सोमवार, 16 मार्च 2020

"सप्ताह" - हिन्दू ज्योतिष की विश्व को देन...

ज्योतिष में ग्रहों का कक्षाक्रम दो प्रकार से निर्धारित किया गया, एक सूर्य को केंद्र मानकर और दूसरा पृथ्वी को सापेक्ष केंद्र मानकर। पृथ्वी के सापेक्ष सिद्धांत के अंतर्गत सुमेरु पर्वत को पृथ्वी का केंद्र माना गया। पृथ्वी को सापेक्षिक केंद्र मानकर समीपवर्ती ग्रहों के कक्षाक्रम को निर्धारित किया गया था। जिसमें शनि - गुरु - मंगल - सूर्य - शुक्र - बुध - चन्द्र और पृथ्वी यह क्रम था। ऐसा इसलिए क्योंकि पृथ्वी विषयक अध्ययन में रिलेटिव स्टडी करनी होगी, उसे स्थिर मानकर। जैसा फिजिक्स में रिलेटिव वेलोसिटी, आदि होती है। फलित ज्योतिष में इसी आधार पर पृथ्वी पर ग्रहपिण्डो के प्रभाव का अध्ययन होता है। रिलेटिव और रियल, यह दोनों क्रम भारतीय ऋषियों को ज्ञात थे। ठीक से देखें तो रिलेटिव क्रम में भी सूर्य ही ग्रहों के मध्य में आता है। इसी रिलेटिव क्रम से वारों का क्रम बना है। सबसे प्रथम रविवार प्राच्य आचार्यों ने माना, क्योंकि रिलेटिव होने के बावजूद वे सूर्य के केन्द्रत्व से परिचित थे। इसीलिए सूर्य को आत्मा ग्रह कहा, "सूर्य आत्मा जगतस्तथुषश्च"।  

वारों का प्रचलन सनातन धर्म में हज़ारों वर्ष पुराना हैं, जब अहर्गण साधन का प्रचलन हो चुका था। यूरोप के इतिहासकार झूठ फैलाते हैं कि बेबीलोनिया से वार ज्ञान का प्रचार हुआ, पर बेबिलोन के उन ग्रँथों का नाम कहीं नहीं बताते। यही धूर्तता ये पग-पग पर करते हैं। मूर्तिपूजक पेगन से ईसाई बनने के बाद कॉन्सटेंटाइन ने 423 ईसवी में घोषणा पत्र द्वारा रविवार को अंतिम दिन बना दिया यह कहकर की ईसाइयों के भगवान ने उस दिन विश्राम किया। यह सिद्ध करता है कि इससे पूर्व रविवार अंतिम दिन नहीं था। हिन्दू सिद्धांत रविवार को प्रथम दिन मानता है और चर्च अंतिम। यह वार की उत्पत्ति तो अपने यहां से बताते हैं पर वारक्रम का आधार नहीं बताते। वह आधार केवल हिन्दू शास्त्र देते हैं, यही वार व वारक्रम की उत्पत्ति भारत से सिद्ध करता है। शास्त्र में वार और दिन पर्यायवाची शब्द हैं। सूर्य को आत्मा ग्रह वेद में कहा है, क्योंकि उसी में स्वशक्ति उत्पादन क्षमता है, इसलिए वह आत्मा है, उसी से सृष्टि का, और उसी की किरण से दिन का आरम्भ होता है। सूर्यसिद्धांत का क्रम है शनि -> गुरु -> मंगल -> सूर्य -> शुक्र -> बुध -> चन्द्र -> (पृथ्वी)

पृथ्वी यहां केंद्र और उससे ऊपर ऊपर एक एक रिलेटिव ग्रह। उसके मध्य से वारक्रम की उत्पत्ति होती है क्योंकि सूर्य आत्मा ग्रह है। यानी प्रथम रविवार होगा, फिर सूर्यसिद्धांत में वर्णित विधि से सूर्य से चौथे चन्द्र से सोमवार, चन्द्र से चौथे मंगल से मंगलवार, मंगल से चौथा बुध, बुध से चौथा गुरु, गुरु से चौथा शुक्र, शुक्र से चौथा शनि। यह वारक्रम बना। 

क्या पश्चिम विज्ञान वार के क्रम यानी पहले रविवार फिर सोमवार फिर मंगल फिर बुध गुरु शुक्र शनि इसका आधार बता सकता है? शुक्रवार से पहले शनिवार क्यों नहीं यह बता सकता है? नहीं, यह केवल सूर्यसिद्धांत बताता है। इससे भी गहरे में हर वार में प्रत्येक वार की आवृत्ति चलती है जिसे होरा कहते हैं, और जिस ग्रह की होरा से दिनारम्भ होता है, उसी ग्रह पर उस वार का नाम पड़ता है।

मंदामरेज्य भूपुत्र सूर्य शुक्रेन्दुजेन्दवः।
परिभमन्त्यघोsघस्तात्सिद्धविघाधरा धनाः।
- सूर्यसिद्धांत, अध्याय 12, श्लोक 13 

सूर्योदय के प्रथम घण्टे में होरा चक्र में जिस ग्रह की होरा रहती है, उसी ग्रह के नाम पर उस वार का नामकरण हुआ है। प्रथम अपने प्रकाश से समस्त सृष्टि को प्रकाशित करते हुए भगवान भास्कर (सूर्य) का उदय हुआ। सृष्टि की शुरुवात ही सूर्य से हुई, इसीलिए प्रथम सूर्यवार यानी रविवार हुआ। इसके बाद ऊपर ग्रहों का जो पृथ्वी के सापेक्षिक क्रम लिखा था उसी क्रम के अनुसार हर घंटे होरा बदलती है और अगले दिन पहली होरा उसी वार के ग्रह की होती है। इस सूक्ष्म स्तर तक पश्चिमी विज्ञान नहीं जा सकता।

अनेक प्राचीन भारतीय शास्त्र में वारों का वर्णन है। महाभारत से पूर्व के ग्रन्थ अथर्व ज्योतिष में वारों का वर्णन है, उससे भी प्राचीन आर्चज्योतिष में अनेक बार वार वर्णन आया है। अथर्व ज्योतिष, श्लोक 93 स्पष्ट रूप से वारक्रम बता रहा है।

आदित्य: सोमो भौमश्च तथा बुध बृहस्पति:।
भार्गव: शनैश्चरश्चैव एते सप्त दिनाधिपा:।।

दूसरे सूर्यसिद्धांत में सप्ताह व होरा का पूर्ण विवरण आया है। प्रत्येक वार के लिए उचित कर्मों, प्रत्येक वार के दान, आदि सब सुव्यवस्थित रूप से शास्त्र पुराणों में मिलता है। शिवपुराण, विद्येश्वर सहिंता, अध्याय 14 में भगवान शिव द्वारा वारों की उत्पत्ति और उनमें देवताओं की पूजा और फल का वर्णन है। गरुडपुराण में भी वारों का वर्णन प्राप्त होता है। 

नृपाभिषेकोऽग्निकार्य्यं सूर्य्यवारे प्रशस्यते । 
सोमे तु लेपयानञ्च कुर्य्याच्चैव गृहादिकम्॥
सैनापत्यं शौर्य्ययुद्धं शस्त्राभ्यासः कुजे तथा। 
सिद्धिकार्य्यञ्च मन्त्रश्च यात्रा चैव बुधे स्मृता॥ 
पठनं देवपूजा च वस्त्राद्याभरणं गुरौ । 
कन्यादानं गजारोहः शुक्रे स्यात् समयः स्त्रियाः ।
स्थाप्यं गृहप्रवेशश्च गजबन्धः शनौ शुभः॥
(गरुड़पुराण, 62 अध्यायः) 

अर्थात् रविवार को राज्याभिषेक व अग्निकार्य, सोमवार को लेप आदि, मंगलवार को सेना, शौर्य युद्धकार्य, बुधवार को मंत्रसिद्धि, यात्रा आदि, गुरुवार को पढ़ाई, देवपूजा आदि, शुक्रवार को कन्यादान आदि, शनिवार को गृहप्रवेश आदि शुभ है। 

श्री शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने वेदांगकाल 1400 ईपू, मैक्समूलर ने 300 ईपू, वेबर ने 500 ईसवी, कोलब्रुक ने 1108 ईपू और मार्टिन हौ ने 1200 ईपू माना है। पर मैं इनमें से किसी को नहीं मानता क्योंकि यह इनकी सीमित सोच व संकुचित शोध पर आधारित कल्पना मात्र है। ये जब आपस में ही एक दूसरे से सहमत नहीं होते तो हम इन अंग्रेजों से क्यों सहमत होंगे। वेदांगकाल सरस्वती कालीन है। जब सरस्वती नदी ही ईसापूर्व 1950 में सूख चुकी थी तो वेदांगकाल ईपू 1950 से तो निश्चित रूप से प्राचीन ही हुआ। गर्ग सहिंता और पंचसिद्धांतिका के प्रमाण से वेदांगज्योतिष 28000 वर्ष पुराना है। अथर्व ज्योतिष भी महाभारत काल अर्थात ईसापूर्व 3102 वर्ष से प्राचीन है।

