मंगलवार, 21 जुलाई 2020

जानिए पुत्री को अपने पिता का गोत्र क्यों नहीं प्राप्त होता..? आइए वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें...

हमारे धार्मिक ग्रंथ और हमारी सनातन हिन्दू परंपरा के अनुसार पुत्र (बेटा) को कुलदीपक अथवा वंश को आगे बढ़ाने वाला माना जाता है अर्थात उसे गोत्र का वाहक माना जाता है।

क्या आप जानते हैं कि आखिर क्यों केवल पुत्र को ही वंश का वाहक माना जाता है, पुत्री को नहीं..?

असल में इसका कारण... पुरुष प्रधान समाज अथवा पितृसत्तात्मक व्यवस्था नहीं..! बल्कि हमारे जन्म लेने की प्रक्रिया है।

अगर हम जन्म लेने की प्रक्रिया को सूक्ष्म रूप से देखेंगे तो हम पाते हैं कि...
एक स्त्री में गुणसूत्र (Chromosomes) XX होते है और पुरुष में XY होते है।

इसका मतलब यह हुआ कि... अगर पुत्र हुआ (जिसमें XY गुणसूत्र है) तो उस पुत्र में Y गुणसूत्र पिता से ही आएगा क्योंकि माता में तो Y गुणसूत्र होता ही नहीं..!

और यदि पुत्री हुई तो (xx गुणसूत्र) तो यह गुणसूत्र पुत्री में माता व पिता दोनों से आते है।

XX गुणसूत्र अर्थात पुत्री

अब इस XX गुणसूत्र के जोड़े में एक X गुणसूत्र पिता से तथा दूसरा X गुणसूत्र माता से आता है।

तथा इन दोनों गुणसूत्रों का संयोग एक गांठ सी रचना बना लेता है, जिसे Crossover कहा जाता है।

जबकि... पुत्र में XY गुणसूत्र होता है।

अर्थात... जैसा कि मैंने पहले ही बताया कि... पुत्र में Y गुणसूत्र केवल पिता से ही आना संभव है क्योंकि माता में Y गुणसूत्र होता ही नहीं है।

और... दोनों गुणसूत्र असमान होने के कारण... इन दोनों गुणसूत्र का पूर्ण Crossover नहीं... बल्कि केवल 5% तक ही Crossover होता है।

और 95% Y गुणसूत्र ज्यों का त्यों (intact) ही बना रहता है।

तो इस लिहाज से महत्त्वपूर्ण Y गुणसूत्र हुआ क्योंकि Y गुणसूत्र के विषय में हम निश्चिंत है कि... यह पुत्र में केवल पिता से ही आया है।

बस... इसी Y गुणसूत्र का पता लगाना ही गौत्र प्रणाली का एकमात्र उदेश्य है, जो हजारों/लाखों वर्षों पूर्व हमारे ऋषियों ने जान लिया था।

इस तरह ये बिल्कुल स्पष्ट है कि हमारी वैदिक गोत्र प्रणाली गुणसूत्र पर आधारित है अथवा Y गुणसूत्र को ट्रेस करने का एक माध्यम है।

उदाहरण के लिए... यदि किसी व्यक्ति का गोत्र शांडिल्य है तो उस व्यक्ति में विद्यमान Y गुणसूत्र शांडिल्य ऋषि से आया है...  या कहें कि शांडिल्य ऋषि उस Y गुणसूत्र के मूल हैं।

अब चूँकि...  Y गुणसूत्र स्त्रियों में नहीं होता है इसीलिए विवाह के पश्चात स्त्रियों को उसके पति के गोत्र से जोड़ दिया जाता है।

वैदिक/ हिन्दू संस्कृति में एक ही गोत्र में विवाह वर्जित होने का मुख्य कारण यह है कि एक ही गोत्र से होने के कारण वह पुरुष व स्त्री भाई-बहन कहलाएं क्योंकि उनका पूर्वज (ओरिजिन) एक ही है। 

परन्तु ये थोड़ी अजीब बात नहीं कि जिन स्त्री व पुरुष ने एक-दुसरे को कभी देखा तक नही और दोनों अलग-अलग देशों में परन्तु एक ही गोत्र में जन्मे, तो वो भाई-बहन हो गये..?

