रविवार, 20 दिसंबर 2020

कौन था वह गुरुकुल वासी #स्वामी_श्रद्धानंद

23 दिसंबर - स्वामी श्रद्धानंद बलिदान दिवस

संगीनों के आगे सीना, खोल खड़ा था सन्यासी...⛳
सिंह सरीखा निर्भय था जो, कौन था वो गुरुकुलवासी

जिस दिन हुआ बरेली में था, दर्शन उसे दयानंद का...
उस दिन मुंशीराम के उर में, बीज पड़ा श्रद्धानंद का...
आस्तिकता के अंकुर फूटे, जीवन ने अंगड़ाई ली...
देश-धर्म का बना वो प्रहरी, जग से मोल लड़ाई ली...
नास्तिक मुंशीराम बन गया, पक्का ईश्वर-विश्वासी...
कौन था वो गुरुकुलवासी..?

किसने ‘शुद्धि’ की बजा बांसुरी, बिछड़े भाई बुलाये थे।
किसने घटती आबादी पर, सारे हिन्दू चेताये थे...
किसने उद्धार किया दलितों का, जाति के बंधन तोड़े...
छुआछूत का भेद मिटाया, दिल से दिल के रिश्ते जोड़े...
दृढ़ संकल्पी पर उपकारी, संस्कृत प्रेमी हिन्दीभाषी...
कौन था वो गुरुकुलवासी..?

गाँधी ने जिसके चरण छुए, हरजन ने जिसको नमन किया।
गुरुकुल की शिक्षा ज़िन्दा की, वेदों का फिर से स्तवन किया।
‘शुद्धि’ का चक्र नहीं थमता, भारत का विभाजन न होता..!
यदि श्रद्धानंद-सा राष्ट्रभक्त, मृत्यु की नींद नहीं सोता..!
अंग्रेजों का प्रबल विरोधी, संघर्षों का अभ्यासी...
कौन था वो गुरुकुलवासी..?

था पलंग पर निपट अकेला, रुग्ण-निहत्था सन्यासी...
मार के गोली प्राण ले गया, ‘अब्दुल रशीद’ सत्यानाशी...
एक बार देखा फिर जग ने, नंगा चेहरा इस्लाम का...
मानवता का शत्रु है ये, मज़हब नहीं ईमान का..!
राष्ट्र-यज्ञ में स्वाह हो गया, सबकी मुक्ति का अभिलाषी...
कौन था वो गुरुकुलवासी... 🙏🏻⛳

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2020

पूंजीवाद

किसी गांव में दस हजार गरीब हो और दो आदमी उनमें से मेहनत करके अमीर हो जाएं तो बाकी नौ हजार नौ सौ निन्यानवे लोग कहेंगे कि इन दो आदमियों ने अमीर होकर हमको गरीब कर दिया। और कोई यह नहीं पूछता कि जब ये दो आदमी अमीर नहीं थे तब तुम अमीर थे? तुम्हारे पास कोई संपत्ति थी, जो इन्होंने चूस ली। नहीं तो शोषण का मतलब क्या होता है? अगर हमारे पास था ही नहीं तो शोषण कैसे हो सकता है? शोषण उसका हो सकता है जिसके पास हो। अमीर के न होने पर हिन्दुस्तान में गरीब नहीं था? हां, गरीबी का पता नहीं चलता था। क्योंकि पता चलने के लिए कुछ लोगों का अमीर हो जाना आवश्यक है। तब गरीबी का बोध होना शुरू होता है। बड़े आश्चर्य की बात है, जो लोग मेहनत करें, बुद्धि लगाएं, श्रम करें और अगर थोड़ी-बहुत संपत्ति इकट्ठा कर लें तो ऐसा लगता है कि इन लोगों ने बड़ा अन्याय किया होगा।

पूंजीवाद शोषण की व्यवस्था नहीं है। पूंजीवाद एक व्यवस्था है श्रम को पूंजी में कन्वर्ट करने की। श्रम को पूंजी में रूपांतरित करने की व्यवस्था है। लेकिन जब आपका श्रम रूपांतरित होता है, जब आपको या मुझे दो रुपए मेरे श्रम के मिल जाते हैं तो मैं देखता हूं जिसने मुझे दो रुपए दिए उसके पास कार भी है, बंगला भी खड़ा होता जाता है। स्वभावत: तब मुझे खयाल आता है कि मेरा कुछ शोषण हो रहा है। और मेरे पास कुछ भी नहीं था उसका शोषण हुआ।

बुधवार, 14 अक्तूबर 2020

घर से भागी हुई लड़कियां...

अक्सर भागती हैं अपने ही घर से
बचकर...
छुपकर...
नजर बचाकर अपने ही घर से...

चुरा लेती हैं बहुत-सा छोटा-छोटा सामान
कुछ जेवर...
कुछ पैसे...
कुछ कपड़े...
कुछ तस्वीरें...

कुछ कागज खुद को 18 वर्ष की बड़ी लड़की साबित करने को...

और छोड़ जाती हैं... 
कुछ बड़ी बड़ी चीजें...
गठरी में कहां जगह बचती है!
कहां समा पाती है..!

भले वो ले नहीं जाती...
पर रहती भी कहां है..!

पिता की इज्जत
मां के संस्कार 
भाई का दुलार 
बहन की मनुहार 
सखियों के तेवर
असली वाले जेवर 
छूट जाते हैं अक्सर
या छोड़ जाती हैं..!

ये घर से भागी लड़कियां...

घर से भागी हुई लड़कियां...
अक्सर छोड़ जाती हैं बहुत कुछ...
घर छोड़ने के साथ...

वो छोड़ जाती हैं...
मां की ममता
पिता का दुलार 
बड़ा बौना बनाकर
अपने घर के किसी कोने में...

छोड़ जाती हैं कोई खत वहां...
जहां किसी की नजर पड़ जाएं...

छोड़ जाती हैं कुछ सवाल...
क्यों भागी..?
किसके साथ..?
और न जाने क्या-क्या...

छोड़ जाती हैं एक सवालिया निशान...
अपनी परवरिश पर भी...

दफ्न कर जाती हैं...
पिता की इज्जत...
मां की मुहल्ले में चलती आदर्शवादिता की जुबान को काट ले जाती हैं अपने साथ...

वो आग लगा जाती हैं अक्सर...
छोटी बहन के जीवन को भी...

और इस तरह...
घर बन जाता है...
कब्रगाह 
कत्लगाह 
और श्मशान
एक साथ...

एक ही पल में...
क्या से क्या बना देती हैं घर को...
घर से भागी हुई लड़कियां....

घर से भागी हुई लड़कियां...

घर से भागी हुई लड़कियां...
अक्सर भागती हैं...
बेघर हो जाने को...
और समझती हैं...
कि भागी घर बसाने को..!

भागती हैं...
बचपन की यादों से...
अपनी ही संतान के प्रेमविवाह के इरादों से...

ताउम्र भागती हैं अक्सर...
भागकर आने के उलाहने से...

चरित्रहीना के ताने से...

दहेज न ला पाने से...
रहती हैं अक्सर गुनाहगार की तरह...
सारी उम्र...

अक्सर भागने लगता है...
इनसे दूर...
इनको भगाकर लाने वाला...

और 
अक्सर हो जाती हैं बाजारू...
ये घर से भागी हुई लड़कियां...

घर से भागी हुई लड़कियां...

✍🏻 कनक 'सौम्या' 

शुक्रवार, 25 सितंबर 2020

पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी द्वारा अपने मामाजी को लिखा पत्र....

श्रीमान् मामाजी सादर प्रणाम !

आपका पत्र मिला। देवी की बीमारी का हाल जानकर दुःख हुआ। आपने अपने पत्र में जो कुछ भी लिखा सो ठीक ही लिखा है। इसका क्या उत्तर दूँ, यह मेरी समझ में नहीं आता। परसों आपका पत्र मिला, तभी से विचारों का एवं कर्तव्यों का तुमुल युद्ध चल रहा है। एक ओर तो भावना और मोह खींचते हैं तो दूसरी ओर पुरखों की आत्माऐं पुकारती है। आपके लिखे अनुसार पहिले तो मेरा भी यही विचार था कि मैं किसी स्कूल में नौकरी कर लूंगा तथा साथ ही वहाँ का संघ कार्य भी करता रहूँगा। यही विचार लेकर में लखनऊ आया था परन्तु लखनऊ में आजकल की परिस्थिति तथा आगे कार्य का असीम क्षेत्र देख कर मुझे यही आज्ञा मिली कि बजाय एक नगर में कार्य करने के एक जिले में कार्य करना होगा। इस प्रकार सोते हुए हिन्दू समाज से मिलने वाले कार्यकर्ताओं की कमी को पूरा करना होता है। सारे जिले में काम करने के कारण न तो एक स्थान पर दो चार दिन से अधिक ठहराव संभव है और न किसी भी प्रकार की नौकरी। संघ के स्वयंसेवक के लिये पहला स्थान समाज और देश के कार्य का रहता है। और फिर अपने व्यक्तिगत कार्यों का। अतः मुझे समाज कार्य के लिये जो आज्ञा मिली थी, उसका पालन करना पड़ा।

मैं यह मानता हूँ कि मेरे इस कार्य से आपको कष्ट हुआ होगा। परन्तु आप जैसे विचारवान् एवं गंभीर पुरूषों को भी समाज कार्य में संलग्न रहते देखकर कष्ट हो तो फिर समाज कार्य करने के लिये कौन आगे आएगा ? शायद संघ के विषय में आपको अधिक मालूम न होने के कारण आप डर गये हैं। इसका कांग्रेस से किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं है और यह किसी भी राजनीति मे भाग भी नहीं लेता है। न यह सत्याग्रह करता है न यह जेल जाने में विश्वास रखता है। न यह अहिंसावादी ही और न यह हिंसावादी ही। इसका तो एक मात्र कार्य हिन्दुओं का संगठन करना है। इस कार्य को यह लगातार 17 साल से करता आ रहा है।  इसकी सारे भारतवर्ष में 1000 से ऊपर शाखाएँ तथा दो लाख से अधिक स्वयंसेवक है। मैं अकेला ही नहीं परन्तु इसी प्रकार 300 से ऊपर कार्यकर्ता हैं जो एक मात्र संघ कार्य ही करते हैं। सब शिक्षित और अच्छे और घरों के हैं। बहुत से बी.ए., एम.ए. और एल.एल.बी. पास हैं। ऐसा तो कोई शायद ही होगा जो कम से कम हाई स्कूल न हो और वह भी इने-गिने लोग। इतने लोगों ने अपना जीवन केवल समाज कार्य के लिये क्यों दे दिया, इसका एकमात्र कारण यही है कि बिना समाज की उन्नति हुए व्यक्ति की उन्नति संभव नहीं है। व्यक्ति कितना भी क्यों न बढ़ जाए, जब तक उसका समाज उन्नत नहीं होता, तब तक उसकी उन्नति का कोई अर्थ नहीं। यही कारण है कि हमारे यहाँ के बड़े बड़े नेताओं का दूसरे देशों में जाकर अपमान होता है। हरिसिंह गौड़ जो कि हमारे यहाँ के इतने बड़े व्यक्ति हैं, वे जब इंग्लैण्ड के एक होटल में गए तो वहां ठहरने को स्थान नहीं दिया गया, क्योंकि वे भारतीय थे। हिन्दुस्तान में आप हमारे बड़े से बड़े आदमी को ले लीजिये, क्या उसकी वास्तविक उन्नति है ? मुसलमान गुण्डे बड़े से बड़े आदमी की इज्जत को पल में खाक में मिला देते हैं, क्योंकि वे स्वयं बड़े हो सकते हैं पर जिस समाज के वे अंग हैं वह दुर्बल है, अधः पतित है, शक्तिहीन व स्वार्थी है।

हमारे यहाँ एक व्यक्ति स्वार्थों में लीन है तथा अपनी ही सोचता है। नाव में छेद हो जाने पर अपने बोझ को आप कितना भी ऊंचा क्यों न उठाइए वह तो आपके साथ डूबेगा ही। आज हिन्दू समाज की यही हालत है। घर में आग लग रही है, परन्तु प्रत्येक अपने अपने घर की परवाह कर रहा है। उस आग को बुझाने का किसी को ख्याल नहीं है। क्या आप अपनी स्थिति को सुरक्षित समझते हैं ? क्या आपको विश्वास है कि मौका पड़ने पर समाज आपका साथ देगा ? नहीं, इसलिए यहीं कि हमारा समाज संगठित नहीं है, इसीलिए हमारी आरती और बाजों पर लड़ाईयाँ होती है। इसीलिए हमारी माँ बहिनों को मुसलमान भगाकर ले जाते हैं, अंग्रेज सिपाही उन पर निःशंक होकर दिन दहाड़े अत्याचार करते हैं और हम अपनी बड़ी भारी इज्जत की दम भरने वाले, समाज में ऊंची नाक रखने वाले अपनी फूटी आँख से देखते रहते हैं। हम उसका प्रतिकार नहीं कर सकते हैं। अधिक हुआ तो इस सनसनीखेज मामले की खबर अखबारों में दे दी या महात्माजी ने ‘हरिजन’ में एक आर्टिकल लिख दिया। क्यों ? क्या हिन्दुओं में ऐसे ताकतवर आदमियों की कमी है जो उन दुष्टों का मुकाबला कर सकें ? नहीं, कमी तो इस बात की है कि किसी को विश्वास नहीं है कि वह कुछ करे तो समाज उसका साथ देगा। सच तो यह है कि किसी के हृदय में इन सब कांडों को देखकर टीस ही नहीं उठती है।
जब किसी मनुष्य के किसी अंग को लकवा मार जाता हैं तो वह चेतनाशून्य हो जाता है। इसी भांति हमारे समाज को लकवा मार गया है। उसको कोई कितना भी कष्ट क्यों न दे, कुछ महसूस ही नहीं होता। हरेक तभी महसूस करता है जब चोट उसके सिर पर आकर पड़ती है। आज हूणों का आक्रमण सिंध में है। हमको उसकी परवाह नहीं परन्तु वही हमारे प्रान्त में होने लग जाए तब कुछ खलबली मचेगी और होश तो तब आएगा जब हमारी बहू-बेटियों में से किसी को वे उठाकर ले जाएँ। फिर व्यक्तिगत रूप से यदि कोई बड़ा हो भी गया तो उसका क्या महत्व ? वह तो हानिकारक ही है। हमारा सारा शरीर का शरीर ही मोटा होता जाए तो ठीक है परन्तु यदि खाली पैर ही सूजकर कुप्पास हो गया और बाकी शरीर वैसा ही रहा हो तो वह फीलपाँव रोग हो जाएगा। यही कारण है कि इतने कार्यकर्ताओं ने व्यक्तिगत आकांक्षाओं को छोड़कर अपने आपको समाज उन्नति में ही लगा दिया है। हमारे पतन का कारण हममें संगठन की कमी है। बाकी बुराईयां अशिक्षा आदि तो पतित अवस्था के लक्षण मात्र ही हैं। इसीलिये संगठन करना ही संघ का ध्येय है और यह कुछ भी नहीं करना चाहता है। संघ का क्या व्यवहाकरिक रूप है, यह आप यदि कभी आगरा आवें तो देख सकते हैं। मेरा ख्याल है कि एक बार संघ के रूप को देखकर तथा उसकी उपयोगिता समझने के बाद आपको हर्ष ही होगा कि आपके एक पुत्र ने भी इसी कार्य को अपना जीवन कार्य बनाया है।

परमात्मा में हम लोगों को सब प्रकार समर्थ बनाया है, क्या फिर हम अपने में से एक को भी देश के लिये नहीं दे सकते हैं। उस कार्य के लिये जिसमें न मरने का सवाल है, न जेल की यातनाएँ सहन करने का, न भूखों मरना है और न नंगा रहना है। सवाल है केवल चंद रूपयों के न कमाने का। वे रूपये जिनमें निजी खर्च के बाद शायद ही कुछ बचा रहता। रही व्यक्तिगत नाम और यश की बात, सो तो आप जानते ही हैं कि गुलामों का कैसा नाम और कैसा यश ? फिर मास्टरों की तो इज्जत ही क्या है ? आपने मुझे शिक्षा-दीक्षा देकर सब प्रकार से योग्य बनाया। क्या अब आप मुझे समाज के लिये नहीं दे सकते, जिस समाज के हम इतने ऋणी हैं ? यह तो एक प्रकार से त्याग भी नहीं है, इनवेस्टमेंट है। समाज रूपी खेत में खाद देना है। आज हम केवल, फसल काटना तो जानते हैं पर खेत में खाद देना भूल गए हैं, अतः हमारा खेत जल्द ही अन उपजाऊ हो जाएगा ?