जिन पश्चिमीयों का स्वयं का इतिहास भ्रमित है वे दूसरों को भी भ्रमित करते हैं। इसपर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर व अखिल भारतीय विद्वत परिषद के अध्यक्ष श्री केश्वर उपाध्याय जी ने अपनी पुस्तक "ज्योतिष विज्ञान" में सप्रमाण विशद विवेचन किया है, जिसमें से उपर्युक्त जानकारी ली गई है।

#ब्राह्मण_और_जनेऊ

पिछले दिनों मैं हनुमान जी के मंदिर में गया था। जहाँ पर मैंने एक ब्राह्मण को देखा, जो एक जनेऊ हनुमान जी के लिए ले आये थे। संयोग से मैं उनके ठीक पीछे लाइन में खड़ा था, मैंने सुना वो पुजारी से कह रहे थे कि वह स्वयं का काता (बनाया) हुआ जनेऊ हनुमान जी को पहनाना चाहते हैं, पुजारी ने जनेऊ तो ले लिया पर पहनाया नहीं। जब ब्राह्मण ने पुन: आग्रह किया तो पुजारी बोले यह तो हनुमान जी का श्रृंगार हैं, इसके लिए बड़े पुजारी (महन्थ) जी से अनुमति लेनी होगी। आप थोड़ी देर प्रतीक्षा करें, वो आते ही होगें। मैं उन लोगों की बातें गौर से सुन रहा था, जिज्ञासावश मैं भी महन्थ जी के आगमन की प्रतीक्षा करने लगा।

थोड़ी देर बाद जब महन्थ जी आए तो पुजारी ने उस ब्राह्मण के आग्रह के बारे में बताया तो महन्थ जी ने ब्राह्मण की ओर देख कर कहा कि देखिए हनुमान जी ने जनेऊ तो पहले से ही पहना हुआ है और यह फूलमाला तो हैं नहीं कि एक साथ कई पहना दी जाएं। आप चाहें तो यह जनेऊ हनुमान जी को चढ़ाकर प्रसाद रूप में ले लीजिए।

 इस पर उस ब्राह्मण ने बड़ी ही विनम्रता से कहा कि मैं देख रहा हूँ कि भगवान ने पहले से ही जनेऊ धारण कर रखा हैं परन्तु कल रात्रि में चन्द्रग्रहण लगा था और वैदिक नियमानुसार प्रत्येक जनेऊ धारण करने वाले को ग्रहणकाल के उपरांत पुराना बदलकर नया जनेऊ धारण कर लेना चाहिए। बस यही सोच कर सुबह-सुबह मैं हनुमान जी की सेवा में यह ले आया था। प्रभु को यह प्रिय भी बहुत हैं। हनुमान चालीसा में भी लिखा है कि - "हाथ बज्र और ध्वजा विराजे, कांधे मूज जनेऊ साजे"

 अब महन्थ जी थोड़ी सोचनीय मुद्रा में बोले कि हम लोग बाजार का जनेऊ नहीं लेते हनुमान जी के लिए शुद्ध जनेऊ बनवाते हैं, आपके जनेऊ की क्या शुद्धता हैं। इस पर वह ब्राह्मण बोले कि प्रथम तो यह कि ये कच्चे सूत से बना है, इसकी लम्बाई 96 चउवा (अंगुल) है, पहले तीन धागे को तकली पर चढ़ाने के बाद तकली की सहायता से नौ धागे तेहरे गये हैं, इस प्रकार 27 धागे का एक त्रिसुत हैं जो कि पूरा एक ही धागा हैं कहीं से भी खंडित नहीं हैं, इसमें प्रवर तथा गोत्रानुसार प्रवर बन्धन हैं तथा अन्त में ब्रह्मगांठ लगा कर इसे पूर्ण रूप से शुद्ध बनाकर हल्दी से रंगा गया हैं और यह सब मैंने स्वयं अपने हाथ से गायत्री मंत्र जपते हुए किया हैं।

ब्राह्मण देव की जनेऊ निर्माण की इस व्याख्या से मैं तो स्तब्ध रह गया मन ही मन उन्हें प्रणाम किया, मैंने देखा कि अब महन्त जी ने उनसे संस्कृत भाषा में कुछ पूछने लगे, उन लोगों का सवाल - जबाब तो मेरे समझ में नहीं आया पर महन्त जी को देख कर लग रहा था कि वे ब्राह्मण के जबाब से पूर्णतया सन्तुष्ट हैं अब वे उन्हें अपने साथ लेकर हनुमान जी के पास पहुँचे। जहाँ मन्त्रोच्चारण कर महन्त व अन्य 3 पुजारियों के सहयोग से हनुमान जी को ब्राह्मण देव ने जनेऊ पहनाया।तत्पश्चात पुराना जनेऊ उतार कर उन्होंने बहते जल में विसर्जन करने के लिए अपने पास रख लिया।

 मंदिर तो मैं अक्सर आता हूँ पर आज की इस घटना ने मन पर गहरी छाप छोड़ दी, मैंने सोचा कि मैं भी तो ब्राह्मण हूं और नियमानुसार मुझे भी जनेऊ बदलना चाहिए, उस ब्राह्मण के पीछे-पीछे मैं भी मंदिर से बाहर आया उन्हें रोककर प्रणाम करने के बाद अपना परिचय दिया और कहा कि मुझे भी एक जोड़ी शुद्ध जनेऊ की आवश्यकता है, तो उन्होंने असमर्थता व्यक्त करते हुए कहा कि इस तो वह बस हनुमान जी के लिए ही ले आये थे। हां यदि आप चाहें तो मेरे घर कभी भी आ जाइएगा। घर पर जनेऊ बनाकर मैं रखता हूँ जो लोग जानते हैं वो आकर ले जाते हैं। मैंने उनसे उनके घर का पता लिया और प्रणाम कर वहां से चला आया।

शाम को उनके घर पहुंचा तो देखा कि वह अपने दरवाजे पर तखत पर बैठे एक व्यक्ति से बात कर रहे हैं , गाड़ी से उतरकर मैं उनके पास पहुंचा मुझे देखते ही वो खड़े हो गए और मुझसे बैठने का आग्रह किया। अभिवादन के बाद मैं बैठ गया, बातों बातों में पता चला कि वह अन्य व्यक्ति भी पास का रहने वाला ब्राह्मण है तथा उनसे जनेऊ लेने आया हैं। ब्राह्मण अपने घर के अन्दर गए। इसी बीच उनकी दो बेटियाँ जो क्रमश: 12 वर्ष व 8 वर्ष की रही होंगी। एक के हाथ में एक लोटा पानी तथा दूसरी के हाथ में एक कटोरी में गुड़ तथा दो गिलास था, हम लोगों के सामने गुड़ व पानी रखा गया। मेरे पास बैठे व्यक्ति ने दोनों गिलास में पानी डाला फिर गुड़ का एक टुकड़ा उठा कर खाया और पानी पी लिया तथा गुड़ की कटोरी मेरी ओर खिसका दी, पर मैंने पानी नहीं पिया।

इतनी देर में ब्राह्मण अपने घर से बाहर आए और एक जोड़ी जनेऊ उस व्यक्ति को दिए, जो पहले से बैठा था। उसने जनेऊ लिया और 21 रुपए ब्राह्मण को देकर चला गया। मैं अभी वहीं रुका रहा। इस ब्राह्मण के बारे में और अधिक जानने का कौतुहल मेरे मन में था। उनसे बात-चीत में पता चला कि वह संस्कृत से स्नातक हैं। नौकरी मिली नहीं और पूँजी ना होने के कारण कोई व्यवसाय भी नहीं कर पाएं। घर में वृद्ध मां, पत्नी, दो बेटियाँ तथा एक छोटा बेटा हैं। एक गाय भी हैं। वे वृद्ध मां और गौ-सेवा करते हैं। दूध से थोड़ी-सी आय हो जाती हैं और जनेऊ बनाना उन्होंने अपने पिता व दादा जी से सीखा हैं। यह भी उनके गुजर-बसर में सहायक हैं।

इसी बीच उनकी बड़ी बेटी पानी का लोटा वापस ले जाने के लिए आई किन्तु अभी भी मेरी गिलास में पानी भरा था उसने मेरी ओर देखा लगा कि उसकी आँखें मुझसे पूछ रही हों कि मैंने पानी क्यों नहीं पिया। मैंने अपनी नजरें उधर से हटा लीं। वह पानी का लोटा गिलास वहीं छोड़ कर चली गयी शायद उसे उम्मीद थी कि मैं बाद में पानी पी लूंगा।

अब तक मैं इस परिवार के बारे में काफी हद तक जान चुका था और मेरे मन में दया के भाव भी आ रहे थे। खैर ब्राह्मण ने मुझे एक जोड़ी जनेऊ दिया, तथा कागज पर एक मंत्र लिख कर दिया और कहा कि जनेऊ पहनते समय इस मंत्र का उच्चारण अवश्य करूं...