इसका मुख्य कारण एक ही गोत्र होने के कारण गुणसूत्रों में समानता है। 

आज की आनुवंशिक विज्ञान के अनुसार भी...  यदि सामान गुणसूत्रों वाले दो व्यक्तियों में विवाह हो तो उनके संतान... आनुवंशिक विकारों का साथ उत्पन्न होगी क्योंकि... ऐसे दंपत्तियों की संतान में एक जैसी विचारधारा, पसंद, व्यवहार आदि में कोई नयापन नहीं होता एवं ऐसे बच्चों में रचनात्मकता का अभाव होता है। 
यही कारण था कि शारीरिक विषमता के कारण अंग्रेज राज परिवार में आपसी विवाह बन्द हुए। 

 इस गोत्र का संवहन यानी उत्तराधिकार पुत्री को एक पिता प्रेषित न कर सके, इसलिये विवाह से पहले कन्यादान कराया जाता है और गोत्र मुक्त कन्या का पाणिग्रहण कर भावी वर अपने कुल गोत्र में उस कन्या को स्थान देता है। यही कारण था कि उस समय विधवा विवाह भी स्वीकार्य नहीं था, क्योंकि कुल गोत्र प्रदान करने वाला पति तो मृत्यु को प्राप्त कर चुका है।

इसीलिए कुंडली मिलान के समय वैधव्य पर खास ध्यान दिया जाता और मांगलिक कन्या होने पर ज्यादा सावधानी बरती जाती है।
आत्मज या आत्मजा का सन्धिविच्छेद तो कीजिये...
आत्म + ज  अथवा  आत्म + जा 
आत्म = मैं, ज या जा = जन्मा या जन्मी, यानी मैं ही जन्मा या जन्मी हूँ।

जैसा कि हम जानते हैं कि... पुत्री में 50% गुणसूत्र माता का और 50% पिता से आता है।

फिर, यदि पुत्री की भी पुत्री हुई तो... वह डीएनए 50% का 50% रह जायेगा...
और फिर... यदि उसके भी पुत्री हुई तो उस 25% का 50% डीएनए रह जायेगा।

इस तरह से सातवीं पीढ़ी में पुत्री जन्म में यह % घटकर 1% रह जायेगा.

अर्थात... एक पति-पत्नी का ही डीएनए सातवीं पीढ़ी तक पुनः पुनः जन्म लेता रहता है... और यही है "सात जन्मों के साथ का रहस्य"

लेकिन... यदि संतान पुत्र है तो... पुत्र का गुणसूत्र पिता के गुणसूत्रों का 95% गुणों को अनुवांशिकी में ग्रहण करता है और माता का 5% (जो कि किन्हीं परिस्थितियों में एक % से कम भी हो सकता है) डीएनए ग्रहण करता है...
और यही क्रम अनवरत चलता रहता है।

जिस कारण पति और पत्नी के गुणों युक्त डीएनए बारम्बार जन्म लेते रहते हैं... अर्थात, यह जन्म जन्मांतर का साथ हो जाता है।

इसीलिये अपने ही अंश को पित्तर जन्म जन्मान्तरों तक आशीर्वाद देते रहते हैं और हम भी अमूर्त रूप से उनके प्रति श्रध्येय भाव रखते हुए, आशीर्वाद ग्रहण करते रहते हैं और यही सोच हमें जन्मों तक स्वार्थी होने से बचाती है एवं सन्तानों की उन्नति के लिये समर्पित होने का सम्बल देती है।