जिस समाज और धर्म की रक्षा के लिये राम ने वनवास सहा, कृष्ण ने अनेकों कष्ट उठाएँ, राणा प्रताप जंगल-जंगल मारे फिरे, शिवाजी ने सर्वस्व अर्पण कर दिया, गुरू गोविन्द सिंह के छोटे-छोटे बच्चे जीते जी किले की दीवारों में चुने गए, क्या उनकी खातिर हम अपने जीवन की आकांक्षाओं का, झूठी आकांक्षाओं का त्याग भी नहीं कर सकते हैं ? आज समाज हाथ पसार कर भीख मांगता है और यदि हम समाज की ओर से ऐसे उदासीन रहें, तो एक दिन वह आएगा जब हमको वे चीजें, जिन्हें हम प्यार करते हैं, जबरदस्ती छोड़नी पड़ेगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि यदि आप संघ की कार्य प्रणाली से पहिले से परिचित होते तो आपके हृदय में किसी भी प्रकार की आशंका नहीं उठती। आप यकीन रखिये कि मैं ऐसा कोई भी कार्य नहीं करूंगा जिससे कोई भी आपकी ओर अंगुली उठाकर देख भी सके। उल्टा आपको गर्व होगा कि आपने देश और समाज के लिये अपने एक पुत्र को दे दिया। बिना किसी दबाव के केवल कर्तव्य के ख्याल से आपने लालन-पालन किया। अब क्या अंत में भावना कर्तव्य को धर दबाएगी ? अब वही कर्तव्य सारे हिन्दू समाज के प्रति हो गया है। यह तो केवल समय की प्रगति के साथ-साथ आपके कर्तव्य का विकास मात्र ही है। भावना से कर्तव्य सदैव ऊँचा रहता है। लोगों ने अपने इकलौते बेटों को सहर्ष सौंप दिया है। फिर आपके पास एक स्थान पर तीन-तीन पुत्र हैं, क्या उनमें से आप एक को भी समाज के लिये नहीं दे सकते हैं ? मैं जानता हूँ कि आप ‘नहीं’ नहीं कह सकते, कोई दूसरा स्वार्थी प्रवृति वाला मनुष्य चाहे एक बार कुछ कह भी देता।

आप शायद सोचते होंगे कि यह क्या उपदेश लिख दिया है। न मेरी इच्छा है, न मेरा उद्देश्य ही यह है। इतना सब इसलिये लिखना पड़ा कि आप संघ से ठीक-ठाक परिचित हो जाएँ। किसी भी कार्य की भलाई-बुराई का निर्णय उसकी परिस्थितियों और उद्देश्य को देखकर ही तो किया जाता है। पंडित श्याम नारायण जी मिश्र, जिनके पास मैं यहाँ ठहरा हुआ हूँ, वे स्वयं यहाँ के लीडिंग एडवोकेट है तथा बहुत ही माननीय (जेल जाने वाले नहीं) जिम्मेदार व्यक्तियों में से है। उनकी संरक्षता में रहते हुए मैं कोई भी गैर जिम्मेदारी का कार्य कर सकूँ, यह कैसे मुमकिन है।
शेष कुशल है। कृपा पत्र दीजिएगा। मेरा तो ख्याल है कि देवी का एलोपैथिक इलाज बन्द करवा के होमियोपैथिक इलाज करवाइए। यदि आप देवी की पूरी हिस्ट्री... और बीमारी तथा सम्पूर्ण लक्षण लिख भेजें तो यहाँ पर बहुत ही मशहूर होमियोपैथ है, उनसे पूछकर दवा लिख भेजूंगा। होमियापैथ इलाज यदि दवा ठीक लग गई तो बिना खतरे के ठीक प्रकार हो सकता है। भाई साहब व भाभी जी को नमस्ते, देवी व महादेवी को स्नेह। पत्रोत्तर दीजियेगा। भाई साहब को कभी पत्र लिखते ही नहीं।
                             

आपका भांजा

दीना (दीनदयाल)

रविवार, 30 अगस्त 2020

#क्या_कभी_सोचा_है_गणेश_प्रतिमा_का_विसर्जन_क्यों..?

गणेश जी को कभी भी विदा नहीं करना चाहिए क्योंकि विघ्न हरता ही अगर विदा हो गए तो तुम्हारे विघ्न कौन हरेगा..?

#ओम_एकदंताय_नमो_नमः

अधिकतर लोग एक दूसरे की देखा-देखी गणेश जी की प्रतिमा स्थापित कर रहे हैं और 3, 5, 7 या 11 दिन की पूजा के उपरांत उनका विसर्जन भी करेंगे। आप सब से निवेदन है कि आप गणपति की स्थापना करें, पर विसर्जन नहीं... 
विसर्जन केवल महाराष्ट्र में ही होता हैं, क्योंकि गणपति वहाँ एक मेहमान बनकर गये थे। वहाँ लाल बाग के राजा कार्तिकेय ने अपने भाई गणेश जी को अपने यहाँ बुलाया और कुछ दिन वहाँ रहने का आग्रह किया था। जितने दिन गणेश जी वहां रहें, उतने दिन माता लक्ष्मी और उनकी पत्नी रिद्धि व सिद्धि वहीं रही... इनके रहने से लालबाग धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया, तो कार्तिकेय जी ने उतने दिन का गणेश जी को लालबाग का राजा मानकर सम्मान दिया। यही पूजन गणपति उत्सव के रूप में मनाया जाने लगा।
 
अब रही बात देश की अन्य स्थानों की... तो गणेश जी हमारे घर के मालिक हैं और घर के मालिक को कभी विदा नहीं किया जाता..! वहीं अगर हम गणपति जी का विसर्जन करते हैं तो उनके साथ लक्ष्मी जी व रिद्धि-सिद्धि भी चली जायेगी तो जीवन में बचा ही क्या..?

हम बड़े शौक से कहते हैं... गणपति बाप्पा मोरया, अगले बरस तू जल्दी आ इसका मतलब हमने एक वर्ष के लिए गणेश जी लक्ष्मी जी आदि को जबरदस्ती पानी मे बहा दिया तो आप खुद सोचो... कि आप किस प्रकार से नवरात्रि पूजा करोंगे..? किस प्रकार दीपावली पूजन करोंगे..? आप कैसे पूजन करने का अधिकार रखते हो, जब आपने उन्हें एक वर्ष के लिए उन्हें भेज ही दिया...

इसलिए गणेश जी की स्थापना करें पर विसर्जन कभी न करें।

हे मेरे प्रभु गणेशा! आप रहना साथ हमेशा... 🙏🏻⛳

शनिवार, 29 अगस्त 2020

#सार्वजनिक_जीवन_में_मर्यादा_से_रहें

जिस प्रकार किसी को मनचाही स्पीड में गाड़ी चलाने का अधिकार नहीं है, क्योंकि रोड सार्वजनिक है। ठीक उसी प्रकार किसी भी लड़की को मनचाही अर्धनग्नता युक्त वस्त्र पहनने का अधिकार नहीं है क्योंकि जीवन सार्वजनिक है। एकांत रोड में स्पीड चलाओ, एकांत जगह में अर्द्धनग्न रहो। मगर सार्वजनिक जीवन में नियम मानने पड़ते हैं।

भोजन जब स्वयं के पेट मे जा रहा हो तो केवल स्वयं की रुचि अनुसार बनेगा, लेकिन जब वह भोजन परिवार खायेगा तो सबकी रुचि व मान्यता देखनी पड़ेगी।

लड़कियों का अर्धनग्न वस्त्र पहनने का मुद्दा उठाना उतना ही जरूरी है, जितना लड़को का शराब पीकर गाड़ी चलाने का मुद्दा उठाना जरूरी है। दोनों में एक्सीडेंट होगा ही...

अपनी इच्छा केवल घर की चहारदीवारी में उचित है। घर से बाहर सार्वजनिक जीवन मे कदम रखते ही सामाजिक मर्यादा लड़का हो या लड़की उसे रखनी ही होगी।

जितना गलत बुर्का है, उतना ही गलत अर्धनग्नता युक्त वस्त्र है। बड़ी उम्र की लड़कियों का बच्चों-सी फ़टी निक्कर पहनकर, छोटी टॉप पहनकर फैशन के नाम पर घूमना भारतीय संस्कृति का अंग नहीं है।

जीवन भी गिटार या वीणा जैसा वाद्य यंत्र है, ज्यादा कसना भी गलत है और ज्यादा ढील छोड़ना भी गलत है।

सँस्कार की जरूरत स्त्री व पुरुष दोनों को है, गाड़ी के दोनों पहिये में सँस्कार की हवा चाहिए, एक भी पंचर हुआ तो जीवन डिस्टर्ब होगा।

नग्नता यदि मॉडर्न होने की निशानी है, तो सबसे मॉडर्न जानवर है जिनके संस्कृति में कपड़े ही नहीं है। अतः जानवर से रेस न करें, सभ्यता व संस्कृति को स्वीकारें...
कुत्ते को अधिकार है कि वह कहीं भी यूरिंन पास कर सकता है, सभ्य इंसान को यह अधिकार नहीं है। उसे सभ्यता से बन्द टॉयलेट उपयोग करना होगा। इसी तरह पशु को अधिकार है नग्न घूमने का, लेकिन सभ्य स्त्री को उचित वस्त्र का उपयोग सार्वजनिक जीवन मे करना ही होगा।
अतः विनम्र अनुरोध है, सार्वजनिक जीवन मे मर्यादा न लांघें, सभ्यता से रहें। 🙏🏻⛳

मरदूद शायर लानत #इंदौरी ने नरक से यह ताज़ा ग़ज़ल भेजी है-

यहां तो यमदूत पीट रहे हैं, जन्नत इसका नाम थोड़ी है..!
चित्रगुप्त हिसाब कर रहे हैं, किसी हूर का निज़ाम थोड़ी है!

ओसामा है, कसाब है और अफ़ज़ल भी है यहां,
यह कोई ख़ुदा या फ़रिश्तों का मुक़ाम थोड़ी है..!

घूमते हैं यहाँ हर तरफ़ लिजलिजे सूअर🐷
यहाँ बहत्तर हूरों के हुस्न का जाम थोड़ी है!

भरे पड़े हैं यहाँ तमाम ग़द्दार मेरे ही जैसे...
यहाँ किसी मुल्क का शरीफ़ अवाम थोड़ी है!

मुल्क से ग़द्दारी पे सौ-सौ बार मुझको “लानत”
उसी की सजा है, ख़िदमत का इनाम थोड़ी है।
👴🏻

😜😂😂

बुधवार, 19 अगस्त 2020

#ब्रह्म_रंध्र का रहस्योद्घाटन:

योग विज्ञान के अनुसार सिर के सबसे ऊपरी बिंदु पर एक छेद या मार्ग होता है, जिसे "ब्रह्मरंध्र" या "सहस्त्रार चक्र" कहते हैं। भारतीय ऋषि मुनि बताते रहें हैं कि इसी मार्ग से जीव गर्भ में पल रहे भ्रूण में प्रवेश करता है।रंध्र एक संस्कृ‍त शब्द है मगर दूसरी भारतीय भाषाओं में भी इसका इस्तेमाल होता है। रंध्र का मतलब है- मार्ग, जैसे कोई छोटा छिद्र या सुरंग। यह शरीर का वह स्थान होता है, जिससे होकर जीवन भ्रूण में प्रवेश करता है।हठयोग में, मस्तिष्क के ऊपरी मध्य भाग में माना जानेवाला वह छिद्र या रंध्र जहाँ सुषुम्ना, इंगला और पिंगला ये तीनों नाड़ियाँ मिलती है। कहते है कि पुणात्मा लोगों और योगियों के प्राण इसी रंध्र को भेदकर निकलते हैं। ब्रह्म-रंध्र को शरीर का दसवाँ द्वार कहा जाता है। अन्य द्वार इन्द्रियाँ है जो खुली रहती है। किन्तु यह दसवाँ द्वार सदा बन्द रहता है। तपस्या द्वारा इसे खोला जाता है। इसके खुलने पर सहस्रार चक्र से अमृत रस निकलने लगता है जिससे योगी को अमर काया प्राप्त हो जाती है।
जब बच्चा पैदा होता है तो उसके सिर पर एक नर्म जगह होती है, जहां तब तक हड्डियां विकसित नहीं हुई होतीं, जब तक बच्चा एक खास उम्र में नहीं पहुंच जाता।
जीवन प्रक्रिया में इतनी जागरूकता होती है कि वह अपने विकल्पों को खुला रखता है। वह देखता है कि यह शरीर उस जीवन को बनाए रखने में सक्षम है या नहीं। इसलिए वह उस द्वार को एक खास समय तक खुला रखता है ताकि अगर उसे लगे कि यह शरीर उसके अस्तित्व के लिए ठीक नहीं है तो वह उसी रास्ते से चला जाए। वह शरीर में मौजूद किसी अन्य मार्ग से नहीं जाना चाहता, वह जिस तरह आया था, उसी तरह जाना चाहता है। एक अच्छा मेहमान हमेशा मुख्य द्वार से आता है और उसी से वापस जाता है। अगर वह मुख्य द्वार से आकर पिछले दरवाजे से चला जाए तो इसका मतलब है कि वह आपका घर साफ करके गया है! आप भी जब शरीर छोड़ते हैं, तो पूरी जागरूकता के साथ आप चाहे शरीर के किसी भी भाग से जाएं, उसमें कोई बुराई नहीं। लेकिन अगर आप ब्रह्मरंध्र से शरीर छोड़ सकें, तो यह शरीर छोड़ने का सबसे अच्छा तरीका है।
हो सकता है जीव लौट जाए और शिशु मृत पैदा हो
कई मेडिकल मामले हैं, जहां मेडिकल साईंस के सभी मानदंडों से भ्रूण के स्वस्थ होने और सब कुछ ठीक होने के बावजूद बच्चा मृत पैदा होता है।
इसकी वजह सिर्फ यह है कि भीतर मौजूद जीवन अब भी चयन कर रहा होता है। जब किसी भ्रूण के अंदर जीव प्रवेश करता है और शिशु बनने की प्रक्रिया में उस भ्रूण को ठीक नहीं पाता है, तो वह उससे बाहर निकल जाता है। इसीलिए एक द्वार खुला रखा जाता है।
यही वजह है कि भारतीय संस्कृति में एक गर्भवती स्त्री के आस-पास अलग तरह का माहौल बनाने के लिए कई सावधानियां रखी जाती थीं। आजकल हम उन चीजों को आधुनिक बनने और मौडर्न बनने के चक्कर में छोड़ते जा रहे हैं, मगर इन सब के पीछे यही उम्मीद होती थी कि आपकी कोख में आने वाला आपसे बेहतर और स्वस्थ हो। इसलिए एक गर्भवती स्त्री को आराम और खुशहाली की एक खास स्थिति में रखा जाता था। उसके आस-पास सही तरह की सुगंध, ध्वनियों और भोजन की व्यवस्था की जाती थी। ताकि उसका शरीर सही किस्म के प्राणी का स्वागत करने के लिए अनुकूल स्थिति में हों।
ब्रह्मरंध्र एक प्रकार से जीवात्मा का कार्यालय है इस दृश्य जगत में जो कुछ है और जहाँ तक हमारी दृष्टि नहीं पहुँच सकती उन सबकी प्राप्ति की प्रयोगशाला है। भारतीय तत्त्वदर्शन के अनुसार यहाँ 17 तत्त्वों से संगठित ऐसे विलक्षण ज्योति पुँज विद्यमान् हैं जो दृश्य जगत में स्थूल नेत्रों से कहीं भी नहीं देखे जा सकते।
साभार : 🙏
#धर्मो_रक्षति_रक्षितः

मंगलवार, 21 जुलाई 2020

जानिए पुत्री को अपने पिता का गोत्र क्यों नहीं प्राप्त होता..? आइए वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें...

हमारे धार्मिक ग्रंथ और हमारी सनातन हिन्दू परंपरा के अनुसार पुत्र (बेटा) को कुलदीपक अथवा वंश को आगे बढ़ाने वाला माना जाता है अर्थात उसे गोत्र का वाहक माना जाता है।

क्या आप जानते हैं कि आखिर क्यों केवल पुत्र को ही वंश का वाहक माना जाता है, पुत्री को नहीं..?

असल में इसका कारण... पुरुष प्रधान समाज अथवा पितृसत्तात्मक व्यवस्था नहीं..! बल्कि हमारे जन्म लेने की प्रक्रिया है।

अगर हम जन्म लेने की प्रक्रिया को सूक्ष्म रूप से देखेंगे तो हम पाते हैं कि...
एक स्त्री में गुणसूत्र (Chromosomes) XX होते है और पुरुष में XY होते है।

इसका मतलब यह हुआ कि... अगर पुत्र हुआ (जिसमें XY गुणसूत्र है) तो उस पुत्र में Y गुणसूत्र पिता से ही आएगा क्योंकि माता में तो Y गुणसूत्र होता ही नहीं..!