मैंने सोच समझ कर 500 रुपए का नोट ब्राह्मण की ओर बढ़ाया तथा जेब और पर्स में एक का सिक्का तलाशने लगा, मैं जानता था कि 500 रुपए एक जोड़ी जनेऊ के लिए बहुत अधिक हैं पर मैंने सोचा कि इसी बहाने इनकी थोड़ी मदद हो जाएगी। ब्राह्मण हाथ जोड़ कर मुझसे बोले कि सर 500 का फुटकर तो मेरे पास नहीं हैं, मैंने कहा अरे फुटकर की आवश्यकता नहीं हैं पंडित जी आप पूरा ही रख लीजिए तो उन्हें कहा नहीं बस मुझे मेरी मेहनत भर का 21 रूपए दे दीजिए। मुझे उनकी यह बात अच्छी लगी कि गरीब होने के बावजूद वो लालची नहीं हैं, पर मैंने भी पांच सौ ही देने के लिए सोच लिया था इसलिए मैंने कहा कि फुटकर तो मेरे पास भी नहीं हैं, आप संकोच मत करिए पूरा रख लीजिए आपके काम आएगा। उन्होंने कहा अरे नहीं मैं संकोच नहीं कर रहा आप इसे वापस रखिए जब कभी आपसे दुबारा मुलाकात होगी तब 21रू. दे दीजिएगा।

इस ब्राह्मण ने तो मेरी आँखें नम कर दी। उन्होंने कहा कि शुद्ध जनेऊ की एक जोड़ी पर 13-14 रुपए की लागत आती हैं। 
7-8 रुपए अपनी मेहनत का जोड़कर वह 21 रू. लेते हैं। कोई-कोई एक का सिक्का न होने की बात कह कर बीस रुपए ही देता हैं। मेरे साथ भी यही समस्या थी मेरे पास 21रू. फुटकर नहीं थे, मैंने पांच सौ का नोट वापस रखा और सौ रुपए का एक नोट उन्हें पकड़ाते हुए बड़ी ही विनम्रता से उनसे रख लेने को कहा तो इस बार वह मेरा आग्रह नहीं टाल पाए और 100 रूपए रख लिए और मुझसे एक मिनट रुकने को कहकर घर के अन्दर गए। बाहर आकर और चार जोड़ी जनेऊ मुझे देते हुए बोले मैंने आपकी बात मानकर सौ रू. रख लिए अब मेरी बात मान कर यह चार जोड़ी जनेऊ और रख लीजिए ताकी मेरे मन पर भी कोई भार ना रहें।

मैंने मन ही मन उनके स्वाभिमान को प्रणाम किया। साथ ही उनसे पूछा कि इतना जनेऊ लेकर मैं क्या करूंगा तो वो बोले कि मकर संक्रांति, पितृ विसर्जन, चन्द्र और सूर्य ग्रहण, घर पर किसी हवन पूजन संकल्प परिवार में शिशु जन्म के सूतक आदि अवसरों पर जनेऊ बदलने का विधान हैं। इसके अलावा आप अपने सगे सम्बन्धियों रिश्तेदारों व अपने ब्राह्मण मित्रों को उपहार भी दे सकते हैं जिससे हमारी ब्राह्मण संस्कृति व परम्परा मजबूत हो साथ ही साथ जब आप मंदिर जाएं तो विशेष रूप से गणेश जी, शंकर जी व हनूमान जी को जनेऊ जरूर चढ़ाएं...

उनकी बातें सुनकर वह पांच जोड़ी जनेऊ मैंने अपने पास रख ली और खड़ा हुआ तथा वापसी के लिए बिदा मांगी, तो उन्होंने कहा कि आप हमारे अतिथि हैं। पहली बार घर आए हैं, हम आपको खाली हाथ कैसे जाने दे सकते हैं। इतना कह कर उनहोंने अपनी बिटिया को आवाज लगाई। वह बाहर निकाली तो ब्राह्मण देव ने उससे इशारे में कुछ कहा तो वह उनका इशारा समझकर जल्दी से अन्दर गयी और एक बड़ा सा डंडा लेकर बाहर निकली, डंडा देखकर मेरे समझ में नहीं आया कि मेरी कैसी बिदायी होने वाली हैं।

अब डंडा उसके हाथ से ब्राह्मण देव ने अपने हाथों में ले लिया और मेरी ओर देख कर मुस्कराए जबाब में मैंने भी मुस्कराने का प्रयास किया। वह डंडा लेकर आगे बढ़े तो मैं थोड़ा पीछे हट गया उनकी बिटिया उनके पीछे पीछे चल रह थी। मैंने देखा कि दरवाजे की दूसरी तरफ दो पपीते के पेड़ लगे थे। डंडे की सहायता से उन्होंने एक पका हुआ पपीता तोड़ा उनकी बिटिया वह पपीता उठा कर अन्दर ले गयी और पानी से धोकर एक कागज में लपेट कर मेरे पास ले आयी और अपने नन्हें नन्हा हाथों से मेरी ओर बढ़ा दिया। उसका निश्छल अपनापन देख मेरी आँखें भर आईं।

मैं अपनी भीग चुकी आंखों को उससे छिपाता हुआ दूसरी ओर देखने लगा तभी मेरी नजर पानी के उस लोटे और गिलास पर पड़ी जो अब भी वहीं रखा था इस छोटी सी बच्ची का अपनापन देख मुझे अपने पानी न पीने पर ग्लानि होने लगी।मैंने झट से एक टुकड़ा गुड़ उठाकर मुँह में रखा और पूरी गिलास का पानी एक ही साँस में पी गया, बिटिया से पूछा कि क्या एक गिलास पानी और मिलेगा वह नन्ही परी फुदकता हुई लोटा उठाकर ले गयी और पानी भर लाई, फिर उस पानी को मेरी गिलास में डालने लगी और उसके होंठों पर तैर रही मुस्कराहट जैसे मेरा धन्यवाद कर रही हो। मैं अपनी नजरें उससे छुपा रहा था। पानी का गिलास उठाया और गर्दन ऊंची करके वह अमृत पीने लगा... पर अपराधबोध से दबा जा रहा था।

अब बिना किसी से कुछ बोले पपीता गाड़ी की दूसरी सीट पर रखा और घर के लिए चल पड़ा। घर पहुंचने पर हाथ में पपीता देख कर मेरी पत्नी ने पूछा कि यह कहां से ले आए तो बस मैं उससे इतना ही कह पाया कि एक ब्राह्मण के घर गया था तो उन्होंने खाली हाथ आने ही नहीं दिया।
✍️विकास पाठक ⛳

रविवार, 15 मार्च 2020

हिन्दू स्त्री दर्शन

करम योगिनी परम् पुनीता
मात हमारी भगवती सीता...!!

सीता केवल एक नाम नही है , कोई साधारण चरित्र नही है , जितना भी समझो उतनी ही गहराई में एक स्त्री के विभिन्न रूप देखने को मिलेंगे !

रामायण कब लिखा गया और आज हम 2019 में भी अनुभव करते हैं , लोग अक्सर इस प्रश्न का उत्तर नही दे पाते संस्कार किसे कहते हैं ?

संस्कार की परिभाषा समझनी है ?
माँ सीता का जीवन ही संस्कार है , उनकी जीवनी ही हिन्दू स्त्री दर्शन हैं, रघुकुल रीति ही हिन्दू सभ्यता की वो जड़ है जिसे हिलाना नामुमकिन है !

महलों में पली बढ़ी माँ सीता कभी महलों में नही रहीं, जानकी का मतलब है राजा जनक की पुत्री।

पूरी जिंदगी जानकी ने उस सुख सुविधा का भोग नही किया जिसकी वो उत्तराधिकारी थी।

संस्कार जानते हैं क्या होता है ?

लवकुश की माँ सीता ने ये नहीं कहा कि मिलते ही अपने पिता को युद्ध में परास्त कर देना, नही वितृष्णा, ईर्ष्या कभी व्यक्ति को आगे नही ले जाते।

सारी प्रजा का दुःख हरने वाले मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम एक ऐसे अभागे पति थे जिन्होंने प्रजा की सुख-शांति के लिए अपनी सुख-सुविधा का परित्याग किया।

जरा सोचिए जिसके लिए युद्ध लड़ के वापस लाये, स्वयंवर रचाया उसे विदा करते हुए महल से कितनी वेदना हुई होगी।

फिर वो रघुकुल कैसा जहाँ त्याग न हुए हों ?
वो हिन्दू संस्कृति कैसी जिसने अपना सर्वस्व न्यौछावर न कर दिया हो !