एक बात और... माता-पिता यदि कन्यादान करते हैं तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि वे कन्या को कोई वस्तु समकक्ष समझते हैं..!
 बल्कि इस दान का विधान इस निमित किया गया है कि दूसरे कुल की कुलवधू बनने के लिये और उस कुल की कुलधात्री बनने के लिए उसे गोत्र मुक्त होना चाहिये। डीएनए मुक्त तो हो नहीं सकती क्योंकि भौतिक शरीर में वे डीएनए रहेंगे ही... इसलिये मायका अर्थात माता का रिश्ता बना रहता है।

 गोत्र यानी पिता के गोत्र का त्याग किया जाता है। तभी वह भावी वर को यह वचन दे पाती है कि उसके कुल की मर्यादा का पालन करेगी यानी उसके गोत्र और डीएनए को दूषित नहीं होने देगी, वर्णसंकर नहीं करेगी क्योंकि कन्या विवाह के बाद कुल वंश के लिये रज का रजदान करती है और मातृत्व को प्राप्त करती है। यही कारण है कि प्रत्येक विवाहित स्त्री माता समान पूज्यनीय हो जाती है।

यह रजदान भी कन्यादान की ही तरह कोटि यज्ञों के समतुल्य उत्तम दान माना गया है जो एक पत्नी द्वारा पति को दान किया जाता है।

आश्चर्य की बात है कि... हमारी ये परंपराएं हजारों-लाखों साल से चल रही है, जिसका सीधा-सा मतलब है कि हजारों लाखों साल पहले... जब पश्चिमी देशों के लोग नंग-धड़ंग जंगलों में रहा करते थे और चूहा, बिल्ली, कुत्ता वगैरह मारकर खाया करते थे...

उस समय भी हमारे पूर्वज ऋषि-मुनि... इंसानी शरीर में गुणसूत्र के विभक्तिकरण को समझ गए थे... और, हमें गोत्र सिस्टम में बांध लिया था।

इस बातों से एक बार फिर ये स्थापित होता है कि...
हमारा सनातन हिन्दू धर्म पूर्णतः वैज्ञानिक है।

बस, हमें ही इस बात का भान नहीं है।

असल में... अंग्रेजों ने जो हम लोगों के मन में जो कुंठा बोई है... उससे बाहर आकर हमें अपने पुरातन विज्ञान को फिर से समझकर, उसे अपनी नई पीढ़ियों को बताने और समझाने की जरूरत है।

नोट : मैं पुत्र और पुत्री अथवा स्त्री और पुरुष में कोई विभेद नहीं करता और मैं उनके बराबर के अधिकार का पुरजोर समर्थन करता हूँ।

लेख का उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ... गोत्र परंपरा एवं सात जन्मों के रहस्य को समझाना मात्र है।

🙏🏻 जय सनातन ⛳

रविवार, 12 जुलाई 2020

#आयुर्वेद_में_वर्णित_स्वर्ण (सोना) बनाने की कला

#स्वर्ण_निक्षेपण
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वैदिक मंत्र से धातु उत्पादन शक्ति
क्या आप जानते है
भारत को कभी सोने की चिड़िया कहा जाता था ! भारत पर लगभग 1200 वर्षों तक मुग़ल, फ़्रांसिसी, डच, पुर्तगाली, अंग्रेज और यूरोप एशिया के कई देशों ने शासन किया एवं इस दौरान भारत से लगभग 30 हजार लाख टन सोना भी लूटा ! यदि यह कहा जाए कि आज सम्पूर्ण विश्व में जो स्वर्ण आधारित सम्रद्धि दिखाई दे रही है वह भारत से लुटे हुए सोने पर ही टिकी हुई है तो गलत न होगा ! यह एक बड़ा रहस्यमय सवाल है कि आदिकाल से मध्यकाल तक जब भारत में एक भी सोने की खान नहीं हुआ करती थी तब भी भारत में इतना सोना आता कहाँ से था ?

