता है तथा पर्यावरण का ह्रास होता है। कृत्रिम वस्तुओं का उपयोग कम से कम करें। पर्यावरण के संतुलन बिगड़ने से जो समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं जैसे कि भुखमरी, जल की अनुपलब्धता, नए नए विषाणु, जीवाणु इत्यादि; उन्हें दूर करें। पर्यावरण के संरक्षण में किए जा रहे कार्यों के लिए सरकार तथा अन्य संगठनों को अपना यथासंभव योगदान दें।

अन्त में यही प्रार्थना है कि पर्यावरण संरक्षण के साधनों को अपनाते हुए हम सभी “सर्वे भवन्तु सुखिन:,

सर्वे सन्तु निरामय:” की ओर अग्रसर हों।

प्रेरणा : श्रुति