राम राज्य में प्रजा सर्वोच्च थी, राजा नहीं !
राम राज्य में बलिदान सर्वोच्च था, अपमान नहीं !
राम राज्य में विजय निश्चित थी, पराजय नहीं !
राम राज्य में एक भी विरोध का स्वर किसी के मुख से न आये ऐसे शासन की स्थापना थी।

ऐसा हो सका क्यों ?
क्योंकि करम योगिनी परम् पुनीता
प्रभु राम की पत्नी थीं माँ सीता !

राम आदर्श हैं, राम को आदर्श के उस प्रतिमान से नीचे लाकर सामान्य जन की तरह आज के संविधान के पैमाने पर तौलना हमारे संस्कारो की तौहीन है !

लेकिन एक बात हमेशा याद रखियेगा, राम आदर्श हैं लेकिन माँ सीता के बिना नहीं।

राम के पहले सिया तो आएगा, अगर राम सिया के वर नहीं हैं तो राम कुछ भी नही हैं !

सियावर रामचन्द्र ही पूरा नाम है और युगों-युगों तक इस नाम को कोई मिटाया नहीं जा सकता !

त्याग की देवी सीता
संस्कारो की जननी सीता
लव-कुश जैसे विद्वान बालको की माँ सीता

महल में पली महल में व्याही पर महल का जीवन कभी व्यतीत न करने वाली सीता ,

और पुरुषार्थ को चरितार्थ करते हुए प्रभु राम, अपनो का दिया वनवास, अपनी प्राणप्रिये के लिए युद्ध का शँखनाद और फिर प्रजा के द्वारा लोकलाज की उलाहना, निकृष्ट आरोप, राजगद्दी पर बैठे व्यक्ति का पूरे समाज को साथ ले चलने का दबाव और सीता की अग्निपरीक्षा।

एक स्त्री को क्या-क्या सहना पड़ता हैं, पेट मे लवकुश का अंश लिए वाल्मीकि आश्रम में रहना, उन्हें शिक्षा देना, संस्कार देना, पिता के प्रति प्रेमभाव का समर्पण, इतना सब होने के बावजूद राम का ही पूजन !

और अकेले श्री राम, जिसे प्राणों से बढ़ कर चाहा उस प्रेम को अपनी आँखों से विदा करना।

एक बात हमेशा याद रखियेगा...

प्रभु राम ने तो जल में अग्निपरीक्षा दे दी, उन्होंने समाज को भी उत्तर देकर सीता को निष्कलंक कर दिया और खुद सीता के बिना प्राण त्याग कर अपने प्रेम और पुरुषार्थ को भी सिद्ध कर दिया !

आज भी कुछ हिन्दू विवाहित स्त्रियाँ सीता की ही तरह रोज अग्नि में जल रहीं हैं, खुद को असहाय महसूस करती होंगी, आज करवाचौथ है पति के लिए निर्जला व्रत भी रहेंगी, आश्रम की कठिन जिंदगी में भी माँ सीता ने व्रत नहीं तोड़ा, प्रभु राम की आराधना की, अपने मन मे घृणा नहीं पैदा होने दी, बच्चों को ईर्ष्या नहीं सिखाई।

करवाचौथ के दिन अगर मन भारी लगे तो माँ सीता को याद करना, काश ऐसा युग आएगा....

जब स्त्री लाँछन मुक्त होगी !

जब पुरुष रावण पैदा नहीं होंगे, जब उनके अंदर भी केवल अग्निपरीक्षा लेने की हिम्मत नहीं बल्कि जल समाधि लेने की कुव्वत भी आएगी !

और ऐसा दिन आएगा !
क्योंकि हमारे संस्कार लवकुश जनने के हैं, हमारी माँ जानकी हैं, हमारी संस्कृति रघुकुल रीति पर चली हैं।

क्योंकि अयोध्या का वो मंदिर केवल मंदिर नहीं महल होगा।

कितने ही वर्ष बीत गए हो...

हम रघुकुल के तारे
मंदिर वहीं बनाएंगे...


संस्कृत भाषा में शुभकामनाएँ

संस्कृत भाषायां शुभकामना: 

   (संस्कृत भाषा में शुभकामनाएँ )

The order of sentences is:

Sanskrit
   👇
Hindi
    👇
English


१ नमस्ते
      प्रणाम
      Hello

२ शुभकामना:
      शुभकामनाएँ
      Greetings

३ मम शुभकामना:
      मेरी शुभकामनाएँ।
      My Greetings

४ अनुगृहीतोSस्मि
     आपका आभारी हूँ / कृतज्ञ हूँ। (पु.)
     I'm grateful to you.(Male)

५ अनुगृहीताSस्मि
     आपकी आभारी हूँ / कृतज्ञ हूँ।(स्त्री.)
     I'm grateful to you(female)

६ धन्योSस्मि।
    आपका आभारी हूँ / कृतज्ञ हूँ। (पु.)
     Your thankful (male)

७ धन्याSस्मि।
     आपकी आभारी हूँ / कृतज्ञ हूँ।(स्त्री.)
     Your thankful(female)

८ मुदितोSस्मि
       मैं खुश हूँ। (पु.)
       I'm happy (Male)

९ मुदिताSस्मि
       मैं खुश हूँ। (स्त्री.)
       I'm happy (female)

१० अभिनन्दनम्
       बधाई हो।
       Congratulations

११ जन्मदिवसस्य हार्दिक्य: शुभकामना:।
       जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ।
       Happy birthday.

१२ जन्मदिवसस्य कोटिश: शुभकामना:।
   जन्मदिन की कोटि कोटि शुभकामनाएँ।
    Very Very Greetings on birthday

१३जन्मदिवसस्य अनेकश: शुभकामना:*।
      जन्मदिन की अनेक शुभकामनाएँ।
      A lot Greetings on your birthday.


१४ जन्मदिवसस्य अभिनन्दनानि।
       जन्मदिन की बधाईयाँ।
       Happy Birthday


१५ त्वं जीव शतं वर्धमान:।
       तुम सौ साल जिओ।(पुं.)
       Live long (100years)(M)

१६ त्वं शतं जीव शरदः वर्धमाना। (स्त्री.)
      तुम सौ साल जिओ (स्त्री.)
     Live long (100 years) (F)

👉 शुभकामना: के स्थान पर मंगलकामना: भी लिख सकते हैं , बोल सकते हैं । 👈

१७ पुत्रप्राप्त्यर्थं हार्दिकानि अभिनन्दनानि।
       पुत्र प्राप्ति की हार्दिक बधाईयाँ।
  Greetings on Having a baby boy.


१८ पुत्रस्य जन्मन: हार्दिकानि अभिनन्दनानि।
     पुत्र के जन्म की हार्दिक बधाईयाँ।
     Greetings on Birth of a son


१९पुत्रीप्राप्त्यर्थं हार्दिकानि अभिनन्दनानि।
       पुत्री प्राप्ति की हार्दिक बधाईयाँ।
      Greetings on having a girl.


२० पुत्र्या: जन्मन: हार्दिकानि अभिनन्दनानि।
      पुत्री के जन्म की हार्दिक बधाईयाँ।
     Greetings on birth of a girl


२१ शुभ-विवाहार्थम् अभिनन्दनानि।
        शुभ विवाह की बधाईयाँ।
       Greetings on your                 marriage.


२२ विवाहस्य वर्धापनदिनस्य अभिनन्दनानि।
        वैवाहिक वर्षगांठ की बधाईयाँ।
        Greetings on Marriage anniversary.


२३ यशसा वर्धते भवान् ।
      आपकी सफलता के लिए बधाईयाँ / शुभकामनाएँ।
      Congratulations on your success.


२४ पदोन्नत्यर्थं शुभकामना: / अभिनन्दनानि।
       पदोन्नति के लिए शुभकामनाएँ / बधाईयाँ।
       Congratulations on your promotion.


२५ समारोहस्य कृते हार्दा: शुभाशयाः।
      समारोह के लिए (कार्यक्रम के लिए ) शुभकामनाएँ।
      Greetings for your ceremony

२६ युवयोः वैवाहिकजीवने सर्वदा शुभं भवतु।
       आपके वैवाहिक जीवन में हमेशा शुभ हो।
       May your marriage life be happy.

२७ नवदम्पत्योः वैवाहिकजीवनं सुखमयं भवतु।
       नवदंपति का वैवाहिक जीवन सुखमय हो।
       May Newly married couple have a happy life ahead.