सबसे रहस्यमय प्रश्न यह है कि आखिर भारत में इतना स्वर्ण आया कहाँ से ? इसका एकमात्र जवाब यह है कि भारत के अन्दर हमारे ऋषि मुनियों ने जो आयुर्वेद विकसित किया उसमे औषधिय उपचार के लिए स्वर्ण भस्म आदि बनाने के लिए वनस्पतियों द्वारा स्वर्ण बनाने की विद्या विकसित की थी ! 

आयुर्वेद में स्वर्ण बनाने की विधि 
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पवित्र हिन्दू धर्म ग्रन्थ ऋग्वेद पर ही पूरे विश्व का सम्पूर्ण विज्ञान आधारित है ! ऋग्वेद के उपवेद आयुर्वेद में स्वर्ण बनाने की विधि बताई गयी है ! राक्षस दैत्य दानवों के गुरु जिन्हें शुक्राचार्य के नाम से भी संबोधित किया जाता है उन्होंने ऋग्वेदीय उपनिषद की सूक्त के माध्यम से स्वर्ण बनाने की विधि बतायी है ! श्री सूक्त के मंत्र व प्रयोग बहुत गुप्त व सांकेतिक भाषा में बताया गया है ! 
सम्पूर्ण सूक्त में 16 मंत्र है !

श्रीसूक्त का पहला मंत्र
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ॐ हिरण्य्वर्णां हरिणीं सुवर्णस्त्र्जां।
चंद्रां हिरण्यमणीं लक्ष्मीं जातवेदो मआव॥

शब्दार्थ – हिरण्य्वर्णां- कूटज, हरिणीं- मजीठ, स्त्रजाम- सत्यानाशी के बीज, चंद्रा- नीला थोथा, हिरण्यमणीं- गंधक, जातवेदो- पाराम, आवह- ताम्रपात्र।

श्रीसूक्त का दूसरा मंत्र
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तां मआवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीं।
यस्या हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहं॥

शब्दार्थ – तां- उसमें, पगामिनीं- अग्नि, गामश्वं- जल, पुरुषानहं- बीस।

श्रीसूक्त का तीसरा मंत्र
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अश्व पूर्णां रथ मध्यां हस्तिनाद प्रमोदिनीं।
श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मा देवीजुषातम॥

शब्दार्थ – अश्वपूर्णां- सुनहरी परत, रथमध्यां- पानी के ऊपर, हस्तिनाद- हाथी के गर्दन से निकलने वाली गंध, प्रमोदिनीं- नीबू का रस, श्रियं- सोना, देवी- लक्ष्मी, पह्वये- समृद्धि, जुषातम- प्रसन्नता।

(विशेष सावधानियां - इस विधि को करने से पहले पूरी तरह समझ लेना आवश्यक है ! इसे किसी योग्य वैद्याचार्य की देख रेख में ही करना चाहिए ! स्वर्ण बनाने की प्रक्रिया के दौरान हानिकारक गैसें निकलती है जिससे असाध्य रोग होना संभव है अतः कर्ता को अत्यंत सावधान रहना आवश्यक है !)

एक दिन में 100 किलो सोना बनाते थे महान रसायन आयुर्वेदाचार्य नागार्जुन 
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नागार्जुन का जन्म सन 931 में गुजरात में सोमनाथ के निकट दैहक नामक किले में हुआ था ! नागार्जुन एक प्रसिद्द रसायनज्ञ थे ! 
उनके बारे में लोगों में यह विश्वास था कि वह ईश्वर के सन्देशवाहक है ! नागार्जुन ने रस रत्नाकर नामक पुस्तक लिखी ! इस पुस्तक की ख़ास बात यह है कि नागार्जुन ने यह पुस्तक उनके और देवताओं के बीच बातचीत की शैली में लिखी थी ! इस पुस्तक में रस (पारे के यौगिक) बनाने के प्रयोग दिए गए है !

 इस पुस्तक में देश में धातु कर्म और कीमियागिरी के स्तर का सर्वेक्षण भी दिया गया था ! इस पुस्तक में सोना, चांदी, टिन और ताम्बे की कच्ची धातु निकालने और उसे शुद्ध करने के तरीके भी बताये गए है !