और यदि पुत्री हुई तो (xx गुणसूत्र) तो यह गुणसूत्र पुत्री में माता व पिता दोनों से आते है।

XX गुणसूत्र अर्थात पुत्री

अब इस XX गुणसूत्र के जोड़े में एक X गुणसूत्र पिता से तथा दूसरा X गुणसूत्र माता से आता है।

तथा इन दोनों गुणसूत्रों का संयोग एक गांठ सी रचना बना लेता है, जिसे Crossover कहा जाता है।

जबकि... पुत्र में XY गुणसूत्र होता है।

अर्थात... जैसा कि मैंने पहले ही बताया कि... पुत्र में Y गुणसूत्र केवल पिता से ही आना संभव है क्योंकि माता में Y गुणसूत्र होता ही नहीं है।

और... दोनों गुणसूत्र असमान होने के कारण... इन दोनों गुणसूत्र का पूर्ण Crossover नहीं... बल्कि केवल 5% तक ही Crossover होता है।

और 95% Y गुणसूत्र ज्यों का त्यों (intact) ही बना रहता है।

तो इस लिहाज से महत्त्वपूर्ण Y गुणसूत्र हुआ क्योंकि Y गुणसूत्र के विषय में हम निश्चिंत है कि... यह पुत्र में केवल पिता से ही आया है।

बस... इसी Y गुणसूत्र का पता लगाना ही गौत्र प्रणाली का एकमात्र उदेश्य है, जो हजारों/लाखों वर्षों पूर्व हमारे ऋषियों ने जान लिया था।

इस तरह ये बिल्कुल स्पष्ट है कि हमारी वैदिक गोत्र प्रणाली गुणसूत्र पर आधारित है अथवा Y गुणसूत्र को ट्रेस करने का एक माध्यम है।

उदाहरण के लिए... यदि किसी व्यक्ति का गोत्र शांडिल्य है तो उस व्यक्ति में विद्यमान Y गुणसूत्र शांडिल्य ऋषि से आया है...  या कहें कि शांडिल्य ऋषि उस Y गुणसूत्र के मूल हैं।

अब चूँकि...  Y गुणसूत्र स्त्रियों में नहीं होता है इसीलिए विवाह के पश्चात स्त्रियों को उसके पति के गोत्र से जोड़ दिया जाता है।

वैदिक/ हिन्दू संस्कृति में एक ही गोत्र में विवाह वर्जित होने का मुख्य कारण यह है कि एक ही गोत्र से होने के कारण वह पुरुष व स्त्री भाई-बहन कहलाएं क्योंकि उनका पूर्वज (ओरिजिन) एक ही है। 

परन्तु ये थोड़ी अजीब बात नहीं कि जिन स्त्री व पुरुष ने एक-दुसरे को कभी देखा तक नही और दोनों अलग-अलग देशों में परन्तु एक ही गोत्र में जन्मे, तो वो भाई-बहन हो गये..?

इसका मुख्य कारण एक ही गोत्र होने के कारण गुणसूत्रों में समानता है। 

आज की आनुवंशिक विज्ञान के अनुसार भी...  यदि सामान गुणसूत्रों वाले दो व्यक्तियों में विवाह हो तो उनके संतान... आनुवंशिक विकारों का साथ उत्पन्न होगी क्योंकि... ऐसे दंपत्तियों की संतान में एक जैसी विचारधारा, पसंद, व्यवहार आदि में कोई नयापन नहीं होता एवं ऐसे बच्चों में रचनात्मकता का अभाव होता है। 
यही कारण था कि शारीरिक विषमता के कारण अंग्रेज राज परिवार में आपसी विवाह बन्द हुए। 

 इस गोत्र का संवहन यानी उत्तराधिकार पुत्री को एक पिता प्रेषित न कर सके, इसलिये विवाह से पहले कन्यादान कराया जाता है और गोत्र मुक्त कन्या का पाणिग्रहण कर भावी वर अपने कुल गोत्र में उस कन्या को स्थान देता है। यही कारण था कि उस समय विधवा विवाह भी स्वीकार्य नहीं था, क्योंकि कुल गोत्र प्रदान करने वाला पति तो मृत्यु को प्राप्त कर चुका है।

इसीलिए कुंडली मिलान के समय वैधव्य पर खास ध्यान दिया जाता और मांगलिक कन्या होने पर ज्यादा सावधानी बरती जाती है।
आत्मज या आत्मजा का सन्धिविच्छेद तो कीजिये...
आत्म + ज  अथवा  आत्म + जा 
आत्म = मैं, ज या जा = जन्मा या जन्मी, यानी मैं ही जन्मा या जन्मी हूँ।

जैसा कि हम जानते हैं कि... पुत्री में 50% गुणसूत्र माता का और 50% पिता से आता है।

फिर, यदि पुत्री की भी पुत्री हुई तो... वह डीएनए 50% का 50% रह जायेगा...
और फिर... यदि उसके भी पुत्री हुई तो उस 25% का 50% डीएनए रह जायेगा।

इस तरह से सातवीं पीढ़ी में पुत्री जन्म में यह % घटकर 1% रह जायेगा.

अर्थात... एक पति-पत्नी का ही डीएनए सातवीं पीढ़ी तक पुनः पुनः जन्म लेता रहता है... और यही है "सात जन्मों के साथ का रहस्य"

लेकिन... यदि संतान पुत्र है तो... पुत्र का गुणसूत्र पिता के गुणसूत्रों का 95% गुणों को अनुवांशिकी में ग्रहण करता है और माता का 5% (जो कि किन्हीं परिस्थितियों में एक % से कम भी हो सकता है) डीएनए ग्रहण करता है...
और यही क्रम अनवरत चलता रहता है।

जिस कारण पति और पत्नी के गुणों युक्त डीएनए बारम्बार जन्म लेते रहते हैं... अर्थात, यह जन्म जन्मांतर का साथ हो जाता है।

इसीलिये अपने ही अंश को पित्तर जन्म जन्मान्तरों तक आशीर्वाद देते रहते हैं और हम भी अमूर्त रूप से उनके प्रति श्रध्येय भाव रखते हुए, आशीर्वाद ग्रहण करते रहते हैं और यही सोच हमें जन्मों तक स्वार्थी होने से बचाती है एवं सन्तानों की उन्नति के लिये समर्पित होने का सम्बल देती है।

एक बात और... माता-पिता यदि कन्यादान करते हैं तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि वे कन्या को कोई वस्तु समकक्ष समझते हैं..!
 बल्कि इस दान का विधान इस निमित किया गया है कि दूसरे कुल की कुलवधू बनने के लिये और उस कुल की कुलधात्री बनने के लिए उसे गोत्र मुक्त होना चाहिये। डीएनए मुक्त तो हो नहीं सकती क्योंकि भौतिक शरीर में वे डीएनए रहेंगे ही... इसलिये मायका अर्थात माता का रिश्ता बना रहता है।

 गोत्र यानी पिता के गोत्र का त्याग किया जाता है। तभी वह भावी वर को यह वचन दे पाती है कि उसके कुल की मर्यादा का पालन करेगी यानी उसके गोत्र और डीएनए को दूषित नहीं होने देगी, वर्णसंकर नहीं करेगी क्योंकि कन्या विवाह के बाद कुल वंश के लिये रज का रजदान करती है और मातृत्व को प्राप्त करती है। यही कारण है कि प्रत्येक विवाहित स्त्री माता समान पूज्यनीय हो जाती है।

यह रजदान भी कन्यादान की ही तरह कोटि यज्ञों के समतुल्य उत्तम दान माना गया है जो एक पत्नी द्वारा पति को दान किया जाता है।

आश्चर्य की बात है कि... हमारी ये परंपराएं हजारों-लाखों साल से चल रही है, जिसका सीधा-सा मतलब है कि हजारों लाखों साल पहले... जब पश्चिमी देशों के लोग नंग-धड़ंग जंगलों में रहा करते थे और चूहा, बिल्ली, कुत्ता वगैरह मारकर खाया करते थे...

उस समय भी हमारे पूर्वज ऋषि-मुनि... इंसानी शरीर में गुणसूत्र के विभक्तिकरण को समझ गए थे... और, हमें गोत्र सिस्टम में बांध लिया था।

इस बातों से एक बार फिर ये स्थापित होता है कि...
हमारा सनातन हिन्दू धर्म पूर्णतः वैज्ञानिक है।

बस, हमें ही इस बात का भान नहीं है।

असल में... अंग्रेजों ने जो हम लोगों के मन में जो कुंठा बोई है... उससे बाहर आकर हमें अपने पुरातन विज्ञान को फिर से समझकर, उसे अपनी नई पीढ़ियों को बताने और समझाने की जरूरत है।

नोट : मैं पुत्र और पुत्री अथवा स्त्री और पुरुष में कोई विभेद नहीं करता और मैं उनके बराबर के अधिकार का पुरजोर समर्थन करता हूँ।

लेख का उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ... गोत्र परंपरा एवं सात जन्मों के रहस्य को समझाना मात्र है।

🙏🏻 जय सनातन ⛳

रविवार, 12 जुलाई 2020

#आयुर्वेद_में_वर्णित_स्वर्ण (सोना) बनाने की कला

#स्वर्ण_निक्षेपण
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वैदिक मंत्र से धातु उत्पादन शक्ति
क्या आप जानते है
भारत को कभी सोने की चिड़िया कहा जाता था ! भारत पर लगभग 1200 वर्षों तक मुग़ल, फ़्रांसिसी, डच, पुर्तगाली, अंग्रेज और यूरोप एशिया के कई देशों ने शासन किया एवं इस दौरान भारत से लगभग 30 हजार लाख टन सोना भी लूटा ! यदि यह कहा जाए कि आज सम्पूर्ण विश्व में जो स्वर्ण आधारित सम्रद्धि दिखाई दे रही है वह भारत से लुटे हुए सोने पर ही टिकी हुई है तो गलत न होगा ! यह एक बड़ा रहस्यमय सवाल है कि आदिकाल से मध्यकाल तक जब भारत में एक भी सोने की खान नहीं हुआ करती थी तब भी भारत में इतना सोना आता कहाँ से था ?

सबसे रहस्यमय प्रश्न यह है कि आखिर भारत में इतना स्वर्ण आया कहाँ से ? इसका एकमात्र जवाब यह है कि भारत के अन्दर हमारे ऋषि मुनियों ने जो आयुर्वेद विकसित किया उसमे औषधिय उपचार के लिए स्वर्ण भस्म आदि बनाने के लिए वनस्पतियों द्वारा स्वर्ण बनाने की विद्या विकसित की थी ! 

आयुर्वेद में स्वर्ण बनाने की विधि 
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पवित्र हिन्दू धर्म ग्रन्थ ऋग्वेद पर ही पूरे विश्व का सम्पूर्ण विज्ञान आधारित है ! ऋग्वेद के उपवेद आयुर्वेद में स्वर्ण बनाने की विधि बताई गयी है ! राक्षस दैत्य दानवों के गुरु जिन्हें शुक्राचार्य के नाम से भी संबोधित किया जाता है उन्होंने ऋग्वेदीय उपनिषद की सूक्त के माध्यम से स्वर्ण बनाने की विधि बतायी है ! श्री सूक्त के मंत्र व प्रयोग बहुत गुप्त व सांकेतिक भाषा में बताया गया है ! 
सम्पूर्ण सूक्त में 16 मंत्र है !

श्रीसूक्त का पहला मंत्र
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ॐ हिरण्य्वर्णां हरिणीं सुवर्णस्त्र्जां।
चंद्रां हिरण्यमणीं लक्ष्मीं जातवेदो मआव॥

शब्दार्थ – हिरण्य्वर्णां- कूटज, हरिणीं- मजीठ, स्त्रजाम- सत्यानाशी के बीज, चंद्रा- नीला थोथा, हिरण्यमणीं- गंधक, जातवेदो- पाराम, आवह- ताम्रपात्र।

श्रीसूक्त का दूसरा मंत्र
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तां मआवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीं।
यस्या हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहं॥

शब्दार्थ – तां- उसमें, पगामिनीं- अग्नि, गामश्वं- जल, पुरुषानहं- बीस।

श्रीसूक्त का तीसरा मंत्र
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अश्व पूर्णां रथ मध्यां हस्तिनाद प्रमोदिनीं।
श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मा देवीजुषातम॥

शब्दार्थ – अश्वपूर्णां- सुनहरी परत, रथमध्यां- पानी के ऊपर, हस्तिनाद- हाथी के गर्दन से निकलने वाली गंध, प्रमोदिनीं- नीबू का रस, श्रियं- सोना, देवी- लक्ष्मी, पह्वये- समृद्धि, जुषातम- प्रसन्नता।

(विशेष सावधानियां - इस विधि को करने से पहले पूरी तरह समझ लेना आवश्यक है ! इसे किसी योग्य वैद्याचार्य की देख रेख में ही करना चाहिए ! स्वर्ण बनाने की प्रक्रिया के दौरान हानिकारक गैसें निकलती है जिससे असाध्य रोग होना संभव है अतः कर्ता को अत्यंत सावधान रहना आवश्यक है !)

एक दिन में 100 किलो सोना बनाते थे महान रसायन आयुर्वेदाचार्य नागार्जुन 
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नागार्जुन का जन्म सन 931 में गुजरात में सोमनाथ के निकट दैहक नामक किले में हुआ था ! नागार्जुन एक प्रसिद्द रसायनज्ञ थे ! 
उनके बारे में लोगों में यह विश्वास था कि वह ईश्वर के सन्देशवाहक है ! नागार्जुन ने रस रत्नाकर नामक पुस्तक लिखी ! इस पुस्तक की ख़ास बात यह है कि नागार्जुन ने यह पुस्तक उनके और देवताओं के बीच बातचीत की शैली में लिखी थी ! इस पुस्तक में रस (पारे के यौगिक) बनाने के प्रयोग दिए गए है !

 इस पुस्तक में देश में धातु कर्म और कीमियागिरी के स्तर का सर्वेक्षण भी दिया गया था ! इस पुस्तक में सोना, चांदी, टिन और ताम्बे की कच्ची धातु निकालने और उसे शुद्ध करने के तरीके भी बताये गए है !

पारे से संजीवनी और अन्य पदार्थ बनाने के लिए नागार्जुन ने पशुओं, वनस्पति तत्वों, अम्ल और खनिजों का भी उपयोग किया !

 पुस्तक में विस्तार पूर्वक दिया गया है कि अन्य धातुएं सोने में कैसे बदल सकती है ! यदि सोना न भी बने तो रसागम विशमन द्वारा ऐसी धातुएं बनायी जा सकती है जिनकी पीली चमक सोने जैसी ही होती है ! 

नागार्जुन ने "सुश्रुत संहिता" के पूरक के रूप में "उत्तर तंत्र" नामक पुस्तक भी लिखी ! इसके अलावा उन्होंने कक्षपूत तंत्र, योगसर एवं गोपाष्टक पुस्तकें भी लिखी !

कहा जाता है कि नागार्जुन एक दिन में 100 किलो सोना बनाया करते थे और उनको सोना बनाने में इस स्तर की महारत थी कि वह वनस्पतियों के अलावा अन्य पदार्थों तक से सोना बना देते थे ! लेकिन दुर्भाग्य है कि मूर्ख मुग़ल लुटेरों ने तक्षशिला और नालंदा जैसे विश्वविद्यालयों के रहस्यपूर्ण ग्रंथों को जला दिया !

 गांधी का दुराग्रह देखिए कैसे नापसंद करता है वैदिक विज्ञान को कैसे मंत्र का विरोध करता है
गाँधी के सम्मुख कृष्णपाल शर्मा ने दो सो तोला सोना बनाकर स्वतंत्रता आन्दोलन हेतु दान कर दी राशि !

बनारस के आयुर्वेदाचार्य श्री कृष्णपाल शर्मा ने  गांधी के समक्ष स्वर्ण बनाने की आयुर्वेदिक प्रक्रिया का वर्णन किया तो गांधी ने सार्वजनिक रूप से उनका उपहास कर दिया, जिससे वह अपनी व आयुर्वेद की प्रतिष्ठा को दाव पर लगा हुआ देख तत्काल बनारस गए और वहां से कुछ वनस्पति पदार्थों को लेकर पुनः दिल्ली के बिरला मंदिर के अतिथि गृह में वापस आये और दिनांक 26 मई 1940 को गांधीजी, उनके सचिव श्री महादेव देसाई तथा विख्यात व्यवसाई श्री युगल किशोर बिडला की उपस्तिथि में उन पदार्थों के समिश्रण को बनाकर गाय के उपले में पकाकर मात्र 45 मिनट में स्वर्ण बना दिया ! जिसका शिलालेख आज भी बिरला मंदिर के अतिथि गृह पर लगा हुआ है ! 