२८ शिवास्ते पन्थानः।
       आपकी यात्रा मंगलमय हो।
       Have a nice journey

२९ शीघ्रमेव स्वस्थ: भवतु।
       आप शीघ्र ही स्वस्थ हों।
       May you get well soon

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Note: In Sanskrit When we converse with female we use different gender (Form) from when we converse with Male, But in english we use same for both, so Keep in mind while conversing.

आइए वैज्ञानिक/हिंदू_मास/months को समझते हैं...

हिन्दू मास को समझना थोड़ा कठिन है- मूलत: चंद्र मास को देखकर ही तीज-त्योहार मनाए जाते हैं। सबसे ज्यादा यही प्रचलित है। इसके अलाव नक्षत्र मास, सौर मास और अधिमास भी होते हैं।

चंद्रमास : चंद्रमा की कला की घट-बढ़ वाले दो पक्षों (कृष्‍ण और शुक्ल) का जो एक मास होता है, वही चंद्रमास कहलाता है। यह दो प्रकार का शुक्ल प्रतिपदा से प्रारंभ होकर अमावस्या को पूर्ण होने वाला 'अमांत' मास मुख्‍य चंद्रमास है। कृष्‍ण प्रतिपदा से 'पूर्णिमात' पूरा होने वाला गौण चंद्रमास है। यह तिथि की घट-बढ़ के अनुसार 29, 30 व 28 एवं 27 दिनों का भी होता है।

पूर्णिमा के दिन, चंद्रमा जिस नक्षत्र में होता है, उसी आधार पर महीनों का नामकरण हुआ है। सौर-वर्ष से 11 दिन 3 घटी 48 पल छोटा हैं। चंद्र-वर्ष इसीलिए हर 3 वर्ष में इसमें 1 महीना जोड़ दिया जाता है।

सौरमास 365 दिन का और चंद्रमास 355 दिन का होने से प्रतिवर्ष 10 दिन का अंतर आ जाता है। इन दस दिनों को चंद्रमास ही माना जाता है। फिर भी ऐसे बड़े हुए दिनों को 'मलमास' या 'अधिमास' कहते हैं।

चंद्रमास के नाम : चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, अषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, अश्विन, कार्तिक, अगहन, पौष, माघ और फाल्गुन

महीनों के नाम पूर्णिमा के दिन चंद्रमा जिस नक्षत्र में रहता है...

1. चैत्र : चित्रा, स्वाति

2. वैशाख : विशाखा, अनुराधा

3. ज्येष्ठ : ज्येष्ठा, मूल

4. आषाढ़ : पूर्वाषाढ़, उत्तराषाढ़, सतभिषा

5. श्रावण : श्रवण, धनिष्ठा

6. भाद्रपद : पूर्वभाद्र, उत्तरभाद्र

7. आश्विन : अश्विन, रेवती, भरणी

8. कार्तिक : कृतिका, रोहणी

9. मार्गशीर्ष : मृगशिरा, उत्तरा

10. पौष : पुनर्वसु, पुष्य

11. माघ : मघा, अश्लेशा

12. फाल्गुन : पूर्वाफाल्गुन, उत्तराफाल्गुन, हस्त

शनिवार, 14 मार्च 2020

शीतला माता

शीतला माता एक प्रसिद्ध हिन्दू देवी हैं। इनका प्राचीनकाल से ही बहुत अधिक माहात्म्य रहा है। स्कंद पुराण में शीतला देवी का वाहन गर्दभ(गधा) बताया गया है। ये हाथों में कलश, सूप, मार्जन(झाडू) तथा नीम के पत्ते धारण करती हैं। इन्हें चेचक आदि कई रोगों की देवी बताया गया है। इन बातों का प्रतीकात्मक महत्व होता है। चेचक का रोगी व्यग्रता में वस्त्र उतार देता है। सूप से रोगी को हवा की जाती है, झाडू से चेचक के फोड़े फट जाते हैं। नीम के पत्ते फोडों को सड़ने नहीं देते। रोगी को ठंडा जल प्रिय होता है अत: कलश का महत्व है। गर्दभ की लीद के लेपन से चेचक के दाग मिट जाते हैं। शीतला-मंदिरों में प्राय: माता शीतला को गर्दभ पर ही आसीन दिखाया गया है। शीतला माता के संग ज्वरासुर- ज्वर का दैत्य, ओलै चंडी बीबी - हैजे की देवी, चौंसठ रोग, घेंटुकर्ण- त्वचा-रोग के देवता एवं रक्तवती - रक्त संक्रमण की देवी होते हैं। इनके कलश में दाल के दानों के रूप में विषाणु या शीतल स्वास्थ्यवर्धक एवं रोगाणु नाशक जल होता है।

शीतला माता

Kalighat Shitala.jpg
शीतला माता
संबंधशक्ति अवतार
अस्त्रकलशसूप
झाड़ूनीम के पत्ते
जीवनसाथीशिव
सवारीगर्दभ

स्कन्द पुराण में इनकी अर्चना का स्तोत्र शीतलाष्टक के रूप में प्राप्त होता है। ऐसा माना जाता है कि इस स्तोत्र की रचना भगवान शंकर ने लोकहित में की थी। शीतलाष्टक शीतला देवी की महिमा गान करता है, साथ ही उनकी उपासना के लिए भक्तों को प्रेरित भी करता है। शास्त्रों में भगवती शीतला की वंदना के लिए यह मंत्र बताया गया है:

वन्देऽहंशीतलांदेवीं रासभस्थांदिगम्बराम्।।

मार्जनीकलशोपेतां सूर्पालंकृतमस्तकाम्।।

अर्थात

गर्दभ पर विराजमान, दिगम्बरा, हाथ में झाडू तथा कलश धारण करने वाली, सूप से अलंकृत मस्तक वाली भगवती शीतला की मैं वंदना करता हूं। शीतला माता के इस वंदना मंत्र से यह पूर्णत: स्पष्ट हो जाता है कि ये स्वच्छता की अधिष्ठात्री देवी हैं। हाथ में मार्जनी झाडू होने का अर्थ है कि हम लोगों को भी सफाई के प्रति जागरूक होना चाहिए। कलश से हमारा तात्पर्य है कि स्वच्छता रहने पर ही स्वास्थ्य रूपी समृद्धि आती है।

मान्यता अनुसार इस व्रत को करने से देवी शीतला प्रसन्‍न होती हैं और व्रती के कुल में दाहज्वर, पीतज्वर, विस्फोटक, दुर्गन्धयुक्त फोड़े, नेत्रों के समस्त रोग, शीतला की फुंसियों के चिन्ह तथा शीतलाजनित दोष दूर हो जाते हैं।

श्री शीतला चालीसा


दोहा
जय जय माता शीतला तुमही धरे जो ध्यान। 
होय बिमल शीतल हृदय विकसे बुद्धी बल ज्ञान ॥
घट घट वासी शीतला शीतल प्रभा तुम्हार। 
शीतल छैंय्या शीतल मैंय्या पल ना दार ॥