पारे से संजीवनी और अन्य पदार्थ बनाने के लिए नागार्जुन ने पशुओं, वनस्पति तत्वों, अम्ल और खनिजों का भी उपयोग किया !

 पुस्तक में विस्तार पूर्वक दिया गया है कि अन्य धातुएं सोने में कैसे बदल सकती है ! यदि सोना न भी बने तो रसागम विशमन द्वारा ऐसी धातुएं बनायी जा सकती है जिनकी पीली चमक सोने जैसी ही होती है ! 

नागार्जुन ने "सुश्रुत संहिता" के पूरक के रूप में "उत्तर तंत्र" नामक पुस्तक भी लिखी ! इसके अलावा उन्होंने कक्षपूत तंत्र, योगसर एवं गोपाष्टक पुस्तकें भी लिखी !

कहा जाता है कि नागार्जुन एक दिन में 100 किलो सोना बनाया करते थे और उनको सोना बनाने में इस स्तर की महारत थी कि वह वनस्पतियों के अलावा अन्य पदार्थों तक से सोना बना देते थे ! लेकिन दुर्भाग्य है कि मूर्ख मुग़ल लुटेरों ने तक्षशिला और नालंदा जैसे विश्वविद्यालयों के रहस्यपूर्ण ग्रंथों को जला दिया !

 गांधी का दुराग्रह देखिए कैसे नापसंद करता है वैदिक विज्ञान को कैसे मंत्र का विरोध करता है
गाँधी के सम्मुख कृष्णपाल शर्मा ने दो सो तोला सोना बनाकर स्वतंत्रता आन्दोलन हेतु दान कर दी राशि !

बनारस के आयुर्वेदाचार्य श्री कृष्णपाल शर्मा ने  गांधी के समक्ष स्वर्ण बनाने की आयुर्वेदिक प्रक्रिया का वर्णन किया तो गांधी ने सार्वजनिक रूप से उनका उपहास कर दिया, जिससे वह अपनी व आयुर्वेद की प्रतिष्ठा को दाव पर लगा हुआ देख तत्काल बनारस गए और वहां से कुछ वनस्पति पदार्थों को लेकर पुनः दिल्ली के बिरला मंदिर के अतिथि गृह में वापस आये और दिनांक 26 मई 1940 को गांधीजी, उनके सचिव श्री महादेव देसाई तथा विख्यात व्यवसाई श्री युगल किशोर बिडला की उपस्तिथि में उन पदार्थों के समिश्रण को बनाकर गाय के उपले में पकाकर मात्र 45 मिनट में स्वर्ण बना दिया ! जिसका शिलालेख आज भी बिरला मंदिर के अतिथि गृह पर लगा हुआ है ! 

इसलिए मुर्ख हिंदू उसको जाती का पिता कहते हैं किताब में हमको महापुरुष कहा जाता है और बचपन में विद्यालय में पढ़ाया जाता है जिसका ज्ञान नहीं होता है वह फिर महापुरुष कैसे बन जाता है इसलिए हमारे मुल्क का पतन हो रहा है॥
इसी तरह 6 नवम्बर 1983 के हिन्दुस्तान समाचार पत्र के अनुसार सन 1942 ई. में श्री कृष्णपाल शर्मा ने ऋषिकेश में मात्र 45 मिनट में पारा से दो सौ तोला सोने का निर्माण करके सबको आश्चर्य में डाल दिया ! उस समय वह सोना 75 हजार रुपये में बिका जो धनराशि स्वतंत्रता आन्दोलन के लिए दान कर दी 
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---#राज_सिंह---

#अपनी संस्कृति को जाने

शुक्रवार, 10 जुलाई 2020

भोजन करने के नियम -

1.पांच अंगो ( दो हाथ , २ पैर , मुख ) को अच्छी तरह से धो कर ही भोजन करे !