इसलिए मुर्ख हिंदू उसको जाती का पिता कहते हैं किताब में हमको महापुरुष कहा जाता है और बचपन में विद्यालय में पढ़ाया जाता है जिसका ज्ञान नहीं होता है वह फिर महापुरुष कैसे बन जाता है इसलिए हमारे मुल्क का पतन हो रहा है॥
इसी तरह 6 नवम्बर 1983 के हिन्दुस्तान समाचार पत्र के अनुसार सन 1942 ई. में श्री कृष्णपाल शर्मा ने ऋषिकेश में मात्र 45 मिनट में पारा से दो सौ तोला सोने का निर्माण करके सबको आश्चर्य में डाल दिया ! उस समय वह सोना 75 हजार रुपये में बिका जो धनराशि स्वतंत्रता आन्दोलन के लिए दान कर दी 
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---#राज_सिंह---

#अपनी संस्कृति को जाने

शुक्रवार, 10 जुलाई 2020

भोजन करने के नियम -

1.पांच अंगो ( दो हाथ , २ पैर , मुख ) को अच्छी तरह से धो कर ही भोजन करे !

2. गीले पैरों खाने से आयु में वृद्धि होती है !

3. प्रातः और सायं ही भोजन का विधान है !क्योंकि पाचन क्रिया की जठराग्नि सूर्योदय से 2  घंटे बाद तक एवं सूर्यास्त से 2 : 3 0 घंटे पहले तक प्रवल रहती है

4. पूर्व और उत्तर दिशा की ओर मुह करके ही खाना चाहिए !

5. दक्षिण दिशा की ओर किया हुआ भोजन प्रेत को प्राप्त होता है !

6 . पश्चिम दिशा की ओर किया हुआ भोजन खाने से रोग की वृद्धि होती है !

7. शैय्या पर , हाथ पर रख कर , टूटे फूटे वर्तनो में भोजन नहीं करना चाहिए !

8. मल मूत्र का वेग होने पर,कलह के माहौल में,अधिक शोर में,पीपल,वट वृक्ष के नीचे,भोजन नहीं करना चाहिए !

9 परोसे हुए भोजन की कभी निंदा नहीं करनी चाहिए !

10. खाने से पूर्व अन्न देवता , अन्नपूर्णा माता की स्तुति करके, उनका धन्यवाद देते हुए तथा सभी भूखों को भोजन प्राप्त हो ईश्वर से ऐसी प्रार्थना करके भोजन करना चाहिए।

11. भोजन बनने वाला स्नान करके ही शुद्ध मन से, मंत्र जप करते हुए ही रसोई में भोजन बनाये और सबसे पहले ३ रोटिया अलग निकाल कर ( गाय , कुत्ता और कौवे हेतु ) फिर अग्नि देव का भोग लगा कर ही घर वालो को खिलाये !

12. ईर्ष्या, भय, क्रोध, लोभ, रोग, दीन भाव, द्वेष भाव के साथ किया हुआ भोजन कभी पचता नहीं है।

13. आधा खाया हुआ फल, मिठाईया आदि पुनः नहीं खानी चाहिए।

14. खाना छोड़ कर उठ जाने पर दुबारा भोजन नहीं करना चाहिए।

15. भोजन के समय मौन रहें।

16. भोजन को बहुत चबा-चबा कर खाएं।

7. रात्री में भरपेट न खाएं।

18. गृहस्थ को ३२ ग्रास से ज्यादा न खाना चाहिए।

19. सबसे पहले मीठा, फिर नमकीन, अंत में कडुवा खाना चाहिए।

20. सबसे पहले रस दार, बीच में गरिस्थ, अंत में द्राव्य पदार्थ ग्रहण करें।

21. थोड़ा खाने वाले को – आरोग्यता, बल, सुख, सुन्दर संतान और सौंदर्य प्राप्त होता हैं।

22. जिसने ढिंढोरा पीट कर खिलाया हो वहा कभी न खाएं।

23. कुत्ते का छुवा, बासी, मुंह से फूक मरकर ठंडा किया, बाल गिरा हुवा भोजन, अनादर युक्त, अवहेलना पूर्ण परोसा गया भोजन कभी न करें।

24. कंजूस का, राजा का, वेश्या के हाथ का दिया भोजन कभी नहीं करना चाहिए।

यह नियम आप जरुर अपनाये और फर्क देखें...

शनिवार, 4 जुलाई 2020

क्यों है 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ' का "गुरु" 'भगवा ध्वज' ? ⛳

संघ तत्व पूजा करता है, व्यक्ति पूजा नहीं..! व्यक्ति शाश्वत नहीं, समाज शाश्वत है। व्यक्ति महान है। अपने समाज में अनेक विभूतियां हुई है, आज भी अनेक विद्यमान है। उन सारी महान विभूतियों के चरणों में शत-शत प्रणाम, परन्तु अपने राष्ट्रीय समाज को, संपूर्ण समाज को, संपूर्ण हिन्दू समाज को राष्ट्रीयता के आधार पर, मातृभूमि के आधार पर संगठित करने का कार्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कर रहा है। इस नाते किसी व्यक्ति को गुरुस्थान पर न रखते हुए भगवाध्वज को ही हमने गुरु माना है।

        तत्वपूजा - तेज, ज्ञान, त्याग का प्रतीक... हमारे समाज की सांस्कृतिक जीवनधारा में यज्ञ का बड़ा महत्व रहा है। यज्ञ शब्द के अनेक अर्थ है। व्यक्तिगत जीवन को समर्पित करते हुए समष्टिजीवन को परिपुष्ट करने के प्रयास को यज्ञ कहा गया है। सद्गुण रूप अग्नि में अयोग्य, अनिष्ट, अहितकर बातों को होम करना यज्ञ है। श्रद्धामय, त्यागमय, सेवामय, तपस्यामय जीवन व्यतीत करना भी यज्ञ है। 

        यज्ञ का अधिष्ठाता देव यज्ञ है। अग्नि की प्रतीक है ज्वाला और ज्वालाओं का प्रतिरूप है, अपना परम पवित्र "भगवाध्वज" हम श्रद्धा के उपासक है, अन्धविश्वास के नहीं..! हम ज्ञान के उपासक है, अज्ञान के नहीं..! जीवन के हर क्षेत्र में विशुद्ध रूप में ज्ञान की प्रतिष्ठापना करना ही हमारी संस्कृति की विशेषता रही हैं।

       सच्ची पूजा - तेल जले, बाती जले... लोग कहे दीप जले...🪔 जब दीप जलता हैं, हम कहते है या देखते है कि दीप जल रहा हैं लेकिन सही अर्थ में तेल जलता है, बाती जलती है, वे अपने आपको समर्पित करते है दीप के लिए... इसी तरह व्यक्ति के लिए कोई नाम नहीं, प्रचार नहीं परन्तु दोनों के जलने के कारण ही 'प्रकाश' मिलता है - यह है समर्पण...

       कारगिल युद्ध में मेजर पद्मपाणी आचार्य, गनर रविप्रसाद जैसे असंख्य वीर पुत्रों ने भारत माता के लिए अपने आपको समर्पित किया। मंगलयान में अनेक वैज्ञानिकों ने अपने व्यक्तिगत, पारिवारिक सुख की तिलाञ्जलि देकर अपनी सारी शक्ति समर्पित की...

          प्राचीन काल मे महर्षि दधीचि ने समाज कल्याण के लिए, संरक्षण के लिए अपने जीवन को ही समर्पित कर दिया था। समर्पण अपने राष्ट्र की, समाज की परंपरा है। समर्पण भगवान की आराधना है। गर्भवती माता अपनी संतान के सुख के लिए अनेक नियमों का पालन करती है, अपने परिवार में माता, पिता, परिवार के विकास के लिए अपने जीवन को समर्पित करती है। 

        खेती करने वाले किसान और श्रमिक के समर्पण के कारण ही सबको अन्न मिलता है। करोड़ों श्रमिकों के समर्पण के कारण ही सड़क मार्ग, रेल मार्ग तैयार होते हैं।

       शिक्षक-आचार्यो के समर्पण के कारण ही करोड़ों लोगो का ज्ञानवर्धन होता है। डाक्टरो के समर्पण सेवा के कारण ही रोगियों को चिकित्सा मिलती है। इस नाते सभी काम अपने समान में आराधना भावना से, समर्पण भावना से होते थे। पैसा केवल जीने के लिए लिया जाता था। सभी काम आराधना भावना से समर्पण भावना से ही होते थे। परंतु आज आचरण में हृास दिखता है।

        राष्ट्राय स्वाहा- इदं न मम इसलिए परम पूज्यनीय डॉ. हेडगेवार जी ने फिर से संपूर्ण समाज में, प्रत्येक व्यक्ति में समर्पण भाव जगाने के लिए, गुरुपूजा की, भगवाध्वज की पूजा की परंपरा प्रारंभ की...🙏🏻⛳


रविवार, 31 मई 2020

सेक्स क्या हैं..?

सेक्स शब्द सुनते ही बहुतों के चेहरे पर मुस्कान आ जाती हैं, मन के अधकचरे उमंग हिलोरे मारते हैं किंतु सामने चुप्पी ही रहती हैं, लोग इस मुद्दे पर खुलकर सामने नहीं आते, आना भी नहीं चाहिए क्योंकि कुछ चीज़ पर्दे में रहे तो ही उचित हैैं।

किन्तु सेक्स हैं क्या..?
क्या यह उतना ही गन्दा हैं जितना हम समझते हैं..? 
गन्दा नहीं हैं तो लगता क्यों हैं..? 
सेक्स शब्द अंग्रेजो की देन हैं, जो पिशाच मानसिकता के होते हैं और वासना के मद में सन्न रहते हैं।
हमारे यहां तो "ऋतुदान" होता हैं, वैदिक परंपरा के अनुसार...

ऋतुदान कुछ ऐसा है जैसे कृषि, समय आने पर किसान जमीन में बीज बोता हैं। तय समय पर अंकुर फुट जाते हैं और एक फसल तैयार होती हैं।
पूरी प्रक्रिया में कहीं कुछ गन्दा लगा..?

ऐसे ही सन्तान की इच्छा होने पर ऋतुदान किया जाता हैं, जिसके बाद संतान का जन्म होता हैं।
यह भी तो कृषि ही तो है... स्त्री का गर्भ धरती, वीर्य वह बीज और फसल तैयार होती हैं।
इसमे गन्दा क्या हैं..? मनुष्य को सन्तान चाहिए क्योंकि वंश आगे बढ़ाना हैं, कृषि पेट भरने के लिए करते हैं।
जीवन में दोनों जरूरी हैं।
यह भी यज्ञ हैं, उसकी तरह पवित्र किन्तु आधुनिक लोगों ने इस यज्ञ को सेक्स का नाम दे दिया।

यह अलग विषय कि इसे पर्दे में रखा गया जो कि जरूरी भी हैं क्योंकि समय आने पर ही ऋतुदान उत्तम होता हैं।
ऐसे रोज़-रोज़, दिन-रात इसमें ही लगे रहते हैं... हमसे अच्छे तो पशु हैं क्योंकि वह आज भी वेदोक्त नियम पर चलते हैं।
हम में तो पशुता भी नहीं बची हैं..! आज देखो तो पोर्न के नाम पर लाखों युवा का भविष्य बर्बाद किया जा रहा हैं, पीढ़ियों को नपुंसक बनाया जा रहा हैं। यह सब असमय सेक्स का ही परिणाम हैं।
हमारी वैदिक परंपरा तो ब्रह्मचर्य रखने को कहती हैं और समय आने पर ऋतुदान
कितनी उत्तम सभ्यता हैं, गर्व होता है इसपर...
🙏🏻 सत्य सनातन धर्म की जय

शुक्रवार, 29 मई 2020

स्वस्तिक चिन्ह और उसका महत्व...

किसी भी शुभ कार्य को आरंभ करने से पहले हिन्दू धर्म में स्वास्तिक का चिन्ह बनाकर उसकी पूजा करने का महत्व है। मान्यता है कि ऐसा करने से कार्य सफल होता है। स्वास्तिक के चिन्ह को मंगल प्रतीक भी माना जाता है। स्वास्तिक शब्द को ‘सु’ और ‘अस्ति’ का मिश्रण योग माना जाता है। यहां ‘सु’ का अर्थ है शुभ और ‘अस्ति’ से तात्पर्य है होना। अर्थात स्वास्तिक का मौलिक अर्थ है ‘शुभ हो’, ‘कल्याण हो।

शुभ कार्य

यही कारण है कि किसी भी शुभ कार्य के दौरान स्वास्तिक को पूजना अति आवश्यक माना गया है। लेकिन असल में स्वस्तिक का यह चिन्ह क्या दर्शाता है, इसके पीछे ढेरों तथ्य हैं। स्वास्तिक में चार प्रकार की रेखाएं होती हैं, जिनका आकार एक समान होता है।

चार रेखाएं

मान्यता है कि यह रेखाएं चार दिशाओं - पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण की ओर इशारा करती हैं। लेकिन हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यह रेखाएं चार वेदों - ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद और सामवेद का प्रतीक हैं। कुछ यह भी मानते हैं कि यह चार रेखाएं सृष्टि के रचनाकार भगवान ब्रह्मा के चार सिरों को दर्शाती है।

चार देवों का प्रतीक

इसके अलावा इन चार रेखाओं की चार पुरुषार्थ, चार आश्रम, चार लोक और चार देवों यानी कि भगवान ब्रह्मा, विष्णु, महेश (भगवान शिव) और गणेश से तुलना की गई है। स्वास्तिक की चार रेखाओं को जोड़ने के बाद मध्य में बने बिंदु को भी विभिन्न मान्यताओं द्वारा परिभाषित किया जाता है।

मध्य स्थान

मान्यता है कि यदि स्वास्तिक की चार रेखाओं को भगवान ब्रह्मा के चार सिरों के समान माना गया है, तो फलस्वरूप मध्य में मौजूद बिंदु भगवान विष्णु की नाभि है, जिसमें से भगवान ब्रह्मा प्रकट होते हैं। इसके अलावा यह मध्य भाग संसार के एक धुर से शुरू होने की ओर भी इशारा करता है।

सूर्य भगवान का चिन्ह

स्वास्तिक की चार रेखाएं एक घड़ी की दिशा में चलती हैं, जो संसार के सही दिशा में चलने का प्रतीक है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यदि स्वास्तिक के आसपास एक गोलाकार रेखा खींच दी जाए, तो यह सूर्य भगवान का चिन्ह माना जाता है। वह सूर्य देव जो समस्त संसार को अपनी ऊर्जा से रोशनी प्रदान करते हैं।

बौद्ध धर्म में स्वास्तिक

हिन्दू धर्म के अलावा स्वास्तिक का और भी कई धर्मों में महत्व है। बौद्ध धर्म में स्वास्तिक को अच्छे भाग्य का प्रतीक माना गया है। यह भगवान बुद्ध के पग चिन्हों को दिखाता है, इसलिए इसे इतना पवित्र माना जाता है। यही नहीं, स्वास्तिक भगवान बुद्ध के हृदय, हथेली और पैरों में भी अंकित है।

जैन धर्म में स्वास्तिक

वैसे तो हिन्दू धर्म में ही स्वास्तिक के प्रयोग को सबसे उच्च माना गया है लेकिन हिन्दू धर्म से भी ऊपर यदि स्वास्तिक ने कहीं मान्यता हासिल की है तो वह है जैन धर्म। हिन्दू धर्म से कहीं ज्यादा महत्व स्वास्तिक का जैन धर्म में है। जैन धर्म में यह सातवं जिन का प्रतीक है, जिसे सब तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के नाम से भी जानते हैं। श्वेताम्बर जैनी स्वास्तिक को अष्ट मंगल का मुख्य प्रतीक मानते हैं।

हड़प्पा सभ्यता में स्वास्तिक

सिंधु घाटी की खुदाई के दौरान स्वास्तिक प्रतीक चिन्ह मिला। ऐसा माना जाता है हड़प्पा सभ्यता के लोग भी सूर्य पूजा को महत्व देते थे। हड़प्पा सभ्यता के लोगों का व्यापारिक संबंध ईरान से भी था। जेंद अवेस्ता में भी सूर्य उपासना का महत्व दर्शाया गया है। प्राचीन फारस में स्वास्तिक की पूजा का चलन सूर्योपासना से जोड़ा गया था, जो एक काबिल-ए-गौर तथ्य है।

लाल रंग ही क्यों

यह सभी तथ्य हमें बताते हैं कि केवल भारत में ही नहीं बल्कि विश्व के कोने-कोने में स्वास्तिक चिन्ह ने अपनी जगह बनाई है। फिर चाहे वह सकारात्मक दृष्टि से हो या नकारात्मक रूप से। परन्तु भारत में स्वास्तिक चिन्ह को सम्मान दिया जाता है और इसका विभिन्न रूप से इस्तेमाल किया जाता है। यह जानना बेहद रोचक होगा कि केवल लाल रंग से ही स्वास्तिक क्यों बनाया जाता है?