चालीसा
जय जय श्री शीतला भवानी। 
जय जग जननि सकल गुणधानी ॥
गृह गृह शक्ति तुम्हारी राजती। 
पूरन शरन चंद्रसा साजती ॥
विस्फोटक सी जलत शरीरा। 
शीतल करत हरत सब पीड़ा ॥
मात शीतला तव शुभनामा। 
सबके काहे आवही कामा ॥
शोक हरी शंकरी भवानी। 
बाल प्राण रक्षी सुखदानी ॥
सूचि बार्जनी कलश कर राजै। 
मस्तक तेज सूर्य सम साजै ॥
चौसट योगिन संग दे दावै। 
पीड़ा ताल मृदंग बजावै ॥
नंदिनाथ भय रो चिकरावै। 
सहस शेष शिर पार ना पावै ॥
धन्य धन्य भात्री महारानी। 
सुर नर मुनी सब सुयश बधानी ॥
ज्वाला रूप महाबल कारी। 
दैत्य एक विश्फोटक भारी ॥
हर हर प्रविशत कोई दान क्षत। 
रोग रूप धरी बालक भक्षक ॥
हाहाकार मचो जग भारी। 
सत्यो ना जब कोई संकट कारी ॥
तब मैंय्या धरि अद्भुत रूपा। 
कर गई रिपुसही आंधीनी सूपा ॥
विस्फोटक हि पकड़ी करी लीन्हो। 
मुसल प्रमाण बहु बिधि कीन्हो ॥
बहु प्रकार बल बीनती कीन्हा। 
मैय्या नहीं फल कछु मैं कीन्हा ॥
अब नही मातु काहू गृह जै हो। 
जह अपवित्र वही घर रहि हो ॥
पूजन पाठ मातु जब करी है। 
भय आनंद सकल दुःख हरी है ॥
अब भगतन शीतल भय जै हे। 
विस्फोटक भय घोर न सै हे ॥
श्री शीतल ही बचे कल्याना। 
बचन सत्य भाषे भगवाना ॥
कलश शीतलाका करवावै। 
वृजसे विधीवत पाठ करावै ॥
विस्फोटक भय गृह गृह भाई। 
भजे तेरी सह यही उपाई ॥
तुमही शीतला जगकी माता। 
तुमही पिता जग के सुखदाता ॥
तुमही जगका अतिसुख सेवी। 
नमो नमामी शीतले देवी ॥
नमो सूर्य करवी दुख हरणी। 
नमो नमो जग तारिणी धरणी ॥
नमो नमो ग्रहोंके बंदिनी। 
दुख दारिद्रा निस निखंदिनी ॥
श्री शीतला शेखला बहला। 
गुणकी गुणकी मातृ मंगला ॥
मात शीतला तुम धनुधारी। 
शोभित पंचनाम असवारी ॥
राघव खर बैसाख सुनंदन। 
कर भग दुरवा कंत निकंदन ॥
सुनी रत संग शीतला माई। 
चाही सकल सुख दूर धुराई ॥
कलका गन गंगा किछु होई। 
जाकर मंत्र ना औषधी कोई ॥
हेत मातजी का आराधन। 
और नही है कोई साधन ॥
निश्चय मातु शरण जो आवै। 
निर्भय ईप्सित सो फल पावै ॥
कोढी निर्मल काया धारे। अंधा कृत नित दृष्टी विहारे ॥
बंधा नारी पुत्रको पावे। जन्म दरिद्र धनी हो जावे ॥
सुंदरदास नाम गुण गावत। 
लक्ष्य मूलको छंद बनावत ॥
या दे कोई करे यदी शंका। 
जग दे मैंय्या काही डंका ॥
कहत राम सुंदर प्रभुदासा। 
तट प्रयागसे पूरब पासा ॥
ग्राम तिवारी पूर मम बासा। 
प्रगरा ग्राम निकट दुर वासा ॥
अब विलंब भय मोही पुकारत। 
मातृ कृपाकी बाट निहारत ॥
बड़ा द्वार सब आस लगाई। 
अब सुधि लेत शीतला माई ॥
यह चालीसा शीतला पाठ करे जो कोय।
सपनेउ दुःख व्यापे नही नित सब मंगल होय ॥

                बुझे सहस्र विक्रमी शुक्ल भाल भल किंतू।
          जग जननी का ये चरित रचित भक्ति रस बिंतू‌।।

                    ॥ इति ॥

श्री शीतला माता जी की आरती

जय शीतला माता, मैया जय शीतला माता

आदिज्योति महारानी सब फल की दाता | जय

रतन सिंहासन शोभित, श्वेत छत्र भ्राता, 

ऋद्धिसिद्धि चंवर डोलावें, जगमग छवि छाता | जय

विष्णु सेवत ठाढ़े, सेवें शिव धाता, 

वेद पुराण बरणत पार नहीं पाता | जय

इन्द्र मृदंग बजावत चन्द्र वीणा हाथा, 

सूरज ताल बजाते नारद मुनि गाता | जय

घंटा शंख शहनाई बाजै मन भाता, 

करै भक्त जन आरति लखि लखि हरहाता | जय

ब्रह्म रूप वरदानी तुही तीन काल ज्ञाता, 

भक्तन को सुख देनौ मातु पिता भ्राता | जय

जो भी ध्यान लगावैं प्रेम भक्ति लाता, 

सकल मनोरथ पावे भवनिधि तर जाता | जय

रोगन से जो पीड़ित कोई शरण तेरी आता, 

कोढ़ी पावे निर्मल काया अन्ध नेत्र पाता | जय

बांझ पुत्र को पावे दारिद कट जाता, 

ताको भजै जो नाहीं सिर धुनि पछिताता | जय

शीतल करती जननी तुही है जग त्राता, 

उत्पत्ति व्याधि विनाशत तू सब की घाता | जय

दास विचित्र कर जोड़े सुन मेरी माता, 

भक्ति आपनी दीजै और न कुछ भाता | जय 


अस्य श्रीशीतलास्तोत्रस्य महादेव ऋषि:

अनुष्टुप् छन्द:, शीतला देवता, 

लक्ष्मी बीजम्, भवानी शक्ति:

सर्व-विस्फोटकनिवृत्तय विनियोग 


अर्थ – इस श्रीशीतला स्तोत्र के ऋषि महादेव जी, छन्द अनुष्टुप, देवता शीतला माता, बीज लक्ष्मी जी तथा शक्ति भवानी देवी हैं. सभी प्रकार के विस्फोटक, चेचक आदि, के निवारण हेतु इस स्तोत्र का जप में विनियोग होता है।

ईश्वर उवाच

वन्देSहं शीतलां देवीं रासभस्थां दिगम्बराम्।

मार्जनीकलशोपेतां    शूर्पालंकृतमस्तकाम्।। 1

अर्थ – ईश्वर बोले – गर्दभ(गधा) पर विराजमान, दिगम्बरा, हाथ में मार्जनी(झाड़ू) तथा कलश धारण करने वाली, सूप से अलंकृत मस्तक वाली भगवती शीतला की मैं वन्दना करता हूँ।

🙏🏻

वन्देSहं  शीतलां  देवीं  सर्वरोगभयापहाम्।

यामासाद्य निवर्तेत विस्फोटकभयं महत्।। 2


अर्थ – मैं सभी प्रकार के भय तथा रोगों का नाश करने वाली उन भगवती शीतला की वन्दना करता हूँ, जिनकी शरण में जाने से विस्फोटक अर्थात चेचक का बड़े से बड़ा भय दूर हो जाता है।

🙏

शीतले शीतले चेति यो ब्रूयाद्याहपीडित:।

विस्फोटकभयं घोरं क्षिप्रं तस्य प्रणश्यति।। 3


अर्थ – चेचक की जलन से पीड़ित जो व्यक्ति “शीतले-शीतले” – ऎसा उच्चारण करता है, उसका भयंकर विस्फोटक रोग जनित भय शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।

🙏

यस्त्वामुदकमध्ये तु  धृत्वा पूजयते नर:।

विस्फोटकभयं  घोरं गृहे तस्य  न जायते।। 4


अर्थ – जो मनुष्य आपकी प्रतिमा को हाथ में लेकर जल के मध्य स्थित हो आपकी पूजा करता है, उसके घर में विस्फोटक, चेचक, रोग का भीषण भय नहीं उत्पन्न होता है।

🙏

शीतले  ज्वरदग्धस्य पूतिगन्धयुतस्य च।

प्रणष्टचक्षुष:   पुंसस्त्वामाहुर्जीवनौषधम्।। 5


अर्थ – हे शीतले! ज्वर से संतप्त, मवाद की दुर्गन्ध से युक्त तथा विनष्ट नेत्र ज्योति वाले मनुष्य के लिए आपको ही जीवनरूपी औषधि कहा गया है।

🙏

शीतले तनुजान् रोगान्नृणां हसरि दुस्त्यजान्।

विस्फोटककविदीर्णानां   त्वमेकामृतवर्षिणी।। 6


अर्थ – हे शीतले! मनुष्यों के शरीर में होने वाले तथा अत्यन्त कठिनाई से दूर किये जाने वाले रोगों को आप हर लेती हैं, एकमात्र आप ही विस्फोटक – रोग से विदीर्ण मनुष्यों के लिये अमृत की वर्षा करने वाली हैं।

🙏

गलगण्डग्रहा रोगा ये चान्ये दारुणा नृणाम्।

त्वदनुध्यानमात्रेण शीतले यान्ति संक्षयम्।।7


अर्थ – हे शीतले! मनुष्यों के गलगण्ड ग्रह आदि तथा और भी अन्य प्रकार के जो भीषण रोग हैं, वे आपके ध्यान मात्र से नष्ट हो जाते हैं।

🙏

न मन्त्रो नौषधं तस्य पापरोगस्य विद्यते। 

त्वामेकां शीतले धात्रीं नान्यां पश्यामि देवताम्।।8


अर्थ – उस उपद्रवकारी पाप रोग की न कोई औषधि है और ना मन्त्र ही है. हे शीतले! एकमात्र आप जननी को छोड़कर (उस रोग से मुक्ति पाने के लिए) मुझे कोई दूसरा देवता नहीं दिखाई देता।

🙏

मृणालतन्तुसदृशीं   नाभिहृन्मध्यसंस्थिताम्।

यस्त्वां संचिन्तयेद्देवि तस्य मृत्युर्न जायते।। 9


अर्थ – हे देवि! जो प्राणी मृणाल – तन्तु के समान कोमल स्वभाव वाली और नाभि तथा हृदय के मध्य विराजमान रहने वाली आप भगवती का ध्यान करता है, उसकी मृत्यु नहीं होती। 