2. गीले पैरों खाने से आयु में वृद्धि होती है !

3. प्रातः और सायं ही भोजन का विधान है !क्योंकि पाचन क्रिया की जठराग्नि सूर्योदय से 2  घंटे बाद तक एवं सूर्यास्त से 2 : 3 0 घंटे पहले तक प्रवल रहती है

4. पूर्व और उत्तर दिशा की ओर मुह करके ही खाना चाहिए !

5. दक्षिण दिशा की ओर किया हुआ भोजन प्रेत को प्राप्त होता है !

6 . पश्चिम दिशा की ओर किया हुआ भोजन खाने से रोग की वृद्धि होती है !

7. शैय्या पर , हाथ पर रख कर , टूटे फूटे वर्तनो में भोजन नहीं करना चाहिए !

8. मल मूत्र का वेग होने पर,कलह के माहौल में,अधिक शोर में,पीपल,वट वृक्ष के नीचे,भोजन नहीं करना चाहिए !

9 परोसे हुए भोजन की कभी निंदा नहीं करनी चाहिए !

10. खाने से पूर्व अन्न देवता , अन्नपूर्णा माता की स्तुति करके, उनका धन्यवाद देते हुए तथा सभी भूखों को भोजन प्राप्त हो ईश्वर से ऐसी प्रार्थना करके भोजन करना चाहिए।

11. भोजन बनने वाला स्नान करके ही शुद्ध मन से, मंत्र जप करते हुए ही रसोई में भोजन बनाये और सबसे पहले ३ रोटिया अलग निकाल कर ( गाय , कुत्ता और कौवे हेतु ) फिर अग्नि देव का भोग लगा कर ही घर वालो को खिलाये !

12. ईर्ष्या, भय, क्रोध, लोभ, रोग, दीन भाव, द्वेष भाव के साथ किया हुआ भोजन कभी पचता नहीं है।

13. आधा खाया हुआ फल, मिठाईया आदि पुनः नहीं खानी चाहिए।

14. खाना छोड़ कर उठ जाने पर दुबारा भोजन नहीं करना चाहिए।

15. भोजन के समय मौन रहें।

16. भोजन को बहुत चबा-चबा कर खाएं।

7. रात्री में भरपेट न खाएं।

18. गृहस्थ को ३२ ग्रास से ज्यादा न खाना चाहिए।

19. सबसे पहले मीठा, फिर नमकीन, अंत में कडुवा खाना चाहिए।

20. सबसे पहले रस दार, बीच में गरिस्थ, अंत में द्राव्य पदार्थ ग्रहण करें।

21. थोड़ा खाने वाले को – आरोग्यता, बल, सुख, सुन्दर संतान और सौंदर्य प्राप्त होता हैं।

22. जिसने ढिंढोरा पीट कर खिलाया हो वहा कभी न खाएं।

23. कुत्ते का छुवा, बासी, मुंह से फूक मरकर ठंडा किया, बाल गिरा हुवा भोजन, अनादर युक्त, अवहेलना पूर्ण परोसा गया भोजन कभी न करें।

24. कंजूस का, राजा का, वेश्या के हाथ का दिया भोजन कभी नहीं करना चाहिए।

यह नियम आप जरुर अपनाये और फर्क देखें...

शनिवार, 4 जुलाई 2020

क्यों है 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ' का "गुरु" 'भगवा ध्वज' ? ⛳

संघ तत्व पूजा करता है, व्यक्ति पूजा नहीं..! व्यक्ति शाश्वत नहीं, समाज शाश्वत है। व्यक्ति महान है। अपने समाज में अनेक विभूतियां हुई है, आज भी अनेक विद्यमान है। उन सारी महान विभूतियों के चरणों में शत-शत प्रणाम, परन्तु अपने राष्ट्रीय समाज को, संपूर्ण समाज को, संपूर्ण हिन्दू समाज को राष्ट्रीयता के आधार पर, मातृभूमि के आधार पर संगठित करने का कार्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कर रहा है। इस नाते किसी व्यक्ति को गुरुस्थान पर न रखते हुए भगवाध्वज को ही हमने गुरु माना है।