लाल रंग का सर्वाधिक महत्व

भारतीय संस्कृति में लाल रंग का सर्वाधिक महत्व है और मांगलिक कार्यों में इसका प्रयोग सिन्दूर, रोली या कुमकुम के रूप में किया जाता है। लाल रंग शौर्य एवं विजय का प्रतीक है। लाल रंग प्रेम, रोमांच व साहस को भी दर्शाता है। धार्मिक महत्व के अलावा वैज्ञानिक दृष्टि से भी लाल रंग को सही माना जाता है।

शारीरिक व मानसिक स्तर

लाल रंग व्यक्ति के शारीरिक व मानसिक स्तर को शीघ्र प्रभावित करता है। यह रंग शक्तिशाली व मौलिक है। हमारे सौर मण्डल में मौजूद ग्रहों में से एक मंगल ग्रह का रंग भी लाल है। यह एक ऐसा ग्रह है जिसे साहस, पराक्रम, बल व शक्ति के लिए जाना जाता है। यह कुछ कारण हैं जो स्वास्तिक बनाते समय केवल लाल रंग के उपयोग की ही सलाह देते हैं।

शुक्रवार, 22 मई 2020

स्त्रियों के सोलह श्रृंगार और उनका महत्व...



दिब्य बसन भूषन पहिराए। जे नित नूतन अमल सुहाए॥
कह रिषिबधू सरस मृदु बानी। नारिधर्म कछु ब्याज बखानी॥

श्री राम चरित मानस के अनुसार माता अनसूया ने माता जानकी को ऐसे दिव्य वस्त्र और आभूषण पहनाए, जो नित्य-नए निर्मल और सुहावने बने रहते हैं और फिर माता अनसूया ने अपने मधुर और कोमल वाणी से स्त्रियों के गुण धर्म का बखान किया।। 

हिन्दू धर्म में महिलाओं के लिए 16 श्रृंगार का विशेष महत्व है। विवाह के बाद स्त्री इन सभी चीजों को अनिवार्य रूप से धारण करती है। हर एक चीज का अलग महत्व है। हर स्त्री चाहती थी की वे सज धज कर सुन्दर लगे यह उनके रूप को ओर भी अधिक सौन्दर्यवान बना देता है।

यहां इन सोलह श्रृंगार के बार मे विस्तृत वर्णन किया गया है।

पहला श्रृंगार:👉 बिंदी
संस्कृत भाषा के बिंदु शब्द से बिंदी की उत्पत्ति हुई है। भवों के बीच रंग या कुमकुम से लगाई जाने वाली भगवान शिव के तीसरे नेत्र का प्रतीक मानी जाती है। सुहागिन स्त्रियां कुमकुम या सिंदूर से अपने ललाट पर लाल बिंदी लगाना जरूरी समझती हैं। इसे परिवार की समृद्धि का प्रतीक माना जाता है।

धार्मिक मान्यता
बिंदी को त्रिनेत्र का प्रतीक माना गया है. दो नेत्रों को सूर्य व चंद्रमा माना गया है, जो वर्तमान व भूतकाल देखते हैं तथा बिंदी त्रिनेत्र के प्रतीक के रूप में भविष्य में आनेवाले संकेतों की ओर इशारा करती है।

वैज्ञानिक मान्यता
विज्ञान के अनुसार, बिंदी लगाने से महिला का आज्ञा चक्र सक्रिय हो जाता है. यह महिला को आध्यात्मिक बने रहने में तथा आध्यात्मिक ऊर्जा को बनाए रखने में सहायक होता है. बिंदी आज्ञा चक्र को संतुलित कर दुल्हन को ऊर्जावान बनाए रखने में सहायक होती है।

दूसरा श्रृंगार: सिंदूर
उत्तर भारत में लगभग सभी प्रांतों में सिंदूर को स्त्रियों का सुहाग चिन्ह माना जाता है और विवाह के अवसर पर पति अपनी पत्नी के मांग में सिंदूर भर कर जीवन भर उसका साथ निभाने का वचन देता है।

धार्मिक मान्यता
मान्यताओं के अनुसार, सौभाग्यवती महिला अपने पति की लंबी उम्र के लिए मांग में सिंदूर भरती है. लाल सिंदूर महिला के सहस्रचक्र को सक्रिय रखता है. यह महिला के मस्तिष्क को एकाग्र कर उसे सही सूझबूझ देता है।

वैज्ञानिक मान्यता
वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार, सिंदूर महिलाओं के रक्तचाप को नियंत्रित करता है. सिंदूर महिला के शारीरिक तापमान को नियंत्रित कर उसे ठंडक देता है और शांत रखता है।

तीसरा श्रृंगार: काजल
काजल आँखों का श्रृंगार है. इससे आँखों की सुन्दरता तो बढ़ती ही है, काजल दुल्हन और उसके परिवार को लोगों की बुरी नजर से भी बचाता है।

धार्मिक मान्यता
मान्यताओं के अनुसार, काजल लगाने से स्त्री पर किसी की बुरी नज़र का कुप्रभाव नहीं पड़ता. काजल से आंखों से संबंधित कई रोगों से बचाव होता है. काजल से भरी आंखें स्त्री के हृदय के प्यार व कोमलता को दर्शाती हैं।

वैज्ञानिक मान्यता
वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार, काजल आंखों को ठंडक देता है. आंखों में काजल लगाने से नुक़सानदायक सूर्य की किरणों व धूल-मिट्टी से आंखों का बचाव होता है।

चौथा श्रृंगार: मेंहदी
मेहंदी के बिना सुहागन का श्रृंगार अधूरा माना जाता है। शादी के वक्त दुल्हन और शादी में शामिल होने वाली परिवार की सुहागिन स्त्रियां अपने पैरों और हाथों में मेहंदी रचाती है। ऐसा माना जाता है कि नववधू के हाथों में मेहंदी जितनी गाढ़ी रचती है, उसका पति उसे उतना ही ज्यादा प्यार करता है।

धार्मिक मान्यता
मानयताओं के अनुसार, मेहंदी का गहरा रंग पति-पत्नी के बीच के गहरे प्रेम से संबंध रखता है. मेहंदी का रंग जितना लाल और गहरा होता है, पति-पत्नी के बीच प्रेम उतना ही गहरा होता है।

वैज्ञानिक मान्यता
वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार मेहंदी दुल्हन को तनाव से दूर रहने में सहायता करती है. मेहंदी की ठंडक और ख़ुशबू दुल्हन को ख़ुश व ऊर्जावान बनाए रखती है।

पांचवां श्रृंगारः शादी का जोड़ा
उत्तर भारत में आम तौर से शादी के वक्त दुल्हन को जरी के काम से सुसज्जित शादी का लाल जोड़ा (घाघरा, चोली और ओढ़नी) पहनाया जाता है। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में फेरों के वक्त दुल्हन को पीले और लाल रंग की साड़ी पहनाई जाती है। इसी तरह महाराष्ट्र में हरा रंग शुभ माना जाता है और वहां शादी के वक्त दुल्हन हरे रंग की साड़ी मराठी शैली में बांधती हैं।

धार्मिक मान्यता
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, लाल रंग शुभ, मंगल व सौभाग्य का प्रतीक है, इसीलिए शुभ कार्यों में लाल रंग का सिंदूर, कुमकुम, शादी का जोड़ा आदि का प्रयोग किया जाता है।

वैज्ञानिक मान्यता
विज्ञान के अनुसार, लाल रंग शक्तिशाली व प्रभावशाली है, इसके उपयोग से एकाग्रता बनी रहती है. लाल रंग आपकी भावनाओं को नियंत्रित कर आपको स्थिरता देता है।

छठा श्रृंगार: गजरा

दुल्हन के जूड़े में जब तक सुगंधित फूलों का गजरा न लगा हो तब तक उसका श्रृंगार फीका सा लगता है।दक्षिण भारत में तो सुहागिन स्त्रियां प्रतिदिन अपने बालों में हरसिंगार के फूलों का गजरा लगाती है।

धार्मिक मान्यता
मान्यताओं के अनुसार, गजरा दुल्हन को धैर्य व ताज़गी देता है. शादी के समय दुल्हन के मन में कई तरह के विचार आते हैं, गजरा उन्हीं विचारों से उसे दूर रखता है और ताज़गी देता है।

वैज्ञानिक मान्यता
विज्ञान के अनुसार, चमेली के फूलों की महक हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करती है. चमेली की ख़ुशबू तनाव को दूर करने में सबसे ज़्यादा सहायक होती है।

सातवां श्रृंगार: मांग टीका
मांग के बीचों-बीच पहना जाने वाला यह स्वर्ण आभूषण सिंदूर के साथ मिलकर वधू की सुंदरता में चार चांद लगा देता है। ऐसी मान्यता है कि नववधू को मांग टीका सिर के ठीक बीचों-बीच इसलिए पहनाया जाता है कि वह शादी के बाद हमेशा अपने जीवन में सही और सीधे रास्ते पर चले और वह बिना किसी पक्षपात के सही निर्णय ले सके।

धार्मिक मान्यता
मान्यताओं के अनुसार, मांगटीका महिला के यश व सौभाग्य का प्रतीक है. मांगटीका यह दर्शाता है कि महिला को अपने से जुड़े लोगों का हमेशा आदर करना है।

वैज्ञानिक मान्यता
वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार मांगटीका महिलाओं के शारीरिक तापमान को नियंत्रित करता है, जिससे उनकी सूझबूझ व निर्णय लेने की क्षमता बढ़ती है।

आठवां श्रृंगारः नथ
विवाह के अवसर पर पवित्र अग्नि में चारों ओर सात फेरे लेने के बाद देवी पार्वती के सम्मान में नववधू को नथ पहनाई जाती है। ऐसी मान्यता है कि सुहागिन स्त्री के नथ पहनने से पति के स्वास्थ्य और धन-धान्य में वृद्धि होती है। उत्तर भारतीय स्त्रियां आमतौर पर नाक के बायीं ओर ही आभूषण पहनती है, जबकि दक्षिण भारत में नाक के दोनों ओर नाक के बीच के हिस्से में भी छोटी-सी नोज रिंग पहनी जाती है, जिसे बुलाक कहा जाता है। नथ आकार में काफी बड़ी होती है इसे हमेशा पहने रहना असुविधाजनक होता है, इसलिए सुहागन स्त्रियां इसे शादी-व्याह और तीज-त्यौहार जैसे खास अवसरों पर ही पहनती हैं, लेकिन सुहागिन स्त्रियों के लिए नाक में आभूषण पहनना अनिर्वाय माना जाता है। इसलिए आम तौर पर स्त्रियां नाक में छोटी नोजपिन पहनती हैं, जो देखने में लौंग की आकार का होता है। इसलिए इसे लौंग भी कहा जाता है।

धार्मिक मान्यता
हिंदू धर्म में जिस महिला का पति मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, उसकी नथ को उतार दिया जाता है। इसके अलावा हिंदू धर्म के अनुसार नथ को माता पार्वती को सम्मान देने के लिये भी पहना जाता है।

वैज्ञानिक मान्यता
जिस प्रकार शरीर के अलग-अलग हिस्सों को दबाने से एक्यूप्रेशर का लाभ मिलता है, ठीक उसी प्रकार नाक छिदवाने से एक्यूपंक्चर का लाभ मिलता है। इसके प्रभाव से श्वास संबंधी रोगों से लड़ने की शक्ति बढ़ती है। कफ, सर्दी-जुकाम आदि रोगों में भी इससे लाभ मिलते हैं। आयुर्वेद के अनुसार नाक के एक प्रमुख हिस्से पर छेद करने से स्त्रियों को मासिक धर्म से जुड़ी कई परेशानियों में राहत मिल सकती है। आमतौर पर लड़कियां सोने या चांदी से बनी नथ पहनती हैं। ये धातुएं लगातार हमारे शरीर के संपर्क में रहती हैं तो इनके गुण हमें प्राप्त होते हैं। आयुर्वेद में स्वर्ण भस्म और रजत भस्म बहुत सी बीमारियों में दवा का काम करती है।

नौवां श्रृंगारः कर्णफूल
कान में पहने जाने वाला यह आभूषण कई तरह की सुंदर आकृतियों में होता है, जिसे चेन के सहारे जुड़े में बांधा जाता है। विवाह के बाद स्त्रियों का कानों में कणर्फूल (ईयरिंग्स) पहनना जरूरी समझा जाता है। इसके पीछे ऐसी मान्यता है कि विवाह के बाद बहू को दूसरों की, खासतौर से पति और ससुराल वालों की बुराई करने और सुनने से दूर रहना चाहिए।

धार्मिक मान्यता
मान्यताओं के अनुसार, कर्णफूल यानी ईयररिंग्स महिला के स्वास्थ्य से सीधा संबंध रखते हैं. ये महिला के चेहरे की ख़ूबसूरती को निखारते हैं. इसके बिना महिला का शृंगार अधूरा रहता है।

वैज्ञानिक मान्यता
वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार हमारे कर्णपाली (ईयरलोब) पर बहुत से एक्यूपंक्चर व एक्यूप्रेशर पॉइंट्स होते हैं, जिन पर सही दबाव दिया जाए, तो माहवारी के दिनों में होनेवाले दर्द से राहत मिलती है. ईयररिंग्स उन्हीं प्रेशर पॉइंट्स पर दबाव डालते हैं. साथ ही ये किडनी और मूत्राशय (ब्लैडर) को भी स्वस्थ बनाए रखते हैं।

दसवां श्रृंगार: हार या मंगल सूत्र
गले में पहना जाने वाला सोने या मोतियों का हार पति के प्रति सुहागन स्त्री के वचनवद्धता का प्रतीक माना जाता है। हार पहनने के पीछे स्वास्थ्यगत कारण हैं। गले और इसके आस-पास के क्षेत्रों में कुछ दबाव बिंदु ऐसे होते हैं जिनसे शरीर के कई हिस्सों को लाभ पहुंचता है। इसी हार को सौंदर्य का रूप दे दिया गया है और श्रृंगार का अभिन्न अंग बना दिया है। दक्षिण और पश्चिम भारत के कुछ प्रांतों में वर द्वारा वधू के गले में मंगल सूत्र पहनाने की रस्म की वही अहमियत है।

धार्मिक मान्यता
ऐसी मान्यता है कि मंगलसूत्र सकारात्मक ऊर्जा को अपनी ओर आकर्षित कर महिला के दिमाग़ और मन को शांत रखता है. मंगलसूत्र जितना लंबा होगा और हृदय के पास होगा वह उतना ही फ़ायदेमंद होगा. मंगलसूत्र के काले मोती महिला की प्रतिरक्षा प्रणाली को भी मज़बूत करते हैं।

वैज्ञानिक मान्यता
वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार, मंगलसूत्र सोने से निर्मित होता है और सोना शरीर में बल व ओज बढ़ानेवाली धातु है, इसलिए मंगलसूत्र शारीरिक ऊर्जा का क्षय होने से रोकता है।

ग्यारहवां श्रृंगारः बाजूबंद
कड़े के सामान आकृति वाला यह आभूषण सोने या चांदी का होता है। यह बाहों में पूरी तरह कसा जाता है। इसलिए इसे बाजूबंद कहा जाता है। पहले सुहागिन स्त्रियों को हमेशा बाजूबंद पहने रहना अनिवार्य माना
जाता था और यह सांप की आकृति में होता था। ऐसी मान्यता है कि स्त्रियों को बाजूबंद पहनने से परिवार के धन की रक्षा होती और बुराई पर अच्छाई की जीत होती
है।

धार्मिक मान्यता
मान्यताओं के अनुसार, बाजूबंद महिलाओं के शरीर में ताक़त बनाए रखने व पूरे शरीर में उसका संचार करने में सहायक होता है।

वैज्ञानिक मान्यता
वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार, बाजूबंद बाजू पर सही मात्रा में दबाव डालकर रक्तसंचार बढ़ाने में सहायता करता है।