🙏

अष्टकं शीतलादेव्या यो नर: प्रपठेत्सदा।

विस्फोटकभयं  घोरं गृहे तस्य  न जायते।। 10


अर्थ – जो मनुष्य भगवती शीतला के इस अष्टक का नित्य पाठ करता है, उसके घर में विस्फोटक का घोर भय नहीं रहता।

🙏

श्रोतव्यं पठितव्यं च श्रद्धाभक्तिसमन्वितै:।

उपसर्गविनाशाय  परं  स्वस्त्ययनं  महत्।।11


अर्थ – मनुष्यों को विघ्न-बाधाओं के विनाश के लिये श्रद्धा तथा भक्ति से युक्त होकर इस परम कल्याणकारी स्तोत्र का पाठ करना चाहिए अथवा श्रवण (सुनना) करना चाहिए।

🙏

शीतले त्वं जगन्माता शीतले त्वं जगत्पिता।

शीतले  त्वं  जगद्धात्री  शीतलायै  नमो नम:।।12


अर्थ – हे शीतले! आप जगत की माता हैं, हे शीतले! आप जगत के पिता हैं, हे शीतले! आप जगत का पालन करने वाली हैं, आप शीतला को बार-बार नमस्कार हैं।

🙏

रासभो   गर्दभश्चैव   खरो    वैशाखनन्दन:।

शीतलावाहनश्चैव       दूर्वाकन्दनिकृन्तन:।।13


एतानि खरनामानि शीतलाग्रे तु य: पठेत्।

तस्य गेहे शिशुनां च शीतलारुड़् न जायते।।14

🙏

13 व 14 का अर्थ – जो व्यक्ति रासभ, गर्दभ, खर, वैशाखनन्दन, शीतला वाहन, दूर्वाकन्द – निकृन्तन – भगवती शीतला के वाहन के इन नामों का उनके समक्ष पाठ करता है, उसके घर में शीतला रोग नहीं होता है।

🙏

शीतलाष्टकमेवेदं न देयं यस्य कस्यचित्।

दातव्यं च सदा तस्मै श्रद्धाभक्तियुताय वै।।15


अर्थ – इस शीतलाष्टक स्तोत्र को जिस किसी अनधिकारी को नहीं देना चाहिए अपितु भक्ति तथा श्रद्धा से सम्पन्न व्यक्ति को ही सदा यह स्तोत्र प्रदान करना चाहिए।


।।इति श्रीस्कन्दमहापुराणे शीतलाष्टकं सम्पूर्णम्।।

'जो जीता वही सिकंदर' तो आपने सुना ही होगा लेकिन "जिसने सिकंदर को जीता" आइए... उसके बारे में जानते हैं...

💪 #जो_जीता_वही_पोरस ⛳

#महान_क्षत्रिय_योद्धा_पोरस,  एक प्राचीन राज्य के शासक थे, जो झेलम नदी और आधुनिक पंजाब, पाकिस्तान में चिनाब नदी के बीच स्थित है। ये #चंद्रवंशी_पांडवों_के_वंशज_थे।
अजीब लगता है जब भारत में सिकंदर को महान कहा जाता है और उस पर गीत लिखे जाते हैं। उस पर तो फिल्में भी बनी हैं जिसमें उसे महान बताया गया और एक कहावत भी निर्मित हो गई है - जो जीता वही सिकंदर

यह इतिहास है 2000 वर्ष पुराना...
तब भारत में सबसे शक्तिशाली साम्राज्य मगध था। 

क्या सिकंदर एक महान विजेता था? 

#ग्रीस_के_प्रभाव से लिखी गई पश्चिम के इतिहास की किताबों में यह बताया जाता है और पश्चिम जो कहता है... दुनिया उसे आंख मूंदकर मान लेती है। मगर #ईरानी_और_चीनी_इतिहास के नजरिए से देखा जाएं तो यह छवि कुछ अलग ही दिखती है। इतिहास में यह लिखा गया कि सिकंदर ने पोरस को हरा दिया था। यदि सचमुच ऐसा होता तो सिकंदर मगध तक पहुंच जाता और तब भारत का इतिहास कुछ और होता... लेकिन इतिहास लिखने वाले यूनानियों ने सिकंदर की हार को
पोरस की हार में बदल दिया। यूनानी इतिहासकारों के झूठ को पकड़ने के लिए ईरानी और चीनी विवरण और भारतीय इतिहास के विवरणों को भी पढ़ा जाना चाहिए। यूनानी
इतिहासकारों ने सिकंदर के बारे में झूठ लिखा था, ऐसा करके उन्होंने अपने महान योद्धा और देश के सम्मान को बचा लिया और दुनियाभर में सिकंदर को महान बना दिया। हालांकि आप
जानना चाहेंगे कि आखिरी युद्ध कैसे, कब, कहां और क्यों हुआ था। यह भी कि आखिरी युद्ध में कौन, कैसे जीता था..? 

#सिकंदर_का_आक्रमण : सिकंदर अपने पिता की मृत्यु के पश्चात अपने सौतेले व चचेरे भाइयों का कत्ल करने के बाद यूनान के मेसेडोनिया के सिन्हासन पर बैठा था। अपनी महत्वाकांक्षा के कारण वह विश्व विजय को निकला... उसकी
खास दुश्मनी ईरानियों से थी। सिकंदर ने ईरान के पारसी राजा दारा को पराजित कर दिया और विश्व विजेता कहलाने लगा... यहीं से उसकी भूख बढ़ गई। 

सिकंदर को ईरानी कृति 'शाहनामा' ने महज एक विदेशी क्रूर राजकुमार माना है महान नहीं..!

भारत पर पहला आक्रमण : जब सिकंदर ईरान से आगे बड़ा तो उसका सामना भारतीय सीमा पर बसे छोटे-छोटे राज्यों से हुआ। भारत की सीमा में पहुंचते तो पहाड़ी सीमाओं पर भारत के अपेक्षाकृत छोटे राज्यों अश्विन एवं अश्वकायन की वीर सेनाओं ने कुनात, स्वात, बुनेर, पेशावर (आजका) में सिकंदर की सेनाओं को भयानक टक्कर दी। मस्सागा (मत्स्यराज) राज्य में तो महिलाएं तक उसके सामने खड़ी हो गईं, पर धूर्त और धोखे से वार करने वाले यवनी (यूनानियों) ने मत्स्यराज के सामने संधि का नाटक करके उन पर रात में हमला किया और उस राज्य की राजनीति, बच्चों सहित पूरे राज्य को उसने तलवार से काट डाला। यही हाल उसने अन्य छोटे राज्यों में किया। मित्रता संधि की आड़ में अचानक आक्रमण कर कई राजाओं को बंधक बनाया। भोले-भाले भारतीय राजा उसकी चाल का शिकार होते रहे। अंत में उसने गांधार तक्षशिला पर हमला किया। 

#पोरस_को_भिजवाया_समर्पण_करने_का_संदेश : गांधार-तक्षशिला के राजा आम्भी ने सिकंदर से लड़ने के बजाय उसका भव्य स्वागत किया। आम्भी ने ऐसे इसलिए किया क्योंकि उसी पोरस से शत्रुता थी और दूसरी ओर उसकी सहायता करने वाला कोई नहीं था। गांधार-तक्षशिला के
राजा आम्भी ने पोरस के खिलाफ सिकंदर की गुप्त रूप से सहायता की... सिकंदर ने पोरस के पास एक संदेश भिजवाया जिसमें उसने पोरस से सिकंदर के समक्ष समर्पण करने की बात लिखी थी लेकिन पोरस एक महान योद्धा था, उसने सिकंदर की अधीनता अस्वीकार कर दी और युद्ध की तैयारी करना शुरू कर दी।

#पोरस_का_साम्राज्य : #राजा_पोरस_का_समय

340 ईसा पूर्व से 315 ईसा पूर्व तक का माना जाता है। पुरुवंशी महान सम्राट पोरस का साम्राज्य विशालकाय था। महाराजा पोरस सिन्ध-पंजाब सहित एक बहुत बड़े भू-भाग के
स्वामी थे। पोरस का साम्राज्य जेहलम (झेलम) और चिनाब नदियों के बीच स्थित था। पोरस के संबंध में मुद्राराक्षस में उल्लेख मिलता है। पोरस अपनी बहादुरी के लिए विख्यात था। उसने उन सभी के समर्थन से अपने साम्राज्य का निर्माण
किया था उन्होंने खुखरायनों पर उसके नेतृत्व को स्वीकार कर लिया था। जब सिकंदर हिन्दुस्तान आया और जेहलम (झेलम) के समीप पोरस के साथ उनका संघर्ष हुआ, तब पोरस को खुखरायनों का भरपूर समर्थन मिला था। इस तरह पोरस, जो स्वयं सभरवाल उपजाति का था और खुखरायन जाति समूह का एक हिस्सा था, उनका शक्तिशाली नेता बन गया।' - 
आईपी आनंद थापर (ए क्रूसेडर्स सेंचुरी : इन परस्यूट ऑफ एथिकल वेल्यूज/केडब्ल्यू प्रकाशन से प्रकाशित) 