        तत्वपूजा - तेज, ज्ञान, त्याग का प्रतीक... हमारे समाज की सांस्कृतिक जीवनधारा में यज्ञ का बड़ा महत्व रहा है। यज्ञ शब्द के अनेक अर्थ है। व्यक्तिगत जीवन को समर्पित करते हुए समष्टिजीवन को परिपुष्ट करने के प्रयास को यज्ञ कहा गया है। सद्गुण रूप अग्नि में अयोग्य, अनिष्ट, अहितकर बातों को होम करना यज्ञ है। श्रद्धामय, त्यागमय, सेवामय, तपस्यामय जीवन व्यतीत करना भी यज्ञ है। 

        यज्ञ का अधिष्ठाता देव यज्ञ है। अग्नि की प्रतीक है ज्वाला और ज्वालाओं का प्रतिरूप है, अपना परम पवित्र "भगवाध्वज" हम श्रद्धा के उपासक है, अन्धविश्वास के नहीं..! हम ज्ञान के उपासक है, अज्ञान के नहीं..! जीवन के हर क्षेत्र में विशुद्ध रूप में ज्ञान की प्रतिष्ठापना करना ही हमारी संस्कृति की विशेषता रही हैं।

       सच्ची पूजा - तेल जले, बाती जले... लोग कहे दीप जले...🪔 जब दीप जलता हैं, हम कहते है या देखते है कि दीप जल रहा हैं लेकिन सही अर्थ में तेल जलता है, बाती जलती है, वे अपने आपको समर्पित करते है दीप के लिए... इसी तरह व्यक्ति के लिए कोई नाम नहीं, प्रचार नहीं परन्तु दोनों के जलने के कारण ही 'प्रकाश' मिलता है - यह है समर्पण...

       कारगिल युद्ध में मेजर पद्मपाणी आचार्य, गनर रविप्रसाद जैसे असंख्य वीर पुत्रों ने भारत माता के लिए अपने आपको समर्पित किया। मंगलयान में अनेक वैज्ञानिकों ने अपने व्यक्तिगत, पारिवारिक सुख की तिलाञ्जलि देकर अपनी सारी शक्ति समर्पित की...

          प्राचीन काल मे महर्षि दधीचि ने समाज कल्याण के लिए, संरक्षण के लिए अपने जीवन को ही समर्पित कर दिया था। समर्पण अपने राष्ट्र की, समाज की परंपरा है। समर्पण भगवान की आराधना है। गर्भवती माता अपनी संतान के सुख के लिए अनेक नियमों का पालन करती है, अपने परिवार में माता, पिता, परिवार के विकास के लिए अपने जीवन को समर्पित करती है। 

        खेती करने वाले किसान और श्रमिक के समर्पण के कारण ही सबको अन्न मिलता है। करोड़ों श्रमिकों के समर्पण के कारण ही सड़क मार्ग, रेल मार्ग तैयार होते हैं।

       शिक्षक-आचार्यो के समर्पण के कारण ही करोड़ों लोगो का ज्ञानवर्धन होता है। डाक्टरो के समर्पण सेवा के कारण ही रोगियों को चिकित्सा मिलती है। इस नाते सभी काम अपने समान में आराधना भावना से, समर्पण भावना से होते थे। पैसा केवल जीने के लिए लिया जाता था। सभी काम आराधना भावना से समर्पण भावना से ही होते थे। परंतु आज आचरण में हृास दिखता है।

        राष्ट्राय स्वाहा- इदं न मम इसलिए परम पूज्यनीय डॉ. हेडगेवार जी ने फिर से संपूर्ण समाज में, प्रत्येक व्यक्ति में समर्पण भाव जगाने के लिए, गुरुपूजा की, भगवाध्वज की पूजा की परंपरा प्रारंभ की...🙏🏻⛳