बारहवां श्रृंगार: कंगन और चूड़ियां
सोने का कंगन अठारहवीं सदी के प्रारंभिक वर्षों से ही सुहाग का प्रतीक माना जाता रहा है। हिंदू परिवारों में सदियों से यह परंपरा चली आ रही है कि सास अपनी बड़ी बहू को मुंह दिखाई रस्म में सुख और सौभाग्यवती बने रहने का आशीर्वाद के साथ वही कंगन देती थी, जो पहली बार ससुराल आने पर उसे उसकी सास ने उसे दिये थे। इस तरह खानदान की पुरानी धरोहर को सास द्वारा बहू को सौंपने की परंपरा का निर्वाह पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है। पंजाब में स्त्रियां कंगननुमा डिजाइन का एक विशेष पारंपरिक आभूषण पहनती है, जिसे लहसुन की पहुंची कहा जाता है। सोने से बनी इस पहुंची में लहसुन की कलियां और जौ के दानों जैसे आकृतियां बनी होती है। हिंदू धर्म में मगरमच्छ,हांथी, सांप, मोर जैसी जीवों का विशेष स्थान दिया गया है। उत्तर भारत में ज्यादातर स्त्रियां ऐसे पशुओं के मुखाकृति वाले खुले मुंह के कड़े पहनती हैं, जिनके दोनों सिरे एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। पारंपरिक रूप से ऐसा माना जात है कि सुहागिन स्त्रियों की कलाइयां चूड़ियों से भरी हानी चाहिए। यहां तक की सुहागन स्त्रियां चूड़ियां बदलते समय भी अपनी कलाई में साड़ी का पल्लू कलाई में लपेट लेती हैं ताकि उनकी कलाई एक पल को भी सूनी न रहे। ये चूड़ियां आमतौर पर कांच, लाख और हांथी दांत से बनी होती है। इन चूड़ियों के रंगों का भी विशेष महत्व है।नवविवाहिता के हाथों में सजी लाल रंग की चूड़ियां इस बात का प्रतीक होती हैं कि विवाह के बाद वह पूरी तरह खुश और संतुष्ट है। हरा रंग शादी के बाद उसके परिवार के समृद्धि का प्रतीक है। होली के अवसर पर पीली या बंसती रंग की चूड़ियां पहनी जाती है, तो सावन में तीज के मौके पर हरी और धानी चूड़ियां पहनने का रीवाज सदियों से चला आ रहा है। विभिन्न राज्यों में विवाह के मौके पर अलग-अलग रंगों की चूड़ियां पहनने की प्रथा है।

धार्मिक मान्यता
मान्यताओं के अनुसार, चूड़ियां पति-पत्नी के भाग्य और संपन्नता की प्रतीक हैं. यह भी मान्यता है कि महिलाओं को पति की लंबी उम्र व अच्छे स्वास्थ्य के लिए हमेशा चूड़ी पहनने की सलाह दी जाती है. चूड़ियों का सीधा संबंध चंद्रमा से भी माना जाता है।

वैज्ञानिक मान्यता
वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार, चूड़ियों से उत्पन्न होनेवाली ध्वनि महिलाओं की हड्डियों को मज़बूत करने में सहायक होती है. महिलाओं के रक्त के परिसंचरण में भी चूड़ियां सहायक होती हैं।

तेरहवां श्रृंगार: अंगूठी

शादी के पहले मंगनी या सगाई के रस्म में वर-वधू द्वारा एक-दूसरे को अंगूठी को सदियों से पति-पत्नी के आपसी प्यार और विश्वास का प्रतीक माना जाता रहा है। हमारे प्राचीन धर्म ग्रंथ रामायण में भी इस बात का उल्लेख मिलता है। सीता का हरण करके रावण ने जब सीता को अशोक वाटिका में कैद कर रखा था तब भगवान श्रीराम ने हनुमानजी के माध्यम से सीता जी को अपना संदेश भेजा था। तब स्मृति चिन्ह के रूप में उन्होंनें अपनी अंगूठी हनुमान जी को दी थी।

धार्मिक मान्यता
मान्यताओं के अनुसार, अंगूठी पति-पत्नी के प्रेम की प्रतीक होती है, इसे पहनने से पति-पत्नी के हृदय में एक-दूसरे के लिए सदैव प्रेम बना रहता है।

वैज्ञानिक मान्यता
वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार, अनामिका उंगली की नसें सीधे हृदय व दिमाग़ से जुड़ी होती हैं, इन पर प्रेशर पड़ने से दिल व दिमाग़ स्वस्थ रहता है।

चौदहवां श्रृंगार: कमरबंद
कमरबंद कमर में पहना जाने वाला आभूषण है, जिसे स्त्रियां विवाह के बाद पहनती हैं, इससे उनकी छरहरी काया और भी आकर्षक दिखाई पड़ती है। सोने या
चांदी से बने इस आभूषण के साथ बारीक घुंघरुओं वाली आकर्षक की रिंग लगी होती है, जिसमें नववधू चाबियों का गुच्छा अपनी कमर में लटकाकर रखती है। कमरबंद इस बात का प्रतीक है कि सुहागन अब अपने
घर की स्वामिनी है।

धार्मिक मान्यता
मान्यताओं के अनुसार, महिला के लिए कमरबंद बहुत आवश्यक है. चांदी का कमरबंद महिलाओं के लिए शुभ माना जाता है।

वैज्ञानिक मान्यता
वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार, चांदी का कमरबंद पहनने से महिलाओं को माहवारी तथा गर्भावस्था में होनेवाले सभी तरह के दर्द से राहत मिलती है. चांदी का कमरबंद पहनने से महिलाओं में मोटापा भी नहीं बढ़ता।

पंद्रहवाँ श्रृंगारः बिछुवा
पैरों के अंगूठे में रिंग की तरह पहने जाने वाले इस आभूषण को अरसी या अंगूठा कह जाता है। पारंपरिक रूप से पहने जाने वाले इस आभूषण में छोटा सा शीशा लगा होता है, पुराने जमाने में संयुक्त परिवारों में नववधू सबके सामने पति के सामने देखने में भी सरमाती थी। इसलिए वह नजरें झुकाकर चुपचाप आसपास खड़े पति की सूरत को इसी शीशे में निहारा करती थी पैरों के अंगूठे और छोटी अंगुली को छोड़कर बीच की तीन अंगुलियों में चांदी का विछुआ पहना जाता है। शादी में फेरों के वक्त लड़की जब सिलबट्टे पर पेर रखती है, तो उसकी भाभी उसके पैरों में बिछुआ पहनाती है। यह रस्म इस बात का प्रतीक है कि दुल्हन शादी के बाद आने वाली सभी समस्याओं का हिम्मत के साथ मुकाबला करेगी।

धार्मिक मान्यता
महिलाओं के लिए पैरों की उंगलियों में बिछिया पहनना शुभ व आवश्यक माना गया है. ऐसी मान्यता है कि बिछिया पहनने से महिलाओं का स्वास्थ्य अच्छा रहता है और घर में संपन्नता बनी रहती है।

वैज्ञानिक मान्यता
वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार, महिलाओं के पैरों की उंगलियों की नसें उनके गर्भाशय से जुड़ी होती हैं, बिछिया पहनने से उन्हें गर्भावस्था व गर्भाशय से जुड़ी समस्याओं से राहत मिलती है. बिछिया पहनने से महिलाओं का ब्लड प्रेशर भी नियंत्रित रहता है।

सोलहवां श्रृंगार: पायल
पैरों में पहने जाने वाले इस आभूषण की सुमधुर ध्वनि से घर के हर सदस्य को नववधू की आहट का संकेत मिलता है। पुराने जमाने में पायल की झंकार से घर के
बुजुर्ग पुरुष सदस्यों को मालूम हो जाता था कि बहू आ रही है और वे उसके रास्ते से हट जाते थे। पायल के संबंध में एक और रोचक बात यह है कि पहले छोटी उम्र में ही लड़िकियों की शादी होती थी। और कई बार जब नववधू को माता-पिता की याद आती थी तो वह चुपके से अपने मायके भाग जाती थी। इसलिए नववधू के पैरों में ढेर सारी घुंघरुओं वाली पाजेब पहनाई जाती थी ताकि जब वह घर से भागने लगे तो उसकी आहट से मालूम हो जाए कि वह कहां जा रही है पैरों में पहने जाने वाले आभूषण हमेशा सिर्फ चांदी से ही बने होते
हैं। हिंदू धर्म में सोना को पवित्र धातु का स्थान प्राप्त है, जिससे बने मुकुट देवी-देवता धारण करते हैं और ऐसी मान्यता है कि पैरों में सोना पहनने से धन की देवी-लक्ष्मी का अपमान होता हैं।

धार्मिक मान्यता
मान्यताओं के अनुसार, महिला के पैरों में पायल संपन्नता की प्रतीक होती है. घर की बहू को घर की लक्ष्मी माना गया है, इसी कारण घर में संपन्नता बनाए रखने के लिए महिला को पायल पहनाई जाती है।

वैज्ञानिक मान्यता
वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार, चांदी की पायल महिला को जोड़ों व हड्डियों के दर्द से राहत देती है. साथ ही पायल के घुंघरू से उत्पन्न होनेवाली ध्वनि से नकारात्मक ऊर्जा घर से दूर रहती है।

गुरुवार, 21 मई 2020

मैं हिन्दू क्यों हूँ..?

मैं हिन्दू इसलिए नहीं हूँ कि मैंने एक हिन्दू परिवार में जन्म लिया हैं। जैसा की हमारा राष्ट्र भारत एक लोकतान्त्रिक देश हैं। यहाँ सभी को अपना धर्म मानने का अधिकार हैं। कोई भी अपना धर्म परिवर्तन कर सकता हैं। इसके बावजूद मैं एक हिन्दू हूँ या हिन्दू धर्म के प्रति मेरा बहुत लगाव हैं... इसका कारण मैं आप लोगों के सामने बताना चाहूंगा...

१. हिन्दू धर्म दुनिया का सबसे प्राचीन धर्म हैं।

२. हिन्दू धर्म एक मात्र धर्म हैं जिसने वसुधैव कुटुम्बकम का नारा दिया और बताया की सारे लोग एक हैं, चाहे वे ईश्वर की पूजा जिस भी रूप में कर रहे हो

३. हिन्दू धर्म दुनिया का एक मात्र धर्म है जिसमे धर्मावलम्बी बनाने का प्रावधान नहीं हैं। सनातन धर्म का मानना है कि दुनिया में केवल दो तरह के लोग रहते हैं... आस्तिक और नास्तिक जो ईश्वर की सत्ता पर विश्वास करते हैं, चाहे वो उनकी जिस रूप में भी पूजा करते हों, वो हिन्दू हैं।

४. हिन्दू धर्म कभी भी नहीं सिखाता कि हमारे कौम को मानने वालों के आलावा सभी काफ़िर हैंअगर कोई हमारी कौम को कबूल ना करें, तो उसका गला काट दो

५. वेद दुनिया की सबसे प्राचीन पुस्तके हैं जो हिन्दू धर्म से सम्बंधित हैं, इससे पता चलता है की जब लोग जंगलों में रहते थे... तब भी हमारे यहाँ वेदों के मंत्र गूंजा करते थे।

६. हिन्दू धर्म एक मात्र धर्म है जो हर चीज़ में ईश्वर की उपस्थिति मानता हैं, इसलिए हम हर कंकड़ को शिव, नदिओं को माता और पहाड़ों को पिता के समान पूजते हैं।

७. हिन्दू धर्म कभी नहीं सिखाता की दूसरों के धर्मस्थान तोड़कर, अपना धर्मस्थान बनाने पर जन्नत नसीब होती है।

८. हिन्दू धर्म कभी नहीं सिखाता की अपने धर्म को छोड़कर दूसरे धर्मवालों से कर ( टैक्स ) लेना हमारा अधिकार है।

९. सारी दुनिया का शासन चाहे वो लोकतान्त्रिक हो, राजशाही हो या वामपंथी हो... वो हिन्दू धर्म के हिसाब से ही चलता है। जैसे जल के देवता- वरुण, धन के देवता-कुबेर, न्याय के देवता-धर्मराज उसी तरह हमारे यहाँ अलग-अलग मंत्रालय होते हैं।

इसलिए गर्व से कहो - हम हिन्दू हैं। 🙏⛳

शुक्रवार, 15 मई 2020

100 जानकारी जिसका ज्ञान सबको होना चाहिए...