#सिन्धु_और_झेलम : सिन्धु और झेलम के पार किए बगैर पोरस के राज्य में पैर रखना मुश्किल था। राजा पोरस अपने क्षेत्र की प्राकृतिक स्थिति, भूगोल और झेलम नदी की प्रकृति से अच्छी तरह वाकिफ थे। पुरु ने इस बात का पता लगाने की कोशिश नहीं की कि यवन सेना की शक्ति का रहस्य क्या है? यवन सेना का मुख्य बल उसके द्रुतगामी अश्वारोही तथा घोड़ों पर सवार फुर्तीले तीरंदाज थे। जासूसों और धूर्तता के बल पर सिकंदर के सरदार युद्ध जीतने के प्रति पूर्णतः आश्वस्त थे। 

#युद्ध_का_वर्णन :
राजा पुरु के शत्रु लालची आम्भी की सेना लेकर सिकंदर ने झेलम पार की। राजा पुरु जिसको स्वयं यवनी 7 फुट से ऊपर का बताते हैं, अपनी शक्तिशाली गजसेना के साथ यवनी सेना पर टूट पड़े। पोरस की हस्ती सेना ने यूनानियों को जिस भयंकर रूप से संहार किया था उससे सिकंदर और उसके सैनिक आतंकित हो उठे थे। भारतीयों के पास विदेशी को मार भगाने की हर नागरिक के आठ, शक्तिशाली गज सेना के अलावा कुछ अनोखे हथियार भी थे जैसे सात फुटा भाला जिससे एक ही सैनिक कई-कई शत्रु सैनिकों और घोड़े सहित घुड़सवार सैनिकों को भी मार गिरा सकता था। इस युद्ध में पहले दिन ही सिकंदर की सेना को जमकर टक्कर मिली।
सिकंदर की सेना के कई वीर सैनिक हताहत हुए। यवनी सरदारों के भयाक्रांत होने के बावजूद सिकंदर अपने हठ पर अड़ा रहा और अपनी विशिष्ट अंगरक्षक एवं अंतः प्रतिरक्षा
टुकड़ी को लेकर वो बीच युद्ध क्षेत्र में घुस गया।
कोई भी भारतीय सेनापति हाथियों पर होने के कारण उन तक कोई खतरा नहीं हो सकता था, राजा की तो बात बहुत दूर है। राजा पुरु के भाई अमर ने सिकंदर के घोड़े बुक फाइल (संस्कृत-भवकाली) को अपने भाई से मार डाला और सिकंदर को जमीन पर गिरा दिया। ऐसा यूनानी सेना ने अपने सारे युद्धकाल में कभी होते हुए नहीं देखा था।

सिकंदर जमीन पर गिरा तो सामने राजा पुरु तलवार लिए सामने खड़ा था। सिकंदर बस पलभर का मेहमान था कि तभी राजा पुरु ठिठक गया। यह डर नहीं था, बल्कि यह आर्य राजा का क्षात्र धर्म था, कि किसी निहत्थे राजा को यूं न मारा जाए। यह सहिष्णुता पोरस के लिए भारी पड़ गई। पोरस कुछ समझ पाता तभी सिकंदर के अंगरक्षक उसे तेजी से वहां से
उठाकर भगा ले गए। सिकंदर की सेना का मनोबल भी इस युद्ध के बाद टूट गया था और उसने नए अभियान के लिए आगे बढ़ने से इंकार कर दिया था। सेना में विद्रोह की स्थिति पैदा हो रही थी इसलिए सिकंदर ने वापस जाने का फैसला किया। झेलम के इस पार रसद और मदद भी कम होने लगी
थी। मिलों का सफर तय करने आई सिकंदर की सेना अब और लड़ना नहीं चाहती थी। कई सैनिक और घोड़े मारे गए थे।

ऐसे में सिकंदर व उसकी सेना सिन्धु नदी के मुहाने पर पहुंची तथा घर की ओर जाने के लिए पश्चिम की ओर मुड़ी। सिकंदर ने सेना को प्रतिरोध से बचने के लिए नए रास्ते से वापस भेजा और खुद सिन्धु नदी के रास्ते गया, जो छोटा व सुरक्षित था। भारत में शत्रुओं के उत्तर पश्चिम से घुसने के दो ही रास्ते रहे हैं जिसमें सिन्धु का रास्ता कम खतरनाक माना जाता था। उस वक्त सिकंदर सनक में आगे तक घुस गया, जहां उसकी पलटन को भारी क्षति उठानी पड़ी। पहले ही भारी क्षति उठाकर यूनानी सेनापति अब समझ गए थे कि अगर युद्ध और चला तो
सारे यवनी यहीं नष्ट कर दिए जाएंगे। यह निर्णय पाकर सिकंदर वापस भागा, पर उस रास्ते से नहीं भाग पाया, जहां से आया था और उसे दूसरे खतरनाक रास्ते से गुजरना पड़ा जिस क्षेत्र में प्राचीन क्षेत्र या जाट निवास करते थे।

उस क्षेत्र को जिसका पूर्वी हिस्सा आज के हरियाणा में स्थित था और जिसे 'जाट प्रदेश कहते थे, इस प्रदेश में पहुंचते ही सिकंदर का सामना जाट वीरों से (और पंजाबी वीरों से
सागर क्षेत्र में) हो गया और उसकी अधिकतर पलटन का सफाया जाटों ने कर दिया।

#क्या_लिखते_हैं_इतिहासकार : कर्तियास लिखता है कि, 'सिकंदर झेलम के दूसरी ओर पड़ाव डाले हुए था। सिकंदर की सेना का एक भाग झेलम नदी के एक द्वीप में पहुंच गया। पुरु
के सैनिक भी इस द्वीप में तैरकर पहुंच गए।
उन्होंने यूनानी सैनिकों के अग्रिम दल पर हमला बोल दिया। अनेक यूनानी सैनिकों को मार डाला गया। बचे-खुचे सैनिक नदी में कूद गए और उसी में डूब गए। 
#एरियन_लिखता_है कि 'भारतीय युवराज ने अकेले ही सिकंदर के घेरे में घुसकर सिकंदर को घायल कर दिया और उसके घोड़े 'से फेलास को मार डाला।' यह भी कहा जाता है कि पुरुक के हाथी दल-दल में फंस गए थे, तो कर्तियास
लिखता है 'कि इन पशुओं ने घोर आतंक पैदा कर दिया था। उनकी भीषण चीत्कार से सिकंदर के घोड़े न केवल डर रहे थे बल्कि बिगड़कर भाग भी रहे थे। घोड़ों का सामना भी पहली बार किसी हाथी से हुआ था। विशालकाय हाथियों को देखकर वे उससे दूर भागते थे। बाद में सिकंदर ने छोटे शस्त्रों से सुसज्जित सेना के हाथियों से निपटने की आज्ञा दी। इस आक्रमण से चिढ़कर हाथियों ने सिकंदर की सेना को अपने पांवों में कुचलना शुरू कर दिया।
वह आगे लिखता है कि 'सर्वाधिक हृदय-विदारक दृश्य यह था कि यह मजबूत कद वाला पशु यूनानी सैनिकों को अपनी सूंड से पकड़ लेता व अपने महावत को सौंप देता और वह उसका सर धड़ से तुरंत अलग कर देता। इसी प्रकार सारा दिन समाप्त हो जाता और युद्ध चलता ही रहता।'

इसी प्रकार #इतिहासकार_दियोदोरस_लिखता है कि 'हाथियों में अपार बल था और वे अत्यंत लाभकारी सिद्ध हुए। अपने पैरों तले उन्होंने बहुत सारे यूनानी सैनिकों को चूर-चूर कर दिया। 
👆🏻 आप राजा पोरस काल का सिक्का देख रहे हैं, जिसमें हाथी पर सवार #पोरस ने घोड़े पर सवार सिकंदर को बांध रखा है। यूनान के आक्रमणकारी सिकन्दर को राजा पोरस ने झेलम के तट पर कुत्ते की तरह धोया था और मार भगाया था। घायल सिंकंदर वापिस भागते समय बीच मे मरा था। बावजूद इसके, कुछ मूर्ख जो जीता वो पोरस कहने की बजाय जो जीता वो सिकन्दर कहते है।

सिकंदर को महान बताने वाले मूर्खों को ज्ञात होना चाहिए कि पूरी दुनिया को जीत कर अंततः सिकंदर भारत आकर हारा। 💪🏻🇮🇳