1. योग, भोग और रोग ये तीन अवस्थाएं है।
2. *लकवा* - सोडियम की कमी के कारण होता है ।
3. *हाई वी पी में* -  स्नान व सोने से पूर्व एक गिलास जल का सेवन करें तथा स्नान करते समय थोड़ा सा नमक पानी मे डालकर स्नान करे ।
4. *लो बी पी* - सेंधा नमक डालकर पानी पीयें ।
5. *कूबड़ निकलना*- फास्फोरस की कमी ।
6. *कफ* - फास्फोरस की कमी से कफ बिगड़ता है , फास्फोरस की पूर्ति हेतु आर्सेनिक की उपस्थिति जरुरी है । गुड व शहद खाएं 
7. *दमा, अस्थमा* - सल्फर की कमी ।
8. *सिजेरियन आपरेशन* - आयरन , कैल्शियम की कमी ।
9. *सभी क्षारीय वस्तुएं दिन डूबने के बाद खायें* ।
10. *अम्लीय वस्तुएं व फल दिन डूबने से पहले खायें* ।
11. *जम्भाई*- शरीर में आक्सीजन की कमी ।
12. *जुकाम* - जो प्रातः काल जूस पीते हैं वो उस में काला नमक व अदरक डालकर पियें ।
13. *ताम्बे का पानी* - प्रातः खड़े होकर नंगे पाँव पानी ना पियें ।
14.  *किडनी* - भूलकर भी खड़े होकर गिलास का पानी ना पिये ।
15. *गिलास* एक रेखीय होता है तथा इसका सर्फेसटेन्स अधिक होता है । गिलास अंग्रेजो ( पुर्तगाल) की सभ्यता से आयी है अतः लोटे का पानी पियें,  लोटे का कम  सर्फेसटेन्स होता है ।
16. *अस्थमा , मधुमेह , कैंसर* से गहरे रंग की वनस्पतियाँ बचाती हैं ।
17. *वास्तु* के अनुसार जिस घर में जितना खुला स्थान होगा उस घर के लोगों का दिमाग व हृदय भी उतना ही खुला होगा ।
18. *परम्परायें* वहीँ विकसित होगीं जहाँ जलवायु के अनुसार व्यवस्थायें विकसित होगीं ।
19. *पथरी* - अर्जुन की छाल से पथरी की समस्यायें ना के बराबर है । 
20. *RO* का पानी कभी ना पियें यह गुणवत्ता को स्थिर नहीं रखता । कुएँ का पानी पियें । बारिस का पानी सबसे अच्छा , पानी की सफाई के लिए *सहिजन* की फली सबसे बेहतर हैं।
21. *सोकर उठते समय* हमेशा दायीं करवट से उठें या जिधर का *स्वर* चल रहा हो उधर करवट लेकर उठें ।
22. *पेट के बल सोने से* हर्निया, प्रोस्टेट, एपेंडिक्स की समस्या आती है । 
23.  *भोजन* के लिए पूर्व दिशा , *पढाई* के लिए उत्तर दिशा बेहतर है ।
24.  *HDL* बढ़ने से मोटापा कम होगा LDL व VLDL कम होगा ।
25. *गैस की समस्या* होने पर भोजन में अजवाइन मिलाना शुरू कर दें ।
26.  *चीनी* के अन्दर सल्फर होता जो कि पटाखों में प्रयोग होता है , यह शरीर में जाने के बाद बाहर नहीं निकलता है। चीनी खाने से *पित्त* बढ़ता है । 
27.  *शुक्रोज* हजम नहीं होता है *फ्रेक्टोज* हजम होता है और भगवान् की हर मीठी चीज में फ्रेक्टोज है ।
28. *वात* के असर में नींद कम आती है ।
29.  *कफ* के प्रभाव में व्यक्ति प्रेम अधिक करता है ।
30. *कफ* के असर में पढाई कम होती है ।
31. *पित्त* के असर में पढाई अधिक होती है ।
33.  *आँखों के रोग* - कैट्रेक्टस, मोतियाविन्द, ग्लूकोमा , आँखों का लाल होना आदि ज्यादातर रोग कफ के कारण होता है ।
34. *शाम को वात*-नाशक चीजें खानी चाहिए ।
35.  *प्रातः 4 बजे जाग जाना चाहिए* ।
36. *सोते समय* रक्त दवाव सामान्य या सामान्य से कम होता है ।
37. *व्यायाम* - *वात रोगियों* के लिए मालिश के बाद व्यायाम , *पित्त वालों* को व्यायाम के बाद मालिश करनी चाहिए । *कफ के लोगों* को स्नान के बाद मालिश करनी चाहिए ।
38. *भारत की जलवायु* वात प्रकृति की है , दौड़ की बजाय सूर्य नमस्कार करना चाहिए ।
39. *जो माताएं* घरेलू कार्य करती हैं उनके लिए व्यायाम जरुरी नहीं ।
40. *निद्रा* से *पित्त* शांत होता है , मालिश से *वायु* शांति होती है , उल्टी से *कफ* शांत होता है तथा *उपवास* ( लंघन ) से बुखार शांत होता है ।
41.  *भारी वस्तुयें* शरीर का रक्तदाब बढाती है , क्योंकि उनका गुरुत्व अधिक होता है ।
42. *दुनियां के महान* वैज्ञानिक का स्कूली शिक्षा का सफ़र अच्छा नहीं रहा, चाहे वह 8 वीं फेल न्यूटन हों या 9 वीं फेल आइस्टीन हों , 
43. *माँस खाने वालों* के शरीर से अम्ल-स्राव करने वाली ग्रंथियाँ प्रभावित होती हैं ।
44. *तेल हमेशा* गाढ़ा खाना चाहिएं सिर्फ लकडी वाली घाणी का , दूध हमेशा पतला पीना चाहिए ।
45. *छिलके वाली दाल-सब्जियों से कोलेस्ट्रोल हमेशा घटता है ।* 
46. *कोलेस्ट्रोल की बढ़ी* हुई स्थिति में इन्सुलिन खून में नहीं जा पाता है । ब्लड शुगर का सम्बन्ध ग्लूकोस के साथ नहीं अपितु कोलेस्ट्रोल के साथ है ।
47. *मिर्गी दौरे* में अमोनिया या चूने की गंध सूँघानी चाहिए । 
48. *सिरदर्द* में एक चुटकी नौसादर व अदरक का रस रोगी को सुंघायें ।
49. *भोजन के पहले* मीठा खाने से बाद में खट्टा खाने से शुगर नहीं होता है । 
50. *भोजन* के आधे घंटे पहले सलाद खाएं उसके बाद भोजन करें । 
51. *अवसाद* में आयरन , कैल्शियम , फास्फोरस की कमी हो जाती है । फास्फोरस गुड और अमरुद में अधिक है 
52.  *पीले केले* में आयरन कम और कैल्शियम अधिक होता है । हरे केले में कैल्शियम थोडा कम लेकिन फास्फोरस ज्यादा होता है तथा लाल केले में कैल्शियम कम आयरन ज्यादा होता है । हर हरी चीज में भरपूर फास्फोरस होती है, वही हरी चीज पकने के बाद पीली हो जाती है जिसमे कैल्शियम अधिक होता है ।
53.  *छोटे केले* में बड़े केले से ज्यादा कैल्शियम होता है ।
54. *रसौली* की गलाने वाली सारी दवाएँ चूने से बनती हैं ।
55.  हेपेटाइट्स A से E तक के लिए चूना बेहतर है ।
56. *एंटी टिटनेस* के लिए हाईपेरियम 200 की दो-दो बूंद 10-10 मिनट पर तीन बार दे ।
57. *ऐसी चोट* जिसमे खून जम गया हो उसके लिए नैट्रमसल्फ दो-दो बूंद 10-10 मिनट पर तीन बार दें । बच्चो को एक बूंद पानी में डालकर दें । 
58. *मोटे लोगों में कैल्शियम* की कमी होती है अतः त्रिफला दें । त्रिकूट ( सोंठ+कालीमिर्च+ मघा पीपली ) भी दे सकते हैं ।
59. *अस्थमा में नारियल दें ।* नारियल फल होते हुए भी क्षारीय है ।दालचीनी + गुड + नारियल दें ।
60. *चूना* बालों को मजबूत करता है तथा आँखों की रोशनी बढाता है । 
61.  *दूध* का सर्फेसटेंसेज कम होने से त्वचा का कचरा बाहर निकाल देता है ।
62.  *गाय की घी सबसे अधिक पित्तनाशक फिर कफ व वायुनाशक है ।* 
63.  *जिस भोजन* में सूर्य का प्रकाश व हवा का स्पर्श ना हो उसे नहीं खाना चाहिए 
64.  *गौ-मूत्र अर्क आँखों में ना डालें ।*
65.  *गाय के दूध* में घी मिलाकर देने से कफ की संभावना कम होती है लेकिन चीनी मिलाकर देने से कफ बढ़ता है ।
66.  *मासिक के दौरान* वायु बढ़ जाता है , 3-4 दिन स्त्रियों को उल्टा सोना चाहिए इससे  गर्भाशय फैलने का खतरा नहीं रहता है । दर्द की स्थति में गर्म पानी में देशी घी दो चम्मच डालकर पियें ।
67. *रात* में आलू खाने से वजन बढ़ता है ।
68. *भोजन के* बाद बज्रासन में बैठने से *वात* नियंत्रित होता है ।
69. *भोजन* के बाद कंघी करें कंघी करते समय आपके बालों में कंघी के दांत चुभने चाहिए । बाल जल्द सफ़ेद नहीं होगा ।
70. *अजवाईन* अपान वायु को बढ़ा देता है जिससे पेट की समस्यायें कम होती है 
71. *अगर पेट* में मल बंध गया है तो अदरक का रस या सोंठ का प्रयोग करें 
72. *कब्ज* होने की अवस्था में सुबह पानी पीकर कुछ देर एडियों के बल चलना चाहिए । 
73. *रास्ता चलने*, श्रम कार्य के बाद थकने पर या धातु गर्म होने पर दायीं करवट लेटना चाहिए । 
74. *जो दिन मे दायीं करवट लेता है तथा रात्रि में बायीं करवट लेता है उसे थकान व शारीरिक पीड़ा कम होती है ।* 
75.  *बिना कैल्शियम* की उपस्थिति के कोई भी विटामिन व पोषक तत्व पूर्ण कार्य नहीं करते है ।
76. *स्वस्थ्य व्यक्ति* सिर्फ 5 मिनट शौच में लगाता है ।
77. *भोजन* करते समय डकार आपके भोजन को पूर्ण और हाजमे को संतुष्टि का संकेत है ।
78. *सुबह के नाश्ते* में फल , *दोपहर को दही* व *रात्रि को दूध* का सेवन करना चाहिए । 
79. *रात्रि* को कभी भी अधिक प्रोटीन वाली वस्तुयें नहीं खानी चाहिए । जैसे - दाल , पनीर , राजमा , लोबिया आदि । 
80.  *शौच और भोजन* के समय मुंह बंद रखें , भोजन के समय टी वी ना देखें । 
81. *मासिक चक्र* के दौरान स्त्री को ठंडे पानी से स्नान , व आग से दूर रहना चाहिए । 
82. *जो बीमारी जितनी देर से आती है , वह उतनी देर से जाती भी है ।*
83. *जो बीमारी अंदर से आती है , उसका समाधान भी अंदर से ही होना चाहिए ।*
84. *एलोपैथी* ने एक ही चीज दी है , दर्द से राहत । आज एलोपैथी की दवाओं के कारण ही लोगों की किडनी , लीवर , आतें , हृदय ख़राब हो रहे हैं । एलोपैथी एक बिमारी खत्म करती है तो दस बिमारी देकर भी जाती है । 
85. *खाने* की वस्तु में कभी भी ऊपर से नमक नहीं डालना चाहिए , ब्लड-प्रेशर बढ़ता है । 
86 .  *रंगों द्वारा* चिकित्सा करने के लिए इंद्रधनुष को समझ लें , पहले जामुनी , फिर नीला ..... अंत में लाल रंग । 
87 . *छोटे* बच्चों को सबसे अधिक सोना चाहिए , क्योंकि उनमें वह कफ प्रवृति होती है , स्त्री को भी पुरुष से अधिक विश्राम करना चाहिए 
88. *जो सूर्य निकलने* के बाद उठते हैं , उन्हें पेट की भयंकर बीमारियां होती है , क्योंकि बड़ी आँत मल को चूसने लगती है । 
89.  *बिना शरीर की गंदगी* निकाले स्वास्थ्य शरीर की कल्पना निरर्थक है , मल-मूत्र से 5% , कार्बन डाई ऑक्साइड छोड़ने से 22 %, तथा पसीना निकलने लगभग 70 % शरीर से विजातीय तत्व निकलते हैं । 
90. *चिंता , क्रोध , ईर्ष्या करने से गलत हार्मोन्स का निर्माण होता है जिससे कब्ज , बबासीर , अजीर्ण , अपच , रक्तचाप , थायरायड की समस्या उतपन्न होती है ।* 
91.  *गर्मियों में बेल , गुलकंद , तरबूजा , खरबूजा व सर्दियों में सफ़ेद मूसली , सोंठ का प्रयोग करें ।*
92. *प्रसव* के बाद माँ का पीला दूध बच्चे की प्रतिरोधक क्षमता को 10 गुना बढ़ा देता है । बच्चो को टीके लगाने की आवश्यकता नहीं होती  है ।
93. *रात को सोते समय* सर्दियों में देशी मधु लगाकर सोयें त्वचा में निखार आएगा 
94. *दुनिया में कोई चीज व्यर्थ नहीं , हमें उपयोग करना आना चाहिए*।
95. *जो अपने दुखों* को दूर करके दूसरों के भी दुःखों को दूर करता है , वही मोक्ष का अधिकारी है । 
96. *सोने से* आधे घंटे पूर्व जल का सेवन करने से वायु नियंत्रित होती है , लकवा , हार्ट-अटैक का खतरा कम होता है । 
97. *स्नान से पूर्व और भोजन के बाद पेशाब जाने से रक्तचाप नियंत्रित होता है*। 
98 . *तेज धूप* में चलने के बाद , शारीरिक श्रम करने के बाद , शौच से आने के तुरंत बाद जल का सेवन निषिद्ध है 
99. *त्रिफला अमृत है* जिससे *वात, पित्त , कफ* तीनो शांत होते हैं । इसके अतिरिक्त भोजन के बाद पान व चूना ।  
100. इस विश्व की सबसे मँहगी *दवा। लार* है , जो प्रकृति ने तुम्हें अनमोल दी है ,इसे ना थूके ।

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रविवार, 10 मई 2020

आज की आधुनिक माँ...

कृपया पूरा लेख अवश्य पढ़े 
बात सच्ची है इसलिये कड़वी भी है । 
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माँ जो एक पवित्र भावना है, संवेदना है, कोमल
अहसास है।
तपती दोपहरी में मीठे पानी का झरना है, इक खुशबू है माँ जो कभी मिटती नहीं।
देह मिट भी जाये तो अपने बच्चों की देह में रूह बन कर सिमट जाती है।
उनके लब पर दुआ तो कभी मन में अहसास बन कर ढल जाती है।
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आज मैं उस माँ की बात नहीं कर रही जो बेसन की रोटी पर खट्टी चटनी जैसी लगती थी।
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आज उस माँ की बात भी नहीं जिसका बेटा परदेश में रोता था तो देश में उसका प्यार भीग जाया करता था।
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मैं मेक्सिम गोर्की की माँ की बात भी नहीं कर रही और ना जीजा बाई की जिसने एक बालक को शिवा जी बना दिया।
आज बात है, आज के दौर की, आज की नारी की, आज की माँ की, आधुनिक भारतीय नारी की।
वो अब खुद गीले में सोकर अपने बच्चे को सूखे में सुलाने की भूल नहीं करती, वो अब अपने बच्चे को खुद से दूर झूले में सुलाती है। 
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नींद में खलल नहीं पड़े इसलिए बच्चे के मुहँ में दूध की बोतल चिपका दी जाती है।
ये आधुनिक माताएं अपने शौक के लिए, पैसों के लिए अपनी कोख भी किराए पर देने में नहीं चूकती।
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अपने स्वार्थों के लिए ये कोख में ही अपनी बेटी का गला घोट डालने में ज़रा संकोच नहीं करती।
अपने अवसर, अपने करियर की खातिर ये बच्चों को "आया" के हवाले कर चल देती है। 
बच्चों से पीछा छुड़ाने के लिए उन्हें बहुत छोटी उमर में ही प्ले स्कूल में छोड़ देती है।
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गए वो दिन जब माँ दो तीन बर्ष की उमर तक के बच्चों को घर में ही पढ़ाया करती थी।
संस्कारों, जीवन मूल्यों के पाठ अब अधिकतर घरों में नहीं पढाये जाते।
बच्चों को अब रातों को कोई कहानियाँ नहीं सुनाई जाती और ना कोई लोरी।
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अपने काम अपने शौक और अपने फायदे को देखने वाली इन माँओं के पास अपने बच्चों के लिए कोई समय नहीं।
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ऐसा नहीं है की उन्हें अपने बच्चों की चिंता नहीं है, दिन में एक दो बार फोन करके वो "आया" से अपने बच्चों का हाल जरुर पूछ लेती हैं।
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बच्चे भी अब माँ से ज्यादा अपनी दूध की बोतल और आया को प्यार करते हैं।
थोड़े बड़े होकर वीडियों गेम और फिर नेट और मोबाईल उनके साथी बन जाते है।
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जितनी दूर माँ हो रही है बच्चों से, उतने ही दूर बच्चे भी हो रहे हैं माँ से।
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यही वजह है की जितने झूलाघर रोज खुल रहे हैं उनसे कहीं ज्यादा वृद्धाश्रम (ओल्ड एज होम) बनाये जा रहे हैं।
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आधुनिक जीवन शैली और पुरुषों की नक़ल करने के चक्कर में महिलाओं ने खुद को अपने स्त्रियोंचित गुणों से दूर कर लिया है। महिलाओं में पुरुषों की तरह शराब और सिगरेट पीने का चलन भी अब आम बात है।
चिंता ये है की जो युवतियां अपनी राते "पब" में शराब और सिगरेट के धुएं में बिताती हैं, क्या कल ये युवतियां एक अच्छी पत्नी या इक अच्छी माँ बन सकेगी.?
क्या फिर कोई मुनव्वर राना ये कह पायेगे कि “मैं जब तक घर नहीं जाता मेरी माँ सजदे में रहती है"
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ये कैसी महिलाए हैं? ये कैसी भविष्य की माँएँ हैं?
जिनके दिल में किसी के लिए प्रेम नहीं, वात्सल्य नहीं, ये सिर्फ खुद से प्रेम करती हैं। 
खुद के सुखों की खातिर अपना घर परिवार बच्चे सब कुछ इक झटके में तोड़ देती हैं, छोड़ देती है।
{रोज बिखरते परिवार इसका उदाहरण है}
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अक्सर मैंने देखा है, शादी पार्टी या कोई होटल या रेस्टोरेंट में आजकल महिलायें कभी भी अपने बच्चों को गोद में नहीं उठाती।
इनके पति बच्चों को देखते हैं, या फिर आया को साथ रखती हैं।
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बच्चे रोये या बिलखते रहे इन्हें परवाह नहीं, इनकी साड़ी या मेकअप खराब नहीं होना चाहिए।
अपने बच्चों को अपनी गोद में रखने में इन्हें अब शर्म आती है।
आजकल पिताओं को मैंने बच्चों की ज्यादा परवाह करते देखा है।
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यदि वास्तव में माँ की कहानियों और लोरियों में ताकत होती , पकड़ होती तो युवा पीढ़ी इस कदर भटकती नहीं।
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कहीं न कहीं कोई कमी जरुर है जिसे बच्चे बाहर जाकर पूरी कर रहे है, दोस्तों में, नशे में वो सुकून तलाश रहे है जो उन्हें घर में ही मिलना चाहिए था।
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माँओं को सोचना होगा की क्यों बेटे-बेटियाँ उनसे दूर हो रहे हैं?
क्या बेटे के दुःख से उनका आँचल अब भी भीगता है या उन्होंने अपने बच्चों की उगंली छोड़ दी है?
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बेटे के परदेश में रोने पर भी उसका प्यार क्यों
भीगता?
यदि माँ की पकड़ ढीली हो गयी तो क्या कोई बेटा परदेश में ये बात महसूस कर सकेगा:-
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“मैं रोया परदेश में, भीगा माँ का प्यार,
दुःख ने दुःख से बात की, बिन चिठ्ठी बिन तार।।।।
।।।।
उन माताओं को आज के दिन की सुभकामनाये जो आधुनिक माँ के गुणों से दूर है ।। 🙏🙏

✍️ https://www.facebook.com/akansha.aggarwal.73700

गुरुवार, 7 मई 2020

महात्मा #बुद्ध जन्म से #क्षत्रिय और #कर्म से ब्राह्मण थे... फिर #दलितों से उनका क्या सम्बन्ध..?

इस लेख का उद्धेश्य किसी वर्ग विशेष की भावनायें आहत करना नहीं बल्कि भगवान बुद्ध के नाम से जातिवाद की गन्दी राजनीति करने वालों की वास्तविकता से आम जन को अवगत कराना हैं...
प्राचीन भारत में कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था थी, जिसका वर्तमान जन्म आधारित जाति व्यवस्था से कोई सम्बन्ध नहीं और भगवान बुद्ध ने अपने व्यवहारिक जीवन में वैदिक वर्ण व्यवस्था का ही पालन किया, किसी अन्य व्यवस्था का नहीं...

बुद्ध का जन्म ईसा से ५६३ वर्ष पूर्व लुम्बिनी (वर्तमान नेपाल) के शाक्य क्षत्रिय राजपरिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम राजा शुद्धोधन और माता का नाम महामाया था। इनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था और सोलह वर्ष की अवस्था में इनका विवाह क्षत्रिय राजपरिवार की राजकुमारी यशोधरा से हुआ था। (सम्पूर्ण जीवनी के लिए भगवान बुद्ध का जीवन चरित्र पढ़ें...)  

बुद्ध के नाम से दुकान चलाने वाले छद्म बौद्ध स्वयं को मूल निवासी बताते हैं और आर्यों को विदेशी... ये बुद्धिहिन् आर्यों को विदेशी बताने से पहले ये भूल जाते हैं कि भगवान बुद्ध भी एक आर्य थेे, दलित नहीं...

भगवान बुद्ध स्वयं को आर्य कहते थे, दलित नहीं... भगवान बुद्ध को आर्य शब्द से अत्यधिक प्रेम था। उनके चार आर्य सत्य, आर्य अष्टांगिक मार्ग और आर्य श्रावक तो बहुत ही प्रसिद्ध हैं।

आर्यों की व्याख्या करते हुए भगवान बुद्ध कहते हैं कि –
न तेन अरियो होति येन पाणानि हिंसति...
अहिंसा सब्ब पाणानि अरियोति पवुच्चति ||  
(धम्मपद धम्मठवग्गो २७०:५ )
अर्थात प्राणियों की हिंसा करने से कोई आर्य नहीं कहलाता, समस्त प्राणियों की अहिंसा से ही मनुष्य आर्य कहलाता हैं।

भगवान बुद्ध ने सन्यास से पूर्व सदैव क्षात्र धर्म का पालन किया तथा सन्यास लेने के पश्चात् अपने कर्म एवं योग्यतानुसार ब्राह्मण वर्ण को धारण किया। भगवान बुद्ध के सम्पूर्ण जीवन में ऐसा कोई प्रसंग नहीं मिलता, जिससे यह सिद्ध हो कि उन्होंने दलितवाद को धारण किया और ब्राह्मणवाद को गालियाँ दी... जबकि इसके विपरीत ऐसे कई प्रमाण हैं जिससे यह सिद्ध होता है कि वह सन्यास के बाद स्वयं को ब्राह्मण कहते थे, जिसमें से एक प्रसंग मैं नीचे प्रस्तुत कर रहा हूँ - 
सुंदरिक भारद्वाज सुत्त में कथा हैं कि सुंदरिक भारद्वाज जब यज्ञ समाप्त कर चुका तो वह किसी श्रेष्ठ ब्राह्मण को यज्ञ शेष देना चाहता था। उसने सन्यासी गौतम बुद्ध को देखा और जब उसने उनकी जाति पूछी तो बुद्ध ने कहा जाति मत पूछ मैं ब्राह्मण हूँ और वे उपदेश करते हुए बोले – 
“यदंतगु वेदगु यन्न काले, 
यस्साहुतिल ले तस्स इज्झेति ब्रूमि”  
( सुत्तनिपात ४५८ )
 अर्थात "वेद को जानने वाला जिसकी आहुति को प्राप्त करें, उसका यज्ञ सफल होता हैं" ऐसा मैं कहता हूँ। 
तब सुंदरिक भारद्वाज ने कहा -
“अद्धा हि तस्स हुतं इज्झे यं तादिसं वेद्गुम अद्द्साम” 
( सुत्तनिपात ४५९ ) अर्थात सचमुच मेरा यज्ञ सफल हो गया, जिसे आप जैसे वेदज्ञ ब्राह्मण के दर्शन हो गये।

भगवान बुद्ध जन्म आधारित जाति व्यवस्था के विरुद्ध थे, वे कर्म आधारित वैदिक वर्ण व्यवस्था को मानते थे। इस सम्बन्ध में उन्होंने वसल सुत्त (वृषल सूत्र) में कहा है –
न जच्चा वसलो होति न जच्चा होति ब्राह्मणो
कम्मना वसलो होति कम्मना होति ब्राह्मणो ||
अर्थात जन्म से कोई चाण्डाल (शूद्र) नहीं होता और जन्म से कोई ब्राह्मण भी नहीं होता। कर्म से ही चाण्डाल और कर्म से ही ब्राह्मण होता हैं।
भगवान बुद्ध ने ब्राह्मण के सन्दर्भ में जो व्याख्या की हैं, वह वैदिक शास्त्रों के अनुसार ही की हैं। उससे भिन्न नहीं... भगवान बुद्ध ब्राह्मण किसे मानते थे, इसका वर्णन धम्मपद के ब्राह्मण वग्ग में इस प्रकार है – पाली भाषा में...
न जटाहि न गोत्तेहि न जच्चा होति ब्राह्मणो | 
यम्ही सच्चं च धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो ||

श्लोक– न जटाभिर्न गोत्रेर्न जात्या भवति ब्राह्मणः 
यस्मिन सत्यं च धर्मश्च स शुचिः स च ब्राह्मणः || 

अर्थ - न जटा से, न गोत्र से, न जन्म से ब्राह्मण होता है जिसमें सत्य और धर्म है, वही पवित्र है और वही ब्राह्मण है।

पाली भाषा में – अकक्कसं विन्जापनिम गिरं सच्चं उदीरये | काय नाभिसजे किंच तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ||
अर्थ – जो इस प्रकार की अकर्कश, आदरयुक्त तथा सच्ची वाणी को बोले कि जिससे कुछ भी पीड़ा न हो उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।

पाली भाषा में – यस्सालया न विज्जन्ति अन्नाय अकथकथी | अमतोगधं अनुप्पत्तं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ||
अर्थ – जिसको आलस्य नहीं है, जो भली प्रकार जानकर अकथ पद का कहने वाला है, जिसने अमृत (परमेश्वर) को प्राप्त कर लिया है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।

भगवान बुद्ध के उपदेशों का अध्ययन करने से यह ज्ञात होता है कि उन्होंने अपने जीवन में कभी भी दलितपन को धारण नहीं किया और न ही किसी को दलित बनने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने ब्राह्मणत्व को धारण किया तथा अन्यों को भी ब्राह्मण बनने के लिए प्रेरित किया। अतः यदि आप भगवान बुद्ध का अनुयायी बनना चाहते हैं तो आपको दलितपन त्याग कर, ब्राह्मणत्व को धारण करना होगा तथा स्वार्थी राजनीतिज्ञों द्वारा फैलाये गये जातिवाद के जाल से निकलकर, भगवान बुद्ध की तरह वैदिक वर्ण व्यवस्था को अपनाना होगा। भगवान बुद्ध के उपदेश किसी जाति विशेष के लिए नहीं है बल्कि उनके उपदेश सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण के लिए हैं।🙏🏻⛳

सोमवार, 16 मार्च 2020

"सप्ताह" - हिन्दू ज्योतिष की विश्व को देन...

ज्योतिष में ग्रहों का कक्षाक्रम दो प्रकार से निर्धारित किया गया, एक सूर्य को केंद्र मानकर और दूसरा पृथ्वी को सापेक्ष केंद्र मानकर। पृथ्वी के सापेक्ष सिद्धांत के अंतर्गत सुमेरु पर्वत को पृथ्वी का केंद्र माना गया। पृथ्वी को सापेक्षिक केंद्र मानकर समीपवर्ती ग्रहों के कक्षाक्रम को निर्धारित किया गया था। जिसमें शनि - गुरु - मंगल - सूर्य - शुक्र - बुध - चन्द्र और पृथ्वी यह क्रम था। ऐसा इसलिए क्योंकि पृथ्वी विषयक अध्ययन में रिलेटिव स्टडी करनी होगी, उसे स्थिर मानकर। जैसा फिजिक्स में रिलेटिव वेलोसिटी, आदि होती है। फलित ज्योतिष में इसी आधार पर पृथ्वी पर ग्रहपिण्डो के प्रभाव का अध्ययन होता है। रिलेटिव और रियल, यह दोनों क्रम भारतीय ऋषियों को ज्ञात थे। ठीक से देखें तो रिलेटिव क्रम में भी सूर्य ही ग्रहों के मध्य में आता है। इसी रिलेटिव क्रम से वारों का क्रम बना है। सबसे प्रथम रविवार प्राच्य आचार्यों ने माना, क्योंकि रिलेटिव होने के बावजूद वे सूर्य के केन्द्रत्व से परिचित थे। इसीलिए सूर्य को आत्मा ग्रह कहा, "सूर्य आत्मा जगतस्तथुषश्च"।  

वारों का प्रचलन सनातन धर्म में हज़ारों वर्ष पुराना हैं, जब अहर्गण साधन का प्रचलन हो चुका था। यूरोप के इतिहासकार झूठ फैलाते हैं कि बेबीलोनिया से वार ज्ञान का प्रचार हुआ, पर बेबिलोन के उन ग्रँथों का नाम कहीं नहीं बताते। यही धूर्तता ये पग-पग पर करते हैं। मूर्तिपूजक पेगन से ईसाई बनने के बाद कॉन्सटेंटाइन ने 423 ईसवी में घोषणा पत्र द्वारा रविवार को अंतिम दिन बना दिया यह कहकर की ईसाइयों के भगवान ने उस दिन विश्राम किया। यह सिद्ध करता है कि इससे पूर्व रविवार अंतिम दिन नहीं था। हिन्दू सिद्धांत रविवार को प्रथम दिन मानता है और चर्च अंतिम। यह वार की उत्पत्ति तो अपने यहां से बताते हैं पर वारक्रम का आधार नहीं बताते। वह आधार केवल हिन्दू शास्त्र देते हैं, यही वार व वारक्रम की उत्पत्ति भारत से सिद्ध करता है। शास्त्र में वार और दिन पर्यायवाची शब्द हैं। सूर्य को आत्मा ग्रह वेद में कहा है, क्योंकि उसी में स्वशक्ति उत्पादन क्षमता है, इसलिए वह आत्मा है, उसी से सृष्टि का, और उसी की किरण से दिन का आरम्भ होता है। सूर्यसिद्धांत का क्रम है शनि -> गुरु -> मंगल -> सूर्य -> शुक्र -> बुध -> चन्द्र -> (पृथ्वी)

पृथ्वी यहां केंद्र और उससे ऊपर ऊपर एक एक रिलेटिव ग्रह। उसके मध्य से वारक्रम की उत्पत्ति होती है क्योंकि सूर्य आत्मा ग्रह है। यानी प्रथम रविवार होगा, फिर सूर्यसिद्धांत में वर्णित विधि से सूर्य से चौथे चन्द्र से सोमवार, चन्द्र से चौथे मंगल से मंगलवार, मंगल से चौथा बुध, बुध से चौथा गुरु, गुरु से चौथा शुक्र, शुक्र से चौथा शनि। यह वारक्रम बना। 

क्या पश्चिम विज्ञान वार के क्रम यानी पहले रविवार फिर सोमवार फिर मंगल फिर बुध गुरु शुक्र शनि इसका आधार बता सकता है? शुक्रवार से पहले शनिवार क्यों नहीं यह बता सकता है? नहीं, यह केवल सूर्यसिद्धांत बताता है। इससे भी गहरे में हर वार में प्रत्येक वार की आवृत्ति चलती है जिसे होरा कहते हैं, और जिस ग्रह की होरा से दिनारम्भ होता है, उसी ग्रह पर उस वार का नाम पड़ता है।

मंदामरेज्य भूपुत्र सूर्य शुक्रेन्दुजेन्दवः।
परिभमन्त्यघोsघस्तात्सिद्धविघाधरा धनाः।
- सूर्यसिद्धांत, अध्याय 12, श्लोक 13 

सूर्योदय के प्रथम घण्टे में होरा चक्र में जिस ग्रह की होरा रहती है, उसी ग्रह के नाम पर उस वार का नामकरण हुआ है। प्रथम अपने प्रकाश से समस्त सृष्टि को प्रकाशित करते हुए भगवान भास्कर (सूर्य) का उदय हुआ। सृष्टि की शुरुवात ही सूर्य से हुई, इसीलिए प्रथम सूर्यवार यानी रविवार हुआ। इसके बाद ऊपर ग्रहों का जो पृथ्वी के सापेक्षिक क्रम लिखा था उसी क्रम के अनुसार हर घंटे होरा बदलती है और अगले दिन पहली होरा उसी वार के ग्रह की होती है। इस सूक्ष्म स्तर तक पश्चिमी विज्ञान नहीं जा सकता।

अनेक प्राचीन भारतीय शास्त्र में वारों का वर्णन है। महाभारत से पूर्व के ग्रन्थ अथर्व ज्योतिष में वारों का वर्णन है, उससे भी प्राचीन आर्चज्योतिष में अनेक बार वार वर्णन आया है। अथर्व ज्योतिष, श्लोक 93 स्पष्ट रूप से वारक्रम बता रहा है।

आदित्य: सोमो भौमश्च तथा बुध बृहस्पति:।
भार्गव: शनैश्चरश्चैव एते सप्त दिनाधिपा:।।

दूसरे सूर्यसिद्धांत में सप्ताह व होरा का पूर्ण विवरण आया है। प्रत्येक वार के लिए उचित कर्मों, प्रत्येक वार के दान, आदि सब सुव्यवस्थित रूप से शास्त्र पुराणों में मिलता है। शिवपुराण, विद्येश्वर सहिंता, अध्याय 14 में भगवान शिव द्वारा वारों की उत्पत्ति और उनमें देवताओं की पूजा और फल का वर्णन है। गरुडपुराण में भी वारों का वर्णन प्राप्त होता है। 

नृपाभिषेकोऽग्निकार्य्यं सूर्य्यवारे प्रशस्यते । 
सोमे तु लेपयानञ्च कुर्य्याच्चैव गृहादिकम्॥
सैनापत्यं शौर्य्ययुद्धं शस्त्राभ्यासः कुजे तथा। 
सिद्धिकार्य्यञ्च मन्त्रश्च यात्रा चैव बुधे स्मृता॥ 
पठनं देवपूजा च वस्त्राद्याभरणं गुरौ । 
कन्यादानं गजारोहः शुक्रे स्यात् समयः स्त्रियाः ।
स्थाप्यं गृहप्रवेशश्च गजबन्धः शनौ शुभः॥
(गरुड़पुराण, 62 अध्यायः) 

अर्थात् रविवार को राज्याभिषेक व अग्निकार्य, सोमवार को लेप आदि, मंगलवार को सेना, शौर्य युद्धकार्य, बुधवार को मंत्रसिद्धि, यात्रा आदि, गुरुवार को पढ़ाई, देवपूजा आदि, शुक्रवार को कन्यादान आदि, शनिवार को गृहप्रवेश आदि शुभ है। 

श्री शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने वेदांगकाल 1400 ईपू, मैक्समूलर ने 300 ईपू, वेबर ने 500 ईसवी, कोलब्रुक ने 1108 ईपू और मार्टिन हौ ने 1200 ईपू माना है। पर मैं इनमें से किसी को नहीं मानता क्योंकि यह इनकी सीमित सोच व संकुचित शोध पर आधारित कल्पना मात्र है। ये जब आपस में ही एक दूसरे से सहमत नहीं होते तो हम इन अंग्रेजों से क्यों सहमत होंगे। वेदांगकाल सरस्वती कालीन है। जब सरस्वती नदी ही ईसापूर्व 1950 में सूख चुकी थी तो वेदांगकाल ईपू 1950 से तो निश्चित रूप से प्राचीन ही हुआ। गर्ग सहिंता और पंचसिद्धांतिका के प्रमाण से वेदांगज्योतिष 28000 वर्ष पुराना है। अथर्व ज्योतिष भी महाभारत काल अर्थात ईसापूर्व 3102 वर्ष से प्राचीन है।

जिन पश्चिमीयों का स्वयं का इतिहास भ्रमित है वे दूसरों को भी भ्रमित करते हैं। इसपर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर व अखिल भारतीय विद्वत परिषद के अध्यक्ष श्री केश्वर उपाध्याय जी ने अपनी पुस्तक "ज्योतिष विज्ञान" में सप्रमाण विशद विवेचन किया है, जिसमें से उपर्युक्त जानकारी ली गई है।